– विद्या भूषण रावत
(समाज वीकली)- अभी राम चरित मानस को लेकर बवाल है। तुलसी की एक चौपाई पर सवाल है वैसे रामायण या गीता पर सवाल कोई आज से नहीं खड़े किए गए है। ऐसा भी नहीं है कि सवाल केवल रामायण पर ही हुए हो। बाइबल और कुरान पर भी सवाल खड़े किए गए है और लोग बेहद उत्तेजित हो जाते हैं। धर्मग्रंथों को लेकर या अपने नायकों और इतिहास को लेकर हम सभी लोग बेहद संवेदनशील होते है लेकिन ये भी समझने वाली बात है कि बहुत से लोग इन्ही पर चर्चा कर बाकी मुद्दों से ध्यान भटकाने का काम करते है। धर्म के सवाल को लेकर दुनिया भर मे बहुत बहसे हुई है। बहुत से समाजों मे राइट टू अफेन्ड मूलतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा हैं और समाज वहा पर ऐसे तौर पर विकसित हुआ है कि यदि आप धर्मग्रंथों और धर्म की आलोचना करते हैं तो लोगों पर कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जिसको मानना है वो उसे मानते हैं और जो नहीं मानना चाहते है वे नहीं मानते। यूरोप, इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि ऐसे राष्ट्र हैं जहा आप दूसरे देशों की तुलना मे अभिव्यक्ति और निजता के विषय मे बहुत आगे हैं। इनके उलट, दूसरे वो राष्ट्र है जहा राज्य धर्म की आलोचना नहीं कर सकते चाहे दूसरे धर्मों की चाहे आलोचना कर लो। ये देश वो हैं जहा इस्लाम राज्य धर्म है और इन देशों मे इस्लाम की आलोचना करना या प्रोफेट मोहम्मद के विषय मे कोई भी नकारात्मक या आलोचनात्मक बात आपको सीधे जेल और फांसी के फंदे तक पहुंचा सकती है। तीसरे वे राष्ट्र है जो अपने को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं लेकिन धर्मनिरपेक्षता की उसकी परिभाषा किसी भी धर्म मे हस्तक्षेप करने के नहीं अपितु सभी धर्मों को बराबरी का समझने की है। इस धारणा की समस्या ये है कि धर्म के विरुद्ध जो कानून इस्लामिक राष्ट्रों मे है वो हमारे यहा भी है। धर्म को चुनौती देना या धर्म ग्रंथों पर सवाल करने को सीधे सीधे समाज विरोधी या आज के दौर मे राष्ट्र विरोधी मान लिया जाता है।
भारत मे धर्म के सवाल को लेकर बहुत सा लिखा गया है और बहुत सी विचारधाराये भी आई। वैदिक काल के समय ही लोकायत की व्यवस्था भगवान और भाग्यवाद की परंपरा के विरुद्ध थी। भारत के अंदर जो भी वैकल्पिक धाराये उठ खड़ी हुई थी वे सभी भाग्यवाद और ब्रह्मणवाद के विरुद्ध थी। ये तो सत्य है कि समाज मे भेदभाव था और वो कब से था इस पर चर्चा न भी करें तो सवाल ये उठता है कि जातिगत घृणा और भेदभाव के विरुद्ध क्या क्या आंदोलन हुए और उन्हे किन तबकों का विरोध झेलना पडा। बुद्ध ने जातिवाद, पुरोहितवाद और अंधविश्वास के विरुद्ध अलख जगाया और दुनिया के सामने एक विकल्प रखा। बुद्ध के मानववादी विकल्प को बहुत बड़ी संख्या मे लोगों ने अपनाया जिसके कारण पुरोहितवादीयो की व्यापक हिंसात्मक प्रतिक्रिया हुई।
बाद के युग मे बुद्धिवादी धारा के लोगों द्वारा लगातार हिंसा, जातिवाद और छुआछूत का जमकर विरोध किया गया। इसमे प्रमुख थे नानक, रेदास, कबीर, तुकाराम, बासवा और बहुत से अन्य सूफी संत थे जो प्रेम, भाईचारे और समानता की बात करते रहे। जो पूरी तरह से नास्तिक तो नहीं थे लेकिन फिर भी तर्कवादी थे या साधारण भाषा मे कह दे तो मानववादी थे। उत्तर भारत की आज की हिन्दी पट्टी मे रैदास और कबीर दो ऐसे नाम हैं जिन्होंने पुरोहितों के कर्मकांडों का न केवल विरोध किया अपितु लोगों को एक बेहतरीन मानववादी विकल्प दिया। दोनों का काशी से संबंध था। काशी से बुद्ध का भी संबंध था लेकिन इसलिए ये सोचना आवश्यक है कि काशी ब्रह्मणवाद की इतनी बड़ी स्थली के रूप मे कैसे विकसित कर दिया गया ? तुलसीदास का जन्म रैदास और कबीर के बाद हुआ और हिन्दी पट्टी मे दोनों के द्वारा पैदा की गई चेतना को कुंड करने मे उनका बड़ा योगदान है। खैर, ये भी हकीकत है कि राम चरित मानस एक बेहद लोकप्रिय ग्रंथ बना लेकिन कुल मिलकर तुलसी उत्तर भारत के लिए एक नई ‘नैतिकता’ निर्धारित कर रहे थे जो पुरोहितवादी कर्मकांडों पर आधारित थी जिसके ठीक उलट रैदास और कबीर यह पर बुद्धिवादी नैतिकता को स्थापित करने की बात कर रहे थे।
अंग्रेजों के आने के बाद भारत मे वर्णवादी व्यवस्था के विरुद्ध व्यापक आंदोलन हुए जो काँग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन के समानांतर चल रहे थे। ये सभी आंदोलन प्रभुत्ववादी पुरोहितवादी व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन मात्र उनके विरोध तक सीमित नहीं थे। अधिकांश आंदोलनों मे विकल्प पर बहुत जोर दिया गया। चाहे फुले का सत्यशोधक हो या पेरियार का आत्मसम्मान आंदोलन सभी लोगों को अंधविश्वास, धार्मिक आडंबरों से मुक्त करवा देना चाहते थे। फुले ने गुलामगिरी और किसान का कोडा के जरिए लोगों को शोषण और शोषित की पूरी व्यवस्था के विषय मे बताया। शायद सेठजी-भटजी का जो बेहतरीन उदाहरण उन्होंने दिया वो आज के परिपेक्ष्य मे बिल्कुल सही उतरता है जहा पूंजीवाद और पुरोहितवाद का गठजोड़ भारत के आम जनमानस के विरुद्ध खुले तौर पर सामने आ चुका है। पेरियार ने भी लोगों को गैर ब्राह्मण आंदोलन से जोड़कर मजबूत किया लेकिन उन्हे भाषा से लेकर संस्कृति के विकल्पों के साथ जोड़ा। बाबा साहब अंबेडकर ने तो प्रबुद्ध भारत की अपनी परिकल्पना इसी आधार पर की जहा सभी लोग एक दूसरे का सम्मान करें और बंधुत्व की भावना हो।
बाबा साहब अंबेडकर ने 1927 मे महाड़ मे पानी के लिए आंदोलन किया। उसी वर्ष उन्होंने महिलाओ के एक बड़े सम्मेलन को भी संबोधित किया। बाबा साहब ये मानते थे कि महिलाओ की भागीदारी और बराबरी के बिना कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकते। 25 दिसंबर 1927 को जब बाबा साहब की उपस्थिति मे उनके साथियों और अनुयायियों ने मनुस्मृति का दहन किया। इसका कारण साफ था कि जातिवादी हिन्दू बाबा साहब को महाड़ मे नहीं घुसने देना चाहते थे। मनुस्मृति का दहन एक बहुत बड़ी घटना थी हालांकि ये भी हकीकत है कि बाबा साहब जैसे व्यक्ति यह जानते थे कि मनुस्मृति को जला देने मात्र से मनुवाद का खात्मा नहीं हो सकता था लेकिन यह मनुवादी तंत्र के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी और इसलिए क्योंकि मनुस्मृति का दहन दरअसल जी एन सहश्रबुधे ने किया। बाबा साहब ने शुरूआती दिनों मे हिन्दू धर्म मे सुधार के प्रयास भी किए। गांधी के साथ जाति के प्रश्न पर पूरा विमर्श इसी का हिस्सा है। बाद मे नासिक मे कलाराम मंदिर मे दलितों के प्रवेश को लेकर उन्होंने एक बार प्रयास किया था लेकिन इसका भी जमकर विरोध हुआ। अक्टूबर 1935 मे
येवला की ऐतिहासिक सम्मेलन मे उन्होंने ये घोषणा कर दी कि हालांकि मै हिन्दू पैदा हुआ जो मेरे बस मे नहीं था लेकिन मै हिन्दू रहकर नहीं मरूँगा। ओर फिर 14 ऑक्टोबर 1956 को नागपूर के विशाल दीक्षा कार्यक्रम मे लाखों की संख्या मे उनके अनुयायियों ने धम्म की दीक्षा ली। आज भी जिन लोगों ने जातिवादी व्यवस्था से अपना नाता तोड़ दिया है वे इसकी आलोचना करने मे अपना समय बर्बाद नहीं करते। दरअसल जिन बातों का विश्लेषण इतने वर्षों मे करके लोग उसे छोड़ कर अपनी नई विचार धारा मे गए है वही बहुत से लोग अभी भी उन्ही पुराने सवालों को चर्चा का विषय बना कर विषय से भटकते हैं। इन धर्म ग्रंथों की आलोचना अम्बेडरवादियों से अधिक किसी न नहीं की होगी लेकिन उन्होंने अपना नया रास्ता भी ढूंढ लिया। हम पुरोहितवादी व्यवस्था की आलोचना कर उसी व्यवस्था मे यदि रहते हैं तो अपना समय ही बर्बाद करते है। आवश्यकता इस बात की है कि बाबा साहब, ज्योतिबा फुले या पेरियार के विकल्पों मे जा कर सकारात्मक तौर पर अपने समाज को मजबूत करें।
मै तुलसीदास या रामायण पर आज की बहस को निरर्थक मानता हूँ और यही कि ये उन्ही पुरोहितवादी शक्तियों के अजेंडे मे फँसने का सवाल है। हम जानते हैं कि जातिवादी समाज मे भगवानों की भी जातिया हैं और जो राम की कटु आलोचना करते हैं वे कृष्ण के मामले मे चुप हो जाते हैं। बाबा साहब ने तो बहुत पहले इन प्रश्नों पर अपनी बात रख कर जब ये देख लिया कि बहुत ज्यादा बहस करके भी इस वर्णवादी समाज मे कोई सुधार नहीं आ सकता तो उन्होंने बुद्ध के नव्यान का रास्ता चुन लिया और वही आज की जरूरत है। जो लोग ये सोचते है कि वे इन धार्मिक मामलों को उठाकर कोई जनता का भला कर देंगे वे दलित बहुजन समाज के मूल प्रश्नों से अपना भटकाव कर रहे हैं। आज भी भूमि सुधार के प्रश्न सरकारों के अजेंडे से गायब हैं और निजीकरण ने आरक्षण की व्यवस्था को पिछले दरवाजे से खत्म कर दिया है। शिक्षा का रास्ता आज भी बंद है। सवाल इस बात का है के ये सभी महान नेता इन प्रश्नों पर कार्यवाही क्यों नहीं करते। दलितों पर हिंसा सवर्णों के साथ पिछड़े वर्ग के लोगों द्वारा भी जारी है। तमिलनाडु मे पानी के एक बड़े टंक मे मलमूत्र डालने वालों के खिलाफ आज भी तमिलनाडु सरकार कार्यवाही नहीं कर सकी है और जो कार्यवाही हो रही है वह दलितों पर हो रही है। इसलिए आवश्यक है कि एक कविता और कहानी से पूरी बहस को न मोड। दुनिया के अंदर कोई भी ऐसा धर्म नहीं है जिसमे कोई खामी न हो और जिसने समय के साथ कोई बदलाव लाया हो लेकिन लोग धर्म की किताबों पर बहस करने की बजाए अब अपने नए रास्तों पर चल रहे हैं। आज पूरे टी वी पर तुलसीदास और राम चरित मानस की चर्चा है। क्या हम नहीं जानते कि भारत के गाँव गाँव मे बाबाओ का जाल आज पूजा पाठ मे लोगों को और धकेल रहा है। इसको कैसे काउन्टर करेंगे। क्या भगवानों को गाली देकर या इन पुस्तकों को जला कर आप मनुवाद का मुकाबला कर पाएंगे। ये आसान तरीका जरूर है क्योंकि तुरंत मीडिया मे आप आते हैं लेकिन आप विरोधियों को मौका दे देते हैं। आवश्यकता है कि हम लोगों के मध्य सकारात्मक कार्य करें और लोगों को स्वयं निर्णय लेने की ताकत दे ताकि उन्हे पता चल सके कि उनके लिए कौन सा मार्ग सही है। धर्मग्रंथों की आलोचना से कोई लाभ नहीं है। जरूरत है उनके मकड़ जाल से बाहर आने की। बाबा साहब ने तो 1956 मे रास्ता दिखा दिया था आपको उस रास्ते मे जाने से कौन रोक रहा है ? यदि आप ऐसा नहीं कर पा रहे तो वर्णवादी व्यवस्था के ढांचे मे रहकर इस नूरा कुश्ती से समाज को कोई लाभ नहीं मिलने वाला भले ही नेताओ का भला हो जाए।