नेताजी सुभाष चंद्र बोस -करिश्माई विराट व्यक्तित्व: एक मूल्यांकन

नेताजी के जन्म दिवस 23 जनवरी पर विशेष लेख
नेताजी सुभाष चंद्र बोस -करिश्माई विराट व्यक्तित्व: एक मूल्यांकन

डॉ.रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयालसिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा, भारत)
Email—drramjilal1947@gmail.com

#समाज वीकली 

सुभाष चंद्र बोस (लोकप्रिय रूप से नेताजी के नाम से जाने जाते हैं-23 जनवरी 1897-18 अगस्त 1945) भारत माता के उन सपूतों में अग्रणी हैं जिन्होंने भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में जाकर जोखिम उठाते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में अतुलनीय योगदान दिया और अपना सर्वस्व जीवन राष्ट्रीय मुक्ति के लिए न्योछावर कर दिया. नेताजी एक ऐसे उत्कृष्ट राष्ट्रवादी, महान देशभक्त, सैन्य वीर एवं योद्धा, सफल प्रबंधक एवं संगठनकर्ता, समाजवादी क्रांतिकारी, यथार्थवादी, अस्तित्ववादी राजनीतिक, ओजस्वी वक्ता, लेखक एवं करिश्माई विराट व्यक्तित्व के धनी थे जिनके रोम-रोम में स्वदेश प्रेम, आत्म त्याग, बलिदान, कुर्बानी, आत्मविश्वास, स्वतंत्रता और राष्ट्र प्रेम की भावना अतुलनीय थी. वह एक महान क्रांतिकारी, प्रचारक, संघर्षशील, जुझारू एवं राजनीतिक विभूति थे.

आज के दिन जन्म 23 जनवरी 1897 उनका जन्म हुआ था. कोलकाता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात अपनी विलक्षण बुद्धि , प्रतिभा ,सुदृढ़ आत्मविश्वास, परिश्रम, एकाग्रचित लग्न व अपने आदर्शों के लिए प्रति उच्च श्रेणी की निष्ठा के कारण सन् 1920 में भारतीय नागरिक सेवा (इंडियन सिविल सर्विस) की परीक्षा उत्तीर्ण की. सन् 1921 में केवल 24 वर्ष की आयु में आईसीएस नौकरी में से त्यागपत्र दे दिया और राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष में कूद पड़े. राष्ट्रीय स्वतंत्रता को उन्होंने प्रमुख लक्ष्य बनाया. वह अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए देश और विदेश में संघर्ष करते रहे . अपने करिश्माई विराट व्यक्तित्व, राजनीतिक विचारों, उग्र संघर्ष, श्रेष्ठ बौद्धिकता, ओजस्वी वक्ता तथा अदम्य साहस के कारण नेताजी शिखर पर पहुंच चुके थे और वह जनता के हृदय सम्राट बन गए.ऐसा श्रेय सर्वप्रथम, महात्मा गांधी को और द्वितीय,नेताजी सुभाष चंद्र बोस कोजाता है

चिंतन पर प्रभाव:

उनकी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विचारधारा पर बाल्यकाल से ही रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, और अरबिंदो घोष का अत्यधिक प्रभाव था .स्वामी विवेकानंद ने उन्हें निजी मोक्ष एवं मानवता के कल्याण का मार्गदर्शन किया. बोस के चिंतन पर लेनिन व रूस की साम्यवादी क्रांति का प्रभाव भी था जिसके कारण उन्होंने गांधीवाद और दक्षिणपंथी विचारधारा से समझौता नहीं किया .उनके राष्ट्रवादी चिंतन पर कमाल पाशा, डी वलेरा, मुसोलिनी .हिटलर इत्यादि का प्रभाव भी था.

जब 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला हत्याकांड में अमृतसर के सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार लगभग 1800 स्त्री, पुरुष व बच्चे मारे गए और समस्त भारत में क्रांतिकारी आंदोलन की चिंगारी भड़काने लगी. महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन में एक नया मोड़ आया.

अध्यक्ष पद का त्याग :

जब असहयोग आंदोलन (4 सितंबर 1920 -4 फरवरी 1922) अपने चरम सीमा था चोरा चोरी की हिंसात्मक घटना के परिणाम स्वरुप महात्मा गांधी ने अचानक आंदोलन समाप्त कर दिया. सुभाष चंद्र बोस सहित असंख्य कांग्रेसियों, देश भक्तों एवं भगत सिंह जैसे युवा क्रांतिकारियों का महात्मा गांधी के नेतृत्व से विश्वास लगभग समाप्त हो गया . बोस ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार को हतोत्साहित करने व उखाड़ फेंकने के लिए जेल भरो आंदोलन, महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करने व हिंदू -मुस्लिम एकता पर बल दिया. नेताजी के ओजस्वी भाषणों एवं चिंतन के कारण उनकी लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ने लगी और वह कांग्रेस में एक उच्च श्रेणी के नेताओं अग्रणी हो गए हरिपुरा अधिवेशन (1938) व त्रिपुरी अधिवेशन (1939) में नेताजी कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. त्रिपुरी अधिवेशन में कांग्रेस में मतभेदों के कारण अध्यक्ष पद त्याग दिया और अपने संघर्ष को जारी रखने के लिए सन् 1939 में उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक स्थापना की.

भावी भारत के निर्माण का चिंतन:

भावी भारत के निर्माण के लिए उनका चिंतन वर्तमान अभिजात्य शासक वर्ग के चिंतन के बिल्कुल विपरीत था कांग्रेस के हरिपुर सम्मेलन, 1938 में उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा, ” मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि हमारी दरिद्रता, निरक्षरता और बीमारी के उन्मूलन व वैज्ञानिक उत्पादन और वितरण से संबंधित समस्याओं का समाधान समाजवादी मार्ग पर चलकर ही किया जा सकता है. स्वतंत्र भारत पूंजीपतियों, जमीदारों व जातियों का देश नहीं है. स्वतंत्र भारत सामाजिक एवं राजनीतिक लोकतंत्र होगा”. संक्षेप में सन्1944 में, बोस ने स्वयं कहा, “हमारा दर्शन राष्ट्रीय समाजवाद और साम्यवाद के बीच एक संश्लेषण होना चाहिए”.

द्वितीय विश्व युद्ध और सुभाष चंद्र बोस— विदेश यात्रा

1 सितंबर 1939 को द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हो गया. इस युद्ध के समय सुभाष चंद्र बोस तथा अनेक क्रांतिकारियों की यह नीति थी कि ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता’ है. उस समय तक सोवियत रूस (वर्तमान रूस) युद्ध में सम्मिलित नहीं था. इस युद्ध में एक ओर इंग्लैंड के नेतृत्व में ‘मित्र राष्ट्र’ थे और दूसरी ओर नाजीवादी हिटलर (जर्मनी) व फासीवादी मुसोलिनी (इटली) के नेतृत्व में “धुरी राष्ट्र” थे. सुभाष चंद्र बोस दो विपरीत विचारधाराओं वाले राष्ट्रों- साम्यवादी रूस और नाजीवादी जर्मनी व फासीवादी इटली से सहायता प्राप्त करके भारत से ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समाप्त करके भारत को स्वतंत्र करना चाहते थे. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जनवरी 1941 में पेशावर से होते हुए काबुल, मास्को (सोवियत संघ) जाने में सफल हुए. 28 मार्च 1941 को हवाई जहाज के द्वारा मास्को से जर्मनी गए तथा हिटलर से मुलाकात की. जर्मनी से 13 जून 1943 को जापान जाने में सफलता प्राप्त की.

सुभाष चंद्र बोस :आजाद हिंद फौज के कमांडर इन चीफ व अंतरिम सरकार की स्थापना

12 फरवरी 1942 को जापान की सहायता से मनमोहन सिंह के द्वारा आजाद हिंद फौज (इंडियन नेशनल आर्मी—INA) की स्थापना की गई. जून 1943 में सुभाष चंद्र बोस इसके कमांडर इन चीफ बने. आजाद हिंद फौज में हरियाणा के 398 अधिकारी तथा 2,317 सैनिक थे. एक अन्य स्रोत के अनुसार हरियाणा से 2,847 सैनिक थे, जिनमें से 346 सैनिक वीरों ने अपनी कुर्बानी देकर देश की स्वतंत्रता के लिए अभूतपूर्व योगदान दिया. करनाल जिले के 119 सैनिक और 14 अधिकारी थे जिनमें से 5 सैनिक तथा अधिकारी शहीद हुए थे.

सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1943 को अंतरिम सरकार की स्थापना की जिसको जर्मनी, इटली और जापान सहित विश्व के नौ राज्यों ने मान्यता प्रदान की. आजाद हिंद फौज भारतीय भूमि में प्रवेश करने में सफल हो गई. बोस ने आजाद हिंद फौज को ‘दिल्ली चलो’ का उद्घोष दिया जो आज भी भारत की जनता में धैर्य और जोश पैदा करता है .

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से मांगा आशीर्वाद : जनता से अपील – तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा

सुभाष चंद्र बोस ने जनता से अपील करते हुएकहा ‘’मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी. मैं इस का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये. अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं. मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है. विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है. भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है. आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं. हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं।

18 अगस्त 1945 को टोक्यो जाते हुए वह हवाई जहाज में आग लगने के कारण वीरगति को प्राप्त हुए. हालांकि उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में विवाद भी रहे हैं.

आजाद हिन्द फौज के प्रयाण गीत

आजाद हिन्द फौज के प्रयाण गीत (क्विक मार्च) की रचना राम सिंह ठकुरि ने की थी. इस की धुन (ट्यून) भारतीय सेना के प्रयाण गीत के रूप में आज भी प्रयोग होती है. पूरा प्रयाण गीत अग्रलिखित है:

खुशी के गीत गाये जा
ये जिंदगी है क़ौम की
तू क़ौम पे लुटाये जा
तू शेर-ए-हिन्द आगे बढ़
मरने से तू कभी न डर
उड़ा के दुश्मनों का सर
जोश-ए-वतन बढ़ाये जा

लाल किले में आजाद हिंद फौज के मुकदमे

आजाद हिंद फौज के 17000 सैनिकों को अलग-अलग स्थानों पर जेलों में डाला दिया गया. जेलों में बंदी सैनिकों को फांसी देने के लिए मुकदमें नवंबर 1945 में शुरू हुए. इनमें सबसे प्रसिद्ध अभियोग लाल किले में चलाया गया. इसको ‘रेड फोर्ट ट्रायल’ के नाम से भी जाना जाता है. इसमें कर्नल प्रेम सहगल (हिन्दू ), कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों (सिक्ख) व मेजर जनरल शाहनवाज खान (मुस्लिम) आरोपी थे.

नवम्बर 1945 से मई 1946 तक दिल्ली के लाल किले में आयोजित कोर्ट मार्शल की एक श्रृंखला थी. सन्1945 में कांग्रेस कार्य समिति ने आजाद हिंद फौज के सैनिकों का प्रतिनिधित्व करने के लिए रक्षा समिति का गठन किया, इस समिति का मुख्य कार्य कानूनी बचाव प्रदान करना, सूचना का समन्वय करना और आजाद हिंद फौज के सैनिकों के लिए राहत प्रयासों की व्यवस्था करना था. लाल किले के मुकदमो में आजाद हिंद फौज की पैरवी करने वाले वकीलों में जवाहरलाल नेहरू, भूलाभाई देसाई, तेज बहादुर सप्रू , आसफ अली, कैलाश नाथ काटजू व लेफ्टिनेंट कर्नल होरीलाल वर्मा शामिल थे.

सामूहिक जन प्रदर्शनों का प्रभाव

आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों को जेलों से छुड़वाने के लिए भारत की राजधानी दिल्ली से लेकर गांव की झोपड़ियों तक जन सभाएं आयोजित की गई. जनता का क्रोध चरम सीमा पर था. समस्त हिंदुस्तान में यह उद्घोष गू्जं रहा था: ‘लालकिले को तोड़ दो, आजाद हिंद को छोड़ दो”. आजाद हिन्द फौज के 17 हजार जवानों के खिलाफ चलने वाले मुकदमों के विरोध में जनाक्रोश के सामूहिक प्रदर्शन हो रहे थे. इन प्रदर्शनों में पुलिसिया जुल्म से दिल्ली, मुम्बई, मदुराई और लाहौर में 326 से अधिक लोगों की जान चली गयी थी,

इन प्रदर्शनों के प्रभावों का वर्णन हमें राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में रखी हुई गृह मंत्रालय की फाइलों से भी प्राप्त होता है.दिल्ली के चीफ कमिश्नर ने भारत के सचिव को 14 नवंबर 1945 को लिखा ‘’मैं लोगों पर सेवाओं में वफादार तत्व विशेष रूप में पुलिस व फौज पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में चिंतित हूं. ’’ भारत सरकार के गृह विभाग के इंटेलिजेंस ब्यूरो ने दिसंबर 1945 में लिखा, ’हिंदुस्तान की जनता की भावनाएं आजाद हिंद फौज के व्यक्तियों के साथ शहरों से गांव तक है तथा सरकारी प्रचार का कोई प्रभाव नहीं है. आजाद हिंद फौज के प्रभाव के कारण भारतीय सेना में भी भारतीय सिपाही और भारतीय ऑफिसर जो अभी तक अंग्रेजों के साथ थे अपने आप को ‘राष्ट्र का गद्दार और नमक हराम’ समझने लगे हैं. वायसराय की कार्यकारी परिषद के तत्कालीन गृह सदस्य आर. एफ. मुडी ने कहा: “बंगाल पर आजाद हिंद फौज का प्रभाव काफी था… इसने सभी नस्लों, जातियों और समुदायों को प्रभावित किया। लोग भारत की पहली ‘राष्ट्रीय सेना’ को संगठित करने और खुद को इस तरह संचालित करने के लिए उनकी (बोस की) प्रशंसा करते थे… जापानियों को भारतीयों के साथ सहयोगी के रूप में व्यवहार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। कई लोगों की नज़र में, वे गांधी के बराबर थे.”

आजाद हिंद फौज की जन प्रियता को देखते हुए महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल ने सन् 1946 के निर्वाचन में आजाद हिंद फौज के सैनिकों की कुर्बानी की प्रशंसा की. भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के प्रभाव के कारण साम्राज्यवादी सरकार का नियंत्रण हिंदुस्तान की जनता पर लगभग खत्म हो चुका था और उस समय अधिकारियों का यह मानना था कि या तो भारत छोड़ दिया जाए या कत्ल होने के लिए तैयार रहना चाहिए. आजाद हिंद फौज के प्रभाव के कारण भारतीय नागरिक सेवा, भारतीय सेना – इंडियन नेवी, एयरफोर्स, आर्मी , (पूर्वी कमान कोलकाता) और पुलिस में बगावत हो गई. परिणाम स्वरूप इस प्रकार की रिपोर्ट जब गवर्नर ऑफ इंडिया के द्वारा इंग्लैंड की कैबिनेट को भेजी गई तो उनके सामने एक ही वैकल्पिक था और उन्होंने भारत को विभाजित राष्ट्र के रूप में छोड़कर जाना पड़ा. भारत को एक विभाजित राष्ट्र के रूप में 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश साम्राज्यवाद, भारतीय नरेशों व नवाबों के नियंत्रण एवं शोषण से मुक्ति प्राप्त हुई.

वर्तमान राजनेता जो एक दूसरे पर कीचड़ उछलते हैं. उनमें विरोध के बावजूद भी वह संबंध होना चाहिए जो महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस के बीच में था. सुभाष चंद्र बोस ने महात्मा गांधी को संबोधित करते हुए ‘राष्ट्रपिता’ कहा था. हम नेताजी के लोकप्रिय उद्घोष ‘जय हिंद’ के साथ उनको नमन करते हैं.

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