डॉ मनमोहन सिंह के इंटरव्यू के निहितार्थ

Dr. Prem Singh

– प्रेम सिंह

(समाज वीकली)- अंग्रेजी दैनिक ‘दि इंडियन एक्सप्रेसस’ (8 सितंबर 2023) में पूर्व वित्तमंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ है। यह खास इंटरव्यू अखबार के किस पत्रकार ने लिया है, इसकी जानकारी नहीं दी गई है। बताया गया है कि ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ ने जी20 की पूर्व संध्या पर डॉ सिंह का यह इंटरव्यू किया है। भारत में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के प्रणेता डॉ सिंह ने इस इंटरव्यू में शासक-वर्ग की घरेलू और विदेश नीतियों का समर्थन करते हुए उसकी हौसला अफजाई की है। साथ ही वे भारत की नवउदारवादी अर्थव्यवस्था को दरपेश नई विश्व-व्यवस्था (न्यू वर्ल्ड ऑर्डर) में वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ ज्यादा से ज्यादा इंटीग्रेट करने की सिफारिश करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करते हुए भारत को यह नहीं सोचना है कौन-सा पक्ष सही है, कौन-सा गलत। 91 वर्षीय डॉ सिंह द्वारा अपने बच्चों की पीठ ठोंकने वाले इस इंटरव्यू को देशों के अंतर्गत और देशों के बीच बराबरी (डॉ लोहिया का सहारा लें तो जितनी भी बराबरी संभव हो सके) के विचार में विश्वास करने वाले नागरिकों को पढ़ना चाहिए ताकि उसके निहितार्थों को समझ सकें।

इंटरव्यू के इंट्रो में अखबार ने डॉ सिंह के तीन वक्तव्यों को अपनी तरफ से रेखांकित किया है। पहला वक्तव्य रूस-उक्रेन युद्ध के बारे में है: “रूस-उक्रेन युद्ध के मद्देनज़र नई विश्व-व्यवस्था के परिचालन में भारत की केंद्रीय भूमिका है और उसने अपनी संप्रभुता और आर्थिक हितों को पहले रखते हुए शांति की भी अपील करके सही चीज की है।” उनके इस वक्तव्य की रोशनी में नई विश्व-व्यवस्था के चरित्र को कुछ समझ जा सकता है। डॉ सिंह यह नहीं कहते कि नई विश्व-व्यवस्था के निर्धारण और संचालन में युद्धों की जगह नहीं होनी चाहिए; कि हथियारों का निर्माण, व्यापार और तस्करी दुनिया में शांति और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए बुरी चीज हैं; कि देशों के बीच युद्ध होंगे तो समुदायों के बीच भी संघर्ष बने रहेंगे; कि नई विश्व-व्यवस्था की अर्थव्यवस्था में हथियार बनाने और बेचने वाले देशों की बढ़त हमेशा बनी रहेगी।

रूस-उक्रेन युद्ध को छिड़े डेढ़ साल से ऊपर हो चुका है। भारत की संसद में जवाहरलाल नेहरू और अमेरिका की संसद में गांधी के सपनों का भारत बनाने की बात करने वाले डॉ सिंह ने यह युद्ध बंद करने की अपील नहीं की है। वे रूस-उक्रेन जैसे युद्धों को नई विश्व-व्यवस्था का अविभाज्य हिस्सा मानते प्रतीत होते हैं। जैसे उन्हें नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में घोटाले होते रहना कोई गलत बात नहीं लगती थी, उसी तरह नई विश्व-व्यवस्था में ऐसे युद्ध होते रहना कोई गलत बात नहीं लगती। इंटरव्यू में नई विश्व-व्यवस्था के कई तरह के अंतर्विरोधों (कंट्राडिक्शंस) और संघर्षों (कंफलिक्ट्स) को लेकर भी उनकी कोई चिंता नजर नहीं आती। यानि अंतर्विरोधों और संघर्षों को युद्ध से भी सुलझाया जा सकता है। तो क्या नई विश्व-व्यवस्था के तहत युद्ध और उनसे जुड़ी मानव-विनाश और पर्यावरण-विनाश की जुड़वां प्रक्रिया मुसलसल चलते रहनी है?

दूसरा वक्तव्य डॉ सिंह के भारत के भविष्य को लेकर आशावादी होने के बारे में है: “वे भारत के भविष्य के बारे में चिंतित होने से ज्यादा आशावादी हैं। लेकिन यह आशावाद इस पर निर्भर करता है कि भारत एक सद्भावनापूर्ण समाज बना रहे।” डॉ सिंह ने सामाजिक सद्भावना की जरूरत नई विश्व-व्यवस्था में नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने के लिए बताई है। कहने की जरूरत नहीं कि नवउदारवादियों के लिए मनुष्य और समाज मूलभूत नहीं हैं। मूलभूत बाजारवादी अर्थव्यवस्था है, जो मनुष्य और समाज के लिए सारे “सही” फैसले करती है। नवउदारवादी नेता नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने के लिए सामाजिक सद्भाव की जरूरत इसलिए मानते रहे हैं, ताकि विदेशी/निजी पूंजी निवेशकों का मुनाफा कमाने का भरोसा बना रहे।

हालांकि इस विषय में डॉ सिंह यह नहीं देख पाते हैं कि यह धारणा – विदेशी/निजी निवेश के लिए समाज में शांति होना जरूरी है – खुद उनके और अटलबिहारी वाजपेयी के काल तक की है। नरेंद्र मोदी-काल में यह धारणा पूरी तरह उलट गई है। अब सामाजिक वैमनस्य का वातावरण विदेशी/निजी पूंजी निवेशकों के लिए ज्यादा सुरक्षित माना जाता है। लोग आपस में लड़ेंगे, और उदारीकरण-निजीकरण के फैसले बिना जन-प्रतिरोध के लागू होते रहेंगे। इसके साथ, आरएसएस/भाजपा ने सांप्रदायिक घृणा को राजनीतिक सत्ता हासिल करने की कुंजी बना दिया है। सांप्रदायिक घृणा के रास्ते पर वे कोई मर्यादा स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। इस रास्ते पर चलते हुए वे अगले 50 सालों तक देश पर शासन करते रहने का दावा करते हैं। डॉ सिंह शायद नहीं जानते अथवा स्वीकार करते कि पिछले एक दशक में देश में सामाजिक सद्भाव किस हद तक बिगड़ चुका है; और उसका उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों से गहरा रिश्ता है। यह आश्चर्य की बात है कि वे मानव एवं संवैधानिक मूल्यों के लिए गहरा खतरा बन चुके देश में जारी कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ के बारे में जानते ही नहीं हैं।

इंट्रो में तीसरी बात डिप्लोमेसी और विदेश नीति को लेकर डॉ सिंह की हिदायत के बारे में है: “सिंह, जिनके कार्यकाल में 2008 के आर्थिक संकट के बाद जी20 नेताओं के शिखर सम्मेलन के रूप में अस्तित्व में आया, ने सावधान भी किया कि कूटनीति (डिप्लोमेसी) और विदेश नीति (फोरेन पॉलिसी) को पार्टी या व्यक्तिगत राजनीति के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।” यह हर नेता और पार्टी के लिए एक वाजिब सलाह है। हालांकि न नरेंद्र मोदी, न उनकी पार्टी डॉ सिंह की इस भली सलाह पर गौर करने वाले हैं। दरअसल, नवउदारवादी दौर की राजनीति में ‘जो दिखता है सो बिकता है’ का बाजार-नियम (मार्केट नॉर्म) चलता है। राजनीति के बाजार में खुद को सर्वश्रेष्ठ उत्पाद (बेस्ट प्रोडक्ट) विज्ञापित करते रहने के लिए सरकारी खजाने का अरबों रुपया पानी की तरह बहाया जाता है। देश-विदेश में तैनात नवउदारवादियों की मजबूत टीम इस विज्ञापनवाद की मुस्तैदी से रखवाली करती है।

इंटरव्यू में डॉ सिंह ने यह कहा है कि वे खुश हैं कि जी20 की अध्यक्षता की भारत की बारी उनके जीवनकाल में आ गई। बेहतर होता वे यह भी कहते कि इस घटना को पूरे साल तमाशा बना कर देश का अरबों रुपया बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए था। शायद वे यह कह ही नहीं सकते थे। नवउदारवादी विश्व-व्यवस्था में खासकर विकासशील देशों में नेताओं और सरकारों की फिजूलखर्ची एक जरूरी कर्मकांड बन चुका है। आप एक उभरती अर्थव्यवस्था हैं, तो आपको दिखाना पड़ेगा आप धन-वैभव का कितना भव्य प्रदर्शन करते हैं। जिन करोड़ों लोगों के पेट पर लात मार कर यह धन-वैभव जुटाया जाता है उन्हें भी दबोच में लेना होता है कि दुनिया के महान लोग महान काम करने में लगे हैं। व्यक्तिगत तौर पर सादगी, ईमानदारी और दयानतदारी में नरेंद्र मोदी डॉ सिंह के पैरों की धूल भी नहीं हैं। लेकिन डॉ सिंह को अपने बच्चों के राजसी ठाठ-बाट पर कोई ऐतराज नहीं होता है!

इंटरव्यू से पता चलता है कि डॉ सिंह पूरी तरह आश्वस्त हैं कि नवउदरवाद के रास्ते पर भारत “आर्थिक पावर हाउस” बनने जा रहा है। आर्थिक पावर हाउस का ईंधन पिछले 30 सालों से देश की जिस आबादी को बनना पड़ रहा है, इसका नजारा कोरोना काल में सारी दुनिया ने देखा। लेकिन डॉ सिंह को वे नहीं दिखे। वे उनके बच्चे नहीं हैं। भारत में नवउदारवाद के पुरोधा को स्वाभाविक रूप से कोरोना काल में भी मालामाल हुए बड़े व्यापारिक घराने और अरबपति बनने वाले भारतीय ही दिखाई देते हैं। और उन्हीं की दिन दूनी रात चौगुनी समृद्धि में भारत का उज्ज्वल भविष्य।

डॉ सिंह भारत माता के मेहनतकश बच्चों के होने से इनकार नहीं करते। भारत को आर्थिक पावर हाउस बनाना है तो पर्याप्त मात्रा में ईंधन चाहिए। अपने कार्यकाल में उन्होंने इस ईंधन को जिलाए रखने के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 (मनरेगा) के तहत परिवार के एक सदस्य को 80 रुपये की दिहाड़ी पर साल में 100 दिन मिट्टी कोड़ने के काम का प्रावधान किया था। ‘धन और धरती बंट के रहेंगे’ का नारा लगाने वाले प्रगतिवादी खुशी के मारे झूम उठे थे। उसी दिन यह तय हो गया था कि देश में खुलेआम दो अर्थव्यवस्थाएं चलेंगी – मुख्य अर्थव्यवस्था निगम भारत के लिए और फुटकर अर्थव्यवस्था मेहनतकश अधीनस्थ भारत के लिए। यहां थोड़ा अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रपट को याद किया जा सकता है। यह समिति डॉ सिंह के कार्यकाल में नवंबर 2004 में गठित की गई थी। अप्रैल 2005 में अपनी रपट में समिति ने बताया था कि भारत की करीब 80 करोड़ आबादी करीब 20 रुपया प्रतिदिन पर निर्वाह करती है। तब तक नवउदारवादी सुधारों को चलते 15 साल बीत चुके थे। समिति ने वर्ष 1983 को आधार बना कर यह भी बताया था कि नवउदारवाद के दौर में उसके पूर्व के वर्षों के मुकाबले गरीबी कम होने के बजाय बढ़ी है।

इंटरव्यू में डॉ सिंह कहते हैं कि 2005 और 2015 के बीच भारत का विदेश व्यापार जीडीपी के हिस्से के रूप में दुगना हो गया जिससे हमें भारी फायदा हुआ और हम बड़ी संख्या में लोगों को गरीबी से बाहर निकाल पाए। यह भारत की अर्थव्यवस्था को विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ इंटीग्रेट करने से ही संभव हुआ। उनके इस दावे पर अर्थशास्त्र के जानकार ही टिप्पणी कर सकते हैं। मैं केवल इतना कहना चाहता हूं कि नवउदारवादी व्यवस्था में विदेश व्यापार और विदेशी निवेश के फायदे मुख्य अर्थव्यवस्था के भीतर आने वाले पहले से ही सशक्त और शक्तिशाली लोगों को होते हैं।

इंटरव्यू में डॉ सिंह भारत के जिस “वृहद शांतिपूर्ण लोकतंत्र” की सराहना करते हैं, उसे कारपोरेट-हित में चलाए रखने के लिए वोटर भी चाहिएं। यह तभी संभव है जब कारपोरेट-सेवी अर्थव्यवस्था के बाहर छूटे वोटरों के लिए कतिपय “कल्याणकारी योजनाएं” बना कर उन्हें “प्रजा-भाव” में स्थित रखा जाए। ताकि एक संवैधानिक नागरिक के नाते वे अपनी सम्पूर्ण हकदारी की बात हमेशा के लिए भूल जाएं। नवउदारवादी दौर के तीन दशकों में देश-विदेश में पढ़े-लिखे राजनीतिक निरक्षरों की पूरी फौज तैयार हो चुकी है। ये राय बनाने वाले (ओपीनियन मेकर्स) लोग हैं, और मोदी-विरोधी खेमे में भी इनकी खासी तादाद है। दो मुट्ठी चावल देकर राजनीतिक निरक्षरता के इस दायरे को सुदूर गांव-देहात तक फैलाया जा रहा है।

1991 में जब नई आर्थिक नीतियां अपनाई गई थीं, उस समय देश के प्रधानमंत्री नरसिंह राव और वित्तमंत्री डॉ सिंह थे। उस समय भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के वरिष्ठ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि नई आर्थिक नीतियां लागू करके कांग्रेस ने हमारा काम किया है। डॉ सिंह बाद में दो कार्यकाल देश के प्रधानमंत्री भी रहे। लेकिन मणि शंकर अय्यर ने अपनी पुस्तक में यह नहीं लिखा कि डॉ सिंह भाजपा के पहले वित्तमंत्री और दूसरे प्रधानमंत्री थे!

मैंने एक जगह लिखा है कि डॉ सिंह नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के शास्त्रीय खिलाड़ी हैं। नरेंद्र मोदी ब्लाइन्ड चालें चलते हैं। वे पूंजीवादी अर्थशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान हैं। वे पूंजीवादी अर्थशास्त्र पर आधारित अर्थव्यवस्था के भी कट्टर समर्थक हैं। यह इंटरव्यू बताता है कि 30 साल के अनुभव से गुजरने के बाद डॉ सिंह भारत या विश्व की व्यवस्था, या अर्थव्यवस्था में किंचित भी फेर-बदल (विकल्प की बात तो छोड़ ही दीजिए) की जरूरत महसूस नहीं करते हैं। यही कारण है कि वे नवउदारवाद के पथ पर नरेंद्र मोदी की अंधी चालों का अंधा अनुमोदन करते हैं।

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं)

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