बाबा साहेब का धम्मा का मार्ग स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी अहिंसक क्रांति है

Vidya Bhushan Rawat

 

– विद्या भूषण रावत

(समाज वीकली)- बाबा साहब अंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओ को लेकर बहुत हंगामा हो रहा है। 14 अकतूबर 1956 को अशोका विजया दशमी के दिन नागपूर की ऐतिहासिक दीक्षाभूमि मे बाबा साहब के साथ उनके लाखों अनुयायियों ने बौद्ध धम्म मे दीक्षा ली। धम्म दीक्षा कार्यक्रम केवल नागपूर तक ही सीमित नहीं रहा, बाबा साहब इन अगले दिन चंद्रपूर मे भी बहुत बड़ी संख्या मे लोगों को दीक्षा दिलाई। उसके बाद से ही नागपूर के उस मैदान को लोग दीक्षाभूमि के नाम से जानने लगे और प्रतिवर्ष अशोक विजयादशमी के दिन जिसे धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस भी कहा जाता है, लाखों की संख्या मे लोग वहा आते हैं और बाबा साहब के रास्ते पर चलने का संकल्प दोहराते हैं। बहुत से लोगों के लिए तो यह वर्ष का सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम होता है नागपूर मे दशहरे के अवसर पर दो कार्यक्रम होते हैं जिन पर देश की नजर होती है। एक कार्यक्रम मीडिया मे छाया रहता है और दूसरे मे जनता बिना मीडिया के आती है। दोनों कार्यक्रमो मे अंतर यह है कि एक मे केवल मीडिया ही रहता है लोग नहीं और दूसरे मे लाखों लोग कई दिनों से आते रहते हैं हालांकि मीडिया के किसी कोने मे वो खबर लगती है। नागपूर का अशोका विजयदशमी दरअसल आर एस एस के दशहरे के कार्यक्रम से बहुत बड़ा होता लेकिन मीडिया मे संघी प्रवचन को प्रमुखता से छापा जाता है और अब तो दूरदर्शन भी उसका सीधा प्रसारण करता है लेकिन यही मनुवादी मीडिया दीक्षाभूमि से गायब रहता है जबकि भाजपा और संघ के बड़े बड़े नेता भी अब दीक्षाभूमि जाकर बुद्ध और बाबा साहब को प्रणाम करने जाते हैं।

दीक्षाभूमि और संघ के नागपूर कार्यक्रम मे एक और बड़ा अंतर है जिसको समझने की आवश्यकता है। संघ के कार्यक्रम मे शस्त्र पूजा होती है लेकिन दीक्षाभूमि का विद्रोह पूरी तरह से अहिंसक है। बाबा साहब के धम्मा दीक्षा का असर महाराष्ट्र मे विशेषकर और देश के अन्य हिस्सों मे भी सामान्यतः इतना बढ़ रहा है कि सत्ताधारियों के पास इसकी कोई काट नहीं है। अशोका वियजदशमी के दिन नागपूर पूरा बुद्धमय नजर आता है और पूरे शहर मे देश भर से और महाराष्ट्र के अनेक हिस्सों से लाखों लोग दीक्षा भूमि आते हैं। इसलिए मै कहता हूँ कि बाबा साहब अंबेडकर भारत मे अहिंसक क्रांति के सबसे बड़े नायक है। आखिर वह भी दलितों को कह सकते थे कि तुम भी शस्त्र पूजो, वह भी हिंसक जवाब देने के लिए कह सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। जो लोग शस्त्र पूज रहे है उनके पास अब अपने जातिवादी भूतकाल को छुपाने का कोई रास्ता नहीं है। वे तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। देश भर मे होली, दिवाली, ईद क्रिसमस आदि त्योहार मनाए जाते हैं जिनमे सब कुछ बिकता है सिवाय उसके जिसकी लोगों को जरूरत है। लेकिन धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस पर हजारों करोड़ रुपये का साहित्य बिकता है। दीक्षा भूमि मे देश भर बहुजन प्रकाशक अपनी अपनी पुस्तके, पेंटिंग्स, कैलेंडर आदि बेचते हैं।  बाबा साहब अंबेडकर ने एक ऐसी पीढ़ी की नीव रखी जो सोचती है, तर्कवादी और मानववादी है। बाबा साहब की अहिंसा मे विश्वास गांधी की अहिंसा से कही बड़ा है क्योंकि गांधी की अहिंसा यथास्थितिवादी है जबकि बाबा साहब की अहिंसा बदलाव का प्रतीक है।

बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओ को लेकर मनुवादी मीडिया बेहद परेशान है। ये भी हकीकत है कि इन प्रतिज्ञाओ का उद्देश्य लोगों को एक मानववादी और अंधविश्वासमुक्त सोच की और लाना था। बाबा साहब जानते थे कि उनका समाज अभी भी बहुत उत्पीड़ित है और धार्मिक कुरीतियों के जरिए उनकी बची खुची कमाई भी खत्म हो जाति है। पुरोहितों ने उनका मानसिक रूप से शोषण किया है इसलिए उन्होंने बुद्धिज़्म मे आने के लिए ये प्रतिज्ञाये दी। यदि समाज विकसित अथवा पढ़ा लिखा होता तो शायद उन्हे ये सब लिखने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि ये प्रतिज्ञाये बौद्ध धम्म नहीं है। बाबा साहब का उद्देश्य था पहले लोग अपने पुराने सडेगले आवरण को या जिस सांस्कृतिक परम्पराओ से दूर करने की कसम खाए और फिर दीक्षा ले। ये भी हकीकत है इन प्रतिज्ञाओ मे को अपमानजनक भाषा नहीं इस्तेमाल की गई है। सिर्फ ये कहा गया है के अब ये मेरे देवता या परंपरा नहीं है और ये भी हकीकत है के बौद्धधम्म मे आने के बाद बाबा साहेब का पूरा फोकस भारत को प्रबुद्ध भारत बनाने की और था।

बुद्ध और उनका धम्म मे बाबा साहब कहते है कि आखिर धर्म का दर्शन क्या होना चाहिए। अधिकांश धर्म दर्शन भगवान और दैवीय शक्तियों को खुश करने और उनके इर्दगिर्द घूमते हैं लेकिन बुद्ध ये कहते है के धम्म का दर्शन वो हो जिसकी धुरी मे मानव और मानवकल्याण हो। बाबा साहब अंबेडकर ने जिस बुद्ध दर्शन का परिचय लोगों से कराया वो धर्म नहीं पूरी तरह मानववादी मूल्यों पर आधारित है और इसलिए अंधविश्वास से दूर और धर्म ग्रंथों को सवाल करना भी उसी परंपरा का हिस्सा है जिसके बल पर आज दुनिया इतने आगे बढ़ी है। सामान्यतः धर्म आपको सवाल करने से रोकते है और ये कोशिश होती है बताने की कि धर्मों मे सभी बातों का मुकम्मल जवाब है लेकिन अगर ये सब सही होता तो दुनिया मे कभी विकास नहीं हो पाता। हम सब जानते है कि जबभी लोगों ने स्थापित मान्यताओ को चुनौती दी तो पुरोहित वर्ग और उनके चेलों ने हिंसा का सहारा लिया और ऐसे लोगों का मुंह बंद करने की कोशिश की या उनके साहित्य या खोज को नकारा लेकिन आज 21 वी शताब्दी मे ऐसे नकारा राजाओ या पुरोहितों को कोई याद नहीं करता और गैलीलियो से लेकर न्यूटन तक हमारे बीच सम्मान से याद किए जाते हैं।

बाबा साहब अंबेडकर ने दलितों की मुक्ति के लिए आंदोलन किए, राजनीति का हिस्सा बने, संविधान सभा मे भी आए लेकिन अंत मे उन्हे महसूस हुआ कि मुक्ति का रास्ता सांस्कृतिक है और बिना इसके बदलाव के मानसिक गुलामी राजनीतिक सफलताओ या आजादी को खत्म कर देगी। संविधान सभा मे उनकी चेतावनी कि राजनीति मे एक व्यक्ति एक वोट का सिद्धांत तो मिल गया लेकिन अगर सामाजिक जीवन मे ये उपलब्ध नहीं होगा तो हमारी राजनैतिक आजादी के कोई मायने नहीं है।

ये एक हकीकत कि आज देश भर मे दलित पिछड़े वर्ग मे बुद्ध धम्म को लेकर व्याप्त बदलाव की बाते आ रही है। नागपूर मे दीक्षाभूमि मे हर वर्ष भदंत नागार्जुन सुराई ससई पिछड़े वर्ग के हजारों लोगों को बुद्ध धम्म की दीक्षा दे रहे है। पिछड़ी जातियों की समझ मे आ रहा है के सांस्कृतिक तौर पर दलितों की धम्म क्रांति ने उनके जीवन मे सकारात्मक बदलाव लाए है और उन्हे भी इसकी आवश्यकता है। कुशीनगर जैसे जगह पर अब बहुत बड़ी संख्या मे बौद्ध भिखु पिछड़ी जातियों से हैं और कुशवाहा, यादव, मौर्या जातिया भी अब बुद्ध धम्म की और बदलाव का रास्ता देख रही है। अच्छी बात यह है के वे लोग बाबा साहब अंबेडकर को भी जान रही है और अपना मान रही है।

अभी समाजवादी पार्टी के नेता धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव का निधन हो गया। जिन लोगों ने उन्हे जीवन भर गलिया बाकी, मौलाना मुलायम कहा, जातिवादी और हिन्दू विरोधी कहा वे उनके अंतिम संस्कार मे सबसे अधिक संख्या मे उपलब्ध थे। वही मानुवादी मीडिया उन्हे देश का सबसे बड़ा नेता बना रहा था और शब्दों की ऐसी बौछार कर रहा था मानो मुलायम सिंह को कितना प्यार करते थे। मुलायम सिंह जी के अंतिम संस्कार के समय ब्राह्मणों ने अखिलेश यादव को एक ‘जनेऊ’ पहनाया जो उनके पिता को जीवन भर उपलब्ध नहीं था। यानि अखिलेश ने वो सब किया जो उनके पिता चाहते थे और उनकी पूरी सेवा की लेकिन ये एक कटु सत्य है ब्रह्मणवाद अपनी सांस्कृतिक ताकत के बल पर राज करता है। पूरे अंतिम संस्कार के समय महिलाओ की भूमिका गिनी चुनी ही थी और ये दिखाता है कैसे राजनीतिज्ञ हवाओ मे बह कर क्रांतिकारी फैसला नहीं ले सकते। इसकी तुलना कीजीये मान्यवर कांशीराम की मृत्यु के बाद की घटनाओ से। सुश्री मायावती ने उनका अंतिम क्रियाए स्वयं की, एक सशक्त संदेश भेजा कि महिलाये किसी से कोई कम नहीं और मान्यवर कांशीराम साहब की उत्तराधिकारी होने के नाते उन्होंने सभी प्रक्रियाए स्वयं ही की। ये भी हकीकत है की भारत की मनुवादी फेमिनिस्टस को सुश्री मायावती के ये काम याद नहीं आएंगे।

कहने का मतलब ये हमारी सांस्कृतिक परम्पराये हमे उन्ही ताकतों के सामने नतमस्तक होने को मजबूर करती हैं जो हमारा शोषण और  तिरिस्कार करती है। सोचिए यदि ज्योति बा फुले, बाबा साहब अंबेडकर, पेरियार, अन्ना दुर्राई, कांशी राम जी के तरह मुलायम सिंह यादव भी अपने जीवन मे सांस्कृतिक विकल्प को अपना लेते तो सैफाई का माहौल दूसरा होता, पिछड़े वर्ग मे इतना बड़ा संदेश जाता कि वो बदलाव कि और अग्रसर होता और वो लोग मुंह नहीं चिढ़ा रहे होते जो सुबह शाम उन पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप लगाते थे। उत्तर भारत के अधिकांश राजनेताओ ने सांस्कृतिक परिवर्तन को नहीं माना चाहे राम विलास पासवान या मुलायम सिंह यादव क्योंकि वे अपने को ‘बहुसंख्यक’ ही दिखाना चाहते थे और शायद बुद्ध की दीक्षा लेने के चलते ब्राह्मणवादी सत्ताधारियों से टकराना शायद उनके बस की बात नहीं थी क्योंकि उन्होंने तो इन शक्तियों को अपने बगल मे रखकर ही ‘क्रांति’ करने की सोची और नतीजा ये निकला के कुछ समय बाद ये ताकते उन्हे अपना बताने लगेंगी।

बाबा साहब के धम्म क्रांति के मिशन मे ही सबकी आजादी है क्योंकि बिना सांस्कृतिक आजादी के कोई राजनीतिक परिवर्तन संभव नहीं है।

 

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