सरदार दयाल सिंह मजीठिया के विराट चिंतन पर प्रभाव: एक संक्षिप्त विश्लेषण

          Dr Ramji lal

डॉ. रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा-भारत)
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#समाज वीकली 

सरदार दयाल सिंह मजीठिया (सन्1848-सन्1898) का जन्म पंजाब के मजीठा गांव (जिला अमृतसर) में एक उच्च कुलीन तथा अमीर परिवार में हुआ था.मजीठा गांव अमृतसर से 10 किलोमीटर उत्तर में है. यह 19वीं सदी में पंजाब के सबसे शक्तिशाली और प्रसिद्ध गांवों में से एक था क्योंकि महाराजा रणजीत सिंह ने सन्1800- सन् 1849 तक अपनी सेना में इस गांव के तीन परिवारों के 16 सेनापतियों को शामिल किया था.

पंजाब के इसी गांव का महान सपूत दयाल सिंह एक महान दानवीर, राष्ट्रनायक तथा समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, उदारवाद और मानवता के प्रेमी, संपादक, पत्रकार, शिक्षाविद्, अर्थशास्त्री, दानवीर, प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता, लेखक , ब्रह्मो समाजी,तर्कशील्,ओजस्वी वक्ता, उदारवादी राष्ट्रवादी नेता व एक आदर्श व्यक्तित्व के धनी थे. वास्तव में वे एक युग पुरुष , प्रतिभावान ,युगदूत एवं युगदृता ,महान दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी थे .चुंबकीय व्यक्तित्व और महान गुणों के कारण उनका नाम तत्कालीन समय में और आज भी लाहौर (अब पाकिस्तान) से लेकर कलकत्ता (अब कोलकाता– पश्चिम बंगाल) तक बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है. दयाल सिंह अपने पीछे ऐसी विरासत छोड़ गए हैं जिस के बारे में हर व्यक्ति को गर्व होता है . वह ‘राजा कर्ण’ तथा ‘भामाशाह’ की भांति आधुनिक युग के दानवीर थे.अंततःबी.के.नेहरू के मतानुसार दयाल सिंह ने उत्तर भारत को अज्ञानता के अंधेरे से आधुनिकता के प्रकाश की ओर ले जाने की दिशा में वही कार्य किया जो ब्रह्मो समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय ने बंगाल में 19वीं शताब्दी के प्रथम वर्षों में किया था.राजा राममोहन राय को ‘भारतीय पुनर्जागरण एवं राष्ट्रवाद का अग्रदूत’ माना जाता है.

पारिवारिक पृष्ठभूमि:

मजीठिया परिवार महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में पंजाब के प्रमुख कुलीन परिवारों में से एक था . दयालसिहं के परदादा सरदार नोध सिंह,दादा देसा सिंहऔर पिता सरदार लहना सिंह महाराजा रणजीत सिंह की सेना के सर्वश्रेष्ठ जरनलों की श्रेणी में आते थे तथा महाराजा रणजीत सिंह के प्रमुख सलाहकार व अत्याधिक विश्वासपात्र ,सर्वाधिक निकटतम प्रशासनिक और सैनिक अधिकारी थे. दयाल सिंह दयाल सिंह के परदादा सरदार नोध सिंह – एक प्रमुख ज़मींदार थे, जिन्होंने अमर सिंह भागा की बहन के साथ वैवाहिक संबंध बनाकर अपनी शक्ति को कई गुना बढ़ा लिया था. अमर सिंह भागा धर्मकोट – भागा के सामंत थे.

स.नोध सिंह की मृत्यु सन्1788 में हुई. कांगड़ा अभियान के दौरान, भागा सरदार महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं को आपूर्ति प्रदान करने में विफल रहे. स. नोध सिंह के इकलौते बेटे स. देसा सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह का साथ दिया, जिन्होंने उन्हें भागा एस्टेट का एक हिस्सा दिया. भागा स. देसा सिंह के करीबी रिश्तेदार भागा सरदार के नियंत्रण में था

स. देसा सिंह महाराजा रणजीत सिंह की सेना में एक जनरल थे . उनके देसा सिंह महाराजा रणजीत सिंह के ‘खालसा साम्राज्य’के प्रति वफादार और समर्पित थे . देसा सिंह की प्रशासनिक निपुणता एवं वफादारी के परिणाम स्वरूप उनको सुकालगढ़ व भागोवाल जागीर के रूप में भेंट कर दिए थे और उन्हें अमृतसर शहर और उसके आसपास की पहाड़ी रियासतों – मंडी और साकेत का गवर्नर बनाया गया था. इसके अलावा उनको सिख धर्म के सर्वोच्च धार्मिक पवित्र गुरुद्वारा’ हरमंदिर साहिब’(GoldenTemple) का सिविल प्रशासक भी नियुक्त किया गया . देसा सिंह की अत्यधिक भक्ति, निष्ठा और विभिन्न सैन्य अभियानों में महाराजा रणजीत सिंह के साथ रहने के कारण उन्हें ‘कासिर-उल-इक्तिदार’ (उच्च पद का प्रमुख — Chief of Exaulted Dignity) की उपाधि से सम्मानित किया गया था. देसा सिंह की मृत्यु सन्1832 में हुई .

स. देसा सिंह के तीन बेटे थे- लहना सिंह, गुज्जर सिंह और रणजोध सिंह थे. परंतु लहना सिंह स. देसा सिंह के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण उनकी सभी संपत्तियों एवं सम्मान के उत्तराधिकारी बने. दयाल सिंह के पिता स. लहना सिंह अपने पिता की स.देसासिहं की भांति एक सुयोग्य प्रशासक,उदारवादी एवं अति बुद्धिमान व्यक्ति थे. अपने पिता की मृत्यु से पहले ही स. लहना सिंह ने मुल्तान में महाराजा रणजीत सिंह के सैन्य अभियान (सन्1818) में भाग लिया था। देसा सिंह की मृत्यु के बाद लहना सिंह को कांगड़ा और पहाड़ी क्षेत्र तथा छोटी रियासतों का नाज़िम (गवर्नर)बनाया गया. महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य के प्रशासनिक और सैन्य क्षेत्रों में सेवा करते थे. महाराजा रणजीत सिंह सरदार लहना सिंह की सेवाओं से प्रभावित हुए और उन्हें इतनी संपत्ति दान कर दी जिसकी वार्षिक आय ₹ 1,25,000 थी. लहना सिंह को महाराजा रणजीत सिंह ने ‘हिसान उद्दौला ‘(राज्य की तलवार –The Sword of the State) की उपाधि से सम्मानित किया था. स. लहना सिंह अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध थे. यही कारण है कि उन्होंने ‘काउंसिल ऑफ रिजेंसी’ (The Council of Regency )से संबंधित होने से इन्कार कर दिया था. उस समय पंजाब में राजनीतिक स्थिति अच्छी नहीं थी. क्योंकि पंजाब ब्रिटिश साम्राज्यवाद का हिस्सा बन चुका था और महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य खत्म होने वाला था. महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद जब शाही दरबार में उनका प्रभाव कम होने लगा और उनके विरुद्ध राज दरबार में षडयंत्र होने लगे तो वे तो उन्होंने14 जनवरी 1848 को हमेशा के लिए पंजाब छोड़ दिया और बनारस में जाकर बस गए .उस समय उनके पास करोड़ों रुपए का सोना चांदी एवं एवं हीरे जवाहरात थे तथा उनकी सुरक्षा हेतु लगभग 200 सशस्त्र व्यक्ति तैनात रहते थे. स. लहना सिंह ने बनारस(काशी) में काफी धन रियल एस्टेट में लगाया और अकूत संपत्ति अर्जित की.

दयाल सिंह : जन्म से युवा काल तक (सन् 1848—सन् 1876)

दयाल सिंह का जन्म सन्1848 में बनारस (अब उत्तर प्रदेश) में हुआ था. उनके जन्म दिन का अधिकारिक रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है.पंजाब में जाति अथवा उप-जाति की अपेक्षा जन्म स्थान को उपनाम से जोड़ने की प्रथा सदियों पुरानी है. दयाल सिंह का पैतृक गांव मजीठा (अमृतसर -पंजाब) में है .इसलिए उन्होंने अपने नाम के साथ उप-जाति की अपेक्षा “मजीठिया” उपनाम जोड़ने को कही अधिक अच्छा समझा. दयाल सिंह का रक्त संबंध जट सिख जाति के ‘शेरगिल’ गोत्र से था .इसका उप गोत्र ‘गिल’ है .हरियाणा ,पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय अथवा जट सिख समुदाय के ‘गिल’ गोत्र के लोगों की संख्या काफी अधिक है .

दयाल सिंह के बारे में भविष्यवाणी करते हुए उनके पिता ने कहा था कि वे ‘नए युग के संदेशवाहक’ होंगे.जब वह 6 (Six)साल का शिशु था तब उसने अपने माता-पिता को खो दिया.परिणाम स्वरूप दयाल सिंह को राजा तेजासिंह के संरक्षण में रखा गया तथा उनकी संपत्ति का प्रबंध ‘कोर्ट ऑफ़ वार्डज़.(Court of Wards) के द्वारा किया गया.मजीठिया परिवार ने बनारस छोड़ दिया और अपने पैतृक गांव मजीठा में आकर रहने लगे.

दयाल सिंह की प्रारंभिक शिक्षा क्रिश्चियन मिशन स्कूल, अमृतसर में हुई. इसके पश्चात उन्होंने भारत में ही स्व: शिक्षा(Self-Education) प्राप्त की. उच्च शिक्षा के लिए वे इंग्लैण्ड गए .जब दयाल सिंह ने इंग्लैण्ड जाने का निर्णय लिया तो यह एक षडयंत्र की तरह हो गया, क्योंकि उस समय पंजाब में रूढ़िवादिता, अज्ञानता, अंधविश्वास आदि बुराइयां व्याप्त थीं. उनके रिश्तेदारों और यहां तक कि उनकी युवा और सुंदर जीवन साथी रानी भगवान कौर ने भी इसका विरोध किया. लेकिन दयाल सिंह ने विरोध की परवाह नहीं की और सन् 1874 में इंग्लैण्ड चले गए. सुधी पाठकों को यह बताना जरूरी है कि इंग्लैण्ड जाने वाला वह दूसरा पंजाबी युवक था. प्रथम पंजाबी दिलीप सिंह था. इंग्लैण्ड में दो वर्ष(सन् 1874- सन् 1876)रहने के बाद वह स्नातक की उपाधि प्राप्त किए बिना ही 1876 में स्वदेश लौट आए. दयाल सिंह मजीठिया के व्यक्तित्व और चिंतन पर प्रभाव

प्रत्येक व्यक्ति समकालीन परिस्थितियों की संतान होता है. दयाल सिंह कोई अपवाद नहीं थे. उन के व्यक्तित्व और चिंतन पर अधोलिखित प्रभाव पड़े :

प्रथम, इंग्लैंड में प्रवास का प्रभाव:

यद्यपि दयाल सिंह का इंग्लैंड में प्रवास केवल दो वर्ष (सन् 1874- सन् 1876)का ही था. उस समय इंग्लैंड अपने वैभव पर था और सुधारवाद, उदारवाद और राष्ट्रवाद का युग था. इन दो वर्षों के दौरान इंग्लैंड के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वातावरण ने उनके व्यक्तित्व और चिंतन पर गहरा प्रभाव डाला. इंग्लैंड की संसदीय प्रणाली, कानून का शासन, समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता ,बंधुत्व की अवधारणा, लोगों का तर्कपूर्ण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण, शिक्षा प्रणाली तथा लोगों से सीधे सम्पर्क ने उनके जीवन के प्रति सम्पूर्ण दृष्टिकोण को बदल दिया. दूसरे शब्दों में , कुलीन परिवार के वंशज युवा दयाल सिंह इंग्लैंड व यूरोप की नई लहर से अत्यधिक प्रभावित हुए तथा यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण व अभूतपूर्व क्रांतिकारी मोड़ था.

द्वितीय, सिख धर्म के अनुयायियों के व्यवहार से आध्यात्मिक ठेस:

अपने दो वर्ष(सन् 1874- सन् 1876) के प्रवास के दौरान उन्होंने सिख धर्म के बाह्य प्रतीकों को त्याग दिया, परन्तु वे स्वयं को सिख कहते रहे तथा सिख धर्म के सिद्धांतों पर विश्वास करते रहे . उन्होंने पंजाब के समकालीन समाज में व्याप्त अंध रूढ़िवादिता के विरुद्ध आवाज उठाई. परन्तु दुःख की बात यह है कि सिख धर्म के कट्टरपंथियों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया तथा उन्हें सम्मान नहीं दिया. अर्थात् सिख समुदाय ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। परिणामस्वरूप दयाल सिंह सिख धर्म के अनुयायियों के इस व्यवहार से बहुत अधिक आध्यात्मिक रूप से आहत हुए

तृतीय, पारिवारिक परिस्थितियाँ: इन परिस्थितियों का सामना करते हुए वे एकाकी और निराश रहे. उनकी पत्नी रानी भगवान कौर का सन् 1876 में निधन हो गया. वे इन घरेलू और सामाजिक समस्याओं से बहुत परेशान थे तथा उनके जीवन में एकाकीपन एवं सुनापन आता चला गया.इसलिए दुनिया में हो रहे नए घटनाक्रमों से खुद को जोड़े रखने के लिए उन्होंने अपने पैतृक गांव मजीठा से पंजाब की राजधानी लाहौर(अब पाकिस्तान) में जाने का फैसला कियाऔर जीवन के अंतिम क्षणों तक तक लाहौर में ही रहे. उस समय लाहौर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और उत्तर-पश्चिमी भारत में राजनीतिक घटनाओं के केंद्र के रूप में उभर रहा था. वस्तुत:दयाल सिंह लाहौर में रहकर विश्व में होने वाले नवीनतम परिवर्तनों, भारत तथा विश्व की राजनीति की घटनाओं,समाज के प्रबुद्ध वर्ग, अभिजात्य वर्ग तथा राष्ट्र प्रेमियों के संपर्क में आए और उदासीनता ,एकाकीपन, सूनापन इत्यादि के कारण जो अंधकारमय जीवन हो रहा था प्रकाश की किरण दिखाई दी तथा जीवन को सार्थक समझने लगे.

चतुर्थ,समकालीन समाज के प्रसिद्ध विद्वानों के साथ संपर्क का प्रभाव:

यद्यपि इंग्लैंड में अपने प्रवास के समय उनका चिंतन उदारवादी एवं प्रगतिशील हो गया था .परंतु लाहौर में रहने के कारण उनके दृष्टिकोण में व्यापकता आई तथा उनका चिंतन प्रगतिशील ,तर्कशील ,वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष होता चला गया.इसका मूल कारण यह था कि लाहौर में उन्होंने संपर्क समाज के तत्कालीन प्रसिद्ध विद्वानों – पीसी चटर्जी, बाबू जेसी बोस, डीएन टैगोर, , स्वामी दयानंद सरस्वती (आर्य समाज के संस्थापक एवं सत्यार्थ प्रकाश के रचनाकार ) तथा स्वामी विवेकानंद , सर सैयद अहमद खान, पंडित एसएन शास्त्री, लाला हरि कृष्णलाल ,लाला रुचिराम साहनी आदि के संपर्क स्थापित किया. इनके अतिरिक्त राजनीतिक क्षेत्र की महान हस्तियों- सुरेंद्रनाथ बनर्जी,दादाभाई नौरोजी( ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया), आरसी दत्त सहित तत्कालीन असंख्य राजनीतिक नेताओं से भी मुलाकात हुई और विचारों का आदान -प्रदान हुआ. हमारा यह सुनिश्चित अभिमत है कि लाहौर में रहते हुए दयाल सिंह के व्यक्तित्वऔर चिंतन में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ.

पंचम, तत्कालीन समाज की स्थिति: उस समय भारतीय समाज में जातिवाद, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास, अज्ञानता, मूर्ति पूजा आदि जैसी कई सामाजिक बुराइयाँ और परंपराएँ प्रचलित थीं. पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव ने सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण में रुचि रखने वाले लोगों का एक नया वर्ग तैयार हो रहा था जो इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए तैयार था. दयाल सिंह ने अपने आप को इस वर्ग से जोड़कर सामाजिक बुराइयों का उन्मूलन करने का दृढ़ निश्चय किया.

छठा ,विभिन्न धर्मो के तुलनात्मक अध्ययन का प्रभाव: लाहौर में रहते हुए, उनके विचार और दृष्टिकोण व्यापक हो गए. इसका मुख्य कारण यह था कि लाहौर में रहते हुए दयाल सिंह ने विभिन्न धर्मों – हिंदू धर्म, सिख धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म आदि का तुलनात्मक अध्ययन किया. स्वामी दयानंद सरस्वती (आर्य समाज के संस्थापक एवं सत्यार्थ प्रकाश के रचनाकार ) तथा स्वामी विवेकानंद से धार्मिक विषयों पर विचार- विमर्श किया परंतु संतुष्ट नहीं हुए.

सप्तम,राजा राममोहन राय व ब्रह्मो समाज के सिद्धांतों का प्रभाव:

समाज सुधारक अभिजात वर्ग के अग्रणी नेता राजा राममोहन राय थे . उनको ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ और ‘सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण’ का अग्रदूत माना जाता है. सन् 1828 में राजा राम मोहन राय ने ब्रह्मो समाज की स्थापना की। ब्रह्मो समाज का मुख्य उद्देश्य भारतीय जनता को सुस्ती और पिछड़ेपन से जागृत करना था. ब्रह्मो समाज ने बाल विवाह, सती प्रथा, बहुपत्नी विवाह को समाप्त करने की वकालत की और विधवा पुनर्विवाह, अंतर्जातीय विवाह और अन्य सामाजिक सुधारों की वकालत की. दयाल सिंह ब्रह्मो समाज के सिद्धांतों से बहुत प्रभावित हुए. अंततः उन्होंने ब्रह्मो समाज के सिद्धांतों को अपनाया और पंजाब के सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में उनके कार्यों की चर्चा होनेलगी.

संक्षेप में,दयाल सिंह का पैतृक गांव मजीठा का छोड़ना व लाहौर में रहना उसके लिए वरदान सिद्ध हुआ. क्योंकि यहाँ आने के बाद उन्होंने नए कुलीन वर्ग के साथ संपर्क स्थापित किया और उनकी सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मामलों में रुचि में अभूतपूर्व वृद्धि हुई. इन प्रभावों के परिणाम स्वरूप, सरदार दयाल सिंह मजीठिया उदारवादी राष्ट्रवादी, स्वतंत्रता सेनानी ,धर्मनिरपेक्ष,शिक्षाविद, सामाजिक सुधारक,स्वतंत्रता प्रेमी, ब्रह्मो समाजी और अर्थशास्त्री के रूप में प्रसिद्ध हुए.

(Note–Dr. Ramji Lal is supervisor of Sudesh Pal, ‘’Political Ideas of Dyal Singh’’,-A Dissertation , Kurukshetra University Kurukshetra ,December 2001)

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