प्रोफेसर डी. एन. झा को श्रद्धांजलि
– राम पुनियानी
(समाज वीकली)- भारत इन दिनों ‘निर्मित की गई नफरतों’ की चपेट में है. इस नफरत के नतीजे में समाज के कमजोर वर्गों, विशेषकर दलितों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा हो रही है. इन समुदायों के विरूद्ध नफरत भड़काने के लिए झूठ का सहारा लिया जाता है और इस झूठ को फैलाने का सबसे अच्छा तरीका होता है ऐतिहासिक घटनाओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना. इस समय भारतीय इतिहास के तीनों कालों – प्राचीन, मध्य और आधुनिक को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है. जो इतिहासविद् हमारे इतिहास की तार्किक विवेचना करना चाहते हैं, उसके बहुवादी चरित्र को सामने लाना चाहते हैं, उन पर वर्चस्वशाली राजनैतिक विचारधारा के झंडाबरदार कटु हमले करते हैं और उन्हें बदनाम करने का हर संभव प्रयास करते हैं. भारत के अतीत को भारतीय राष्ट्रवादी और साम्प्रदायिक राष्ट्रवादी एकदम अलग-अलग तरीकों से देखते हैं. दोनों की इतिहास की समझ और विवेचना एक दूसरे से अलग ही नहीं परस्पर विरोधाभासी भी है. कई इतिहासकारों ने साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा इतिहास के साथ छेड़छाड़ का अपनी पूरी ताकत से मुकाबला किया. उन्होंने इस बात की परवाह भी नही की कि जुनूनी फिरकापरस्त उनकी जान भी ले सकते हैं.
दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर डी. एन. झा ऐसे ही एक इतिहासविद् थे. उन्हें कई बार जान से मारने की धमकियां दी गईं. गत 4 फरवरी को प्रोफेसर झा की मृत्यु न केवल हमारे देश और दुनिया के इतिहासविदों के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है वरन् उस आंदोलन के लिए भी बड़ा धक्का है जो हमारे देश के बहुवादी और समावेशी चरित्र को बरकरार रखना चाहता है. प्रोफेसर झा इस आंदोलन को विचारधारा के स्तर पर मजबूती देने वालों में से थे. उन्होंने अपने गहन अध्ययन से प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास को गहराई से समझने में हमारी मदद की.
उनकी पुस्तक ‘मिथ ऑफ़ होली काउ’ के प्रकाशन के बाद से ही उन्हें फोन पर जान से मारने की धमकियां मिलने लगीं थीं. होली काउ (पवित्र गाय) के आख्यान का एकमात्र उद्धेश्य दलितों और मुसलमानों को आतंकित करना है. हम सबने देखा है कि किस प्रकार इस आख्यान ने मुसलमानों और दलितों की लिंचिंग का रूप अख्तियार कर लिया. क्या हम ऊना की उस घटना को भूल सकते हैं जहां एक मृत गाय की खाल उतारने पर चार दलितों की बेरहमी से पिटाई की गई थी? झा की पुस्तक, जो कि हिन्दू धर्मग्रंथों के गहन अध्ययन पर आधारित थी, में यह बताया गया था कि प्राचीन भारत में गौमांस आम लोगों के भोजन का हिस्सा था. वैदिक और उत्तर-वैदिक दोनों कालों में भारत में गौमांस खाया जाता था. प्रोफेसर झा ने अपनी पुस्तक में मूल ग्रंथों को उद्धत किया था और बीफ के भोजन का भाग होने के संबंध में अकाट्य तर्क दिए. प्रोफेसर झा ने अपने शोध से जो साबित किया वह अम्बेडकर और उनके जैसे अन्य विद्वान पहले से भी कहते आ रहे थे. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘हू वर द शूद्राज’ में यही कहा था. स्वामी विवेकानंद की भी यही मान्यता थी. उन्होंने कहा था ‘‘तुम्हें आश्चर्य होगा कि पुराने समय में यह माना जाता था कि जो गौमांस नहीं खाता वह अच्छा हिन्दू नहीं है. एक अच्छे हिन्दू के लिए कुछ मौको पर सांड की बलि देकर उसका मांस खाना अनिवार्य था.” विवेकानंद ने यह बात 2 फरवरी 1900 को अमरीका के केलिर्फोनिया राज्य के पसाडेना में स्थित शेक्सपियर क्लब में ‘बुद्धिस्ट इंडिया’ विषय पर व्याख्यान देते हुए कही थी. इसका विवरण ‘द कम्पलीट वर्क्स ऑफ़ स्वामी विवेकानंद’ खंड 3 (कलकत्ताः अद्वैत आश्रम, 1997) पृष्ठ 536 में दिया गया है.
प्रोफेसर झा की विद्वतापूर्ण पुस्तक ने उस आंदोलन को जबरदस्त ताकत दी जो भारत में खानपान संबंधी आदतों में विविधता को बनाए रखना चाहता था. साम्प्रदायिक तत्वों को गौमाता से कोई प्रेम नहीं है. यह इस बात से स्पष्ट है कि हाल में राजस्थान के हिंगोनिया में एक गौशाला में सैकड़ों गायें भूख और बीमारी से मर गईं परंतु गौभक्तो के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. विजय त्रिवेदी ने ‘हार नहीं मानूंगा’ शीर्षक अटल बिहारी वाजपेयी की अपनी जीवनी में लिखा है कि वाजपेयी ने अमरीका में बीफ खाते हुए मजाक में कहा था कि वे कुछ भी गलत नहीं कर रहे हैं क्योंकि यह बीफ अमरीकी गाय का है.
हाल में प्रधानमंत्री ने राममंदिर के निर्माण कार्य का उद्घाटन किया. उसके बाद से राममंदिर के लिए चंदा उगाही का काम जोरशोर से चल रहा है. चंदा मांगने वालों ने यह साफ कर दिया है कि वे ‘न’ सुनने के आदी नहीं हैं. राममंदिर के मुद्दे पर इतिहासविदों ने एक रपट तैयार की थी. इस रपट का शीर्षक था ‘‘रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिदः ए हिस्टारियन्स रिपोर्ट टू द नेशन”. इतिहासविदों के जिस पैनल ने यह रपट तैयार की थी उसमें प्रोफेसर झा भी शामिल थे. इस रपट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया था कि न तो इस बात के कोई ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि बाबरी मस्जिद का निर्माण मंदिर को ढहाकर किया गया था और ना ही इस बात के कि भगवान राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ था जहां कथित राममंदिर था. उच्चतम न्यायालय ने इस रपट को ‘इतिहासविदों की राय’ कहकर खारिज कर दिया परंतु वह जिस निष्कर्ष पर पहुंचा वह इस रपट के निष्कर्षों से मिलते-जुलते थे. यह बात अलग है कि न्यायालय ने उन लोगों को भी मस्जिद की जमीन में हिस्सा दे दिया जिन्हें उसने मस्जिद को ढहाने के अपराध का दोषी ठहराया था.
अब बिहार में स्थित प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करने का आरोप बख्तियार खिलजी पर लगाया जा रहा है. खिलजी ने भले ही देश के अन्य स्थानों पर उत्पात मचाया हो परंतु नालंदा को ब्राम्हणवादियों ने नष्ट किया था. वे बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव से नाराज थे. विभिन्न स्त्रोतों के हवाले से प्रोफेसर झा लिखते हैं, ‘‘बौद्ध और ब्राम्हण भिक्षुकों के बीच कई मौकों पर हाथापाई हुई. ब्राम्हण इससे इतने नाराज हो गए कि उन्होंने 12 वर्ष तक भगवान सूर्य को समर्पित यज्ञ किया और फिर यज्ञ कुंड के जलते हुए अंगारों को बौद्ध मंदिरों में फेंका. जिन बौद्ध इमारतों पर हमले हुए उनमें नालंदा विश्वविद्यालय शामिल था, जहां के अत्यंत समृद्ध और विशाल पुस्तकालय, जिसे रत्नबोधि कहा जाता था, को जलाकर राख कर दिया गया”. इस प्राचीन अध्ययन केन्द्र को नष्ट करने के लिए खिलजी को जिम्मेदार ठहराने का उद्धेश्य, दरअसल, बौद्ध धर्म और ब्राम्हणवाद के बीच संघर्ष, जो प्राचीन भारतीय इतिहास की धुरी था, से लोगों का ध्यान हटाना है.
मंगलौर में पूर्व आरएसएस प्रचारक प्रमोद मुताल्लिक के नेतृत्व वाली श्रीराम सेने द्वारा एक पब, जिसमें कुछ लड़कियां शराब पी रहीं थीं, पर हमले की घटना के बाद प्रोफेसर झा ने एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक था ‘ड्रिंक ऑफ़ इमार्टेलिटी’. इस पुस्तक में प्रोफेसर झा ने बताया कि किस प्रकार प्राचीन भारत में तरह-तरह की शराबें तैयार की जातीं थीं और महिलाएं और पुरूष दोनों उसका भरपूर सेवन करते थे. उन्होंने सप्रमाण यह भी सिद्ध किया कि वेदों, रामायण और महाभारत में शराब के सेवन की चर्चा है.
झा उन विद्वानों में से थे जिन्होंने सक्रिय रूप से एक बेहतर समाज के निर्माण के संघर्ष में अपना योगदान दिया – एक ऐसे समाज के जो विविधता और बहुवाद का सम्मान करता है, एक ऐसे समाज के जो दमितों और हाशियाकृत समुदायों के अधिकारों की रक्षा करता है, एक ऐसे समाज के जो धार्मिक अल्पसंख्यकों को नीची निगाहों से नहीं देखता. देश की विविधवर्णी, बहुवादी संस्कृति को बढ़ावा देने में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा.
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(This translation work supported by Center for Study of Society and Secularism. Small contributions to continue this efforts are solicited.)