महिला सशक्तिकरण के संबंध में डॉ. भीमराव  के चिंतन का प्रभाव : पुनर्मूल्यांकन

 डॉ. रामजीलाल, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल
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(समाज वीकली)- डॉ भीमराव रामजी अंबेडकर (14 अप्रैल1891– 6 दिसंबर 1956)  भारतीय संविधान के पितामह, निर्माता, शिल्पीकार ,एवं वास्तुकार ,संविधान की ड्राफ्ट समिति के अध्यक्ष, प्रसिद्ध अधिवक्ता, स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री, भारतीय गणराज्य के निर्माता, भाषा विद, स्वतंत्र एवं निर्भीक पत्रकार, पुस्तक कीट एवम् राजनेता, सांसद,प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, सामाजिक क्रांतिकारी, पथ प्रदर्शक, जाति उन्मूलन के समर्थक, अन्याय पर आधारित सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था के धुरंधर विरोधी, अस्पृश्यता के उन्मूलन के पक्षधर, उच्च कोटि के संघर्षशील एवं आंदोलनकारी, दार्शनिक एवं चिंतक, महिलाओं, किसानों और श्रमिकों के हमदर्द, अछूत तथा वंचित वर्ग के पैरोकार एवं मसीहा, विषमता और असमानता पर आधारित समाज के विरुद्ध एक महान आंदोलनकारी एवं संघर्षशील चिंतक, सामाजिक क्रांतिकारी, पथ प्रदर्शक, उच्च कोटि के संघर्षशील एवं आंदोलनकारी थे.

( डॉ. रामजीलाल , “डॉ अंबेडकर: युगपुरुष, युग दृष्टा एवं महान विचारक”, दैनिक भास्कर, पानीपत:14 अप्रैल 2008, पृ. 6)

एक समाज सुधारक के रूप में वह मनुवाद- ब्राह्मणवाद पर आधारित जाति प्रथा के उन्मूलन के मुख्य पैरोकार थे .वे स्वयं इस बात को स्वीकार करते थे कि महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण के बिना किसी भी समाज का सुधार और विकास नहीं हो सकता. इस दृष्टि से वह महिला सशक्तिकरण के अग्रदूत , समानता ,स्वतंत्रता तथा बंधुता पैरोकार थे.डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के विचारों से  विश्व के वंचित वर्ग के लोग प्रेरणा ग्रहण करते हैं

भारत माता के इस महान सपूत तथा भारत रतन भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महार जाति के एक सैनिक परिवार में हुआ. इन की जन्मस्थली महू नगर (मध्य प्रदेश) है . भीमराव अंबेडकर अपने माता-पिता के चौदहवीं तथा अन्तिम सन्तान थे. यह एक संयोग की बात है कि उनका जन्म 14 अप्रैल को हुआ और वह अपने माता-पिता की 14वीं संतान थे .स्वयं मजाक करते हुए डॉ भीमराव अपने आप को”चौदहवां रत्न” कहते थे.

(डॉ रामजी लाल, दलित वर्ग के मसीहा :डॉक्टर भीमराव अंबेडकर, विश्व मानव, करनाल, 6 दिसंबर 1988 ,पृ.4)

उसमें उस समय कोई भी व्यक्ति यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि आने वाले समय में यह 14वां रतन  ‘भारत रतन’ की उपाधि से  नवाजा जाएगा तथा विश्व के गिने चुने उन विद्वानों की श्रेणी में सम्मिलित होगा जिन्होंने समाज को नई दिशा ,नई रोशनी तथा नया पथ प्रदर्शन प्रदान किया.

भारतीय संविधान के पितामह, निर्माता, शिल्पीकार, एवं वास्तुकार रूपमें:

 डॉ.भीमराव अंबेडकर के संबंध में विश्व के प्रसिद्ध  विद्वानों का यह मानना है कि वह अपने तत्कालीन विश्व के नेताओं में सर्वाधिक शिक्षित एवं विद्वान व्यक्ति थे  .यही कारण  है कि महात्मा गांधी के परामर्श के आधार पर जवाहरलाल नेहरू के द्वारा डॉ. भीमराव को संविधान की  ड्राफ्ट समिति के अध्यक्ष के रूप में स्वीकार किया गया. डॉ . अंबेडकर भारतीय संविधान के निर्माता, शिल्पीकार ,एवं वास्तुकार थे, उन्होंने लगभग 60 देशों के संविधानों का अध्ययन किया था. डॉ.अंबेडकर को संविधान निर्माता के रूप में अथवा संविधान के पिता के रूप में विश्व में जाना जाता है. डॉ. अम्बेडकर ने फ्रेंच रिवोल्यूशन से तीन शब्द —लिबर्टी, इक्वलिटी और फैटर्निटी लिए. इन तीन शब्दों ने उनके राजनीतिक,सामाजिक जीवन दर्शन और संविधान के मूल अधिकारों को प्रभावित किया है. इसीलिए संविधान के मूल अधिकारों में समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18 ), स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22), शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 -24), धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार( अनुच्छेद 25 से 28) , शिक्षा और संस्कृति का अधिकार (अनुच्छेद29-30) तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार अनुच्छेद(32)  है.  डॉ.अंबेडकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को निर्बाध नहीं मानते थे. अनुच्छेद 19 (2) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को नुकसान नहीं होना चाहिए. मौलिक अधिकारों में डॉ.भीमराव सर्वाधिक महत्व संविधानिक उपचारों के अधिकार( अनुच्छेद 32) को देते थे. संविधान सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 32 भारत के संविधान के” हृदय और आत्मा है’ तथा यह व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा परित्राण है. संविधान की प्रस्तावना तथा मौलिक अधिकारों के पश्चात राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों, भारतीय संघ का विशिष्ट रूप, कार्यपालिका ,निर्वाचन, संसदीय प्रणाली, राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के बीच संबंध, भारत की न्यायपालिका की स्वतंत्रता इत्यादि पर भीमराव अंबेडकर के विचारों गहरा प्रभाव है.

डॉ. अंबेडकर के चिंतन का सर्वाधिक प्रभाव उन अनुच्छेदों पर नजर आता है जिनका संबंध  अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों, बच्चों तथा महिलाओं के विकास से है. उनके प्रयासों से भारत के संविधान में  बेगार, मानव का क्रय- विक्रय, 14 वर्ष तक के बच्चों तथा महिलाओं को जोखिम भरे कार्यों में लगाने को असंवैधानिक एवं गैर कानूनी घोषित किया गया है.

संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में संविधान के प्रारूप के पक्ष में अपने भाषणों, विचारों और तर्कों से संविधान के अनुच्छेदों को अंतिम प्रदान करने का श्रेय  उनको जाता है. संविधान सभा के सदस्यों के द्वारा किए गए प्रश्नों अथवा सुझावों  के संबंध में जिस तरीके से डॉ. अंबेडकर अपने तर्को के द्वारा सदस्यों को समझाने का प्रयास करते थे इससे सिद्ध होता है कि वह एक उच्च कोटि के वक्ता, संविधान वेत्ता और विधि निर्माता और विधि वेत्ता भी थे. वह संविधान सभा में अनेक मुद्दों पर विस्तृत रूप में सदस्यों को समझाने का प्रयास करते थे. वह प्रस्तावों के संबंध में अपने तर्कों अद्भुत क्षमता, विद्वत्ता और सामर्थ्य के आधार पर रक्षित करते थे. संविधान सभा में  अनेक मुद्दों पर डॉ. अंबेडकर उच्च कोटि के अधिवक्ता के रूप में तर्क  देकर सदस्यों को समझाते थे .सदस्यों के विरोध के बावजूद भी उनका दृष्टिकोण अंतिम माना जाता था. संविधान सभा में विद्यार्थियों की भांति  सदस्यों को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार था. परंतु डॉ. अंबेडकर के विचार अंतिम, निर्णायक एवं आदेशात्मक  थे.

यह एक यक्ष प्रश्न है कि डॉ.भीमराव को भारतीय संविधान के निर्माता, शिल्पीकार, एवं वास्तुकार क्यों माना जाता है? इस संबंध में संविधान की प्रारूप समिति के सदस्य टी॰ टी॰ कृष्णामाचारी ने स्पष्ट कहा:

“अध्यक्ष महोदय, सदन में उन लोगों में से एक हूं, जिन्होंने डॉ॰ आंबेडकर की बात को बहुत ध्यान से सुना है. मैं इस संविधान की ड्राफ्टिंग के काम में जुटे काम और उत्साह के बारे में जानता हूं.उसी समय, मुझे यह महसूस होता है कि इस समय हमारे लिए जितना महत्वपूर्ण संविधान तैयार करने के उद्देश्य से ध्यान देना आवश्यक था, वह ड्राफ्टिंग कमेटी द्वारा नहीं दिया गया.सदन को शायद सात सदस्यों की जानकारी है. आपके द्वारा नामित, एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया था और उसे बदल दिया गया था. एक की मृत्यु हो गई थी और उसकी जगह कोई नहीं लिया गया था.एक अमेरिका में था और उसका स्थान नहीं भरा गया और एक अन्य व्यक्ति राज्य के मामलों में व्यस्त था, और उस सीमा तक एक शून्य था. एक या दो लोग दिल्ली से बहुत दूर थे और शायद स्वास्थ्य के कारणों ने उन्हें भाग लेने की अनुमति नहीं दी. इसलिए अंततः यह हुआ कि इस संविधान का मसौदा तैयार करने का सारा भार डॉ॰ आंबेडकर पर पड़ा और मुझे कोई संदेह नहीं है कि हम उनके लिए आभारी हैं. इस कार्य को प्राप्त करने के बाद मैं ऐसा मानता हूँ कि यह निस्संदेह सराहनीय है।”

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने 10 फरवरी 2023 को डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रशंसा करते हुए कहा कि ‘भारतीय कई संवैधानिक अधिकारों और उपायों के लिए उनके ऋणी हैं जिन्हें हम आज प्रदान करते हैं.’ ‘महान समाज सुधारक और न्यायविद’ के बारे में कहा कि “जाति से बीमार समाज की वजह से उनके खिलाफ ढेर हो गए थे और फिर भी वह डटे रहे और हमारे देश के शायद दुनिया के इतिहास में सबसे ऊंचे व्यक्तियों में से एक बन गए.”

महिलाओं के अधिकारों और सशक्तिकरण की अग्रदूत

डॉ. भीमराव के विचार इंग्लैंड और अमेरिका के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक वातावरण और यूरोप में महिला मुक्ति आंदोलनों के अलावा फ्रांसीसी क्रांति के तीन सिद्धांतों – स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के प्रभाव से प्रभावित थे. उनका मानना था कि किसी भी समाज के विकास का पैमाना इसी बात से लगाया जा सकता है कि समाज में महिलाओं का कितना विकास हुआ है. डॉ बीआर अम्बेडकर ने स्पष्ट कहा कि ‘मैं किसी समुदाय की प्रगति को महिलाओं द्वारा हासिल की गई प्रगति से मापता हूं.’ हमारा अभिमत है कि यदि खेत और खलिहानों में, खानों और कारखानों में, कार्य स्थलों और दफ्तरों में, गली और मोहल्लों में महिलाओं के गरिमा सुरक्षित नहीं है तो महिलाओं का  सर्वांगीण विकास असंभव है और महिला सशक्तिकरण के सारे नारे खोखले और जुमले साबित होंगे. महिलाओं और पुरुषों को बिना किसी भेदभाव के समान अवसर, स्त्री और पुरुष के समान अधिकार, समान स्वतंत्रता और  स्वतंत्रता की सभी शर्तें दोनों के लिए समान होनी चाहिए.

डॉ. अंबेडकर ने समाचार पत्रों और पुस्तकों में लेखों के द्वारा, सार्वजनिक मंचों, मुंबई विधान परिषद, भारत के गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद, संविधान सभा की मसौदा समिति और भारतीय संसद में महिलाओं के सशक्तिकरण और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक सुधारों के लिए जोर दिया.डॉ. भीमराव ने  सबसे क्रूर और अमानवीय देवदासी प्रथा का विरोध किया. वे भारतीय समाज में प्रचलित ब्राह्मणवाद और मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ थे.उनका मानना था कि मनुस्मृति में अनुसूचित जातियों और महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक बातें लिखी गई हैं और इनका प्रचार और प्रसार किया जाता है. महिलाओं का अपने शरीर पर पूरा अधिकार है और उन्हें प्रजनन का भी अधिकार है.राज्य को महिलाओं के कल्याण के लिए गर्भपात विरोधी उपायों का प्रयास करना चाहिए. संक्षेप में आधी आबादी के विकास के बिना संपूर्ण विकास असंभव है .

हिंदू कोड बिल

महिला सशक्तिकरण के लिए अंबेडकर ने 11 अप्रैल 1947 को संविधान सभा में हिंदू कोड बिल पेश किया. परंतु पितृसत्तात्मक विचारधारा के समर्थकों ,अनुदारवादियों व कट्टरपंथियों के विरोध के कारण हिंदू कोड बिल 9 अप्रैल 1948 को प्रवर समिति को भेजा गया.लेकिन बाद में सन् 1951 में डॉ. अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल संसद में पेश किया. इस बिल में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिए जाने का जिक्र किया गया है. महिलाओं को पुरुषों के बराबर तलाक का अधिकार, पैतृक संपत्ति में बेटी का समान अधिकार और पति की संपत्ति में विधवा का अधिकार था. लेकिन कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती) की प्रतिक्रियावादी और सामंती विचारधारा से प्रभावित महत्वपूर्ण नेताओं ने संसद और संसद के बाहर इस बिल का जोरदार विरोध किया. साम्यवादियों व समाजवादियों ने हिंदू कोड बिल का समर्थन किया था.

इस विधेयक के विरोधियों का मानना था कि यह भारत की पितृसत्तात्मक परंपरा को चुनौती देगा और समाज में तनाव का माहौल पैदा करेगा.भारतीय संस्कृति के तथाकथित पुजारी “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” कहते नहीं थकते.यह नारा खोखला साबित हुआ. भारत के प्रधान मंत्री, जवाहरलाल नेहरू, जिनके पास सन् 1951 के चुनावों के बाद पूर्ण बहुमत था, भारत के सबसे शक्तिशाली और लोकप्रिय प्रधान मंत्री थे.लेकिन पार्टी के भीतर और पार्टी के बाहर हिंदू कोड बिल का विरोध हुआ. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पार्टी के सदस्यों और विपक्षी सांसदों की भावनाओं को देखते हुए हिंदू कोड बिल वापिस ले लिया.जवाहरलाल नेहरू एक लोकतांत्रिक राजनीतिक नेता थे.लेकिन हिंदू कोड बिल को वापस लेना एक प्रतिक्रियावादी और महिला विरोधी कदम था. भीमराव अंबेडकर जवाहरलाल नेहरू के इस बिल को वापिस लेने के फैसले से बहुत आहत हुए थे. उन्होंने सैद्धांतिक आधार पर भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री के पद से 27 सितंबर, 1951 को इस्तीफा दे दिया. आधुनिक नेताओं को डॉ. भीमराव से सीखना चाहिए.लेकिन अफसोस मौजूदा समय में आप ऐसे नेताओं को ढूंढते रह जाओगे

यद्यपि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने विधि एवं न्याय मंत्री पद से त्याग पत्र तो दे दिया परंतु महिला  सशक्तिकरण के संबंध  में गहरी छाप छोड़ दी.परिणाम स्वरूप जवाहरलाल नेहरू की सरकार को सन् 1955-56 में चार हिंदू कोड बिल- हिंदू विवाह अधिनियम , हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम , हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम , और हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम बनाने पड़े.

महिला सशक्तिकरण के संबंध में डॉ.भीमराव  के चिंतन का प्रभाव आज भी निरंतर जारी है.50 वर्ष के पश्चात सन् 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 6 में निहित कमियों को दूर करने के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 लागू हुआ. इस अधिनियम के अनुसार पैतृक संपत्ति में बेटियों को बेटों के बराबर अधिकार प्रदान किया गया . 11 अगस्त 2020 को सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 की व्याख्या करते हुए निर्णय दिया कि हिंदू बेटियों को पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार और संयुक्त कानूनी अधिकार (सहदायिका )है तथा इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता पिता जीवित है अथवा नहीं .हिंदू बेटियों को (विवाहित तथा अविवाहित) को पैतृक संपत्ति में पुत्रों के समान अधिकार जन्म से है. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तरुण मिश्रा ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा ‘बेटियों को बेटों के समान अधिकार दिया जाना चाहिए, बेटी जीवन भर एक प्यार करने वाली बेटी बनी रहती है, बेटी पूरे जीवन एक सहदायिक बनी रहेगी, भले ही उसके पिता जीवित हों या नहीं।’

. व्यवहारिक तौर पर महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से  वंचित(हक आउट)करने के मुख्य कारण संपत्ति संबंधी उत्तराधिकार कानून व सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों के बारे में महिलाओं को जानकारी का अभाव, माता-पिता अथवा भाइयों के विरुद्ध संपत्ति के अधिकार  के लिए मुकदमा दर्ज कराने में संकोच ,पैतृक परिवार के सदस्यों द्वारा लड़कियों की भावनाओं का शोषण करना ,संबंध हमेशा के लिए खराब होने का डर ,ससुराल में रहते यदि मुसीबत आ जाए तो पैतृक परिवार से सहायता न मिलने का भय़ व सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा का अभाव, बेटियों से हक त्याग(हकआउट) के संबंध में कागजात पर हस्ताक्षर करवाना और पंजीकरण करवाना, पुत्रों अथवा पौत्रों के नाम वसीयतनामा करवाना एवं पुत्रियों व पौत्रियों को संपत्ति के अधिकार से वंचित करना ,अपने अधिकारों के लिए मुकदमा लड़ना लड़कियों के लिए कठिन कार्य होना, रिश्तेदारों तथा समाज के लोगों द्वारा आलोचना और बहिष्कार का भय इत्यादि हैं.

हम सर्वोच्च न्यायालय के इससे सहमति पर करते हैं कि एक बार पुत्री, सदैव पुत्री है, पराया धन नहीं है .पुत्रियों के उत्तराधिकार के संबंध में समाज को इस सिद्धांत को स्वीकार करना चाहिए. परंतु व्यावहारिक तौर पर  हिंदू उत्तराधिकार नियम(2005) लगभग लागू नहीं है. जब तक समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता में परिवर्तन नहीं होगा तब तक हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 और सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दिए गए निर्णय  सार्थक सिद्ध नहीं होंगे. पैतृक संपत्ति से महिलाएं कल भी वंचित थी  ,आज ही वंचित हैं और कल भी वंचित रहेंगी.

26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ. भारतीय संविधान में महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त हैं। भारत एक लोकतांत्रिक राज्य है। लोकतांत्रिक राज्य में सबसे महत्वपूर्ण अधिकार मतदान का अधिकार है। वर्तमान में, 18 वर्ष की आयु के वयस्क को मतदान का अधिकार है.वोटिंग का अधिकार डॉ. अम्बेडकर के सिद्धांत “एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य” के आधार पर दिया जाता है. दूसरे शब्दों में, भारत के राष्ट्रपति से लेकर दूर-दराज के गांवों में रहने वाले नागरिकों – पुरुषों और महिलाओं, गरीब और अमीर, शिक्षित और अशिक्षित, को समान मतदान अधिकार प्राप्त हैं. भारत के संविधान की प्रस्तावना के अलावा, अनुच्छेद 14, 15, 15(3), 16, 42, 51(ए)(ए) मौलिक अधिकारों में महिलाओं के अधिकारों के बारे में (अध्याय III), राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत ( अध्याय IV) ग) और भारत के संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 40 के अनुसार स्थापित स्वशासन (पंचायती राज) को और अधिक कुशल और व्यावहारिक बनाया गया है.संविधान के अनुच्छेद 243(डी)(3), 243टी(3), 243टी(4)) में पंचायती राज (पीआरएस) के तीनों स्तरों पर महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों के आरक्षण का प्रावधान है.

.भारत के 21 राज्यों आंध्र प्रदेश , असम, बिहार , छत्तीसगढ़ , गुजरात , हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड , कर्नाटक , केरल , मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र , ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तेलंगाना , तमिलनाडु , त्रिपुरा, उत्तराखंड तथा पश्चिमी बंगाल में पंचायती राज संस्थाओं में तीनों स्तरों पर 50% आरक्षण की व्यवस्था है. भारत के संविधान के 74वें संशोधन अधिनियम (1992) के अनुसार संविधान के भाग 9ए के तहत नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण का प्रावधान किया गया था. परंतु शहरी स्थानीय निकायों (कारपोरेशन, नगर परिषद और नगर पालिका )में भारत के 10 राज्यों-असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात , हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र , त्रिपुरा , ओडिशा और तेलंगाना में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण की व्यवस्था है.

भारत सरकार द्वारा 23 सितंबर 2020 को जारी की गई प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार पंचायती राज संस्थाओं में कुल प्रतिनिधि 31 , 87 ,320 हैं . इनमें से 14 ,53, 973 महिला प्रतिनिधि हैं . महाराष्ट्र ,गुजरात ,तमिलनाडु ,झारखंड, कर्नाटक इत्यादि पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 50% से अधिक सीट बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं.  परिणामस्वरूप, भारतीय लोकतंत्र के प्राथमिक विद्यालयों (पंचायती राज संस्थानों और नगरपालिकाओं) में आरक्षण के माध्यम से राजनीतिक प्रशिक्षण, जागरूकता, सशक्तिकरण और महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में वृद्धि हुई है.

परंतु तस्वीर का व्यावहारिक रूप इसके बिल्कुल विपरीत है .उदाहरण के तौर पर हरियाणा में सभी पंचायत प्रतिनिधि पढ़े लिखे हैं.जहां तक महिला प्रतिनिधियों का संबंध है पंच से लेकर जिला परिषद के चेयरमैन तक सैकड़ों महिलाएं मैट्रिक, ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट हैं . परंतु पुरुषवादी सोच तथा महिला विरोधी मानसिकता के कारण महिला प्रतिनिधियों को शक्तिहीन कर दिया गया. महिला प्रतिनिधियों की ओर से पंचायती राज संस्थाओं में उनके परिवार के पुरुष सदस्य उनका प्रतिनिधित्व करते हैं. राजनीति की ग्रामर में नई शब्दावली – जैसे ‘सरपंच पति ‘,’सरपंच ससुर’, ‘सरपंच पुत्र’ ,’सरपंच प्रतिनिधि’ प्रचलित हो गई.वास्तव में यह महिलाओं के “सशक्तिकरण” की अपेक्षा उनका “निसशक्तिकरण” करना है और पुरुषों के “सशक्तिकरण” को बढ़ावा देना है. निर्वाचित महिलाओं की अपेक्षा परिवार के पुरुष अधिकारियों, विधायकों , मंत्रियों तथा मुख्यमंत्री तक की बैठक में भाग लेते हैं. ग्रामीण लोग , अधिकारी, विधायक इत्यादि इनको ‘सरपंच साहब’ के नाम से पुकारते हैं. यह असंवैधानिक और गैर कानूनी है. राज्य सरकारों को कानून विरोधी इस प्रैक्टिस पर कानून निर्माण करके प्रतिबंध लगाना चाहिए तथा कानून में सजा का प्रावधान होना नितांत अनिवार्य है .यदि ऐसा नहीं होगा तो  महिलाओं के सशक्तिकरण के सभी दावे खोखले, निरर्थक , जुमले व महिला विरोधी हैं.

यद्यपि महिला सशक्तिकरण के  संविधानिक प्रावधानों, असंख्य कानूनों और योजनाओं के बावजूद भी डॉ. भीमराव के विचार पूर्णतया लागू नहीं है और महिला सशक्तिकरण के दावे खोखले नजर आते हैं. क्योंकि जीवन के हर क्षेत्र में स्त्री और पुरुष में लैंगिक भेदभाव विद्यमान है.

विश्व में लगभग 900 मिलियन से अधिक महिलाएं कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं. वर्ष 2018 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में महिलाओं की कुल आबादी में से लगभग 80 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं को किसी न किसी रूप में कृषि से जोड़ा गया है.लेकिन बड़ा विरोधाभास यह है कि कृषि समुदायों से संबंधित केवल 13.87 प्रतिशत महिलाओं का कृषि भूमि पर कानूनी अधिकार है. कृषि की स्थिति के मामले में अनुसूचित जाति की महिलाओं की स्थिति सबसे अधिक दयनीय है. क्योंकि केवल 2 प्रतिशत महिलाओं के पास भूमि का अधिकार कानूनी या भूमि की मालिक हैं.भूमि स्वामित्व समुदायों की लगभग 86 प्रतिशत महिलाओं और 98 प्रतिशत अनुसूचित जाति की महिलाओं के पास कृषि संपत्ति नहीं है जबकि महिलाएं भारत की कृषि श्रम शक्ति का 42% से अधिक हिस्सा हैं. इनमें 81 प्रतिशत खेत श्रमिक महिलाएं अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (आदिवासी महिलाएं) से संबंधित हैं. ‘

कृषि में महिला श्रमिकों की संख्या अन्य सभी श्रेणियों से अधिक है. श्रम बल सर्वेक्षण (2019-20) के अनुसार, कृषि में काम करने वाली ग्रामीण महिलाओं की संख्या 75.7% ग्रामीण महिलाएं हैं.उनमें से अधिकांश अपने स्वयं के खेतों में काम करने वाली हैं, जबकि पुरुष नौकरी की तलाश में शहरी क्षेत्रों में पलायन करते हैं.उत्तरी राज्यों में स्थिति थोड़ी भिन्न है, जहाँ कृषि क्षेत्रों में श्रम की उच्च आवश्यकता अधिकांश महिलाओं को खेत में सभी काम करने के लिए मजबूर करती है और महिलाएँ भी खेतिहर मज़दूर के रूप में कार्यरत हैं. भारत की जनगणना ‘काश्तकारों’ को उन किसानों के रूप में परिभाषित करती है जो कृषि भूमि के एक टुकड़े पर काम करते हैं.इसका मतलब है कि जो लोग अपनी खुद की जमीन पर खेती करते हैं या उनके पास जमीन का अधिकार है, उन्हें ‘किसान’ के रूप में गिना जाता है. महिलाएं इस परिभाषा को पूरा करने में विफल रहती हैं और भारतीय आधिकारिक आंकड़ों में मान्यता प्राप्त ‘किसान’ के रूप में प्रवेश करने में विफल रहती हैं.

सन् 2011 की जनगणना में 3.6 करोड़ महिला किसान थीं. सन् 2013 में ऑक्सफैम इंडिया पॉलिसी ब्रीफ रिपोर्ट में कहा गया था कि 75% पूर्णकालिक कृषि श्रम महिलाओं का है.महिलाओं द्वारा किया जाने वाला अवैतनिक कृषि श्रम भी है.नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की एक रिपोर्ट में सन् 2018 में भूमि के स्वामित्व में लैंगिक अंतर को पर्याप्त पाया गया था। महिला श्रमिकों में कृषि में कार्यबल का 42% शामिल है, जबकि उनके पास 2% से कम कृषि भूमि है.पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (PARI) ने दिखाया कि दो-तिहाई महिला कार्यबल कृषि में काम करती हैं.

सन् 1995- 2018 के बीच, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा महिला किसानों की 50,188 आत्महत्याएं दर्ज की गईं.यह कुल किसान आत्महत्याओं का 14.82% है. उनमें से ज्यादातर अकेली महिलाएं हैं, जो या तो पुरुष किसानों की आत्महत्या से विधवा हो गई हैं या खेतों का प्रबंधन करने के लिए अकेली रह गई हैं. आत्महत्या के मामले ज्यादातर भूमिहीन, छोटे और सीमांत किसानों में पाए गए.

भारत में स्त्री और पुरुष में लैंगिक भेदभाव, मुस्लिम, दलित व आदिवासी के साथ अन्य भारतीयों की अपेक्षा भेदभाव, व असमानता विद्यमान है. महिला सशक्तिकरण के अनेक दावों के बावजूद भी स्त्री और पुरुष में 98% लैंगिक भेदभाव- विद्यमान है. यही कारण है कि भारत की श्रमिक शक्ति में महिलाओं की भागीदारी सन् 2004 -सन् 2005 में 42.5% से घट कर सन् 2021 में 25% हो गई. अन्य शब्दों में भारत में महिला श्रम शक्ति में 17.5% की गिरावट आई है. ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार लिंग -भेद के कारण महिलाओं की अपेक्षा पुरुष को ₹4000 मासिक अधिक मिलते हैं. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जन जातियों तथा अन्य भारतीयों की कमाई में ₹5000 मासिक अंतर है. इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ  दलित स्टडीज की रिपोर्ट (2013) के अनुसार दलित महिलाओं की औस्तन आयु  गैर दलित महिलाओं  अथवा सामान्य महिलाओं से लगभग 15 वर्ष कम है.  कोरोना काल में किए गए सर्व के अनुसार यह औस्तन आयु और  भी कम हुई है .

यद्यपि भारत के संविधान में व्यक्ति के क्रय तथा विक्रय पर प्रतिबंध लगाया गया. इसके बावजूद भी लाखों महिलाएं, युवतियां और बच्चियां वेश्यावृत्ति का शिकार है. अत्यंत दुखद स्थिति यह है कि आज भी स्टांप पेपर पर लड़कियों को बेचा जाता है (दैनिक भास्कर, 26 अक्टूबर 2022). हरियाणा तथा पंजाब में भारत के अन्य प्रदेशों से युवतियों को खरीद कर शादियां की जाती हैं. केंद्रीय तथा प्रांतीय सरकारों के द्वारा स्त्री विरोधी कुप्रथाओं को रोकने के लिए तथा गरीब महिलाओं को शोषण से बचाने के लिए जो प्रयास किए गए हैं वे लगभग नगण्य हैं.

महिलाओं के बलात्कारों, हत्याओं एवं अन्य अत्याचारों की खबरें समाचार पत्रों की सुर्खियां होती हैं. भारत सरकार के गृह मंत्रालय की शाखा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार भारत में सन् 2008 में 21,467 बलात्कार मामले के विभिन्न राज्यों के पुलिस थानों में पंजीकृत किए गए. परंतु महिलाओं के विरुद्ध अत्याचार, हिंसा व रेप के मामलों में निरंतर वृद्धि होती जा रही है .एनसीआरबी के अनुसार सन् 2017 में 31,658, सन् 2018 में 33,977, सन् 2019 में 32,260, सन् 2020 में 28,153, सन् 2021 में 31,677 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत हुए हैं. एनसीआरबी के अनुसार सन् 2020 के मुकाबले सन् 2021 में 13.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. भारत में एक दिन में औसतन 86 रेप की घटनाएं पंजीकृत होती हैं. सन् 2021 में भारत में हर घंटे 49 महिलाओं के खिलाफ अपराध (Crime against Women) पंजीकृत किए गए हैं.

आंकड़ों का मंथन यह दर्शाता है कि यदि महिलाओं का मान -सम्मान सुरक्षित नहीं है तो महिला सशक्तिकरण के सभी दावे खोखले नजर आते हैं. महिलाओं के विरुद्ध अपराध और हिंसा के संबंध में राज्य सरकारों का कर्तव्य है कि स्त्री- पुरुष की समानता के अधिकार तथा सुरक्षा को सुनिश्चित करें ताकि संविधान में दिए गए मूल्य- व्यक्ति की गरिमा की सुरक्षा की जा सके. लेकिन जिस धीमी गति से महिलाओं के विकास और उत्थान की योजनाएं क्रियान्वित की जा रही हैं, ऐसे में महिलाओं के अच्छे दिन आने में 135 साल लग जाएंगे.

संक्षेप में महिला  सशक्तिकरण के संबंध में संवैधानिक प्रावधानों, अनेक कानूनों, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों, सरकार की नीतियों इत्यादि के बावजूद भी डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचार अभी पूर्णतया लागू नहीं  हैं और निकट भविष्य में भी ऐसी संभावना दृष्टिगोचर नहीं होती. अतः महिलाओं को स्वयं अधिकारों को प्राप्त करने व सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन के लिए निरंतर जागरूक हो कर लम्बा संघर्ष करना पडे़गा.

 (अंबेडकर समाज कल्याण सोसायटी, करनाल के तत्वाधान में आयोजित समारोह (14 अप्रैल2023) में  प्रस्तुत भाषण)

 

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