(समाज वीकली)- कल मंडल दिवस था. सामजिक न्याय और पिछड़ी जातियों के सत्ता में भागीदारी के सवाल को लेकर ये भारतीय राजनीति के लिए एक क्रांतिकारी दिन था क्योंकि इस दिन ही ७ अगस्त १९९० को तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशो को मानने की घोषणा की. आयोग को बने और रिपोर्ट दिए १० वर्ष से अधिक हो गए थे और वह सरकारी फाइलों में धूल चाट रही थी. क्योंकि जनता दल और राष्ट्रीय मोर्चा के घोषणा पत्र में ये था इसलिए इन्हें लागू करने की तैय्यारी चल रही थी. दो केन्द्रीय नेता इसमें सबसे आगे थे . श्री राम विलास पासवान और श्री शरद यादव. यदि वी पी सिंह के साथ सबसे ज्यादा अपमान और गालिया किसी को झेलनी पडी तो वे ये थे. फिर लालू प्रसाद यादव और एम् करूणानिधि खुले तौर पर और दिल से इस प्रश्न पर साथ थे. बाकि भी दिल से साथ रहे होंगे लेकिन इतिहास के उस महत्वपूर्ण दौर में वे विरोधीयो के साथ थे. मंडल और मंदिर को लेकर सरकार गिरी थी.
तीस वर्ष से उपर हो गया और मुझे वोही घटनाक्रम याद आ रहा है. मै कल इंतज़ार किया कौन कौन ट्वीट कर रहा है मंडल को लेकर. निस्संदेह सामजिक न्याय के लिए लगे हुए पार्टी विहीन युवाओं के लिए एक महत्वपूर्ण दिन था. बिहार में रा ज द इसको लेकर मुखर है और तेजस्वी यादव ने उसको लेकर ट्वीट भी क्या था. क्योंकि कल का ही दिन डी एम् के के नेता श्री करूणानिधि जी की पुण्य तिथि है इसलिए सामजिक न्याय के नाम पर उन्हे तो याद करना जरुरी है. तमिलनाडु, पेरियार, करूणानिधि और डी एम् के पिछड़े वर्ग के सम्मान और राजनितिक सशक्तिकरण की लड़ाई के सबसे बड़े हीरो है. उत्तर भारत के नेता यदि इसको स्वीकार कर लेंगे तो अच्छा रहेगा. अभी नीट में आरक्षण का सवाल आया तो केवल एम् के स्टालिन और डी एम् के सक्रिय थे. बाकी की सारी लड़ाई युवाओं ने अपने आप लड़ी. ये युवा ट्विटर और अन्य सोशल मीडिया पर भी सक्रिय है और सडको पर लाठिया भी खाते है. क्या नेता केवल राजनितिक लाभ लेने के लिए है या कुछ खुल कर बोलेंगे भी.
आखिर क्या कारण है के सामजिक न्याय के इस दिन पर जब दलित पिछड़े सभी मिलकर उस दिन को याद करते है और मानते है तो उत्तर प्रदेश में उनके नाम पर राजनीति करने वाले दल इसका नाम लेने से कतराते है.
राजनीति में मजबूरिया होती है लेकिन ऐसी नहीं के आप अपने मूल सिद्धांतो से समझौता करें. दो दिन पूर्व पंडित जनेश्वर मिश्रा की जयंती को अखिलेश जी और समाज्वादी पार्टी ने इस धूम धाम से मनाया के कभी लोहिया जी को भी ऐसे नहीं मनाया होगा. खैर ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब की जयंती को ऐसे मना लेंगे इसका तो मुझे शक है. मानता हूँ के जनेश्वर मिश्रा खांटी समाजवादी थे लेकिन क्या आपने वाकई उनका जन्म दिन इसलिए मनाया के वह समाजवादी थे या इसलिए वह मिश्रा थे. और कमाल देखिये, बहिन जी भी इस बात के लिए ट्वीट कर रही है के समाजवादी पार्टी का ‘प्रबुद्ध वर्ग ‘ प्रेम ‘झूठा’ है. दोनों ही पार्टियों में होड़ लगी है के ‘उत्पीडित’ ब्राह्मणों को कौन ‘बचाएगा’ . लखनऊ के नामी गिरामी सेक्युलर समाजवादी पत्रकार सब बेचारे उत्पीडित है इसलिए उनके चांदी है. जब दलित पिछड़े वर्ग के लेखक पत्रकार सोशल मीडिया ग्रुप तैयार है तो भी उनके नेताओं को उनकी जरुरत नहीं है. उन्हें वही चाहिए जो ये नैरेटिव बना सके के वे कितने ब्राह्मण प्रेमी है. कोई नहीं कहता के आपको ये कार्य नहीं करना चाहिए. राजनीती में तो सभी के पास पहुंचना होगा लेकिन क्या ईमानदारी से ऐसे प्रयास नहीं किये जा सकते के दलित पिछड़ी जातियों का बड़ा सम्मेलन कर उन्हें समझा जाए.
सवाल इस बात का नहीं के आप सबको साथ न ले लेकिन ये प्रश्न भी पूछना पडेगा के क्या ब्राहमण उत्तर प्रदेश के अन्दर इतना उत्पीडित है ? क्या उत्तर प्रदेश में दलित, मुस्लिम, महिला उत्पीडन के सवाल मुख्य नहीं बनेगे. हम जानते है के ब्राह्मण खबरची माहिर है इन खबरों को आगे बढाने में. उत्तर प्रदेश में कभी भी इमानदारी के साथ भूमि सुधार नहीं हुए. मंडल सिफ़ारिशो में भूमिहीन लोगो के प्रश्न भी थे. पसमांदा मुसलमानों के सवाल, सी ए ए एन आर सी का सवाल भी जरुरी है. उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक हासिये के लोगो में डॉम, मुशहर, वाल्मीकी, कोल, निषाद, मल्लाह, चमार, पासी, राजभर. गडरिया, पाल आदि जातियों के सवालों को कभी ‘मुख्य धारा’ का प्रश्न बनाया जाएगा या नहीं. क्या उनमे से एक दो नेताओं को विधायकी या मंत्री पद देने से उनका सशक्तिकरण मान लिया जाए. यदि ऐसा हो देश की संसद में पिछड़े और दलित आदिवासी सांसदों का ही बहुमत है लेकिन उनके अधिकारों और संशाधनो पर लूट से ये सांसद उन्हें नहीं बचा पाए. किसानो के प्रश्न पर वे चुप रहे. दो चार को छोड़ दे तो इनमें ऐसे लोग भी होंगे जो अपने समाज के लिए कोई अच्छे कानून को भी फाड़ देंगे . पदोन्नित में आरक्षण के बिल को यू पी ए के समय लोकसभा में किसने फाड़ा था इसको बताने की जरुरत नहीं है.
उत्तर प्रदेश का चुनाव महत्वपूर्ण है. समाज बदलाव और सामजिक न्याय के लिए हम भी चाहते है के उत्तर प्रदेश में बाबा साहेब, ज्योति बा फूले, पेरियार के सिद्धांतो पर चलने वाले लोग आये. हालांकि हम सब जानते है के पेरियार के नाम पर किस प्रकार से उत्तर प्रदेश के राजनैतिक दलों को इतना डिफेंसिव बना दिया गया के वे उनका नाम तक नहीं लेना चाहते. बहुत से लोगो को लगता है के मंडल और सामजिक न्याय अब महत्वपूर्ण नहीं रहे. प्रोफेसनल अब बता रहे है के आरक्षण, पेरियार, वी पी का नाम दूर दूर तक नहीं लेना नहीं तो लाभ के स्थान पर नुक्सान होगा लेकिन ये गलत फहमी है. सामजिक न्याय और अस्मिता की बात होगी तो लोग आंबेडकर फूले पेरियार को याद रखेंगे . पिछडो के आरक्षण का सवाल आएगा तो मंडल, वी पी को याद करना ही पडेगा.
यदि आरक्षण की महत्ता ख़त्म हो गयी होती तो हिंदुत्व की शक्तियों को मंडल राग न जपना पड़ता और ये तब जब उन्होंने पिछडो की नौकरियों को लूट लिया. किसी को अगर ये लगता है पिछडो के लिए आरक्षण अब मुद्दा नहीं है और ब्राह्मण वाकई में हासिये पर है तो केवल जातिगत जनगणना के लिए हां करे. हर एक जाति की संख्या, उसकी भूमि ओनरशिप , सरकारी नौकरियों में उसकी भागीदारी, मीडिया न्याय पालिका में उसकी हिस्सेदारी पर बात कर ली जाए. और उत्तर प्रदेश के चुनाव की तैय्यारी शुरू हो चुकी है तो पिछले ५ वर्षो में उत्तर प्रदेश में सरकारी सेवाओं में दलित पिछडो को क्या मिला उसका रिकॉर्ड भी निकाल कर देख लिया जाए तो सशक्तिकरण के मायने पता चल जायेगे.
राजनितिक सशक्तिकरण के कोई मायने नहीं यदि पार्टियों के बड़े नेताओं के या मुख्यमंत्रियों के सलाहकार दलित -पिछड़ी-आदिवासी समुदायों से ना हो. प्रधानमन्त्री की के कार्यलय में जिस जाति के सलाहाकारो की बहुतायत है वही उत्तर प्रदेश में विपक्षी पार्टियों को भी सलाह दे रहे है . इसको कहते ही जाति की सर्वोच्चता. जब नैरेटिव वे बनायेंगे तो आप के सवाल हमेशा हासिये भी रहेंगे केवल नेता सशक्त होंगे. उत्तर प्रदेश के चुनावो में चुप मत रहिये और सवाल करिए.