(समाज वीकली)
भारतीय इतिहास के रिकॉर्ड को देखने से ज्ञात होता है कि आदिवासी गरीब किसानों और श्रमिकों के द्वारा जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए समस्त भारत के आदिवासी क्षेत्रों में अनेक आंदोलन चलाए गए. परंतु इन आंदोलनों में सर्वाधिक चर्चित आदिवासी किसानों व श्रमिकों का हिंसात्मक सशस्त्र नक्सलवादी आंदोलन है. यह आंदोलन पश्चिम बंगाल के नक्सलबाडी क्षेत्र (दार्जिलिंग क्षेत्र) के एक छोटे से प्रसादु ज्योत (प्रसादुजोत) गांव से मई 1967 शुरू हुआ और आज तक भी जारी है.
इस आंदोलन का मुख्य कारण आदिवासी किसानों की जमीनों पर जमींदारों और साहूकारों का अवैध कब्जा है. एक युवा किसान के पास न्यायपालिका का आदेश था कि वह अवैध रूप से जमींदार द्वारा कब्जा की गई अपनी जमीन को जोत सकता है. परंतु जमीदार के गुंडों ने 2 मार्च 1967 को युवा किसान की बेरहमी से पिटाई की गई. परिणाम स्वरूप पूरे क्षेत्र में जमीदारों के विरुद्ध रोष, असंतोष तथा आक्रोश चरम सीमा पर पहुंच गया. 3 मार्च 1967 को 150 आदिवासी किसानों ने धनुष – बाणों और भालों से लैस होकर आंदोलन का बिगुल बजा दिया है. 3 मार्च 1967 से 18 मार्च 1967 तक 15 दिन के अंतराल में किसानों और जमींदारों के मध्य अनेक बार हिंसक झड़पें हुई. पश्चिमी बंगाल की संयुक्त मोर्चा की सरकार ने आंदोलन का दमन करने के लिए पुलिस तथा अर्द्धसैनिक बलों का प्रयोग किया.
24 मई 1967 को प्रसादू ज्योति(प्रसादुजोत) गांव के किसानों ने जमींदारों तथा सरकार के विरुद्ध धरना प्रदर्शन किया.किसानों के धरने को तोड़ने के लिए पुलिस गांव में घुस गई तथा पुलिस और किसानों के बीच झड़प में एक किसान के तीर के लगने से झारू गांव के पुलिस इंस्पेक्टर की मृत्यु हो गई.
25 मई 1967 को महिलाओं ने गांव के स्कूल के पास आंदोलन प्रारंभ कर दिया और उनका नारा था “लैंड टू टीलर्स”( जोतने वालों की भूमि). महिलाओं के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस के द्वारा इंस्पेक्टर की हत्या का बदला लेने व किसानों सबक को सिखाने हेतु की गयी. फायरिंग में मरने वालों में 8 महिलाएं, एक पुरूष व दो बच्चे हैं. अतः 25 मई 1967 को पुलिस की दमनकारी नीति के परिणाम स्वरुप नक्सलवादी आंदोलन का स्वरूप अत्याधिक उग्र और हिंसात्मक हो गया और धीरे -धीरे समस्त भारत में फैलता चला गया. पुलिस की पूर्व निर्धारित गलत कार्रवाई दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुई जिसका खमियाजा आज तक भुगत रहे हैं.
महिलाएं और युवतियां क्यों शामिल होती हैं?
यह एक यक्ष प्रश्न है. नक्सलवादी प्रभावित ग्रामीण क्षेत्रों में व्यावसायिक परियोजनाओं के कारण आदिवासी जंगल, जल और जमीन के अधिकार से वंचित होना, विस्थापित लोगों का समुचित पुनर्विस्थापन न होना, गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी इत्यादि समस्याओं का समाधान न होना, स्वास्थ्य, शिक्षा व अन्य सुविधाओं का अभाव, महिलाएं और युवतियां जब जंगल अथवा खेतों में कार्य हेतू जाती हैं तो उनको सुरक्षाबलों व स्थानीय पुलिस के अत्याचारों व शारीरिक शोषण का भय, परिवार, के पुरुषों को नक्सलवादी घोषित करके अथवा मुठभेड़ दिखाकर अथवा पुलिस कस्टडी में थर्ड डिग्री और मानवीय सजा देना अथवा जान से मार देना, नक्सलवादियों की द्वारा सुरक्षा व प्रलोभन इत्यादि मुख्य कारण हैं.
महिला नक्सलवादियों ने सामरिक मोर्चे पर विद्रोही हमलों का सामूहिक सामना करती है और सामूहिक सुरक्षा भी करती हैं. महिलाओं की भागीदारी कई क्षेत्रों में लगभग पुरुषों के समान है. अनेक महिलाओं को पुलिस के संगठित पुलिस के शोषण अथवा राज्य के दमन के विरुद्ध हथियार उठाने के लिए भी मजबूर किया जाता है. प्रतिभा सिंह के अनुसार ‘’नक्सलबाड़ी आंदोलन के शुरुआती दौर में कई महिलाएं, खासकर मध्यम वर्ग की महिलाएं अपने पुरुष समकक्षों (भाइयों, पतियों, दोस्तों और रिश्तेदारों) के प्रभाव में आकर आंदोलन में शामिल हुईं. यह आंदोलन कई महिलाओं को “रोज़मर्रा” जीवन से “वीर” जीवन में आत्म-उत्कृष्टता के लिए आशा की एक नई किरण लाया’.‘ हालाँकि, नक्सलबाड़ी आंदोलन के चरम पर भी, महिलाओं को केवल पुरुषों की “सहायता” करने या सामान्य और कूरियर कार्य करने के लिए भर्ती किया गया था। “कम महिलाएं स्थानीय समुदायों में थीं और कोई भी नेतृत्व के वरिष्ठ पदों पर नहीं थी”
जब गरीब व्यक्ति रोजी, रोजगार तथा सुविधाओं की मांग करते हैं अथवा नौकरी की मांग करते हैं तो वर्तमान प्रजातांत्रिक व्यवस्था में भी पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों का दृष्टिकोण ‘उपनिवेशिक’ एवं ‘अर्ध सामंती’ होने के कारण पुलिस व प्रशासन का मानना है कि नौकरी प्रदान करने से इस समस्या का समाधान संभव नहीं है. यही दृष्टिकोण नक्सलवादी हिंसा को अधिक बढ़ावा देता है.
मल्लरिका सिन्हा रॉय के अनुसार नक्सलवादी आंदोलन में आदिवासी गरीब किसान महिलाओं की भूमिका केवल पृष्ठभूमि और छवि की नहीं रही है. अपितु उन्होंने इस आंदोलन में सक्रिय भाग लिया है .नक्सलवादी महिला दस्तों के द्वारा हिंसक कृत्यों में भी भाग रही हैं. महिलाओं की भागीदारी में गोरिल्ला युद्ध की रणनीति व शैली का व्यावहारिक ज्ञान , क्रांतिकारी साथियों को अपने घरों में आश्रय देना,उनको भोजन और आराम देना, घर के बाहर सुरक्षा का पहरा देना, गांव दर –गांव जाकर महिलाओं और पुरुषों को नक्सलवादी आंदोलन का पैगाम देना, संगठित करना, आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित करना, हथियारों की सप्लाई करना, गोरिल्ला युद्ध की शैली समझाना, ट्रेनिंग देना और रणनीति की व्याख्या करना, पुलिस व अर्धसैनिक बलों के साथ मुकाबला करते हुए सुरक्षा करना, नक्सलवादी युवकों के साथ जंगलों में रहकर कैंपों में ट्रेनिंग लेना व अभ्यास करना और पुलिस अथवा अर्धसैनिक बलों के विरूध पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सुरक्षा करना इत्यादि मुख्य कार्य हैं. पुलिस अथवा अर्धसैनिक बलों के द्वारा गिरफ्तार किए जाने के पश्चात पुलिस कस्टडी में नक्सलवादी महिलाओं के साथ अभूतपूर्व टॉर्चर व अमानवीय व्यवहार भी किया जाता है . नक्सलवादी महिलाओं की एनकाउंटर की असत्य और सत्य दोनों प्रकार की घटनाएं समाचार पत्रों की सुर्खियां भी होती हैं.
इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका का कम आंकलन करके अथवा छाया के रूप में प्रदर्शित करने की चेष्टा की गई. महिला नक्सलवादियों ने इस दृष्टिकोण की भरपूर आलोचना की है क्योंकि नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत 25 मई 1967 प्रसादु जोतगांव से हुई थी.इस दिन इस गांव में 8 महिलाओं सहित एक पुरुष और दो बच्चे मारे गए थे
पुलिस फायरिंग के दौरान मारे गए लोगों के नाम पर एक स्मारक स्तंभ बनाया गया है. पुलिस फायरिंग में मरने वाली महिलाओं में प्रथम महिला धनेश्वरी देवी थी. धनेश्वरी देवी के अतिरिक्त अन्य महिलाओं –सिमस्वरी मुल्लिक नयनेश्वरी मलिक, सुरूबाला बर्मन, सोनामती सिंह, फूलमती देवी, संसारी सैबानी, गौदराऊ सैबानी के के नाम स्मारक स्तंभ पर लिखे हुए हैं. स्तंभ पर खरसिंह मलिक और “दो बच्चों’ के नाम भी अंकित हैं. (रबी बनर्जी के अनुसार 1960 के दशक में नक्सलवादी आंदोलन के एकमात्र जीवित महिला नक्सलवादी शांति मुंडा ने तीर कमान से अनेक पुलिसकर्मियों की हत्या की थी .इस क्षेत्र के नक्सलवादियों का यह मानना है कि कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा क्षेत्र के उत्थान के लिए कोई विशेष काम नहीं किया. अभी भी वहां झोपड़िया है. शांति मुंडा नक्सलवादी महिला का मानना है कि कांग्रेस पार्टी एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का बंगाल में गठजोड़ गलत है क्योंकि वह आज भी कांग्रेस पार्टी को ‘वर्ग शत्रु’ मानती हैं.
इस प्रकार महिलाएंअग्रिम पंक्ति में थी. लेकिन कालांतर में महिलाओं को तीन श्रेणियों में विभाजित कर दिया गया. प्रथम, ग्रामीण महिलाएं अथवा सामान्य महिलाएं, द्वितीय, मध्यवर्गीय शहरी महिलाएं और तृतीय, नेतृत्व करने वाले पुरुषों की पत्नियां. नगरीय महिलाएं ग्रामीण महिलाओं की अपेक्षा शिक्षित थी. इसलिए उनको सामान्य अथवा ग्रामीण महिलाओं की ‘रक्षक श्रेणी’ में रखा गया. जबकि ग्रामीण नक्सलवादी महिलाओं के धरातल पर कार्रवाई तथा संघर्ष के संबंध में शहरी मध्यवर्गीय शिक्षित महिलाओं के व्यावहारिक ज्ञान मेंअंतर है. यदि हम अधिकारिक ऐतिहासिक रिकॉर्ड की छानबीन करें तो ज्ञात होगा कि प्रारंभ में महिलाओं को अग्रिम पंक्ति में होने के बावजूद भी कालांतर में हाशिए पर
डॉ. रामजीलाल
पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा)
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