डॉ.भीमराव अंबेडकर–अतुलनीय राष्ट्र निर्माता: पुनर्मूल्यांकन
डॉ. रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा- भारत)
मोब.नं 816 88 10760 – e.mail id. [email protected]
(समाज वीकली)
वर्तमान समय में जन साधारण से लेकर राजनेताओं तक राष्ट्र निर्माण, देश निर्माण, राज्य निर्माण, राजनीतिक एकीकरण, इत्यादि का एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग किया जाता है. वास्तव में राष्ट्र निर्माण वह प्रक्रिया है जिसके आधार पर एक देश में रहने वाले लोगों के मध्य विभिन्नताओं के बावजूद भी सद्भावना के आधार पर एकीकरण, तालमेल, सामाजिक व आर्थिक स्थिरता के साथ-साथ विकास एवं एक राज्य में रहने वाले लोगों की राष्ट्रीय पहचान बनाई जाती है. राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में लघु संकीर्णताओं व फादारियों- जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, जन्म स्थान इत्यादि का परित्याग करके राष्ट्रीय पहचान को सुदृढ़ किया जाता है.केवल यही नहीं अपितु लोकतांत्रिक व्यवस्था में देश में समानता ,स्वतंत्रता, बंधुता, सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक न्याय व व्यक्ति की गरिमा के सिद्धांतों के आधार पर चलते हुए राष्ट्र को विकसित किया जाता है.राष्ट्र निर्माण के लिए एक राष्ट्र में रहने वाली जनता बिना किसी भेदभाव के राष्ट्र के बुनियादी ढांचे के विकास में सहयोग दें तथा इसमें अन्याय, बहुसंख्यकवाद, निर्वाचित अधिनायकवाद एवं आर्थिक तथा सामाजिक असमानता समाप्त हो और शोषण रहित ऐसे नागरिक समाज की स्थापना हो जहां व्यक्तियों के जीवन उपयोगी संसाधनों पर किसी भी एक विशेष वर्ग -पूंजीपति वर्ग अथवा कॉर्पोरेट का नियंत्रण न होकर जनता का नियंतत्र हो. यदि राष्ट्रीय संसाधनों पर पूंजीपति वर्ग अथवा कॉरपोरेट्स का नियंत्रण होता हो जाता है तो अनिवार्य रूप में राष्ट्रीय निर्माण में बाधा उत्पन्न होती है क्योंकि धन के केंद्रीयकरण के कारण गरीब व अमीर के मध्य बहुत बड़ी खाई उत्पन्न हो जाती है. राष्ट्र निर्माण हेतु देश का शासन और प्रशासन संवैधानिक मूल्यों और प्रावधानों के आधार पर चलना चाहिए.राष्ट्र में किसी व्यक्ति विशेष का अथवा वर्ग का शासनन होकर जनता के द्वारा , जनता के लिए और जनता का शासन होना नितांत अनिवार्य है. राष्ट्र में विधानपालिका ,कार्यपालिका , न्यायपालिका व अन्य संस्थाओं को संवैधानिक दायरे में रहकर अपना-अपना कार्य करना नितांत जरूरी है. अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए सरकार के तीनों अंगों के मध्य नियंत्रण और संतुलन का सिद्धांत लागू होना चाहिए.इनके अतिरिक्त संविधान में असंख्य स्वतंत्र निकाय अथवा स्वायत संस्थाएं – जैसे स्वतंत्र निर्वाचन आयोग, नियंत्रक और महालेखाकार, संघ लोक सेवा आयोग है. इनके कार्य में सत्ताधारी दल अथवा विपक्षी दलों का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए वरना जनता का कानून के शासन से वि श्वास खड़ा होगा उठ खड़ा होगा और राष्ट्र निर्माण में बाधा उत्पन्न हो सकती है.
राष्ट्र निर्माण के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर का होना बड़ा जरूरी है. आधुनिक युग में उद्योग, कारखाने, बैंकिंग व्यवस्था ,यातायात व संचार के साधन -सड़क, रेल, हवाई जहाज,जल परियोजनाएं और सिंचाई के अन्य साधन, कृषि विकास, स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए आधुनिक हॉस्पिटलों, बेहतरीन दवाइयों ,आधुनिक उपकरणों,उच्च शिक्षित डॉक्टरों व नर्सो का प्रबंध होना भी अनिवार्य है क्योंकि स्वस्थ नागरिक ही स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं. इनके अतिरिक्त आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा विद्यार्थियों को राष्ट्र के प्रति समर्पित नागरिक बनाती है.
कानून और व्यवस्था की स्थापना के लिए नौकरशाही,पुलिस व सेना का होना भी परमावश्यक हैं परंतु उनके द्वारा शक्तियों का दुरुपयोग राष्ट्र निर्माण के लिए हानिकारक भी हो सकता है. राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए विदेश नीति का निर्माण और इसमें निरंतरता का होना बड़ा जरूरी है ताकि आयात और निर्यात को बढ़ावा मिल सके और राष्ट्रीय पहचान विदेशों में बन सके. प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग का निष्पक्षऔर स्वायत्त होना नितांत जरूरी है तथा ईवीएम (EVM)होने वाली गड़बड़ियों को रोकना भी जरूरी है ताकि जनता का निर्वाचन की प्रक्रिया में विश्वास बना रहे.
इन सब के अतिरिक्त मूलभूत आवश्यकताओं विशेषत: — ऱोजगार (रोटी), कपड़ा और मकान, स्वास्थ्य सुरक्षा तथा अच्छी शिक्षा के द्वारा जनता की राष्ट्र के प्रति श्रद्धा, अभिमुखीकरण और वफादारी उत्पन्न होती है व राष्ट्र निर्माण की प्रक्रियों को गति प्रदान करती हैं.
डॉ.भीमराव अंबेडकर : राष्ट्र निर्माण
राष्ट्र निर्माण की एक लंबी प्रक्रिया है.भारतीय राष्ट्र निर्माण में लंबे समय से देश में रहने वाले प्रत्येक धर्म, जाति, संप्रदाय, क्षेत्र तथा विभिन्न भाषा -भाषी लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है.राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया मेंराष्ट्र के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक जनसाधारण-किसान , मजदूर, स्त्री पुरुष, युवा इत्यादि ने अतुलनीय योगदान दिया है और दे रहे हैं. परंतु राष्ट्र निर्माण की दिशा, आदर्श ,नीतियां ,नियम ,य़ोजनाए, कानून इत्यादि निर्धारण करने के लिए राजनेताओं की भूमिका अहम होती है. सिद्धांतों, नियमों और आदर्शों का सृजन नेताओं व चिंतकों के द्वारा किया जाता है . आधुनिक युग में भारतवर्ष में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया संबंधी आदर्शों ,नीतियों और नियमों का निर्माण करने वालों में यदि एक ओर महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी हैं तो दूसरी ओर राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी व ईएमएस नंबूदरीपाद(केरल) व ज्योतिबसु (प.बंगाल)जैसे साम्यवादी, शेख अब्दुल्ला (जम्मू-कश्मीर) ,दक्षिण -भारत व पूर्वो-उत्तर भारत के नेताओं का योगदान भी महत्वपूर्ण है.परंतु भारतीय राष्ट्र निर्माण में संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर की भूमिका अतुलनीय है.
संविधान:राष्ट्र निर्माण
डॉ. अंबेडकर भारतीय संविधान के निर्माता, शिल्पीकार एवं वास्तुकार थे. उन्होंने लगभग 60 देशों के संविधानों का अध्ययन किया था. डॉ. अंबेडकर को संविधान निर्माता अथवा संविधान के पितामह के रूप में विश्व में जाना जाता है. वर्तमान समय में प्रजातांत्रिक देशों मेंराष्ट्र निर्माण के लिए सरकार का संचालन, नागरिक व सरकार में संबंध, नागरिकों के मध्य पारस्परिक संबंध, सरकार के अंगों—विधानपालिका कार्यपालिका और न्यायपालिका इत्यादि में संबंधों का वर्णन संविधान के नियमों होता है तथा इनके आधार पर शासन संचालन राष्ट्रीय निर्माण की प्रक्रिया को सुदृद्ध करता है
डॉ भीमराव अंबेडकर ने भारतीय संविधान के निर्माता,वास्तुकार,शिल्पकारऔर पितामह के रूप मेंसंविधान निर्माण में बहुत अभूतपूर्व भूमिका अदा की है .संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया अग्रसर होती है.
डॉ. अम्बेडकर ने फ्रेंच रिवोल्यूशन (5 मई 1789—9 नवंबर 1799 ) से तीन शब्द — स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व लिए. इन तीन शब्दों- (स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व) ने उनके राजनीतिक, सामाजिक जीवन दर्शन, संविधान की प्रस्तावना और संविधान के मूल अधिकारों (तीसरे अध्याय) को प्रभावित किया है. इसीलिए संविधान के मूल अधिकारों में समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18 ), स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22), शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 और 24), धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28) , शिक्षा और संस्कृति का अधिकार (अनुच्छेद29 और 30) तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार अनुच्छेद(32) हैं. वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता को निर्बाध नहीं मानते थे. अनुच्छेद 19 (2) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को नुकसान नहीं होना चाहिए. संक्षेप में उन्होंने सार्वजनिक सुरक्षा के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता को निर्बाध नहीं माना तथा निवारक निरोध उपबंधों का समर्थन किया है. मौलिक अधिकारों में सर्वाधिक महत्व संविधानिक उपचारों के अधिकार (अनुच्छेद 32) को देते थे. संविधान सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 32 भारत के संविधान की’हृदय और आत्मा है”. यह व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा परित्राण है.
संविधान की प्रस्तावना तथा मौलिक अधिकारों के अतिरिक्त राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (चौथा अध्याय) ,भारतीय संघ के विशिष्ट रूप, भारत में कार्यपालिका, निर्वाचन, संसदीय प्रणाली, भारत के राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के बीच संबंध, भारत की न्यायपालिका की स्वतंत्रता इत्यादि पर डॉ अंबेडकर के विचारों का गहरा प्रभाव है.
उनके चिंतन का सर्वाधिक प्रभाव उन अनुच्छेदों पर नजर आता है जिनका संबंध अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जातियों ,बच्चों तथा महिलाओं के विकास से है. उनके प्रयासों से भारत के संविधान में बेगार , मानव का क्रय- विक्रय, 14 वर्ष तक के बच्चों तथा महिलाओं को जोखिम भरे कार्यों में लगाने को असंवैधानिक एवं गैर कानूनी घोषित किया गया .
धर्म निरपेक्षता का सिद्धांत, भारत में सार्वभौमिकता मताधिकार,संसदीय प्रणाली ,न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सर्वोच्चता, समाजवादी सिद्धांत, भाषा के आधार पर राज्यों का निर्माण तथा संघात्मक व्यवस्था इत्यादि पर उनके विचारों की गहरी छाप है. उन्होंने राष्ट्र निर्माण के लिए एक संविधान, एक झंडा, एक राष्ट्रीय गीत,एकल नागरिकता ,एकल न्यायपालिका,समान मूल अधिकार की जबरदस्त वकालत की तथा जाति, लिंग,धर्म क्षेत्र , भाषा ,जन्म स्थान इत्यादि के आधार पर विशेषाधिकारों का विरोध डॉ.भीमराव अंबेडकर के चिंतन का मूल आधार व सार है .यह सभी मिलकर राष्ट्र निर्माण के लिए नींव के पत्थर व सूत्रधार हैं.
राष्ट्र निर्माण के लिए शासन संचालन में जनता की सहभागिता होती है संविधान के अनुसार भारतवर्ष एक प्रजातंत्रात्मक गणराज्य है तथा यहां अप्रत्यक्ष लोकतंत्र है. अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में जनता की सहभागिता चुनाव में मतदान के द्वारा सुनिश्चित की जाती है.यही कारण है कि 26 जनवरी 1950 को जब संविधान लागू हुआ तो सर्ववयस्क मताधिकार प्रदान किया गया. प्रत्येक नागरिक के ‘मत का मूल्य एक समान’ है चाहे वह गरीब है अथवा अमीर,अथवा किसी भी जाति या धर्म से संबंधित है. इसका समर्थन करते हुए डॉ. भीमराव अंबेडकर ने लिखा, ‘एक आदमी, एक मूल्य’ ,’एक आदमी ,एक वोट’का सिद्धांत लोकतंत्र केनिर्माण हेतु एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है.आम आदमी चुनावी प्रक्रिया में भाग लेकरअपने आप को ‘राष्ट्र निर्माता’ के रूप में मानता है और उसकी राष्ट्र के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा ‘यही श्रद्धा राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया’ में लाभदायक है.
इन श्रेष्ठ कार्यों के लिए डॉ. भीमराव अंबेडकर (संविधान की प्रारूप–Drafting Committee– के अध्यक्ष) को संविधान निर्माता निर्माता, शिल्पीकार एवं वास्तुकार माना जाता है .यद्यपि संविधान सभा में डॉ. राजेंद्र प्रसाद (संविधान सभा के अध्यक्ष), जवाहरलाल नेहरू,सरदार पटेल तथा अन्य राष्ट्रीय स्तर के नेता भी थे परंतु डॉ. भीमराव अंबेडकर संविधान निर्माता कैसे है?
इस संबंध में संविधान की प्रारूप समिति (Drafting Committee) के एक सदस्य टी॰ टी॰ कृष्णामाचारी ने कहा:
“अध्यक्ष महोदय, सदन में उन लोगों में से एक हूं, जिन्होंने डॉ॰ आंबेडकर की बात को बहुत ध्यान से सुना है. मैं इस संविधान की ड्राफ्टिंग के काम में जुटे काम और उत्साह के बारे में जानता हूं. उसी समय, मुझे यह महसूस होता है कि इस समय हमारे लिए जितना महत्वपूर्ण संविधान तैयार करने के उद्देश्य से ध्यान देना आवश्यक था, वह ड्राफ्टिंग कमेटी द्वारा नहीं दिया गया. सदन को शायद सात सदस्यों की जानकारी है. आपके द्वारा नामित, एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया था और उसे बदल दिया गया था. एक की मृत्यु हो गई थी और उसकी जगह कोई नहीं लिया गया था. एक अमेरिका में था और उसका स्थान नहीं भरा गया और एक अन्य व्यक्ति राज्य के मामलों में व्यस्त था, और उस सीमा तक एक शून्य था. एक या दो लोग दिल्ली से बहुत दूर थे और शायद स्वास्थ्य के कारणों ने उन्हें भाग लेने की अनुमति नहीं दी. इसलिए अंततः यह हुआ कि इस संविधान का मसौदा तैयार करने का सारा भार डॉ॰ आंबेडकर पर पड़ा और मुझे कोई संदेह नहीं है कि हम उनके लिए आभारी हैं. इस कार्य को प्राप्त करने के बाद मैं ऐसा मानता हूँ कि यह निस्संदेह सराहनीय है.”
(उद्धृत, डॉ. रामजीलाल ,भारत के संविधान के उद्देश्य एवं मूल्य: पुनर्मूल्यांकन (https://samajweekly.com/objectives-of-the-constitution-of-india/20/02/2023)
महिला सशक्तिकरण व राष्ट्र निर्माण
प्रत्येक राष्ट्र निर्माण का अधूरा रहेगा यदि महिलाओं की स्थिति संपन्न नहीं है. वर्ष 1927 में इस संबंध में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि “मैं महिलाओं के विकास को किसी भी समुदाय के विकास का पैमाना मानता हूं.” डॉ. भीमराव महिलाओं की व्यापक भूमिका के समर्थक थे। उन्होंने जीवन के सभी क्षेत्रों – सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक – में महिलाओं की समान भागीदारी की वकालत की. उनका दृढ़ विश्वास था कि राजनीतिक क्षेत्र में भी महिलाओं को समान अधिकार मिलना चाहिए.महिला सशक्तिकरण इसलिए महिलाओं की स्थिति मेंसुधार करना नितांत अनिवार्य है.महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में डॉ.भीमराव अंबेडकर ने ‘जोगिंन और देवदासी’ प्रथा का विरोध किया क्योंकि इस कुप्रथा के कारण युवतियों व महिलाओं यौन शोषण होता है. परंतु अफसोस की बात यह है कि संवैधानिक उपबंधोंऔर कानूनों के बावजूद भी देवदासी प्रथा एवं वेश्यावृत्ति जारी हैं. राजनीतिक दलों के द्वारा देवदासी प्रथा एवं वेश्यावृत्ति को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया जाता जबकि डॉ भीमराव अंबेडकर ने लगभग 100 वर्ष पूर्व इस कुप्रथा का विरोध किया.
भारतीय संविधान में स्पष्ट वर्णन है कि राज्य सभी महिलाओं और पुरुषों के रोजगार और आजीविका के साधनों के लिए अपनी नीतियां और उचित व्यवस्था करेगा.समान काम के लिए समान वेतन की व्यवस्था भी राज्य द्वारा की जाएगी ताकि लिंग के आधार पर भेदभाव व शोषण न हो.मौलिक अधिकारों से संबंधित संविधान तीसरे अध्याय के अनुच्छेद 23 और 24 में व्यक्तियों के शोषण को सख्ती से प्रतिबंधित किया गया है. मनुष्यों की खरीद और बिक्री निषिद्ध है और महिलाओं की बिक्री और खरीद अनैतिक है और संविधान द्वारा निषिद्ध है. कानून के मुताबिक महिलाओं की खरीद-फरोख्त दंडनीय अपराध है. उन्होंने बाल श्रम और महिला श्रम शोषण की बुराइयों को समाप्त करने के लिए अथक लड़ाई लड़ी. महिलाओं और बच्चों को खतरनाक कार्यों में नियोजित नहीं किया जा सकता है और जबरन श्रम पर प्रतिबंध लगा दिया गया है.अनुच्छेद 39 के अनुसार, पुरुषों और महिलाओं सहित सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधनों का समान अधिकार है. संविधान का अनुच्छेद 42 राज्य को महिलाओं के लिए काम की उचित और मानवीय स्थितियाँ और मातृत्व सुविधाएँ प्रदान करने का निर्देश देता है. महिलाओं की गरिमा की रक्षा करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का मौलिक कर्तव्य है (अनुच्छेद 51) .
भारत के संविधान की प्रस्तावना के अलावा, महिलाओं के अधिकारों का वर्णन मौलिक अधिकार (अध्याय 3), राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (अध्याय 4) और अन्य उपबंधों में किया गया है. भारतीय संविधान में महिलाओं के सशक्तिकरण से संबंधित मुख्य अनुच्छेद हैं: 14,15,15(ए)15(2),15(3),15(4),16(1),16(2),17,23और24 ,29,और30,36(डी),39,39(ए),42,51(ए)(सी),243डी(3),243टी(3)और243टी(4). संविधान के अनुच्छेद 243D,243D(3),243T(3) और 243T(4) के अनुसार, पंचायती राज संस्थाओं-ग्राम पंचायतें, ब्लॉक पंचायतें और जिला परिषदें और शहरी स्थानीय स्वयं संस्थाओं- में महिलाओं के लिए सीट का आरक्षण है। नगर पालिका, नगर परिषद और नगर निगम। इस बात पर प्रकाश डाला जा सकता है कि अभी तक 21 राज्यों के पंचायती राज संस्थानों और केवल 10 राज्यों के शहरी स्थानीय स्व संस्थानों में महिलाओं के लिए 50% सीटें आरक्षित की गई हैं. अधिनियम संविधान एक सौ अट्ठाईसवां (संशोधन) अधिनियम, 2023 में राज्य विधानसभाओं तथा लोकसभा के निर्वाचन में महिलाओं के लिए 33 %आरक्षण की व्यवस्था की गई है परंतु यह संशोधन अधिनियम अभी लागू नहीं हुआ है. भारत में महिलाओं की संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 50% है.
महिलाओं की सामाजिक ,आर्थिकऔर राजनीतिक क्षेत्र में सहभागिता राष्ट्र निर्माण के लिए अत्यंत लाभदायक सिद्ध होगी.परंतु वर्तमान समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था ,स्त्री विरोधी मानसिकता,एवं परम्परगत प्रथाएं इत्यादि महिला विकास एवं स्त्री सशक्तिकरण में रुकावट पैदा करती हैं .इसलिए समाज की रूगण स्त्री विरोधी मानसिकता में परिवर्तन होना नितांत अनिवार्य है ताकि महिलाएं राष्ट्र निर्माण में योगदान दे सकें.
डॉ. रामजीलाल, Dr.Bhimrao Ambedkar’s Vision towards Women Empowerment https://samajweekly.com/dr-bhimrao-ambedkars-vision-towards-women-empowerment/13/03/2023)}
>https://en.wikipedia.org/wiki/Nari_Shakti_Vandan_Adhiniyam)
आरक्षण और राष्ट्र निर्माण
भारतीय संविधान सभा में आरक्षण के विरोध के बावजूद भी डॉ. भीमराव अंबेडकर को यह श्रेय जाता है कि उनके प्रयासों के कारण भारतीय संविधान में शैक्षणिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक आरक्षण की व्यवस्था की गई है. भारत के संविधान के अनुच्छेद15 (4) तथा 16(4) के अंतर्गत केंद्रीय व राज्य सरकारों को आरक्षण के प्रावधान को लागू करने के लिए सक्षम बनाया गया है. सन् 1954 में, केंद्रीय सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने सुझाव दिया कि शैक्षणिक संस्थानों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए 20 % स्थान आरक्षित किए जाने चाहिए, व प्रवेश के लिए न्यूनतम योग्यता अंकों में 5 प्रतिशत की छूट देने का प्रावधान किया जाना चाहिए. परंतु 28 वर्ष पश्चात सन् 1982 में, केंद्र सरकार ने यह कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में क्रमशः 15 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत स्थान (सीटें)एससी और एसटी वर्गों के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित होनी चाहिए.
>https://en.wikipedia.org/wiki/Reservation_in_India
इसके लगभग 7 वर्ष पश्चात सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं,प्रशासनिक सेवाओंऔर सार्वजनिक उपकरणों में आरक्षण का प्रावधान नेशनल फ्रंट गठबंधन के प्रधानमंत्री वीपी सिंह के द्वारा किया गया. 7 अगस्त 1989 को मंडल कमीशन की रिपोर्ट( 31 दिसंबर 1980)को लागू करने की अधिसूचना जारी की गई. इस अधिसूचना के अनुसार शिक्षा ,सरकारी नौकरियों और सार्वजनिक उपकरणों में पिछड़े वर्गों पिछड़े वर्गों -सन् 1931 की जनगणना के अनुसार पिछले वर्गों की आबादी भारत के कुल जनसंख्या 52 % लिए 27% आरक्षण की व्यवस्था की गई.इस अधिसूचना के बाद विशेष तौर से उत्तरी भारत में उच्च जातियों के विद्यार्थियों,युवाओं व जनता के द्वारा विरोध किया गया .संविधान के 77 वें संशोधन अधिनियम, 1995 के अनुसार अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था है. संविधान के103वें संशोधन अधिनियम 2019 के अनुसार शिक्षण संस्थानों और सार्वजनिक नौकरियों में आर्थिक दृष्टि से पिछडे़ लोगों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 %, आरक्षण किया गया. एससी, एसटी,, ओबीसी और ईडब्ल्यूएस जैसे विभिन्न वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों के संबंध में लगभग 60% सीटें आरक्षित हैं. सभी श्रेणियों में 3% सीटें दिव्यांग व्यक्तियों के लिए भी आरक्षित हैं. यह निम्नलिखित टेबल से स्पष्ट होता है
Reservation quota in India for Government Jobs and Higher Educational Institutions
>(https://www.clearias.com/reservation-in-india/#:~:text=SC%2FST%20Reservation,-The%20objective%20of&text=Scheduled%20Castes%20(SC)%20are%20given,in%20jobs%2Fhigher%20educational%20institutions.)
इस समय भारत में अनुसूचित जातियों की संख्या 1108, अनुसूचित जनजातियों की संख्या 730 (जनगणना सन् 2011) तथा पिछड़े वर्गों की संख्या 5013 (दैनिक ट्रिब्यून् (चंडीगढ़). 27 फरवरी 2021. पृ. 8). संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (संशोधन) विधेयक, 2024 और संविधान (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति) आदेश (संशोधन) विधेयक, 2024 अनुसार आंध्र प्रदेश में, तीन – (बोंडो पोरजा, खोंड पोरजा, पारंगीपेरजा) जातीय समूहों और ओडिशा में चार समूहों को अनुसूचित जनजातियों की सूची में जोड़ा जा रहा है. आजादी के 76 साल बाद अंडमान द्वीप से 75 आदिम कमजोर जनजातीय समूहों (पीवीटीजी) को अनुसूचित सूची में जोड़ा गया है. अंडमान द्वीप के ऐसे 10 पीवीटीजी के नाम अनुसूचित जनजातियों की सूची में नहीं जोड़े गए .( >https://samajweekly.com/regarding-unreserving-reserved-seats/
आरक्षण के द्वाराअनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े वर्गों, आर्थिक रूप सेकमजोर वर्ग तथा आदिम जनजातियों कोआरक्षण प्रदान किया गया है. उसके आधार पर शिक्षा व प्रशासनिक सेवा में भाग लेने का अवसर मिला है. यद्यपि तथाकथित ऊंची जातियों के लोगों के द्वारा आरक्षण की आलोचना की जाती है. परंतु हमारा मानना है कि भारत की जनसंख्या का यह अधिकांश भाग आरक्षण के आधार पर शिक्षा ग्रहण करने , शिक्षण संस्थाओं व प्रशासनिक सेवाओं में पदों पर आसीन होकर समाज के हासिए पर रहने वाली जातियों के नितहार्थ नीति निर्माण की प्रक्रियायों को प्रभावित करके उनको राष्ट्र निर्माण केसाथ जोड़ने का काम करेगें व राष्ट्र निर्माण प्रक्रिया मेंगति प्रदान होगी.
नदी घाटी प्राधिकरण की स्थापना : परियोजनाओं की दूरदर्शिता
राष्ट्र निर्माण मेंजल प्रबंधन एवं विद्युत निर्माण की परियोजनाओं का महत्वपूर्ण योगदान होता है.यदि उत्तर भारत में रहबरे-आजम दीनबंधु सर छोटू राम (जन्म-24 नवंबर 1881 – 9 जनवरी 1945) ) के अथक प्रयासों द्वारा भाखड़ा डैम परियोजना का मसौदा तैयार किया गया तो केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय जल प्रबंधन और नदी घाटी योजनाओं के निर्माण डॉ. भीमराव अंबेडकर की दूरदर्शिता का परिणाम है.
केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने डॉ. भीमराव अंबेडकर प्रशंसा करते हुए लिखा :
“1942 से 1946 तक वायसराय की कार्यकारी परिषद में एक श्रमिक सदस्य के रूप में, उन्होंने देश के सर्वोत्तम हित में जल, बिजली और श्रम कल्याण क्षेत्र में कई नीतियां विकसित कीं। उनकी दूरदर्शिता ने नदी घाटी प्राधिकरण की स्थापना के माध्यम से केंद्रीय जलमार्ग, सिंचाई और नेविगेशन आयोग (सीडब्ल्यूआईएनसी), केंद्रीय तकनीकी विद्युत बोर्ड, एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन के रूप में केंद्रीय जल आयोग की स्थापना में मदद की, जिसने सक्रिय रूप से दामोदर नदी घाटी परियोजना जैसी परियोजनाओं पर विचार किया. सोन नदी घाटी परियोजना, महानदी (हीराकुंड परियोजना), कोसी और अन्य चंबल नदी और दक्कन क्षेत्र की नदियाँ, अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 और नदी बोर्ड अधिनियम, 1956 उनकी सुविचारित दृष्टि है.’
https://journals.sagepub.com/doi/abs/10.1177/2348448918759875?journalCode=sipa
https://nagalandpost.com/index.php/2021/04/13/dr-bhim-rao-ambedkar-a-matchless-nation-builder/
डॉ भीमराव अंबेडकर: राष्ट्र निर्माण की चुनौतियां
डॉ भीमराव अंबेडकर के अनुसार राष्ट्र के निर्माण में अग्रलिखित चुनौतियां हैं.
डॉ.अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा की अंतिम बैठक के समापन में ऐतिहासिक भाषण में समाज के कटु सत्य को बताते हुए तीन चुनौतियों का वर्णन किया था— ‘सामाजिक असमानता,’ ‘राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा’ तथा ‘खूनी क्रांति के तरीके, सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह. का वर्णन किया था. इन चुनौतियों का वर्णन अग्रलिखित है:
प्रथम, भेदभाव और असमानता:
भारतीय लोकतंत्रव राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में समाज में प्रचलित भेदभावऔर असमानता सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है. इसका वर्णन करते हुए डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा:
‘राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक की उसके मूल में सामाजिक लोकतंत्र अर्थात जीवन के सिद्धांतों में समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुता न हो. समानता के बिना स्वतंत्रता बहुसंख्यक वर्ग पर मुट्ठी भर लोगों का प्रभुत्व स्थापित कर देगी. बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता स्वाभाविक सी बातें नहीं लगेगी. भेदभाव और असमानता दूर करनी चाहिए. यदि ऐसा नहीं किया गया तो वह लोग जो भेदभाव का शिकार होंगे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे जो इस संविधान सभा ने तैयार किया है.’ सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करने की आवश्यकता की स्थापना के लिएसामाजिक भेदभाव और असमानता को दूर करके ही स्थाई लोकतंत्र की स्थापना और संविधान की सुरक्षा भी की जा सकती है. परिणाम स्वरूप सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करके राष्ट्रीय निर्माण की प्रक्रियाजारी रहती हैऔर यदि ऐसा नहीं होता तो वास्तव में इस प्रक्रिया मेंबाधा पड़ेगी.
द्वितीय, राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा’ : एक महत्वपूर्ण चुनौती
डॉ भीमराव अंबेडकर ने सचेत किया था कि लोकतंत्र के निर्माण में ‘राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा’ एक महत्वपूर्ण चुनौती और अंततः तानाशाही का एक निश्चित रास्ता है’. डॉ भीमराव अंबेडकर ने इस संबंध चेतावनी देते हुए लिखा :
“उन महान व्यक्तियों के प्रति आभारी होने में कुछ भी गलत नहीं है जिन्होंने देश को जीवन भर सेवाएं प्रदान की हैं। लेकिन कृतज्ञता की भी सीमाएँ हैं। जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ’कोनेल ने ठीक ही कहा है, कोई भी पुरुष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई भी महिला अपनी पवित्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई भी राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता। यह सावधानी किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत के मामले में कहीं अधिक आवश्यक है। भारत में, भक्ति या जिसे भक्ति या नायक-पूजा का मार्ग कहा जा सकता है, उसकी राजनीति में दुनिया के किसी भी अन्य देश की राजनीति में निभाई जाने वाली भूमिका के बराबर नहीं है। धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है। लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक-पूजा पतन और अंततः तानाशाही का एक निश्चित रास्ता है”.
यह चेतावनी वर्तमान संदर्भ में बिल्कुल उचित नजर आती है क्योंकि समस्त राष्ट्र को एक व्यक्ति के चारों ओर उसी प्रकार घुमाया जाता है जिस प्रकार सूर्य के चारों तरफ पृथ्वी घुमती है. ऐसी स्थिति में चुंबकीय एवं करिश्मावादी नेतृत्व के सम्मुख उसकी अपनी पार्टी के अन्य सभी नेता और कार्यकर्ता बौने हो जाते हैं.इसके परणाम स्वरूप अंध भक्ति पैदा की जाती है. 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जर्मनी में हिटलर तथा इटली में मुसोलिनी के कतिपय उदाहरण हैं. व्यक्ति पूजा के परिणाम स्वरूप ‘अघोषित आपातकालीन’ स्थिति अथवा ‘घोषित आपातकालीन स्थिति’ उत्पन्न हो जाती है. ऐसी स्थिति जहां संविधान के प्रावधानों में लोकतंत्र विद्यमान हो परंतु व्यवहार में अधिनायकवाद अथवा तानाशाही होती जैसे आपातकालीन स्थिति (सन्1975-1977)में मौजूद थी. विरोधी राजनीतिक दलों व कुछ टीकाकारों का यह कहना है कि वर्तमान अमृत काल में तथाकथित ‘अघोषित आपातकालीन’ स्थिति का दौर है. अतः व्यक्ति पूजा संविधान,संविधानवाद ,लोकतंत्र व राष्ट्रीय निर्माण की दृष्टि से घातक और खतरनाक होती है.
तृतीय, खूनी क्रांति, सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह को त्याग:
डॉ भीमराव अंबेडकर के अनुसार “अगर हम लोकतंत्र को न केवल स्वरूप में, बल्कि वास्तव में भी बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें क्या करना चाहिए? मेरे विचार से पहली चीज़ जो हमें करनी चाहिए वह है अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों को मजबूती से अपनाना। इसका मतलब है कि हमें क्रांति के खूनी तरीकों को त्यागना होगा। इसका मतलब है कि हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह का रास्ता छोड़ देना चाहिए। जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों का कोई रास्ता नहीं बचा था, तब असंवैधानिक तरीकों का औचित्य बहुत अधिक था। लेकिन जहां संवैधानिक तरीके खुले हैं, वहां इन असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं हो सकता। ये तरीके और कुछ नहीं बल्कि अराजकता का व्याकरण हैं और इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही बेहतर होगा।”
य़द्यपि लोकतंत्र में बंदूक तंत्र (खूनी तरीकों) का स्थान नहीं है. क्योंकि शक्ति (सत्ता)बंदूक की नली से पैदा नहीं होती अपितु चुनाव के समय मतदान के दिन के ईवीएम(EVM) का बटन दबाने से पैदा होती है.परंतु इसके बावजूद भी दो चुनावों के अंतराल में शांतिपूर्ण आंदोलन सरकारों के सर्वसत्तावाद को नियंत्रित करने लिए जरूरी हैं. शांतिपूर्ण आंदोलन लोकतंत्र व राष्ट्र निर्माण की कमजोरी नहीं है अपितु इनके प्रहरी हैं. शांतिपूर्ण आंदोलनों का त्याग करने के वकालत जो डॉ. भीमराव अंबेडकर ने की है उससे सहमति प्रकट करना बड़ा कठिन है क्योंकि केवल संवैधानिक तरीके से ‘निर्वाचित तानाशाही’ पर नियंतण करना मुश्किल है.इसलिए सत्याग्रह और शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन लोकतंत्र को मजबूत करगा. जिसके परिणाम स्वरूप सविनय अवज्ञा आंदोलन, असहयोग आंदोलन , सत्याग्रह ,धरना, प्रदर्शन ,हड़ताल इत्यादि- शांतिपूर्ण आंदोलन लोकतंत्र व राष्ट्र निर्माण की कमजोरी नहीं है क्योंकि केवल संवैधानिक तरीके से निर्वाचित तानाशाही पर नियंत्रण करना मुश्किल हैऔर इसलिए सत्याग्रह और शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन लोकतंत्र को मजबूत करता है जिसके परिणाम स्वरूप राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया निरंतर जारी रहेगी.
डॉ. अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा की अंतिम बैठक के समापन में ऐतिहासिक भाषण में वर्णनित यह तीनों चुनौतियां अथवा चेतावनियां -सामाजिक असमानता, राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा’ तथा खूनी क्रांति के तरीके (जैसे नक्सलबाड़ी आंदोलन व माओवादी हिंसक आंदोलन) का परित्याग, वर्तमान 21वीं शताब्दी में आज भी पूर्णतया सार्थक और प्रासंगिक हैं. सारांशत: शांतिपूर्ण जन आंदोलनों में वह शक्ति होती है जिसके द्वारा सर्वसत्तावादी शासकों को घुटने टेकने-अपने निर्णयों या कानूनों को वापिस लेने अथवा कुर्सी छोड़ने के लिए मज़बूर किया जा सकता है.
>https://prasarbharati.gov.in/whatsnew/whatsnew_653363.pdf >https://thebasicstructureconlaw.wordpress.com/2022/11/26/remembering-ambedkars-last-speech-in-the-constituent-assembly/
चतुर्थ,जातिवाद और वर्ण व्यवस्था
चतुर्वर्णीय प्रणाली के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्ण हैं. इन चारों वर्णों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ स्थान पर तथा शूद्र को सबसे निम्न स्थान पर रखा गया है . डॉ. अंबेडकर मनुवादी एवं ब्राह्मणवादी भारतीय सामाजिक व्यवस्था के धुरंधर विरोधी थे.
डॉ.अंबेडकर ने अपने प्रथम मराठी पाक्षिक-समाचार पत्र मूकनायक (‘’The Leader of Voiceless”) के प्रवेशांक सम्पादकीय(31 जनवरी 1920 ) में ‘हिंदू समाज” के संबंध में बड़ा स्पष्ट लिखा:
‘हिंदू समाज एक मीनार है और एक-एक जाति इस मीनार का एक-एक तल(जाति) है. ध्यान देने की बात यह है कि इस मीनार में सीढ़ियां नहीं हैं, एक तल (जाति) से दूसरे तल (जाति ) में आने-जाने का कोई मार्ग नहीं है. जो जिस तल (जाति) में जन्म लेता है, वह उसी तल (जाति) में मरता है. नीचे के तल(जाति) का मनुष्य कितना ही लायक हो, ऊपर के तल (जाति) में उसका प्रवेश संभव नहीं है, और ऊपर के तल (जाति) का मनुष्य कितना ही नालायक हो, उसे नीचे के तल (जाति) में धकेल देने की हिम्मत किसी में नहीं है.
डॉ. अंबेडकर इस चतुर्वर्ण प्रणाली को सर्वनाशक, हिंसक ,शोषणकारी और अत्याधिक खतरनाक मानते थे. उनका कहना था कि इस व्यवस्था से रूढ़िवाद, अंधविश्वास और ऐसी परंपराएं विकसित की गई जिनके परिणाम स्वरूप श्रमिक वर्ग का शोषण हुआ है. इस प्रणाली के रक्षक लोगों ने आम आदमी विशेष तौर से दलित वर्ग के लोगों का शोषण करके इंसानियत को समाप्त किया है और लोगों को गुलाम बनाया. गुलाम लोग अपने ही शस्त्रों से अपना सर कटवाते रहे तथा गुलामी करते रहे और हल चला कर फसल पैदा करते रहे और खुद भूखे मरते रहे. इस व्यवस्था ने कभी भी हल के फालों को तलवार में बदलने का समय नहीं दिया. उनके पास कोई हथियार अथवा संगठन ने नहीं थे. इस प्रणाली ने दलित और कमजोर लोगों को मू्र्दा बना कर रख दिया और उनमें क्रांति करने की ताकत समाप्त कर दी. परिणाम स्वरूप भारत में कभी भी ऐसी सामाजिक क्रांति नहीं हुई जैसे कि यूरोपियन देशों में हुई है. डॉ. अंबेडकर का मानना था कि जब तक भारत में सामाजिक क्रांति नहीं होगी तब तक अनेक कानूनों एवं संविधान के उपबंधो के बावजूद भी शोषण समाप्त नहीं होगा और दलित और श्रमिक वर्ग ( सर्वहारा वर्ग) शोषित होता चला जाएगा. संक्षेप में दलित और शोषित वर्ग का अर्थात श्रमिक वर्ग का शोषण होता था, होता है और होता रहेगा .
डा.अंबेडकर के अनुसार ‘छुआछूत गुलामी से भी बदतर है’. जातिवाद और वर्ण व्यवस्था के कारण उत्पन्न अस्पृश्यता को संकुचित, अमानवीय, अवैज्ञानिक, अनैतिक, विभाजक तथा संकीर्ण माना है.
(डॉ.रामजीलाल, वंचित अनुसूचित जातियों के संदर्भ में डॉ भीमराव अंबेडकर का दर्शन: एक पुनर्विचार व वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता https://samajweekly.com/dr-bhimrao-ambedkar-in-the-context-of-deprived-scheduled-castes/26/07/2023)
डॉ .अंबेडकर चतुर्वर्ण व्यवस्था पर आधारित जातिवाद को राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय एकीकरण, राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय विकास के मार्ग में हानिकारक मानते थे. वर्ण व्यवस्था पर आधारित जातिवाद भारतीय समाज के एकीकरण में बहुत बड़ी बाधा है. राष्ट्रीय एकता और अखंडता समाज की एकता और अखंडता पर निर्भर करती है. जब समाज विभिन्न जातियों में पदसोपान के आधार पर बंटा हुआ हो तो उस समाज में कभी भी एकता नहीं स्थापित नहीं हो सकती. जातिवाद को भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास में एक बहुत बड़ी बाधा माना है. जब समाज ऊंच-नीच के आधार पर विभाजित है तो ऐसी स्थिति में ‘सबका विकास, सबका विश्वास, सबका साथ’ अथवा “व्यक्ति की आत्म निर्भरता ”एक कल्पना है. डॉ. अंबेडकर ने जातिवाद और चतुवर्ण व्यवस्था का विरोध करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि इस व्यवस्था ने किसी को ‘.श्रेष्ठ नहीं बनाया और ना ही बना सकने में सक्षम है .जात पात से आर्थिक योग्यता नहीं आती. जात पात ने एक काम अवश्य किया हैं कि इसने हिंदुओं में फूट डाल दी और उन्हें भ्रष्ट कर दिया है’. संक्षेप में डॉ भीमराव अंबेडकर के चिंतन के अनुसार चतुर्वर्ण व्यवस्था पर आधारित जातिवाद राष्ट्र निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है.
पंचम् भूख की चुनौती :
राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण बाधा भूख भी है.यदि राष्ट्र में जनता का एक बहुत बड़ा भाग भूख से ग्रस्त हैतो राष्ट्र निर्माण की नीतियों में सुधारों की आवश्यकता है. वैश्विक हंगर रिपोर्ट सन् 2020 के अनुसार 117 देश की सूची में भारत 94 वें स्थान पर था. वैश्विक भूख सूचकांक सन् 2021 के अनुसार 116 देशों की सूची में भारत का 101 वां स्थान है सन् 2022 में 121 देशों की सूची में भारत का स्थान 107 वां था. ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जी एच आई) सन् 2023 में भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान (102वें), बांग्लादेश (81वें), नेपाल (69वें) और श्रीलंका (60वें) स्थान पर है. सन् 2022 में भारत अपने 107वें स्थान से 2023 में चार पायदान नीचे फिसल गया.
(डॉ. रामजीलाल, वैश्विक भूख सूचकांक रिपोर्ट सन् 2023: एक समालोचनात्मक मूल्यांकन/https://samajweekly.com/global-hunger-index-report-2023/)
भारत सरकार के अनुसार 80 करोड से अधिक लोगों को सरकार के द्वारा राशन दिया जाता है. इन सभी को भारत सरकार के द्वारा बीपीएल श्रेणी में सम्मलित गया है. यदि इस दृष्टि से देखा जाए भारत में गरीबी में वृद्धि हुई है. सन 2021 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 33 लाख से अधिक बच्चे कुपोषित हैं. भूख, कुपोषण, बीमारियों स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव, गरीबी के कारण एक सामान्य वर्ग की महिला की अपेक्षा दलित महिला की आयु 15 वर्ष कम है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाओं के विशेष तौर से दलित महिलाओं के अच्छे दिन न थे, न है और न ही निकट भविष्य में आने की संभावना है. खेतों में कृषि कार्य करते हुए महिलाओं के नसों में अकड़न पैदा हो जाती है और उनको अनेक बीमारियां लग जाती है. धान की रोपाई करते समय पैरों में पानी और सिर पर धूप के परिणाम स्वरूप कितनी महिलाओं का गर्भपात होता है इसका अनुमान आज तक नहीं लगाया जा सका. बात यहीं तक सीमित नहीं है अपितु सफाई कर्मी अनेक बीमारियों जैसे से ग्रस्त होते हैं .यही कारण है कि सफाई कर्मचारियों की औसतन आयु लगभग 60 वर्ष है.
छठा: आर्थिक असमानता :100 साल में पहली बार ‘अरबपति राज’ की स्थापना
भारत के संविधान व अंबेदकरवाद में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता पर बल दिया गया है. पूंजीवादी और कॉर्पोरेटवादी व्यवस्था मेंआर्थिक असमानता के द्वारा लोकतंत्रऔर राष्ट्र निर्माण मेंबाधा जाती है. नोबेल प्राइज़ विजेता डा. अमृत्य सेन ने डॉ. भीमराव अंबेडकर को ‘अर्थशास्त्र का पिता’ माना है.डॉ. भीमराव अंबेडकर के अनुसार आर्थिक नीतियां जन केंद्रित होनी चाहिए. यदि हम आर्थिक समानता की बात करें तो यह एक ख्वाब नजर आता है.क्योंकि विश्व असमानता रिर्पोट के आकंड़ो के अनुसार सन् 2022-23 में भारत की सबसे अमीर 1% आबादी की आय बढ़कर 22.6%हो गई है और उनकी संपत्ति की हिस्सेदारी बढ़कर 40.1% गई है. 100 साल में पहली बार इतनी वृद्धि हुई है.इसी प्रकार ऑक्सफैम इंडिया के सन् 2023 के अनुमान के अनुसार भारत के केवल 21 सबसे बड़े अरबपतियों के पास देश के 70 करोड़ लोगों की सम्पत्ति से भी ज्यादा दौलत है, भारत के शीर्ष10% के पास देश की77% संपत्ति हैऔर निचले 50% के पास राष्ट्र की संपत्ति का केवल 30% हिस्सा है.( https://www.amarujala.com/columns/blog/oxfam-report-says-richest-1-own-40-5-of-india-s-wealth-india-s-poorest-half-pays-two-thirds-of-gst-2023-01-17?pageId=1)
भारत के नीति आयोग ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया है कि भारत के 32% लोग पोषण संबंधी अभाव में जी रहे हैं तथा 44% परिवारों के पास खाना पकाने के लिए अच्छा इंधन नहीं है, 30% के पास उचित स्वच्छता का अभाव है और 41 % के पास पर्याप्त आवास नहीं है.5 ट्रिलियन डालर की जीडीपी के साथ तीसरी विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने का निरंतर प्रचार किया जा रहा है.
100 साल में पहली बार इतनी असमानता बढ़ी है. इस निरंतर बढ़ती हुई आर्थिक असमानता का मूल कारण यह है कि सन् 1991 के बाद के भारत सरकार द्वारा उदारीकरण,निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों का अपनाया गया.इन नीतियों के परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे रिपोर्ट के अनुसार भारत के 100 वर्षों में पहली बारअरबपति राज की स्थापना हुईहै. विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री नितिन कुमार भारती, लुकास चांसल, थॉमस पिकेटी, और अनमोल सोमांची के अनुसार भारत में सन् 2004 में1% अमीरों की संपत्ति 27% व आय18% थी.सन 2014 में संपत्तिबढ़कर 33% तथा आय 21% हो गई .सन् 2023 में संपत्ति बढ़कर40.1% वआय 22.6% हो गई. पूंजीवाद को डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने प्रजातंत्र के लिए एक खतरा बताया है.उनके अपने शब्दों में, “प्रजातंत्र के शासन की बागडोर यदि पूंजीपतियों के हाथों में जाती है तो फिरअन्य प्रजाजनों को गुलामी में हीजीवन जीना पड़ता है”. पूजीवादी व्यवस्था के वैकल्पिक के रूप में डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचार लगभग मार्क्सवादी चिंतन के नजदीक पहुंच जाते हैं.अंबेडकर ने स्पष्ट लिखा कि,’जब तक वर्गविहीन समाज की स्थापना नहीं हो जाती तब तक स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है.’
(https://wid.world/news-article/inequality-in-india-the-billionaire-raj-is-now-more-unequal-than-the-british-colonial-raj/#:~:text=By%202022%2D23%2C%20top%201,South%20Africa%2C%20Brazil%20and%20US.) (https://www.hindustantimes.com/india-news/share-of-top-1-of-indians-in-total-income-at-a-new-highreport-101710960048138.html)
https://www.dainiktribuneonline.com/news/nation/one-percent-rich-have-40-wealth/
सप्तम: राष्ट्र निर्माण व बेरोजगारी: निरंतर गंभीर स्थिति:
भारत में बेरोजगारी की स्थिति निरंतर गंभीर होती जा रही है . भारत में बेरोजगारी दर 2018 से 2024 तक औसतन 8.18 प्रतिशत थी, जो 2020 के अप्रैल में 23.50 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई और 6.40 प्रतिशत के रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गई। दिसंबर 2021 तक 53 मिलियन (5 .3 करोड़) बेरोजगार हैं. इनमें 35 मिलियन (3.5 करोड) लोगों को रोजगार की तुरतं आवश्यकता है. इनमें 8 मिलियन महिलाओं की संख्या है. यदि भारतवर्ष एंप्लॉयमेंट रेट स्टैंडर्ड तक पहुंचना चाहता है तो 187.5 मिलियन लोगों को रोजगार देना होगा. तभी लोगों के अच्छे दिन आ सकते हैं. परंतु यह केवल एक ख्वाब नजर आता है.
ILO के ताजा आंकड़ों से मोदी राज में बेरोजगारी की जो तस्वीर सामने आ रही है, उसने लोगों को चिंताकुल कर दिया है तथा लोगों के मन में इस सरकार की रोजगार पैदा कर पाने की क्षमता पर गहरा शक पैदा कर दिया है।
ILO की रिपोर्ट का रिपोर्ट के अनुसार अशिक्षितों में बेरोजगारी दर 3.4% है तो शिक्षित बेरोजगारी दर उससे 9 गुना अधिक 29.1% है. भारत के कुल बेरोजगारों में 83% बेरोजगार युवा हैं। इन युवा बेरोजगारों में शिक्षितों की संख्या जो सन् 2000 में 35.2% थी, वह बढ़कर आज 65.7% हो गयी है.देश में 20 से 24 साल के युवाओं के बीच बेरोजगारी दर 44.49% है अर्थात लगभग आधे युवा बेरोजगार हैं. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और मानव विकास संस्थान (आईएचडी), भारत रोजगार रिपोर्ट सन् 2024 के आधार परअर्थशास्त्री कौशिक बसु (भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए)) के अनुसार भारत में बेरोजगारी में भारी वृद्धि है . भारत में युवा बेरोजगारी की दर वैश्विक औसत दर से कहीं अधिक है. सन् 2020 से सन् 2022 के बीच 15-29 आयु वर्ग में शिक्षित बेरोजगारी दर 54.2% से बढ़कर 65.7% हो गयी है. भारत में बेरोजगारी दर सन् 2018 से सन् 2024 तक औसतन 8.18 प्रतिशत थी, जो सन् 2020 के अप्रैल में 23.50 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई और 6.40 प्रतिशत के रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गई. …भाईचारा और विश्वास का क्षरण क्या कर रहा है.” >https://www.livemint.com/news/india/unemployment-rate-in-india-doubles-among-educated-youth-former-cea-kaushik-basu-says-change-is-coming-11711595014880.html
राष्ट्र के निर्माण में युवा वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है.परंतु यदि राष्ट्र का बेरोजगार युवा दिशाहीन हो जाता है. वह राष्ट्र व समाज विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हो जाता है तथा समाज में अशांति फैल जाती है. .परिणामस्वरूप राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती हैं.बेरोजगारी की स्थिति गंभीर राष्ट्र के लिए हितकर नहीं है. परंतु वर्तमान चुनाव(2024)में राजनीतिक दलों के द्वारा बेरोजगारी के समाधान केलिएआश्वासन तो दिए जाते हैं परंतु किस तरीके से समाधान होगा इसकी उनके पास विस्तृत योजना नहीं है. https://www.thehindu.com/opinion/editorial/jobs-outlook-bleak-on-the-the-india-employment-report-2024/article68002417.ece
अष्टम:हिंदू राज और हिंदू राष्ट्र –राष्ट्र के निर्माण के लिए घातक
भारत के संविधान एवं अंबेडकरवादी चिंतन में धर्मनिरपेक्षता का विशेष स्थान है.हिंदू राज और हिंदू राष्ट्र धर्मनिरपेक्षता एवं राष्ट्र के निर्माण के लिए हानिकारकऔर घातक है.सन् 2014 के पश्चात भारतीय जनता पार्टी नीत गठबंधन सरकार की स्थापना के पश्चात धीरे-धीरे धर्म निरपेक्षताको कमजोर किया जा रहा हैऔरसत्ताधारीवर्ग के द्वाराबहुत संख्या के वर्ग की भावनाओं और आस्था का शोषण करने के लिए धर्म और राजनीति में गहरा संपर्क स्थापित किया जा रहा है. बहुत संख्यक वर्ग के द्वाराअल्पसंख्यक वर्गों के विरुद्ध हॉस्टेलईटी तथा नफरत फैलाने का प्रयास किया जा रहा है तथा हिंदू राष्ट्र की स्थापना की और अग्रसर हो रहें हैं.
अयोध्या में प्रधान मंत्री राम मंदिरका उद्घाटन,मथुरा में मंदिर-मस्जिद विवाद,प्रशासन -पुलिस-पुजारी-सत्ताधारी- राजनेताओं के गठबंधन के द्वारा पूजा स्थल( विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 का उल्लंघन,नागरिकता संशोधन अधिनियम दिसंबर2019 में पारित हुआ तो उसे चुनाव से पूर्व 11जनवरी 2024 को 5 वर्ष के बाद अधिसूचना कर जारी करके लागू करना, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर बनाने का प्रचार करना,धारा 370 व धारा35(ए) पारित करके जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म करना, उत्तराखंड की सरकार के द्वारा समान नागरिक संहिता(यूसीसी)पारित करना, हिंदू बनाम मुस्लिम, हिंदू बनाम ईसाई और कुकी बनाम मैतेई( एथनिक विभाजन)इत्यादि धर्मनिरपेक्षता को चुनौती हैं
सन् 1947 में धर्म के आधार पर भारत का विभाजन राष्ट्र निर्माण के लिए घातक सिद्ध हुआ. इसके बावजूद भी भारतीय संविधान के निर्माताओं ने भारतीय राष्ट्र के निर्माण के लिए धर्मनिर्पेक्ष राज्य की स्थापना की. देश आजाद होने के पश्चात1960 के दशक से धीरे-धीरे सांप्रदायिक बढ़ते चले गए. वर्तमान शताब्दी में चाहे वह डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व मेंकांग्रेस नीत यूपीएसरकार हो अथवा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व मेंभाजपा नीतएनडीए सरकार हो सांप्रदायिक दंगे बंद नहीं हुए. सन 2014 में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद हिंदूराज और हिंदू राष्ट्र के सिद्धांत का प्रचार बढ़ रहा है.
आस्था के नाम पर सांप्रदायिक जहर धीरे-धीरे समाज में इस प्रकार प्रवेश कर दिया गया जिसके परिणाम स्वरूप सांप्रदायिक तनाव,सांप्रदायिक हिंसाऔर सांप्रदायिक दंगों मेंवृद्धि हुई है जो कि संविधान, धर्मनिरपेक्षता व राष्ट्र निर्माण के लिए हानिकारक और घातक है. वास्तविकता यह है कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने 7 दिसंबर 2022 को कांग्रेस के सांसद शशि थरूर के सवाल का उत्तर देते हुए राज्य सभा में कहा कि सन् 2017 से 2021 तक 5 वर्ष के दौरान 2900 सांप्रदायिक घटनाएं हुई. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का हवाला देते हुए, राय ने कहा कि 2021 में सांप्रदायिक या धार्मिक दंगों के कुल 378 मामले दर्ज किए गए, 2020 में 857, 2019 में 438, 2018 में 512 और 2017 में 723 मामले दर्ज किए गए.
(https://indianexpress.com/article/india/2900-communal-violence-cases-india-5-years-govt-8311709/ )
भारत में 2016-2020 की अवधि के दौरान सांप्रदायिक या धार्मिक दंगों के 3,399 मामले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए, राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा कि 2020 में 857 सांप्रदायिक या धार्मिक दंगे के मामले दर्ज किए गए, 2019 में 438, 2018 में 512, 2017 में 723 और 2016 में 869 मामले दर्ज किए गए।
सन् 2022 में सांप्रदायिक हिंसा की 272 घटनाएं दर्ज की गई.यूनाइटेड क्रिश्चियन फोर्म के अनुसार सन् 2023 में 525 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत किए गए.
एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार भारत के अप्रैल और जून 2022 के बीच पांच राज्यों – असम, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में न्यायेतरअथवा कानून के अतिरिक्त और नियमों को ताक पर रखते हुए बुलडोजर (जेसीबी) के प्रयोग से128 कार्रवाइयों में 617 अल्पसंख्यक वर्ग के लोग प्रभावित हुए. भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने अप्रैल 2022 में (अब हटाए गए एक्स पोस्ट में) जेसीबी को “जिहादी नियंत्रण बोर्ड” के नाम से संबोधित किया था.
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने हरियाणा के क्षेत्र नूंह में विध्वंस के मद्देनजर कहा था, “मुद्दा यह भी उठता है कि क्या कानून और व्यवस्था की समस्या की आड़ में किसी विशेष समुदाय की इमारतों को गिराया जा रहा है और राज्य द्वारा जातीय सफाए की कवायद की जा रही है।” सांप्रदायिक दंगे ,सांप्रदायिक हिंसा तथा बुलडोजर की राजनीति भारतीय धर्मनिरपेक्षता,न्याय,सांप्रदायिक सद्भावना,संविधानवाद और अंबेडकरवाद के बिल्कुल विपरीत है.इसके कारण भारतीय एकीकरण व राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है
भारतीय जनता पार्टी केसन 2014 में सत्ता में आने के बाद गौ रक्षा के नाम पर मुसलमानों के विरूध दक्षिणपंथी विचारधारा के समाज विरोधी तत्वों के द्वारा लोकतंत्र को ‘भीड़तंत्र’ व न्याय को ‘भीड़ के न्याय’ में बदल दिया.शोएब डेनियल के अनुसार”सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने गौरक्षा के नाम पर हिंसा का समर्थन किया है.”
साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक राजेंद्र शर्मा के अनुसार:
‘’2014 से अगस्त 2022 के बीच, गाय के नाम पर हिंसा के 206 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 850 लोग प्रभावित हुए। इनके शिकारों में दलित व ईसाई भी शामिल हैं, किंतु 86 फीसद हिस्सा मुसलमानों का ही था। ऐसी 97 फीसद घटनाएं मोदी राज आने के बाद ही हुई थीं। गो तस्करी के नाम पर पहलू खान और घर पर गाय का मांस रखने के नाम पर अखलाक की भीड़ हत्याओं से शुरू हुआ यह सिलसिला न सिर्फ लगातार जारी है, इन हिंसक गिरोहों के हौसले बढ़ते ही जा रहे हैं, जिसका सबूत 2023 के शुरू में हरियाणा में हुआ भिवानी का नासिर-जुनैद हत्याकांड है। गोकुशी और गोमांस के मामले में भाजपा के रुख का दोमुंहापन हैरान करने वाला है। जहां राजनीतिक-चुनावी स्वार्थ इसकी मांग करते हैं, जैसे गोवा में, उत्तर-पूर्व के राज्यों में, यहां तक कि केरल जैसे राज्यों में भी, भाजपा गोकुशी के मुद्दे पर चुप साधने से लेकर, गोमांस सस्ता, सुलभ कराए जाने की मांग उठाने तक चली जाती है। और उत्तरी भारत में वही भाजपा, गोरक्षा के नाम पर अपने गुंडादलों द्वारा हिंसा, यहां तक कि लिंचिंग तक का बचाव करती है’’ इंडियास्पेंड के अनुसार, 2015 के बाद से भारत में गौरक्षा से संबंधित हिंसा की 117 घटनाएं हुई हैं। क्विंट के अनुसार , 2015 से पूरे भारत में लिंचिंग में 88 लोग मारे गए.
डॉ भीमराव अंबेडकर हिंदू राज और हिंदू राष्ट्र को भारतीय संविधान, लोकतंत्र, और राष्ट्र निर्माण के लिए घातक मानते हैं. उन्होंने अपनी पुस्तक थॉट्स ऑन पाकिस्तान में इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा कि
. “यदि हिंदू राज वास्तविकता बन जाता है, तो यह निस्संदेह इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। हिंदू कुछ भी कहें, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए खतरा है। यह लोकतंत्र के साथ असंगत है. किसी भी कीमत पर हिंदू राज को स्थापित होने से रोका जाना चाहिए।” (डॉ. बी.आर. अम्बेडकर, थॉट्स ऑन पाकिस्तान, राइटिंग्स एंड स्पीचेज़, खंड-8, पृष्ठ-358) . वह आगे लिखते हैं कि “इसमें कोई संदेह नहीं कि जाति मूलतः हिंदुओं की आत्मा है. लेकिन हिंदुओं ने पूरे पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है और सिख, मुस्लिम और ईसाई सभी इससे पीड़ित हैं.” डॉ भीमराव अंबेडकर के अनुसार हिंदू धर्म राजनैतिक विचारधारा पूर्णतः प्रजातंत्र-विरोधी,. फासीवाद या नाजी विचारधारा है. उनके अपने शब्दों में:
‘‘हिन्दू धर्म एक ऐसी राजनैतिक विचारधारा है, जो पूर्णतः प्रजातंत्र-विरोधी है और जिसका चरित्र फासीवाद या नाजी विचारधारा जैसा ही है। अगर हिन्दू धर्म को खुली छूट मिल जाए-और हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने का यही अर्थ है- तो वह उन लोगों को आगे बढ़ने ही नहीं देगा जो हिन्दू नहीं हैं या हिन्दू धर्म के विरोधी हैं। यह केवल मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं है। यह दमित वर्गों और गैर-ब्राह्मणों का दृष्टिकोण भी है‘‘
संविधान सभा में ऐतिहासिक उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा था कि “अंदरूनी लोगों द्वारा विश्वासघात हमारा पुराना दुश्मन है, जबकि हमारा नया दुश्मन है जाति और धर्म. यदि लोग राष्ट्र को अपने पंथ और जाति से ऊपर नहीं रखेंगे, तो हमारी स्वतंत्रता फिर से खो जाएगी “
>https://www.newsclick.in/hindu-rashtra-means-end-babasahebs-dreams)
>https://mediavigil.com/op-ed/document/ambedkar-was-against-hindu-rashtra/
>सोर्स मटियरल आन डा. आंबेडकर, खण्ड 1, महाराष्ट्र शासन प्रकाशन पृष्ठ 241,)
संक्षेप में हमारा अभिमत है कि संविधान, लोकतंत्रऔर राष्ट्र निर्माण के लिए हिंदू राजऔर हिंदू राष्ट्रवाद के विरुद्धजनता को जागरूक होना नितांत अनिवार्य है. राष्ट्र निर्माण के लिए भारत की विभिन्न जातियों, विभिन्न धर्मो,संस्कृतियों,उप संस्कृतियों,सांस्कृतिक क्षेत्रों तथा विभिन्न भाषा वासी लोगों के मध्य सदभावनाका होना जरूरी हैभारत की भारत की विशालता और विभिन्नताओं को देखते हुए भारत में विभिन्नता में एकता के आधार पर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को सुदृद्ध किया जा सकता हैऔरप्रत्येक व्यक्ति को यह शपथ ग्रहण करनी चाहिएकि वह प्रथम व अंतिम भारतीय़ है. इसमें धर्म और जाति का कोई स्थान नहीं है. सन् 1959 में निर्मित फिल्म ‘धूल का फूल’ में साहिर लुधियानवी की नजम जिसको मोहम्मद रफी ने गया था भाईचारे और शांति का संदेश देती देती हुई राष्ट्र निर्माण के लिए अधिक प्रासंगिक है
‘तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा.’
सारांशतः भारत में गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, श्रमिक वर्ग का शोषण, दलित वर्ग के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार, अल्पसंख्यक वर्ग व दलित वर्ग के विरुद्ध निरंतर बढ़ते अपराध, महिलाओं के विरुद्ध बढ़ती हुई हिंसा इत्यादि समस्याओं का समाधान राष्ट्र निर्माण के लिएजरूरी है ताकि डॉ. भीमराव अंबेडकर के राष्ट्र निर्माता के विचारों को साकार किया जा सके.
(विशेष टिप्पणी –लेखक, कम्युनल प्रॉब्लम इन इंडिया: ए सिंपोजियम (करनाल :दयाल सिंह कॉलेज, जनवरी 1988) के संपादक हैं. मैं बाबा फतेह सिंह जी गवर्नमेंट कॉलेज, असंध के प्राचार्य डॉ. सुशील कुमार के प्रति आमंत्रित, सम्मानित व विचारों को साझा करने का सुनहरा अवसर प्रदान किया आभार प्रकट करता हूं. मै टीचिंग स्टाफ और विद्यार्थियों को भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ.)