(समाज वीकली)
लेखक। विद्या भूषण रावत
पीपल्स लिटरेचर पब्लिकेशन
कुल पृष्ठ। 296
मूल्य: ₹ 400
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Vivek.sakpal@gmail.com
पुस्तक की भूमिका श्री भंवर मेघवंशी ने लिखी है।
भूमिका
सत्य से साक्षात कराने वाले साक्षात्कार !
भगवान दास बहुत बेबाक बात करते हैं, बेबाक लिखते हैं.उन्होंने अपनी बातचीत में कईं मानीखेज बातें की . भगवान दास विभिन्न धर्मों में जाति की उपस्थिति का महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं, जो कि भारतीय उप , महाद्वीप के प्रत्येक धर्म का सच है, भले ही इसे स्वीकार किया जाये अथवा नहीं, लेकिन यह हकीकत है कि लोग धर्म बदल कर भी जाति से चिपके रहते हैं, वे अन्य धर्मों में भी जाति नामक आवश्यक बुराई को साथ ले जाते है या वहां पर पहले से ही मौजूद अपनी जाति समूह से धर्मान्तरित लोगों के साथ समूह बद्ध हो जाते हैं.
भगवान दास पूरी निर्ममता से इस सच्चाई की शल्यक्रिया करते है, वे सिख धर्म में व्यापत जातीयता के सवाल पर कहते हैं कि– “गुरुद्वारों मे मैंने देखा है कि वे जाति के बारे में बात कर रहे हैं और मेरे वहां जाने पर ‘चोर –चमार‘ जैसे शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं. मैंने सिख धर्म का अध्ययन करके पाया कि उनके दस गुरु जो थे, सबके सब खत्री जाति के थे. सबने अपनी पैतृक जाति में विवाह किया. वहां हिन्दू बढाई धर्मान्तरित होकर राम गढ़िया कहलाता है और स्वीपर मजहबी सिख, अगर कोई शराब व्यापारी आता है तो वह अहलुवालिया बन जाता है, फिर जाति व्यवस्था कहाँ मिटी? आपने उसे सामने के दरवाजे से फैंकी और वह खिडकियों से वापस आ गई.”
उन्होंने मसीही धर्म में जाने वाले दलितों की दुर्दशा पर भी बात की, वो एक चर्च का उदहारण देते है कि जब अछूत बड़ी संख्या में धर्मान्तरित हो कर इसाई बन कर चर्च आने लगे तो समस्या उठ खड़ी हुई , अंत में उसका समाधान यह निकाला गया कि कश्मीरी गेट चर्च में दो प्रार्थना सभाएं होने लगी, एक सुबह , एक दोपहर. दोपहर में अछूत आने लगे, सुबह उच्च जाति के लोग. जाति की सर्वत्र उपस्थिति पर जोर देते हुए भगवान दास स्पष्ट रूप से मानते हैं कि– “भारत में जब लोग धर्म बदल लेते है, तो भी वे जाति से चिपके रहते हैं “हिन्दू धर्म तो है ही जातिवादी धर्म, उसे जाति व्यवस्था का जनक और प्रतिपालक भी कहा जा सकता है, उसकी अछूत जातियों में भी परस्पर भयंकर छुआछुत व जातिवाद मौजूद है ही, हर कोई हर किसी से ऊँचा अथवा नीचा है, पर जाति तोड़ने के लिये जिन धर्मों में वह धर्मांतरण करके मुक्ति की खोज करते हैं, वहां भी जाति का मामला ख़त्म नहीं होता, बल्कि बना रहता है.
बाबा साहब अम्बेडकर ने 14 अक्तूबर 1956 को नागपुर में लाखों लोगों की मौजूदगी से हिन्दू धर्म का परित्याग करके बौद्ध धम्म अपनाया, इसके पीछे का एक मकसद यह भी था कि अछूत जातियां जाति की घृणित व क्रूर व्यवस्था से छुटकारा पा सके, लेकिन क्या यह लक्ष्य पाया जा सका है ? आज अकसर यह सवाल उठाया जाता है. जो कि जरुरी सवाल है. भगवान दास अपने अनुभव से साफ कहते है कि बौद्ध बन जाने से जाति से पिंड छुट जायेगा, ऐसा नहीं लगता है. वे कहते हैं कि – “महाराष्ट्र में महार ही ऐसे लोग थे , जो बौद्ध बनने के लिये आगे आये, लेकिन उनको भी अपनी बारह जातियों से छुटकारा नहीं मिल सका . इसलिए मेरा मोह भंग हो गया“. शायद उनके मोह भंग का एक कारण पहले से ही मौजूद रहा हो, जैसा वो याद करते हैं कि उन्होंने शिमला में बाबा साहब से खुद यह सवाल किया था कि –‘बाबा साहब मेरे पास बौद्ध धम्म के बारे में एक सवाल है, मैं हिमाचल से आता हूँ, हमारे वहां बौद्ध समुदाय है और हम जानते हैं कि मैं एक अछूत समुदाय के सदस्य के रूप में बौद्ध विहार में प्रवेश नहीं कर सकता हूँ. मैं बर्मा में रहा हूँ , वहां जो तिब्बती बौद्ध प्रभावित क्षेत्र हैं , वहां रहा हूँ, मैंने उनमें कुछ भी सार्थक नहीं पाया है. सामाजिक रूप से मुझे वहां कुछ भी अलग नहीं मिला है “
भगवान दास जी ने दलित समाज की दुखती रग पर हाथ रखा है, वे दलितों के भीतर समाये ब्राहमणवाद और जातिवाद पर भी प्रहार करने से नहीं चुके हैं, हम सब जानते हैं कि उन्होंने भंगी जातियों के वाल्मिकीकरण की साम्प्रदायिक दक्षिणपंथी ताकतों की साजिशों का बखूबी बैखौफ पर्दाफाश किया. उन्होंने बाबा साहब के मार्क्सवाद विरोधी होने की बात से भी असहमति जताते हुये कहा कि – “डॉ अम्बेडकर मार्क्सवाद के विरोधी दार्शनिक नहीं थे, लेकिन वे हठधर्मी लोगों के खिलाफ थे, क्योंकि डांगे जैसे व्यक्ति और साम्यवाद के बारे में लिखने वाले ज्यादातर लोग समाज के उपरी हिस्सों में से थे और जाति से ब्राहमण थे, भारत में जिस तरह का मार्क्सवाद था उसने उनको अपनी तरफ नहीं खींचा था, लेकिन उन्होंने मार्क्सवाद का बहुत गंभीरता से अध्ययन किया. उनका झुकाव प्रगतिशील सोच की तरफ था.
किताब में दूसरा साक्षात्कार प्रख्यात लेखक और भीम पत्रिका के संपादक एल आर बाली का है. बाली साहब के योगदान से कोई अपरिचित नहीं है, उन्होंने बहुत सारे खतरे उठाकर और मुकदमे झेलकर भी समाज में बौद्धिक जागरण का अतुलनीय काम किया है, उनकी लिखी और सम्पादित पुस्तकों ने बहुजन विचारधारा को घर घर पहुँचाने में जबरदस्त भूमिका अदा की है. बाली जी अपनी बातचीत में कईं तरह के खुलासे करते हैं, जिन्हें जानना बेहद रोचक है. वे अपनी बात और विचार इतने तीखे और तार्किक तरीके से रखते हैं कि रोगंटे खड़े कर देते हैं.
बातचीत की शुरुआत में वे भीम पत्रिका को प्रारंभ करने में एक सवर्ण व्यापारी द्वारा की गई मदद की बात कहते हैं, क्या आज के विषाक्त माहौल में हम इस तरह के सहयोग की कल्पना कर सकते हैं? शायद हाँ अथवा बिल्कुल भी नहीं, लेकिन भीम पत्रिका को शुरू करने की रकम एक सवर्ण हिन्दू के द्वारा दी गई थी , बाली जी बताते हैं कि – “कृष्ण कुमार ने मुझे पेपर शुरू करने के लिये प्रेरित किया, वे दलित नहीं थे , खत्री थे, उच्च जाति आर्य समाज के अध्यक्ष, जुते और कपडे के बड़े व्यापारी, उनकी कईं दुकाने थे, उन्होंने हमारा साथ देना शुरू कर दिया, हमने उर्दू में भीम पत्रिका शुरू की.”
एल आर बाली ने महज साहित्य के ज़रिये ही समाज चेतना का काम नहीं किया, बल्कि वे सामाजिक व राजनीतिक मोर्चों पर भी सक्रिय रहे. वे जेल भी गये, उन्होंने बाबा साहब के बेटे यशवंत राव अम्बेडकर के साथ मिलकर उम्मीदवार भी खड़े किये. वे बैंको के राष्ट्रीयकरण, भूमि सुधार और बैकलोग भरने के पक्षधर रहे.
ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि लाहौर के जात पात तोड़क मण्डल में अध्क्षीय उद्बोधन हेतु तैयार भाषण जो दिया नहीं जा सका और बाद में उसे जाति का विनाश नामक किताब के रूप में प्रकाशित किया गया, उसमें संशोधन हेतु संतराम बीए ने बाबा साहब को आग्रह किया था, लेकिन बाली साहब बताते हैं कि – “हर भगवान जो इसाई कॉलेज में छात्र थे, उन्होंने बाबा साहब को लिखा कि वे अपने अध्क्षयीय भाषण में संशोधन करें, जिसे बाबा साहब ने अस्वीकार कर दिया . यह संतराम बीए नहीं बल्कि हर भगवान थे, जो बाबा साहब के भाषण में संशोधन करवाना चाहते थे. वो संतराम बीए ही थे, जिनके कारण उर्दू भाषी लोग बाबा साहब से परिचित हुये. संतराम और बाबा साहब के रिश्ते कभी तनावपूर्ण नहीं थे.”
बाली साहब पुरानी स्मृतियों को कुरेदते हुये कहते हैं कि मैंने 1956 में काम शुरू किया,तब डॉ अम्बेडकर का नाम लेना बहुत जोखिम भरा था,मुझ पर 50 मुकदमें हुये. वे आज भी अपनी बढती उम्र के बावजूद सक्रीय है,वे कहते हैं कि – “मैं अपने जीवन के आखिरी तक यही करता रहूँगा.बाबा साहब का मिशन ही मेरा जीवन है. इसके अलावा मेरे जीवन का कोई मतलब नहीं हैं.” उन्होंने विश्राम करने और विदेश में बसे अपने बच्चो द्वारा बुलाये जाने पर वहां जाने से इंकार कर दिया और वे अब भी निरंतर काम करते रहते हैं. उनका अनथक जीवन हम तमाम बाबा साहब के मिशनरियों के लिये प्रेरणादायक है. बाली जी वामपंथ को लेकर अन्य मिशनरियों से नाइत्तेफाकी रखते हैं, उनका साफ कहना है कि – “अच्छा हो या बुरा, यह कम्युनिष्ट ही है जो हमारे साथी हो सकते हैं. अम्बेडकरवादियों और कम्युनिष्टों को एक चार्टर, एक सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम बनाना चाहिये और लोगों को आन्दोलन के लिये तैयार करना चाहिए.“
हाल ही में सोशल मीडिया द्वारा प्रसारित ज्ञान से विद्वान् बने लोगों ने यह सवाल उठाया है कि जब भगत सिंह को फांसी दी गई तो अम्बेडकर ने कुछ भी क्यों नहीं बोला या उन्होंने उनका मुकदमा क्यों नहीं लड़ा, इस बारे में कईं तथ्य इतिहास में दफ़न है , लेकिन सच्चाई यह है कि बाबा साहब भगत सिंह के विरोध में नहीं थे, न ही वे इस स्थिति में थे कि लाहौर जा कर आसफ अली जैसे वकील से मुकदमा अपने हाथ में लेकर केस लड़ पाते, बाबा साहब की प्राथमिकताएं और मसरूफ़ियत अलहदा थी, वे कोर्ट की प्रेक्टिस से ज्यादा राजनीतिक काम में सक्रिय थे और संघर्ष कर रहे थे. रही बात भगत सिंह,राजगुरु व सुखदेव की शहादत की तो उस पर बाबा साहब ने अपने अखबार जनता में 6 अप्रेल 1931 को तीन बलि शीर्षक से सम्पादकीय लिखा था.बाबा साहब और भगत सिंह के सम्बन्धों को स्पष्ट करते हुये बाली जी बताते हैं कि – “भगत सिंह ने कभी बाबा साहब का विरोध नहीं किया.गाँधी ने भगत सिंह को सिरफिरा कहा था,लेकिन बाबा साहब ने कभी उस पर टिपण्णी नहीं की.भगत सिंह की विचारधारा इंसानियत की थी और डॉ अम्बेडकर की भी.“
सबसे बेबाक टिपण्णी एल आर बाली बामसेफ की मूल निवासी थियरी को लेकर करते हैं, उनका कहना है कि – “ बामसेफ मूलनिवासियों की एकता की बात कर रहा है, यह सब बकवास है. जब तक कोई न्यूनतम आर्थिक कार्यक्रम न हो. एलायन्स प्रोग्राम पर बनाया जाता है, यह जाति के आधार पर नहीं हो सकता हैं. मूल निवास क्या है ? यह सोच ही गलत है, बाबा साहब ने कहा कि कोई भी बाहर से नहीं आया है .मूल निवासी कुछ भी नहीं है, सिर्फ खुद के नेतृत्व के विकास के अलावा .” एल आर बाली के इस साक्षात्कार को पढ़ते हुये और भी कईं मुद्दों पर वैचारिक समझ स्पष्ट होती है .
तीसरा साक्षात्कार एन जी उइके का है. उइके बाबा साहब द्वारा विदेश में पढाई हेतु चयनित छात्र थे . उन्होंने नास्तिकता,बौद्ध धम्म में धर्मान्तर,मार्क्सवाद,निजीकरण और क्रीमीलेयर जैसे मसलों पर बात की.सबसे पहले वे स्पष्ट करते हैं कि डॉ अम्बेडकर ने भले ही विभिन्न धर्मों का अध्ययन जरुर किया था , पर वे अंततः बौद्ध ही बनना चाहते थे.वे बताते है कि – “डॉ अम्बेडकर कभी भी मुस्लिम,सिख या इसाई नहीं बनना चाहते थे,न ही वे हिन्दू बने रहना चाहते थे,वे बौद्ध ही बनना चाहते थे.वे बुद्ध में विश्वास करते थे पर उन अनुष्ठानों में कभी नहीं.’ शायद इसीलिए वे यह भी कहते हैं कि – “अनुसूचित जाति के लोग भगवान और उनके नाम से कुछ भी हासिल नहीं कर सकते हैं,अंधविश्वास और उन पर आधारित परम्पराएँ अंततः इन्सान का शोषण करती है.” उइके साहब तमाम सारे अम्बेडकरवादियों को एकजुट होने की अपील करते हुये कहते हैं कि – “अम्बेडकरवादियों को एक मंच पर आकर भारत को प्रबुद्ध भारत में बदलने के लिये तर्कसंगत कार्यक्रम तैयार करना चाहिए.हमें दुनिया के सभी बौद्धों को एकजुट करना चाहिए.”
आरक्षण की जब भी चर्चा चलती है तो आरक्षण विरोधी तत्व क्रीमीलेयर की बात करने लगते हैं.आजकल दलित आदिवासी समुदाय से भी कुछ आवाजें क्रीमीलेयर के पक्ष में उठती है, लेकिन इसमें मौजूद खतरे की तरफ कोई ईशारा नहीं करता है.उइके इस बारे में कहते हैं कि – “मलाईदार परत समाज की क्रीम है , जिसमें अनुसूचित जाति की बुद्धि शामिल है, वे समाज का मार्गदर्शन और नेतृत्व करते हैं , इसलिए उन्हें अनुसूचित जाति व जनजाति से दूर नहीं किया जाना चाहिए.
वामपंथ को लेकर भी जी एन उइके के विचार बहुत स्पष्ट है,उनका मानना है कि हालाँकि मार्क्स और अम्बेडकर के विचारों में भिन्नता है पर बाबा साहब मार्क्स के विरोधी नहीं थे.भारत में मार्क्सवादी सिद्धान्तकारों के साथ हमारे मतभेद हो सकते हैं लेकिन मार्क्स और उनका दर्शन आम आदमी के लाभ का है.” आज जिस तरह से अंधाधुंध निजीकरण किया जा रहा है,उसको लेकर भी उइके जी की गंभीर असहमति रही है,उनका कहना था कि –‘निजीकरण हमारी संप्रभुता के लिये खतरा है,हमारे लोगों के बीच भूमि का राष्ट्रीयकरण और पुनर्वितरण होना चाहिए.’ अंत में उइके जी कहते हैं कि –“हमें पूरी दुनिया को बिना किसी मतभेद के वैज्ञानिक मानवता के रूप में बदलना होगा.अम्बेडकरवादियों को दुनिया को मानवता के रूप में आगे ले जाना चाहिये.
बहुजन मूलनिवासी विचारसरणी में वी टी राजशेखर का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जा सकता है ,उन्होंने जिस निडरता और बेखौफ़पन से अपनी कलम चलाई और बेबाकी से अपनी धारणओं को रखा ,वह काबिले गौर है.उनके द्वारा सम्पादित दलित वोयस न केवल अंग्रेजी बल्कि हिंदी और अन्य कईं भारतीय भाषाओँ में भी प्रकाशित होती रही,लेकिन अचानक फिर बंद भी हो गई.लोगों ने इसके पीछे आर्थिक तंगी अथवा वी टी राजशेखर की बढती उम्र को माना.किसी ने भी सच जानने की शायद ही जहमत उठाई,मगर इस पुस्तक में संकलित साक्षात्कार में इस सच्चाई से भी पर्दा उठता है और पता चलता है कि देश के बहुजनों के लिये खतरा बन चुके ब्राहमणवाद के प्रतीक संस्थान आरएसएस ने दलित वोयस को बंद कराने में अपनी हिंसात्मक राजनीती की थी.इसका उल्लेख करते हुये राजशेखर बताते हैं कि –“मंगलोर बसने के बाद दलित वोयस छपना बंद हो गई क्योंकि आरएसएस के लोगों ने प्रेस वाले को धमका दिया और शहर के तमाम प्रेसों को मना कर दिया.इतना ही नहीं बल्कि मेरे अपार्टमेन्ट के नीचे लाठियां ले कर भी पहुँच गये.अधिकांश लोग सोचते हैं कि दलित वोयस आर्थिक तंगी अथवा संपादक के ख़राब स्वास्थ्य की वजह से बंद हो गई,जबकि वह बंद हुई आरएसएस की वजह से.”
इसी बातचीत से यह भी पता चलता है कि कैसे दलित वोयस शुरू हुई थी,किसने उसके लिये प्रारम्भिक मदद की थी,इसकी जानकारी देते हुये वी टी बताते हैं कि –प्रसिद्ध लेखक मुल्कराज आनंद ने ही पत्रिका को दलित वोईस नाम दिया और शुरूआती पैसा दिया,ताकि पत्रिका शुरू हो.वी टी राजशेखर के आग उगलते लेखों ने कईं बार विवादों की शक्ल भी अख्तियार की,उन्होंने भारत की तमाम उत्पीडित जमातों को अलग अलग राष्ट्रीयता तक कहा,वे इस्लाम के बड़े प्रशंसक रहे,उसे बहुत बड़ी विचारधारा माना और कहा कि ‘–इस्लाम ने तो दलितों को आजाद किया’,लेकिन आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने अपने निजी जीवन के लिये इस्लाम के बजाय बुद्धिज्म का चयन किया,वे बौद्ध धम्म स्वीकार चुके थे,इसकी जानकारी शायद ही किसी को रही हो,पर उन्होंने बताया कि –‘मैं तो बुद्धिस्ट हूँ,मैं लखनऊ में बौद्ध बना था.” मार्क्सवाद को लेकर वी टी राजशेखर काफी आलोचनात्मक रहे,वे लिखते रहे कि –“मार्क्सवाद झूठ में बदल गया है,यह यहूदियों द्वारा बनाया गया एक विचार था,मार्क्स खुद यहूदी था“ हालाँकि इससे अधिक वे इस बारे में विस्तार से नहीं कहते हैं,जिसकी जरुरत थी.
चूँकि राजशेखर अपने लेखों ,वक्तव्यों और किताबों तथा प्रकाशनों के ज़रिये एक वैकल्पिक मीडिया निर्मित कर रहे थे,इसलिए यह तो स्वाभाविक ही है कि वे भारत के सवर्ण मीडिया के चरित्र को बखूबी जानते थे,वे उसे खुले आम ब्राह्मण मीडिया कहते लिखते रहे हैं.उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि –“जब तक हमारा मीडिया नहीं होगा,तब तक ब्राहमण मीडिया जानबुझ कर दलितों के बीच अन्तर्विरोध के बारे में शोर मचायेगा.”
विद्याभूषण रावत द्वारा लिये गये इन बेशकीमती साक्षात्कारों में बाबा साहब के धम्म दीक्षा समारोह के प्रत्यक्षदर्शी सदानंद फुलझले से बातचीत भी संगृहीत है,उससे 13-14 अक्टूबर 1956 को नागपुर के दीक्षा भूमि के माहौल और लाखों लोगों की उत्साह जनक उपस्थिति की प्रमाणिक जानकारियाँ मिलती है.फुलझले बाबा साहब के राजनीतिक चिन्तन और संगठन निर्माण पर बात करते हुये बताते हैं कि –“डॉ अम्बेडकर चाहते थे कि आरपीआई में विभिन्न समुदायों के लोग आये और केवल अनुसूचित जाति के ही लोग न हो”.यह सच भी है क्योंकि अपने अंतिम दिनों में बाबा साहब राम मनोहर लोहिया.एस एम जोशी तथा पी के अत्रे जैसे समाजवादियों के सम्पर्क में थे और वे सभी मिलकर एक मजबूत राजनीतिक विकल्प खड़ा करने की कोशिश में थे,हालाँकि बाबा साहब के परिनिर्वाण के बाद यह सपना अधुरा ही रह गया.बाद में आरपीआई तो बनी,लेकिन उसका हाल सबके सामने हैं. फुलझले इस पर कहते हैं –“बाबा साहब एक समावेशी पार्टी चाहते थे.मात्र अनुसूचित जाति का संगठन नहीं ,लेकिन उनका सपना उनकी अचानक हुई मृत्यु के बाद बिखर गया.आज बौद्ध आन्दोलन सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से समाज की मदद कर रहा है,लेकिन राजनीतिक रूप से नहीं.” माई साहब अम्बेडकर को लेकर जिस तरह की कटुता अम्बेडकरवादियों में पाई जाती है,उस पर टिपण्णी करते हुये सदानंद फुलझले कहते हैं कि –“सविता अम्बेडकर को लेकर महाराष्ट्र के लोगों को गलतफहमी थी,उन्हें लगा कि उन्होंने बाबा साहब को धीमा जहर दिया.”
इतिहासकार डॉ के जमनादास का नाम इस बात के लिये जाना जाता है कि उन्होंने अम्बेडकरवाद की सच्ची सेवा की और उसके लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया,वे बाबा साहब और बौद्ध धम्म के बारे में जानकारियों का चलता फिरता एनसाइक्लोपीडिया थे.उन्होंने बातचीत कईं महत्वपूर्ण जानकारियां दी.मसलन आजकल आरएसएस यह दावा करता है कि उसके प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी डॉ अम्बेडकर के बहुत करीबी थे और वे उनको धर्मांतरण कार्यक्रम से पूर्व समझाने भी गये थे.आरएसएस का तो यहाँ तक कहना है कि ठेंगड़ी डॉ अम्बेडकर के चुनाव एजेंट भी रह चुके थे.यह जरुर है कि दत्तोपंत ठेंगड़ी ने बाबा साहब की आरएसएस के नजरिये से बाद में एक जीवनी जरुर लिखी थी.लेकिन उनकी बाबा साहब से कितनी करीबियत थी.इसकी जानकारी देते हुये जमनादास बताते हैं कि –‘दत्तोपंत ठेंगडी जो बाद में आरएसएस के वरिष्ठ नेता बन गये थे,वे नागपुर की श्याम होटल में स्नेक्स परोसने वाले लड़के के रूप में मौजूद थे.यह चाय पार्टी 1956 के दीक्षा समारोह के दौरान नागपुर में हुई थी.’इस चाय पार्टी के दौरान बाबा साहब ने कहा थे –‘मैंने प्रधानमत्री पद को छोड़कर सबकुछ हासिल कर लिया है.मैं अपने लोगों के लिये चिंतित हूँ,जो आपस में ही लड़ते रहते हैं,हमें अन्य जातियों के लोगों के साथ काम करने की आदत नहीं है.हमें अपने काम के तरीके बदलने होंगे,अन्य जातियों के साथ मिलकर काम करना सीखना पड़ेगा और अन्य जातियों के लोकतान्त्रिक विचारों के प्रगतिशील लोगों के साथ मिलजुलकर काम करना होगा.’
के जमनादास दीक्षा समारोह के दिन का आँखों देखा हाल इस तरह सुनाते हैं –‘दीक्षा भूमि पर बहुत अधिक भीड़ थी समता सैनिक दल के स्वयसेवक और नागपुर नगर निगम के श्रमिक समारोह के लिये विशाल मैदान साफ करने में व्यस्त थे.मंच विशाल और सभी ओर से सुरक्षित था.बगल में,मुख्य सड़क से बाबा साहब की कार के लिये मंच तक एक सड़क बनी हुई थी और दोनों तरफ बांस की चटाई द्वारा संरक्षित थी.माइक और साउंड सिस्टम की उत्कृष्ट व्यवस्था की गई थी.स्टेज बहुत बड़ा था.विभिन्न संगठनों द्वारा सड़कों पर सभी के लिये खाने पीने के मुफ्त स्टाल लगाये गये थे.जो लोग दीक्षा लेने वाले थे,उन्हें सफ़ेद वस्त्र पहन कर आना था,लेकिन बाज़ारों से श्वेत वस्त्र समाप्त हो चुके थे,फिर किसी भी रंग के कपडे पहने व्यक्ति को दीक्षा देने की घोषणा करनी पड़ी.भीड़ इतनी अधिक थी कि रिकॉर्ड रखने के लिये सैंकड़ों स्वयसेवकों के बावजूद व्यवस्था टूट गई.लोग अलग अलग इलाकों से जिस भी साधन से आ सकते थे,नागपुर पहुंचे.कईं लोग तीन दिन के लिये घर से खाना साथ लेकर आये.घर की बनी हुई ज्वार के आटे की रोटियां और एक दो प्याज.”
आज कल्पना करके भी मन रोमांचित हो जाता है कि कैसे बाबा साहब के एक आह्वान पर लाखों लोग धम्म दीक्षा हेतु नागपुर पहुँच गये थे,वाह क्या दिन था वह और कितने सौभाग्यशाली थे वे लोग,जो उस दिन बाबा साहब के साथ खड़े थे.ऐतिहासिक अवसर .
पुस्तक में भारत में अम्बेडकरी बुद्धिस्ट आन्दोलन के प्रमुख स्तम्भ भदंत नागार्जुन सुरई ससाई का भी साक्षात्कार शामिल है.भदंत नागार्जुन ने अपनी बातचीत में संविधान पर बौद्ध धम्म के प्रभाव पर चर्चा की है और साथ ही यह भी कहा है कि महाबोधि विहार ही वह स्थान है,जहाँ भगवान बुद्ध का जन्म हुआ ,लुम्बिनी में तो सिद्धार्थ का जन्म हुआ था,बौद्ध गया जहाँ बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ,वहां बुद्ध का जन्म माना जाना चाहिए.उन्होंने कहा कि –“मेरा उद्देश्य महाबोधिविहार को आजाद कराना है और बौद्द आन्दोलन व संगठनों को मजबूत करना है,मैं बहुजन बौद्ध आन्दोलन को मजबूत करना चाहता हूँ.मैं बहुजन क्रांति को बौद्ध धम्म में देखना चाहता हूँ.” हम सब जानते हैं कि उन्होंने भारतभूमि को अपनी कर्मस्थली बना कर इस दिशा में उन्होंने उल्लेखनीय काम किया है.
अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट विचारक डॉ धर्मकीर्ति के पास बाबा साहब की बहुत सी यादें हैं,वे बताते हैं कि जब बाबा साहब आगरा के बौद्ध विहार आये तो उनके पूरे मार्ग में गुलाब की पंखुडियां बिछाई गई थी,बाबा साहब ने कहा – ‘हिन्दुओ की तरह बुद्ध की पूजा मत करो,धम्म के मार्ग में तब तक मत आओ,जब तक कि बुद्ध को सही ढंग से नहीं समझे हो‘
पढ़े लिखे लोगों के धोखा देने संबंधी बाबा साहब के भाषण का एक कोटेशन बहुत उपयोग में लिया जाता है,इस बारे में बताते हुये डॉ धर्मकीर्ति कहते हैं कि –‘यह बात सही है कि आगरा के रामलीला मैदान की जनसभा में नम आँखों से बाबा साहब ने कहा था कि मेरे समाज के पढ़े लिखे लोगों ने मुझे धोखा दिया ,क्योंकि वे सत्ता के साथ समझौता करते हैं और सफल होने के बाद समाज से नहीं जुड़ते है’
भगवान दास हो अथवा एल आर बाली अथवा डॉ धर्मकीर्ति इन पर आर्यसमाज का प्रभाव होने की बात भी की जाती रही है,लेकिन उनकी बातों से यह तो स्पष्ट होता है कि इनका झुकाव प्रगतिशील समूहों और वामपंथ की तरफ भी रहा है.
जानी मानी साहित्यकार कुमुद पावडे वो पहली अम्बेडकरवादी महिला थी,जिन्होंने संस्कृत विषय में महारत हासिल की और नागपुर विश्वविध्यालय की संस्कृत विभाग की प्रमुख बनी.वे बाबा साहब का महिलाओं से जुड़ाव कुछ इस तरह बताती है –‘दलितों में बाबा साहब के प्रति असीम श्रद्धा थी,महिलाएं उनकी आरती उतारती थी.नागपुर में एक कार्यक्रम में उनको सुनने लगभग 25 हजार महिलाएं आई,बाबा साहब की एक अपील पर महिलाएं कहीं भी जाने को तैयार थी.’ वे दलित आन्दोलन व समाज में स्त्री के सवाल पर भी बात करती है और तीखे शब्दों में कहती है कि हम मनुवादियों को जाति शोषण के लिये गाली देते हैं लेकिन जब महिलाओं का प्रश्न आता है तो हम स्वय मनुवादी हो जाते हैं.
कुमुद पावडे दलित आन्दोलन की एकाकी प्रवृति से सहमत नहीं लगती है,उनकी दृष्टि सर्वसमावेशी है,उनकी साफ मान्यता है कि भारत को प्रबुद्ध राष्ट्र बनाने के लिये हमें सभी प्रकार के लोगों की जरुरत है,केवल दलितों के अकेले प्रबुद्ध बनने से नहीं होगा.बुद्ध ने कहा था बहुजन हिताय ,बहुजन सुखी ,यही हमारा भी मूल मन्त्र होना चाहिए.
दलित पैथर के संस्थापक राजा ढाले को पढना भी रोचक होगा,एक समय दलित पैंथर के नाम से उत्पीड़नकारी ताकते कांपती थी.दलित पैथर्स ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है,यह अलहदा बात है कि समय के साथ बहुत कुछ बना और बिगड़ा भी,लेकिन दलित पैंथर्स का नाम देश के दलित बहुजन आन्दोलन में आज भी स्वाभिमान जगाने वाले एक क्रान्तिकारी समूह के तौर पर ही लिया जाता है.राजा ढाले बताते है कि –‘सन 1968 के आसपास अमेरिका के ब्लैक पैंथर्स मूवमेंट के बारे में मैं पढता था.उसने मुझे प्रेरित किया,मैंने ब्लैक साहित्य का अनुवाद भी किया.इन बातों ने मुझे आखिरी साँस तक अन्याय और शोषण से लड़ने के लिये प्रेरित किया.
राजा ढाले बाबा साहब के जाति उन्मूलन के विचार से प्रभावित हैं लेकिन मान्यवर कांशीराम के जाति जोड़ो अभियान की वे मुखालफत करते हैं और कहते हैं कि ‘बाबा साहब ने जाति के विश्लेषण के संबंध में जो कुछ लिखा था,उसका ठीक उल्टा कांशीराम ने अपनाया ,जाति पर सवाल उठाने के बजाय वह हर जाति से एक नेता ढूंढता रहा’ ढाले मानते हैं कि अगर जाति मर जाती है तो उनका धर्म भी मर जायेगा .वर्ना वे जिस भी धर्म में जायेंगे ,अपनी जाति को भी साथ ले जायेंगे.
राजा ढाले भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर भी एक खास खुलासा करते हैं,उनके मुताबिक सन 1974 के पहले की बात है,नरेंद्र मोदी दलित पैंथर्स की तीन चार बैठकों में शामिल हुये और मंच के एक कोने पर बैठते थे,वे आरएसएस को हमारी बैठकों की सामग्री पर रिपोर्ट करने के लिये आते थे.’ इससे यह पता चलता है कि आरएसएस की नजर सदैव दलित मूवमेंट्स पर रही है और उसके लोग हर जगह जासूसी करने आते रहे हैं,वो चाहे चाय पानी देने के बहाने दत्तोपंत ठेंगडी श्याम होटल में मौजूद रहे हो अथवा नरेंद्र मोदी दलित पैंथर्स के प्रोग्रामों में आये हो,ऐसे कितने ही आरएसएस के लोग सदैव दलित बहुजन आन्दोलन पर तीखी नजर बनाये हुये हैं.
अम्बेडकरवादी चिन्तक विजय सुरवडे की बातचीत सविता अम्बेडकर को लेकर बहुत सारी ग़लतफ़हमियों को साफ करता है,चूँकि दलित आन्दोलन में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो सविता अम्बेडकर के जन्मना ब्राहमण होने पर सवाल उठाते हैं,ये वही लोग है जो मूलनिवासी के सिद्धांत में भारत की सभी स्त्रियों को भारतीय मूल का कहते नहीं थकते हैं,लेकिन वे सविता अम्बेडकर को मूल निवासी नहीं मानते,उनके लिये वे सिर्फ ब्राहमण स्त्री है,जिन्होंने बाबा साहब को षड्यंत्र पूर्वक अपने मोहजाल में फसाया और अंततः साजिश करके उनको मृत्यु के कगार पर पहुंचा दिया.बाबा साहब के निधन को ब्राहमनी षड्यंत्र अथवा हत्या मानने वाले लोगों की कमी नहीं है.बहुत सी बातें इस सम्बन्ध में कही जाती रही है और ऐसे आलेख और किताबें भी लिखी गई.भाषणों में तो यह सिलसिला अब भी बहुत आम है.
तो क्या वाकई सविता अम्बेडकर एक षड्यंत्रकारी महिला थी और बाबा साहब जैसे प्रखर मेधा सम्पन्न व्यक्ति उसके रूप जाल में फंस गये थे? क्या उन्होंने बाबा साहब को कोई गलत दवाय या धीमा जहर दे दिया था? बाबा साहब के नजदीकी लोग उनको इतना अधिक नापसंद क्यों करते थे? इस बारे में विजय सुरवडे कहते हैं-“माई का नाम शारदा था और बाबा साहब उन्हें सरू कहते थे.बाद में उनका नाम सविता रख दिया गया.वे दोनों एक साल से रिलेशिनशिप में थे,एक दूसरे को लम्बी लम्बी चिट्ठियां लिखा करते थे.वह एक अम्बेडकरवादी थी और आजीवन बौद्ध रही.वह बाबा साहब के सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में उनके साथी थी.2 मई 1950 को उन्होंने बाबा साहब के साथ दिल्ली के बिड़ला महाबोधिविहार में धम्म दीक्षा ली थी.बाबा साहब ने बुद्ध और उनका धम्म की प्रस्तावना में इस लेखन का सबसे बड़ा श्रेय माई साहब को दिया,लेकिन बाबा साहब के साथ कर्तव्यनिष्ठ और कानूनी रूप से विवाह करने वाली महिला को साजिशकर्ता और बाहरी के रूप में देखा जाता है,उनका बहिष्कार किया गया और उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया गया.अम्बेडकरवादियों में से कुछ ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिये झूठ और अफवाहों का सहारा लिया,उनके लिये सविता अम्बेडकर सबसे आसान टारगेट बन गई थी”
विजय सुरवडे यहीं नहीं रुकते हैं,वे पूछते हैं कि क्या बाबा साहब इतने छोटे बच्चे थे कि उनको इस बात का पता नहीं था कि उनके लिये क्या अच्छा है और क्या बुरा है? सविता अम्बेडकर एक डाक्टर थी,वह बाबा साहब के दवाई और लोगों से मुलाकात आदि पर कड़ा नियंत्रण करती थी,इससे काफी लोग खफा थे,सोहन लाल शास्त्री ने तो उनको सिर्फ नर्स बताया,जबकि वे ग्रेंड मेडिकल कालेज मुंबई से पासआउट मेडिकल डाक्टर थी.माई साहब पर आरोप लगाने वाले बाबा साहब को धोखा डे रहे थे और यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि डॉ अम्बेडकर नासमझ थे.
प्रस्तुत पुस्तक कईं मामलों में एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है,यह अम्बेडकरवादी लोगों को एक निरपेक्ष दृष्टि प्रदान करती है और कईं सारे भ्रमों का निवारण भी करती है,इतना ही नहीं बल्कि ऐसी जानकारियां भी सामने लाती है,जिन पर बहुत कम बात हुई है.बंगाली साहित्यकार मनोहर मौली विश्वास का साक्षात्कार बंगाल में दलित आन्दोलन और साहित्य की स्थिति पर प्रकाश डालता है और नमोशुद्र समुदाय तथा जोगेंद्र नाथ मण्डल के बारे में बताता है.विश्वास कहते हैं –‘जोगेंद्र नाथ मण्डल अविभाजित बंगाल में बाबा साहब अम्बेडकर के सच्चे अनुयायी थे.वे एक नामशुद्र परिवार से आये थे.वे 1946 में पेरोजपुर आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से जीते थे.वे अपने समुदाय में निर्विवाद रूप से लोकप्रिय व्यक्ति थे.वे पूर्वी पाकिस्तान में देश विभाजन के वक्त उनके साथ रहे,पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री भी बने,कराची भी रहे,पर मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा दी गई गंभीर धमकी के बाद 1950 में वे कराची से कोलकाता भागने को मजबूर हो गये,उनके इन्हीं निर्णयों ने उन्हें बहुत अलोकप्रिय भी बना दिया थे.’
हमारे दौर के एक महत्वपूर्ण स्कोलर,लेखक,चिन्तक और एक्टिविस्ट आनंद तेलतुम्बडे जो भीमा कोरेगांव हिंसा के मामले में अर्बन नक्सल आरोपित किये जा कर इन दिनों जेल में है,जो अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों के लिये बहुत मशहूर है,उनका बाबा साहब के परिवार से एक रिश्ता भी है और उन्होंने दलित आन्दोलन और बाबा साहब की विचारधारा पर काफी लिखा बोला है.उनसे साक्षात्कार प्रस्तुत पुस्तक की एक उपलब्धि है.प्रोफ़ेसर आनंद अपनी बेबाक राय विभिन्न मसलों पर रखते रहे हैं,हालाँकि अस्मितावादी आंदोलनों में वे ज्यादा लोकप्रिय नहीं है.उन्होंने अम्बेडकरवाद के नाम पर पनप रही अराजक व नस्ल तथा जातिवादी प्रवृतियों को सदैव निशाने पर लिया है,जिसके चलते अम्बेडकरवादी आन्दोलन ने भी उनको एक संदेह भरी दृष्टि से देखा है और उनकी टिप्पणियों से काफी असहजता व असहमतियां जताई है,लेकिन किसी भी आन्दोलन के अच्छे स्वास्थ्य के लिये यह बहुत जरुरी है कि उसमें आलोचना और असहमतियों के लिये जगह रखी जाये,जो अभी दलित बहुजन आन्दोलन में न के बराबर है.
बाबा साहब के निधन के बाद भारत में अम्बेडकरवादी आन्दोलन की हालत पर तीखी टिपण्णी करते हुए आनंद तेलतुम्बडे कहते हैं कि ‘आज अस्मिता के प्रदर्शन के नाम पर अम्बेडकर को एक निर्जीव मूर्ति में बदल दिया गया है.अम्बेडकर की भक्ति के प्रदर्शन का राजनीतिक दलाली में इस्तेमाल हो रहा है.वैचारिक दिवालियापन तथा सत्ता और पैसे के लिये विरोधी खेमे में शामिल होकर अम्बेडकर के आदर्शों के प्रति भक्ति का दावा किया जा रहा है.लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिये शासक वर्ग के पिछलग्गू बने फिर रहे हैं.अम्बेडकर के आदर्शों को लगातार कुचला जा रहा है‘
अगर देखा जाये तो वास्तव में यही हो रहा है,लोग अम्बेडकर को पढ़ कम रहे हैं,पूज ज्यादा रहे हैं,लोगों ने नीला स्कार्फ गले में पहनकर सोशल मीडिया पर जय भीम चिल्लाने को ही सच्चा अम्बेडकरवाद समझ लिया है,इस तात्कालिक और प्रतीकात्मक अम्बेडकरी आन्दोलन और ऐसी ही अन्य प्रवृतियों की तरफ इशारा करते हुये डॉ आनंद तेलतुम्बडे यह तक कह डालते हैं कि –‘आज किसी भी आन्दोलन को अम्बेडकरवादी नहीं कहा जा सकता है,अम्बेडकरवाद का मतलब यह नहीं है कि अम्बेडकर की पूजा की जाये या उन्हें एक प्रकार का धर्मगुरु बना दिया जाये.’
प्रोफ़ेसर आनंद अम्बेडकरवादी आन्दोलन में उभर रही अम्बेडकर विचार विरोधी गतिविधियों को भी अपनी बातचीत में रेखांकित करते हैं और डॉ अम्बेडकर की वैचारिकी को नये दृष्टिकोण से देखने के लिये भी राह खोलते नजर आते हैं.आनन्द तेलतुम्बडे का यह साक्षात्कार तीक्ष्ण व मारक सत्य से साक्षात् कराने वाला है .इसकी एक एक पंक्ति दलित समुदाय और अम्बेडकरी मूवमेंट में आ रही जड़ताओं ,मूढताओं और अवसरवाद तथा यथास्थितिवाद पर करारा प्रहार करने वाली है.लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि प्रोफ़ेसर आनंद महज आलोचना ही करते हैं,वे आलोचनात्मक शल्य क्रिया तो करते ही है ,भविष्य के चिन्तन के नये आयाम भी पेश करते जाते हैं.
यह कहा जा सकता है कि अम्बेडकरवादी मानवतावादी मिशन के सुचिंतित लेखक विचारक विद्याभूषण रावत का यह प्रयास अम्बेडकरी विचारधारा के लिये सोचने समझने के नये द्वार तो खोलेगा ही ,बहुत सारे भ्रमों और ग़लतफ़हमियों का निराकरण करते हुये एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ के रूप में पढ़ा और समझा जाएगा.इस महनीय प्रयास के लिये विद्याभूषण जी का बहुत आभार और प्रकाशक विवेक सकपाल का भी आभार ,साधुवाद ,जिनकी वजह से यह पुस्तक रूप में हमारे हाथों में हैं.