भारत के संविधान के उद्देश्य एवं मूल्य: पुनर्मूल्यांकन

      डॉ. रामजीलाल

 

डॉ. रामजीलाल, पूर्व प्राचार्य,दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा)
e-mail drramjilal1947@gmail.com

(समाज वीकली)- लोकतांत्रिक और गणतंत्रात्मक और मूल्य किसी भी देश और समाज के निर्माण का आधार होते हैं. वर्तमान में, नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, दुनिया में 240 देश हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा केवल 195 देशों को ही मान्यता दी गई है. दुनिया के 195 देशों में से 75 देश गणतांत्रिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के रास्ते पर चल रहे हैं. गणतंत्रात्मक और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित 14 यूरोपीय देशों सहित केवल 20 देश हैं. बाकी 55 देशों में भारतीय शासन प्रणाली को सर्वश्रेष्ठ माना गया है. इस सर्वश्रेष्ठ प्रणाली को बनाने का श्रेय भारत की संविधान सभा को जाता है.

भारतवर्ष को 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश साम्राज्यवाद, भारतीय नरेशों और नवाबों के शोषण से मुक्ति प्राप्त हुई. 28 अगस्त 1947 को डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में संविधान निर्मात्री समिति का गठन किया गया. इस समिति ने 4 नवंबर 1947 को संविधान का मसौदा तैयार करके संविधान सभा को सौंप दिया. संविधान सभा के 11 सत्रों में 165 दिन संविधान निर्माण का काम हुआ तथा 7,635 प्रस्तुत संशोधनों में से 2,473 पर संविधान सभा में विचार हेतु प्रस्तुत किया गया .
डॉ.भीमराव अंबेडकर ने 26 नवंबर 1949 को संविधान बनने के पश्चात अपने प्रथम भाषण में विचार रखते हुए कहा कि भारत के संविधान को बनने में 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन लगे. आलोचक यह मानते हैं कि अधिक समय लगा. क्योंकि अन्य देशों के संविधान -अमेरिका (25 मई 1787- 17 सितंबर 1787) 4 महीने, कनाडा (10 अक्टूबर 1864- मार्च 1867) 2 वर्ष 4 महीने, ऑस्ट्रेलिया (सन्1891- सन्1900) 9 वर्ष, दक्षिण अफ्रीका (अक्टूबर 1908- 2009) एक वर्ष में तैयार हुए.

अंबेडकर ने इसका स्पष्टीकरण करते कहा कि इसके दो मुख्य कारण है:

प्रथम, “अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के संविधान हमारे संविधान के मुकाबले बहुत छोटे आकार के हैं. हमारे संविधान में 395 अनुच्छेद हैं, जबकि अमेरिकी संविधान में केवल 7 अनुच्छेद हैं,… कनाडा के संविधान में 147, आस्ट्रेलियाई में 128 और दक्षिण अफ्रीकी में 153 धाराएं हैं.’’
• द्वितीय, “अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के संविधान निर्माताओं को संशोधनों की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा. वे जिस रूप में प्रस्तुत किए गए, वैसे ही पास हो गए. इसकी तुलना में इस संविधान सभा को 2,473 संशोधनों का निपटारा करना पड़ा. इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए विलंब के आरोप मुझे बिलकुल निराधार लगते हैं और इतने दुर्गम कार्य को इतने कम समय में पूरा करने के लिए यह सभा स्वयं को बधाई तक दे सकती है”.

• भारतीय संविधान सभा में निर्वाचित सदस्यों में विभिन्न दलों और समूह के अनेक महत्वपूर्ण सदस्य थे. इन नेताओं में जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ राजेंद्र प्रसाद (कांग्रेस पार्टी ),बाबू जगजीवन राम (अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ), डॉ.बी.आर. अंबेडकर( अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ), महाराजा दरभंगा (अखिल भारतीय जमीदार संघ), श्यामा प्रसाद मुखर्जी (अखिल भारतीय हिंदू महासभा), फ्रैंक एंटनी (आंग्ल- भारतीय) विद्यमान थे. हंसा मेहता (अखिल भारतीय महिला सम्मेलन) सहित संविधान सभा की 15 महिला सदस्य भी थी.

संविधान के प्रस्तावित ड्राफ्ट पर बड़ी बारीकी से संविधान सभा में बहस हुई. डॉ. अंबेडकर ने सभी सदस्यों की मुक्तकंठ प्रशंसा की. परन्तु एचवी कामत, डॉ. पीएस देशमुख, प्रोफेसर सक्सैना, पंडित ठाकुरदास भार्गव, प्रोफेसर केटी शाह, हृदयनाथ कुजंरू इत्यादि ने संविधान सभा में जो मुद्दे उठाए उनकी प्रशंसा करते हुए अंबेडकर ने कहा उनमें से अधिकांश विचारात्मक थे. अंबेडकर ने अपने मित्रों अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर तथा टीटी कृष्णमाचारी ने आलोचकों का जवाब देते हुए जो सविधान का बचाव किया उसके लिए उनका आभार प्रकट किया. संविधान के निर्माण में संविधान सभा के सलाहकार सर बीएन राव तथा मुख्य ड्राफ्ट्समैन एस.एन मुखर्जी की भूमिका की डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भूरी- भूरी प्रशंसा की. संविधान की दो मूल हस्तलिखित प्रतिलिपियां हिंदी और अंग्रेजी में तैयार की गई. 73 वर्ष पूर्व 26 जनवरी 1950 को इसको लागू किया गया.

भारतीय संविधान में वर्णित मूल्यों तथा प्रतिबद्धताओं पर भारतीय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का प्रभाव है. भारतीय संस्कृति और समाज एक बहुलवादी समाज है जिसमें हजारों वर्षों से विभिनता में एकता के सिद्धांत के आधार पर मिश्रित सांस्कृतिक व्यवस्था निरंतर चल रही है. इसके अतिरिक्त भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समय राजनेताओं के द्वारा जनता को लामबंद करने के लिए किए गए वायदे, भारतीय कांग्रेस पार्टी के द्वारा समय-समय पर पारित राजनीतिक प्रस्ताव, जवाहरलाल नेहरु के द्वारा भारतीय संविधान सभा में प्रस्तुत किया गया उद्देश्य प्रस्ताव (13 सितंबर 1946), गांधीवाद (महात्मा गांधी संविधान सभा के सदस्य नहीं थे), जवाहरलाल नेहरू का वैज्ञानिक चिंतन और अंबेडकरवाद के मूल्यों पर प्रभाव है. संविधान सभा के महत्वपूर्ण नेता विदेशों में शिक्षा प्राप्त किए हुए थे तथा उन्होंने वहां व्यावहारिक तौर पर राजनीतिक व्यवस्थाओं का संचालन देखा और समझा. उनके इस अनुभव ने भी भारतीय संविधान के मूल्यों तथा प्रतिबद्धताओं को प्रभावित किया है. भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने नागपुर में महाराष्ट्र नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में 10 फरवरी 2023 बोलते कहा कि” भारत का संविधान स्व-शासन, गरिमा और स्वतंत्रता का एक उल्लेखनीय स्वदेशी उत्पाद है” और जबकि कुछ इसे पूरी तरह से” प्रशंसात्मक” शब्दों में बोलते हैं, कई अन्य इसकी सफलता के बारे में” निंदक” हैं.

डॉ. अंबेडकर संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष होने के नाते संविधान सभा में संविधान के प्रारूप प्रस्तावों के समर्थन में अपने भाषणों और तर्कों के द्वारा संविधान के अनुच्छेदों को अंतिम रूप प्रदान किया. प्रारूप समिति के मंतव्यों को जिस प्रभावशाली शैली से संविधान सभा में उन्होने प्रस्तुत किया उससे प्रकट होता है कि डॉ. अंबेडकर एक महान संविधान विशेषज्ञ एवं विधिवेत्ता थे. अनेक बार संविधान सभा के सदस्यों के साथ उनका व्यवहार स्कूल के हैड मास्टर की भांति भी होता था. परिणाम स्वरूप वे उनके सामने बौने व शून्य पड़ जाते थे. संविधान सभा के सदस्य डा.महावीर त्यागी को उन्होंने कहा कि ‘इस सभा में मैं कानूनी मुद्दे नहीं समझा सकता. यह सभा कानून की कक्षा नहीं है और इस प्रकार की व्याख्या देने से भी असर्मथ हूं’. डॉ. अंबेडकर की संवैधानिक योग्यता और प्रतिभा के कारण प्रारूप समिति बहुत अधिक शक्तिशाली हो गई थी और संविधान सभा अनेक बार कमजोर पड़ गई.

यही कारण है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर को भारतीय संविधान के निर्माता, शिल्पीकार एवं वास्तुकार माना जाता है. इस संबंध में संविधान की प्रारूप समिति के एक सदस्य टी॰ टी॰ कृष्णामाचारी ने कहा:
“अध्यक्ष महोदय, सदन में उन लोगों में से एक हूं, जिन्होंने डॉ॰ आंबेडकर की बात को बहुत ध्यान से सुना है. मैं इस संविधान की ड्राफ्टिंग के काम में जुटे काम और उत्साह के बारे में जानता हूं. उसी समय, मुझे यह महसूस होता है कि इस समय हमारे लिए जितना महत्वपूर्ण संविधान तैयार करने के उद्देश्य से ध्यान देना आवश्यक था, वह ड्राफ्टिंग कमेटी द्वारा नहीं दिया गया. सदन को शायद सात सदस्यों की जानकारी है. आपके द्वारा नामित, एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया था और उसे बदल दिया गया था. एक की मृत्यु हो गई थी और उसकी जगह कोई नहीं लिया गया था. एक अमेरिका में था और उसका स्थान नहीं भरा गया और एक अन्य व्यक्ति राज्य के मामलों में व्यस्त था, और उस सीमा तक एक शून्य था. एक या दो लोग दिल्ली से बहुत दूर थे और शायद स्वास्थ्य के कारणों ने उन्हें भाग लेने की अनुमति नहीं दी. इसलिए अंततः यह हुआ कि इस संविधान का मसौदा तैयार करने का सारा भार डॉ॰ आंबेडकर पर पड़ा और मुझे कोई संदेह नहीं है कि हम उनके लिए आभारी हैं. इस कार्य को प्राप्त करने के बाद मैं ऐसा मानता हूँ कि यह निस्संदेह सराहनीय है.”

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने डॉ.. भीमराव अंबेडकर 10 फरवरी 2023 को डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रशंसा करते हुए कहा कि ‘भारतीय कई संवैधानिक अधिकारों और उपायों के लिए उनके ऋणी हैं जिन्हें हम आज प्रदान करते हैं.’ उन्होंने ‘महान समाज सुधारक और न्यायविद’ के बारे में कहा कि “जाति से बीमार समाज की वजह से उनके खिलाफ ढेर हो गए थे और फिर भी वह डटे रहे और हमारे देश के शायद दुनिया के इतिहास में सबसे ऊंचे व्यक्तियों में से एक बन गए.”

सामाजिक, सांस्कृतिक आर्थिक एवं राजनीतिक प्रेरणादायक उद्देश्यों एवं मूल्यों का वर्णन संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों (तृतीय अध्याय), राज्य नीति निर्देशक के सिद्धांतों (अध्याय4) एवं मौलिक कर्तव्य [(अध्याय4 (A) अनुच्छेद (51 A)} में गया है. संविधान के अनेक मूल्य महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों से बहुत अधिक प्रभावित है. भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया था.इसी प्रस्ताव के आधार पर भारत के संविधान की प्रस्तावना में मूल्यों और उद्देश्यों को सम्मिलित किया गया है.

भारत के संविधान के प्रस्तावना निम्नलिखित है :
हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा अपने समस्त नागरिकों को :
न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा,
उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए,
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.”
भारत के संविधान के प्रस्तावना का प्रारंभ ‘हम भारत के लोगों’ से होता है तथा अंतिम पंक्ति के अनुसार, ‘संविधान सभा में आज 26 नवंबर 1949 को एतद् के द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं.’
भारत के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा, ‘हम भारत के लोग खुद को यह संविधान देते हैं…यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत के लोगों के प्रजा की स्थिति से नागरिकों की स्थिति में परिवर्तन को चिह्नित करता है. औपनिवेशिक आकाओं ने अनुग्रह के कार्य के रूप में हमें संविधान प्रदान नहीं किया.”
संविधान का सर्वोत्तम मूल्य एवं प्रभुसत्ता संपन्न शक्ति का स्त्रोत भारत के समस्त लोग हैं. भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म ,जाति, संप्रदाय अथवा क्षेत्र से संबंधित है वह भारत का निवासी है.हम भारत के लोग संविधान के मूल्यों का स्रोत भी हैं और इन पर चलने के लिए प्रतिबंध भी है.संविधान के मूल्य भारतीय गणतंत्र के प्रेरणादायक आधार व मूल मंत्र हैं.

15 अगस्त 1947 से लेकर 26 जनवरी 1950 तक भारत अधिराज्य था. 26 जनवरी 1950 को भारत संपूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न गणराज्य बन गया. अन्य शब्दों में भारत आंतरिक और बाहरी रूप में अन्य राज्यों की भांति एक प्रभुसत्ता संपन्न राज्य है. गणराज्य से हमारा मतलब है कि राष्ट्राध्यक्ष (राष्ट्रपति) निर्वाचित होना चाहिए है. इंग्लैंड और जापान सहित दुनिया के 43 देशों में वंशानुगत आधार पर राजशाही मौजूद है. लेकिन भारत में इसके विपरीत गणतांत्रिक व्यवस्था है. भारतीय गणतंत्र का प्रमुख राष्ट्रपति है. भारत में संसदीय लोकतंत्रात्मक प्रणाली है. संसदीय प्रणाली में मंत्री परिषद व्यैक्तिक और सामूहिक रूप में जनता द्वारा निर्वाचित सदन के प्रति उत्तरदाई होती है. वर्तमान में विश्व के 36 देशों में संसदीय प्रणाली है. इस प्रणाली में शासनाध्यक्ष नाममात्र का पदाधिकारी होता है. उसके पास वास्तविक शक्तियां नहीं है. इसके बावजूद भी वह विशेष परिस्थितियों में विशेषाधिकार का प्रयोग कर सकता है.

प्रस्तावना के अनुसार ‘धर्मनिरपेक्षता’ भारतीय गणतंत्र का आधार है. इसीलिए हिन्दू बहुलतावादी देश होते हुए भी हिंदू धर्म से संबंधित राष्ट्रपतियों के अतिरिक्त भारत के सर्वोच्च पद(राष्ट्रपति) पर अल्पसंख्यक समुदायों, महिलाओं, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित व्यक्ति भी शोभायमान रहे हैं. डॉ. जाकिर हुसैन, मो.हिदायतुल्लाह (कार्यवाहक राष्ट्रपति), फखरुद्दीन अली अहमद और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम इस्लाम धर्म से संबंधित राष्ट्रपति के पद पर आसीन रहे. राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह सिख धर्म से ताल्लुक रखते थे. यही नहीं बल्कि बी.डी. जत्ती (कार्यवाहक राष्ट्रपति), केआर नारायणन और रामनाथ कोविंद अनुसूचित जाति से संबंधित व्यक्ति राष्ट्रपति पद पर विराजमान रहे हैं. भारतीय समाज पुरुष प्रधान है.ऐसी स्थिति में महिलाओं का सर्वोच्च पद पर जाना अपने आप में एक अनोखी मिसाल है. पुरुष प्रधान समाज में प्रथम महिला राष्ट्रपति होने का श्रेय श्रीमती प्रतिभा सिंह पाटिल को जाता है. वर्तमान राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू अनुसूचित जनजाति से संबंध रखती हैं. भारतीय लोकतांत्रिक गणराज्य में राष्ट्रपति का पद किसी धर्म, जाति, पंथ, लिंग या वंश के आधार पर नहीं है. यह भारतीय लोकतंत्र और गणतंत्र की एक अतुलनीय विशेषता है.
लोकतंत्र के सफलता का आधारभूत स्तंभ समानता एवं स्वतंत्रता है. स्वतंत्रता से हमारा तात्पर्य है प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार की अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और पूजा की स्वतंत्रता है. भारतीय संविधान की प्रस्तावना एवं तीसरे अध्याय के अनुच्छेद 14 से 18 तक समानता का अधिकार प्रदान किया गया है. अनुच्छेद 14 में कानून के समक्ष सभी समान हैं. और सभी को भारत के कानून के द्वारा सुरक्षित किया गया है. आर्टिकल 15 के अनुसार किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग, एवं जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता. अनुच्छेद 16 के अनुसार इन धर्म, जाति, लिंग, एवं जन्म स्थान के आधारों पर किसी भी व्यक्ति के साथ राज्य रोजगार के मामलों में भेदभाव नहीं कर सकता. अनुच्छेद 17 के अनुसार अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है तथा सार्वजनिक स्थानों, होटलों इत्यादि तक सभी व्यक्तियों की पहुंच है. हजारों सालों से चली आ रही अस्पृश्यता के कलंक को संविधान के द्वारा समाप्त कर दिया गया है. परंतु इसके बावजूद भी यह कुप्रथा समाज से पूरी तरह समाप्त नहीं हुई. इसके पूर्ण उन्मूलन के लिए सैविधानिक एवं कानूनी उपायों के साथ-साथ जन आंदोलनों के माध्यम से जनता को जागरूक करने की अनिवार्य है. समाज में भेदभाव समाज की एकता, समाज के एकीकरण और राष्ट्रीय विकास में बाधा उत्पन्न करता है.

अनुच्छेद 23 एवं 24 के अनुसार प्रत्येक नागरिक को शोषण के विरुद्ध अधिकार प्राप्त है. संविधानिक मूल्य को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 23 में बेगार को दंडनीय अपराध माना गया है. अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 वर्ष की आयु से कम किसी भी बच्चे से कारखानों अथवा खानों अथवा अन्य जोखिम भरे कार्य में नहीं लगाया जा सकता.

यद्यपि भारत के संविधान में व्यक्ति के क्रय तथा विक्रय पर प्रतिबंध लगाया गया. इसके बावजूद भी लाखों महिलाएं, युवतियों और बच्चियां वेश्यावृत्ति का शिकार है. अत्यंत दुखद स्थिति यह है कि आज भी स्टांप पेपर पर लड़कियों को बेचा जाता है (दैनिक भास्कर, 26 अक्टूबर 2022). हरियाणा तथा पंजाब में भारत के अन्य प्रदेशों से युवतियों को खरीद कर शादियां की जाती हैं. केंद्रीय तथा प्रांतीय सरकारों के द्वारा स्त्री विरोधी कुप्रथाओं को रोकने के लिए तथा गरीब महिलाओं को शोषण से बचाने के लिए जो प्रयास किए गए हैं वे लगभग नगण्य हैं.

महिलाओं के बलात्कारों, हत्याओं एवं अन्य अत्याचारों की खबरें समाचार पत्रों की सुर्खियां होती हैं. भारत सरकार के गृह मंत्रालय की शाखा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार भारत में सन् 2008 में 21,467 बलात्कार मामले के विभिन्न राज्यों के पुलिस थानों में पंजीकृत किए गए. परंतु महिलाओं के विरुद्ध अत्याचार, हिंसा व रेप के मामलों में निरंतर वृद्धि होती जा रही है एनसीआरबी के अनुसार सन् 2017 में 31,658, 2018 में 33,977, सन् 2019 में 32,260, सन् 2020 में 28,153, सन् 2021 में 31,677 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत हुए हैं. एनसीआरबी के अनुसार सन् 2020 के मुकाबले सन् 2021 में 13.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. भारत में एक दिन में औसतन 86 रेप की घटनाएं होती हैं. सन् 2021 में भारत में हर घंटे 49 महिलाओं के खिलाफ अपराध (Crime against Women) पंजीकृत किए गए. आंकड़ों का मंथन यह दर्शाता है कि यदि महिलाओं का मान -सम्मान सुरक्षित नहीं है तो महिला सशक्तिकरण के सभी दावे खोखले नजर आते हैं. महिलाओं के विरुद्ध अपराध और हिंसा के संबंध में राज्य सरकारों का कर्तव्य है कि स्त्री- पुरुष की समानता के अधिकार तथा सुरक्षा को सुनिश्चित करें ताकि संविधान में दिए गए मूल्य- व्यक्ति की गरिमा की सुरक्षा की जा सके.

स्वतंत्रता के अधिकार का वर्णन भारत के संविधान के अनुच्छेद 19, 20, 21 और 22 में है. अनुच्छेद 19 में भारतीय नागरिकों को छह प्रकार की स्वतंत्रताओं की गारंटी दी गई है – भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, बिना हथियारों के एकत्रित होने की स्वतंत्रता, यूनियन बनाने की स्वतंत्रता, आंदोलन की स्वतंत्रता भारत के किसी भी भाग में बसने अथवा निवास स्थान की स्वतंत्रता और किसी भी व्यवसाय को करने की स्वतंत्रता है परंतु निर्बाध स्वतंत्रता न तो संभव है और न ही वांछित है| यही कारण है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता न्यायालय की अवमानना. अपराधके लिए उकसाना, मानहानि इत्यादि के आधार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है. अनुच्छेद 21 में ए प्राप्त है. सुप्रीम कोर्ट के द्वारा अपने निर्णयों के माध्यम से इस को आगे बढ़ाया है.

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन का अधिकार के दायरे को बढ़ाते हुए इसमें आजीविका, अच्छा स्वास्थ्य, स्वच्छ पर्यावरण स्पीडी ट्रायल और कैदियों सहित अनेक अधिकार सम्मिलित है. इस अधिकार को आगे बढ़ाते हुए सन 2002 में मुझे 21 मई प्राथमिक शिक्षा तो मौलिक अधिकार बनाया गया है और इसे संविधान का अंग मानते हुए धारा 21 ए जोड़ा गया.

समाजवाद भारत के संविधान का एक बड़ा महत्वपूर्ण मूल्य है.संविधान के 42 में संशोधन में ‘समाजवाद’ जोड़ा गया. परंतु सन 1991 के पश्चात धीरे- धीरे भारतीय राजनीति की ग्रामर से ‘समाजवाद’ शब्द लुप्त होता जा रहा है. समाजवाद की अपेक्षा निजीकरण के आधार पर पूंजीवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. कार्ल मार्क्स के अतिरेक मूल्य के सिद्धांत के अनुसार धन के केंद्रीयकरण के कारण अमीर अधिक अमीर और गरीब अधिक गरीब होता चला जाता है. देश की संपदा मुट्ठी भर अरबपतियों के नियंत्रण में आ जाती है और गरीबों की संख्या निरंतर बढ़ती चली जाती है. यह बात पूर्णतया भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पर लागू होती है. भारत की संपत्ति का बहुत बड़ा भाग पूंजीपतियों के नियंत्रण में है और गरीब तथा अमीर में बहुत अधिक अंतर बढ़ता जा रहा है.

समानता का मूल्य लिखने, पढ़ने और बोलने में बहुत ही अच्छा लगता है. परंतु व्यावहारिक रूप में भारत मेंअसमानता के समुद्र में अमीरी के द्वीप दृष्टिगोचर होते हैं. नवीनतम आंकड़ों के अनुसार ऑक्सफैम की रिपोर्ट का यह दावा है कि 21 भारतीय अरबपतियों की संपत्ति 70 करोड़ भारतीयों से अधिक है. नवंबर 2020 से नवंबर 2022 तक 2 वर्षों के अंतराल में अरबपतियों की संपत्ति में 121% की वृद्धि हुई है. अन्य शब्दों में 368 करोड़ रुपए प्रतिदिन अथवा 1 मिनट में 2.5 करोड रुपए की बढ़ोतरी बढ़ोतरी हुई है. अरबपतियों की संख्या में भी निरंतर वृद्धि हो रही है. उदाहरण के तौर पर सन् 2020 में बीच में अरबपतियों की संख्या102 थी. सन् 2022 में यह बढ़कर 166 हो गई. भारत के 100 अमीरों की कुल संपत्ति 800 बिलियन डालर है. उधर कोरोना काल में 5.6 करोड लोग गरीब हो गए.भूखमरी से ग्रस्त व्यक्तियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है. उदाहरण के तौर पर सन् 2018 में 19 करोड लोग भुखमरी से ग्रस्त थे. सन् 2022 में यह संख्या बढ़कर 35 करोड हो गई है. भारत सरकार के द्वारा 81 करोड लोगों को राशन देना इस बात को सिद्ध करता है कि भारत में भुखमरी, गरीबी और गरीब- अमीर के बीच में अंतर विद्यमान है. ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार सन, 2022 मेंकुपोषण के कारण 1.7 मिलियन भारतीय मृत्यु का ग्रास हो गए .भारत सरकार के द्वारा लगाया गए जीएसटी ने भी गरीब आदमी की कमर तोड़कर रख दी. भारत की 50% आबादी की जीएसटी में भागीदारी 64% है जबकि अमीरों की भागीदारी केवल 3% है.

भारत में स्त्री और पुरुष में लैंगिक भेदभाव, मुस्लिम, दलित व आदिवासी के साथ अन्य भारतीयों की अपेक्षा भेदभाव, व असमानता विद्यमान है. महिला सशक्तिकरण के अनेक दावों के बावजूद भी स्त्री और पुरुष में 98% लैंगिक भेदभाव- विद्यमान है. यही कारण है कि भारत की श्रमिक शक्ति में महिलाओं की भागीदारी सन् 2004 -सन् 2005 में 42.5% से घट कर सन् 2021 में 25% हो गई. अन्य शब्दों में भारत में महिला श्रम शक्ति में 17.5% की गिरावट आई है. ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार लिंग -भेद के कारण महिलाओं की अपेक्षा पुरुष को ₹4000 मासिक अधिक मिलते हैं. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जन जातियों तथा अन्य भारतीयों की कमाई में ₹5000 मासिक अंतर है. इसी प्रकार मुस्लिम और गैर-मुस्लिम की कमाई में मासिक अंतर ₹7000 है.

संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास इंडेक्स (एचडीआई) रिपोर्ट, 2022 के अनुसार भारत में मानव विकास सूचकांक में गिरावट आई है.सन् 2015 में विश्व में भारत का रैंक130वां, सन् 2021 में 131वां और सन् 2022 में एक पायदान और फिसल कर 132 वां हो गया. यह रिपोर्ट भारत में आर्थिक असमानता को दर्शाती है .सन् 1990 के पश्चात नव उदारवादी नीतियां, खुला बाजार, विनिवेशीकरण, सार्वजनिक मुख्य उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपना, कारपोरेट और पूंजीपतियों को अनेक सुविधाएं देना तथा आर्थिक जगत में प्राइवेट प्लेयर्स को अनियंत्रित खुली छूट इत्यादि के कारण असमानता व अस्थिरता में निरंतर वृद्धि हुई है. भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा ‘स्वतंत्रता के समय हमारे समाज को विभाजित करने वाली गहरी असमानता आज भी कायम है’. यह राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं है. परिणाम स्वरूप भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आंदोलनो, हड़तालो और प्रदर्शनों की सुर्खियां अखबारों में छाई रहती हैं. यह राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं है.

भारत बढ़ती हुई बेरोजगारी के कारण ज्वालामुखी के पहाड़ के ऊपर खड़ा है. आर्थिक विषमता और असमानता के कारण स्थिति भयंकर हो जाती है क्योंकि ”रोजगार रहित विकास” हो रहा है. फरवरी 2018 में 14.30 करोड युवा रोजगार की तलाश में थे. श्रम बल सर्वेक्षण के अनुसार” हमारे पास 7.6% की बेरोजगारी दर है’. भारतवर्ष में इस समय 4 करोड से अधिक लोग बेरोजगार हैं. बेरोजगारी 45 साल के उच्च स्तर 6.1% पर पहुंच गई जब कि सन् 2014 से सन् 2022 तक- 8 साल के अंतराल में 22 करोड़ बेरोजगार युवाओं ने नौकरी के लिए प्रार्थना पत्र दिये. केवल 7 लाख 22 हजार युवाओं को ही नौकरी मिली. जबकि केंद्रीय तथा राज्य सरकारों में लाखों स्थान खाली पड़े हैं और सरकारें भर्ती नहीं कर रही हैं.

भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है. भारत के संविधान के 42 में संशोधन के द्वारा सन 1976 में संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष जोड़ा गया है| भारतीय संविधान के अनेक अनुच्छेद 14, 15 है 16 एवं 25 से 30 तक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करते हैं| संक्षेप में भारत पाकिस्तान, ईरान, इंग्लैंड इत्यादि देशों की भांति धर्म प्रधान देश नहीं है. “विविधता में एकता” भारत की राष्ट्रीय एकता एवं धर्मनिरपेक्ष राज्य का का आधारभूत मूल मंत्र है, पिछले वर्षों में मॉब लिंचिंग, नागरिकता संशोधन विधेयक, एनआरसी, बीफ, धारा 370 का निरस्त करना, राम मंदिर तथा इसका फैसला, गौ रक्षा, लव जिहाद, ‘जयश्रीराम ”के नारे लगवाना, मुसलमानों को बार-बार पाकिस्तान भेजने का सुनियोजित ढंग से प्रचार करना इत्यादि असंख्य चुनौतियों का सामना भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप करना पड़ रहा है.

विभिनता में एकता के सिद्धांत के आधार पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का दृष्टिकोण वैज्ञानिक है. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उनके प्रथम मंत्रिमंडल में डॉ. भीमराव अंबेडकर (अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ) को भारत के न्याय मंत्री तथा जवाहरलाल नेहरू के धुरंधर विरोधी–हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी मंत्रिमंडल में लिए गए थे. यदि हम प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की बात करें तो उन्होंने कश्मीर के संबंध में संयुक्त राष्ट्र में भारत का पक्ष रखने के लिए अपनी पार्टी अथवा सरकार के किसी प्रतिनिधि की अपेक्षा विरोधी दल (भारतीय जनता पार्टी) के नेता अटल बिहारी वाजपेई को आधिकारिक तौर पर भेजा. परंतु वर्तमान में ऐसी स्थिति’ ढूंढते रह जाओगे’.

सन् 1976 में 42 वें संशोधन के द्वारा राजनीति निर्देशन के सिद्धांतों वाले अध्याय 4( A) एवं अनुच्छेद 51 ए जोड़ा गया. इसमें 10 मौलिक कर्तव्य का वर्णन किया गया है. राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, साझी संस्कृति की सुरक्षा, पर्यावरण, सद्भाव पूर्ण मैत्रीपूर्ण संबंध, लैंगिक समानता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, व्यक्तिगत और सामूहिक श्रेष्ठा प्राप्त करना, सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान का सम्मान इत्यादि मुख्य कर्तव्य है. भारत के संविधान के 86 वे संशोधन अधिनियम 2002 के द्वारा ग्यारहवाँ मौलिक कर्तव्य जोड़ा गया. इसके तहत 9 से 14 वर्ष तक के बच्चे की आयु बच्चों माता पिता एवं गार्डियंस का यह दायित्व निश्चित किया गया अपने बच्चों शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान करेंगे.

भारतीय स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के बावजूद भी भारत में आर्थिक शोषण, दमन, अत्याचार, आर्थिक व सामाजिक असमानता, कारपोरेट के द्वारा संसाधनों की लूट, सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों का निजी करण, सामाजिक भेदभाव, महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार, संकुचित अवधारणाएं – संप्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद इत्यादि में वृद्धि, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अज्ञानता, भुखमरी, कुपोषण, स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, नव- साम्राज्यवाद, राजनीतिक अपराधीकरण, राजनीति भ्रष्टाचार की संस्कृति, प्रशासनिक अधिकारियों का जनता के सेवक की जगह स्वामी होना इत्यादि समस्याओं से आम जनता ग्रस्त है.

लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित व्यवस्था की मजबूती और निरंतर गतिशीलता के लिए हमें लोकतांत्रिक मूल्यों के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करना चाहिए ताकि भारत एक आत्मनिर्भर और समृद्ध देश बने. लोकतंत्र की सफलता के मूल स्तंभ धर्मनिरपेक्षता, समानता, स्वतंत्रता व न्याय हैं. अंततःभारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, तकनीकी एवं शैक्षणिक विकास के लिए संविधान में वर्णित मूल्यों का पालन करना अनिवार्य है.

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