लाहौरी राम बाली – अम्बेडकरी विचारों को आत्मसात करने वाले एक महान व्यक्तित्व का अवसान

L.R. Balley

– विद्या भूषण रावत

(समाज वीकली)- भीम पत्रिका के संपादक और दुनिया भर मे अम्बेडकरी मिशन को एक नई दिशा देने वाले व्यक्तित्व श्री लाहौरी राम बाली जी का आज 6 जुलाई को जालंधर मे निधन हो गया। हालांकि बाली साहब अपने अंतिम समय तक बेहद स्वस्थ नजर आ रहे थे लेकिन अचानक ही उनके निधन के समाचार ने सभी अम्बेडकरवादियों को बहुत दुख हुआ है। करीब ढाई सप्ताह बाद वह अपना 94 वे वा जन्मदिन मना रहे होते। बाली साहब का जन्म 20 जुलाय 1930 को पंजाब के नवाशहर मे हुआ था। जिस प्रकार से उनकी दिनचर्या थी उससे तो यही लगता था कि ये अम्बेडकरी शेर अपनी उम्र का सैकड़ा जरूर पूरा करेगा लेकिन जीवन और मृत्यु हमारे हाथ मे नहीं होती, हम अपने प्रयासों से उसे कम या ज्यादा कर सकते हैं लेकिन अंततः ये प्रकृति के नियम है।

बाली साहब ने अपनी जिंदगी को भरपूर तरीके से जिया और वो दुनिया भर के अम्बेडकरवादियों के लिए एक आदर्श व्यक्तित्व थे। वह बताते हैं कि 6 दिसंबर 1956 को बाबा साहब अंबेडकर परिनिर्वाण के दिन उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और अंबेडकर मिशन को पूर्णतः समर्पित कर दिया। बाली साहब आजीवन काँग्रेस विरोधी थे। उन्होंने अम्बेडकरी सिद्धांतों से कभी मुंह नहीं मोड़ा और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के सदस्य बने। पंजाब से उन्होंने सरदार स्वर्ण सिंह के विरुद्ध चुनाव लड़ा और जब दादा साहब गायकवाड काँग्रेस के साथ समझौता करना चाहते थे तो बाली साहब और अन्य लोगों ने उनका विरोध किया और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया ( अम्बेडकरी) का गठन किया।

बाली साहेब ने हालांकि राजनीति मे भाग लिया और जेल भी गए लेकिन उनका असल काम बाबा साहब की विचारधारा को समाज तक पँहुचाने का ही रहा। बाबा साहब के मिशन से वह ‘उजाला’ नामक पत्रिका के जरिए जुड़े जिसका सम्पादन उन्ही के समकालीन श्री के सी सुलेख कर रहे थे और यह साप्ताहिक उर्दू मे निकलता था। सुलेख साहब आज के समय मे सबसे बड़े अम्बेडकरवादी हैं जिन्होंने शेड्यूल कास्ट फेडरेशन मे काम कर बाबा साहब के ऐतिहासिक भाषण को संसद मे सुना था। उजाला पत्रिका का पहला अंक 14 अप्रेल 1948 को प्रकाशित हुआ था और बाली साहब उसमे एक कॉलम ‘अमर नवशहरी’ के नाम से लिखा करते थे।

बाली साहब के साथ विस्तारपूर्वक बातचीत करने के कुछ अवसर मिले। दरअसल जब भी मै उनके पास जाता था मै उनकी बातों को रिकार्ड कर लेना चाहता था। मैंने उन्हे एक बार बताया कि उनकी हर एक बात मेरे लिए इस प्रकार से है मानो बाबा साहब अंबेडकर कह रहे हों। ये बात मुझे उस समय भी महसूस होती थी जब मै दिल्ली मे श्री भगवान दास जी के पास जाया करता था। खैर, बाली साहेब हमेशा कहते थे कि उनके पास समय नहीं है और वह अधिक अधिक लिख लेना चाहते थे।

वह रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के 1964-1965 मे सर्व भारतीय आंदोलन मे 70 दिन तक जालंधर शहर की जेल मे बंद थे। जेल मे एक लाइब्रेरी थी और कैदियों को पढ़ने लिखने के लिए कहा जाता था। बाली साहब उर्दू और पञ्जाबी जानते थे और उसी मे लिखते भी थे लेकिन अपने अम्बेडकरवादी मिशन के काम के लिए उन्हे देश भर मे जाना पड़ता था और इसलिए जेल मे उन्होंने अंग्रेजी की मदद से हिन्दी सीखी और उसके बाद हिन्दू धर्म के सभी ‘ग्रंथों’ का अध्ययन किया। अपने सीखने की ललक के चलते और अपने ऊपर लादे गए आपराधिक मुकदमों से निपटने के लिए उन्होंने एल एल बी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की।

बाली साहब बताते हैं कि उनकी भीम पत्रिका पहले उर्दू मे आई और बाद मे उसे पंजाबी मे प्रकाशित किया गया। फिर उसे अंग्रेजी और अंत मे हिन्दी मे भी निकाला गया। आज उनके द्वारा लिखी गई दो सौ से अधिक पुस्तकों मे सबसे अधिक संख्या हिन्दी मे लिखी गई पुस्तकों की है।

दो वर्ष पूर्व एक इंटरव्यू मे उन्होंने अपने संघर्षों के विषय मे मुझे बताया था। वो कहते हैं कि वह उस समय बुद्धिस्ट बने जब खुले तौर पर बौद्ध धम्म स्वीकारने का मतलब था आरक्षण की व्यवस्था से हाथ दोना और आरक्षित सीटों से चुनाव न लड़ पाना। उनके कोई भी बच्चे आरक्षण का लाभ नहीं उठाया पाए क्योंकि उन्होंने खुले तौर पर बौद्धह धामम स्वीकार किया। 16 जून 1963 को उन्होंने हजारों लोगों के साथ लखनऊ के बौद्ध विहार रिसालदार पार्क मे बुद्ध धम्म शिक्षा ग्रहण की जिसे भिक्षु प्रज्ञानंद महाथेरो ने सबको दीक्षित किया। दरअसल 15-16 जून को उत्तर प्रदेश मे आर पी आई का सम्मेलन था और दूसरे दिन धम्म दीक्षा का कार्यक्रम था। बहुत से लोग अपने को बुद्धिस्ट तो कहते थे लेकिन आरक्षण के लाभ से वंचित न हो जाए इसलिए आधिकारिक तौर पर ये स्वीकार नहीं करते थे लेकिन बाली साहब जो करते थे खुल कर करते थे। बाद मे 1990 मे विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने कानून मे परिवर्तन कर नव बौद्धों को आरक्षण की सुविधा का लाभ देने की घोषणा की।

आज के नौजवान सोशल मीडिया के अम्बेडकरवादी भारत मे अम्बेडकरवाद को बसपा के उदय से लेकर जोड़ते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हे अम्बेडकरी आंदोलन के महत्वपूर्ण लोगों की कोई जानकारी भी नहीं है। ये इस बात से भी पता चलता है के हिन्दी क्षेत्रों मे 1990 के दौर मे चर्चा मे आए दलित कथाकार अम्बेडकरवादियों के रूप मे जाने जाते हैं चाहे उन्होंने अपने जीवन मे वाकई मे अम्बेडकरवादी दर्शन को माना या नहीं। दरअसल अंबेडकर आंदोलन के अधिकांश जीवट समर्थक महाराष्ट्र, पंजाब या उत्तर प्रदेश के आगरा और दिल्ली के इलाकों से निकले और अधिकतर की मूल भाषा उतनी शुद्ध हिन्दी नहीं थी जितनी उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश मे जरूरत होती है इसलिए उन्हे लगता है के 1990 मे बसपा के उदय के बाद ही अम्बेडकरी आंदोलन खड़ा हुआ। इसमे उन बुद्धिजीवियों का भी कम दोष नहीं जो अपने आगे किसी और को अम्बेडकरी समझने को तैययर नहीं थे। ब्राह्मणवादी अखबारों की कतरन के सहारे बने अम्बेडकरी कभी भी भगवान दास, एल आर बाली, के जमनादास या वी टी राजशेकर को समझ नहीं पाएंगे जिन्होंने अपने विचारों को लेकर कोई समझौता नहीं किया और जीवन पर्यंत अपने समाज के बीच अपने संशधनों से प्रवेश किया। ये दौर था जब अंबेकरवादी आंदोलन ने अनेकों पत्र पत्रिकाये निकाली यह आंदोलन किसी भी दूसरे आंदोलन के मुकाबले अधिक बौद्धिक था। आज आपके पास सब सुविधाये है लेकिन वो बौद्धिकता नहीं है जो उन आंदोलनों मे थी जब लोगों के पास पत्रिकाये निकालने हेतु भी संशधन नहीं थे।

असल मे 90 के दशक मे बसपा के उदय से अम्बेडकरवाद की धारा गाँव गाँव पहुँच गए। उत्तर प्रदेश मे बहुजन समाज पार्टी ने लोगों ने एक नई आशा का संचार किया। पार्टी को मजबूती देने से पहले मान्यवर कांशिराम साहब ने देश भर मे साइकिल यात्रा की और लोगों को एक विकल्प दिया। मान्यवर कांशिराम ने उत्तर प्रदेश को सुश्री मायावती के रूप मे एक मजबूत नेतृव प्रदान किया। ऐसा कहा जाता है कि बसपा ने दलितों मे राजनीतिक चेतना और मजबूत किया लेकिन हकीकत यह है कि बाबा साहब के मिशन से 1950 से जुडने वाले लोग मे चमार और जाटव समुदाय के लोग सबसे अधिक थे और वही सबसे पहले बाबा साहब को आगरा बुलाए और बुद्ध धम्म दीक्षा भी ली। बाबा साहेब के महापरिनिर्वाण के बाद उनके आंदोलन को आगे ले जाने वालों मे श्री भगवान दास, श्री एल आर बाली, श्री षंकरनन्द शास्त्री, श्री नानक चंद रट्टू, वामन राव गोडबोले, श्री सदानंद फुलजले और अन्य कई लोगों की मातृभाषा हिन्दी नहीं थी हालांकि उन्होंने अपना अधिकांश कार्य हिन्दी मे ही किया। उत्तर प्रदेश मे एक समय मे आर पी आई बहुत ही मजबूत पार्टी हुआ करती थी ,लेकिन उसके खतमे के बाद से अम्बेडकरवादी आंदोलन मे जो खालीपन था उसे बसपा ने पूरा किया हालांकि खाँटी अम्बेडकरवादियों को बसपा की अप्रोच से समस्या थी और बाली साहब भी उसके आलोचकों मे थे। बसपा ने इन आलोचनाओ को कभी अच्छे से नहीं लिया और उसके काडर को भी यही पढ़ाया गया कि अम्बेडकरी आंदोलन 1992 के बाद से उभरा जो बिल्कुल ही झूठ था। ये बाद सत्य है कि बसपा ने अम्बेडकरवाद को या बाबा साहब के नाम को गाँव गाँव पहुंचा दिया लेकिन इस सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश मे अम्बेडकरी आंदोलन की पृष्ठभूमि बहुत पुरानी और सशक्त है। 1990 के बाद के नए युवाओ के लिए अम्बेडकरी मिशन का मतलब बसपा हो गया और नतीजा यह हुआ कि अधिकांश कार्यकर्ताओ को बाबा साहब के आंदोलनों और अम्बेडकरी आंदोलनकारियों के विषय मे अधिक जानकारी नहीं है और वो बांमसेफ़ को ही अम्बेडकरी आंदोलन का जनक मानते हैं जो गलत है क्योंकि अम्बेडकरी आंदोलन के शुरुआती दौर मे कोई बांमसेफ़ कही था ही नहीं। दुर्भाग्य ये है कि दलित पैंथर और अन्य आंदोलनों को भी समझने के प्रयास नहीं हुए क्योंकि राजनैतिक बसपा के लिए अन्य आंदोलनों का महत्व नहीं था और अधिकांश समय पार्टी के काडरों को ये ही समझाया गया कि महाराष्ट्र के लोगों ने और आर पी आई ने तो बाबा साहब की मूवमेंट को बेच दिया था और वो इसलिए कि आर पी आई के नेता दादा साहब गायकवाड ने काँग्रेस के साथ राजनैतिक अलायेंस की बात की थी लेकिन बाली जैसे लोग तब भी मजबूत थे और उन्होंने हमेशा से काँग्रेस के साथ समझौते का विरोध किया लेकिन आज के दौर मे बाली साहब बहुत साफ थे कि सभी पार्टियों को हिन्दुत्व का जम कर विरोध करना पड़ेगा और इसमे वह वामपंथियों के साथ जाने को तैययर थे। पिछले वर्ष जब मै इंग्लैंड से आए हमारे मित्र श्री देविंदर चंदेर जी के साथ उनके घर गया था तो उस समय उन्होंने बताया कि पंजाब मे दलितों की लड़ाई हिन्दुओ से अधिक सिखों से है और उस लड़ाई के चलते ही अधिकांश दलित अलग अलग ‘डेरों’ मे चले गए और अम्बेडकरवादी आंदोलन पर उसका असर पडा।

बाली साहब जीवन पर्यंत लोगों को अम्बेडकरवाद से रूबरू करवाते रहे। बढ़ती उम्र के आवजूद भी वह अंत तक बहुत सक्रिय रहे और विभिन्न कार्यक्रमों मे शिरकत करते रहे। उनसे मिलने पर बाबा साहब के विषय मे सुनने की इच्छा होती थी। उनके पास बाबा साहब की लिखी पुस्तकों के पुराने संस्करण थे जो शायद किसी दूसरे के पास नहीं मिलेंगे। बाबा साहब का साहित्य उन्हे मानो कंठस्थ याद था। बाबा साहब के साथ बिताए पलो और उनके साहित्य को वह क्रमबद्ध तरीके से सुनाते थे। असल मे उनकी जिंदगी बाबा साहब अंबेडकर की पूरी विचारधारा पर आधारित ही थी इसलिए उन्होंने उसे इसी प्रकार से जिया और आगे बढ़े।

बाली साहब आज के दौर मे सबसे पुराने अम्बेडकरवादी थे और क्योंकि उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी की राजनीति भी की इसलिए हो सकता है कि बहुत से लोग उनके कुछ एक विचारों से सहमत न हो। लेकिन क्या अंबेडकर विचारों को समर्पित जब बाबा साहब का नाम लेकर बनने वाली पार्टियों की संख्या बढ़ रही है, हम उनकी आलोचना नहीं कर सकते। यदि कोई अम्बेडकरवादी आपका आलोचक बंता है तो हमे उसकी निंदा करने की बजाए ये सोचना होगा कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। आलोचना को अलग ढंग से देखना होगा। एक वो लोग जो चाहते है की अम्बेडकारियों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही न रहे और दूसरे वो जो आलोचना इसलिए करते हैं कि स्थितियों मे सुधार हो।

आज बाली साहेब की मृत्यु के बाद भी देश की अम्बेडकरवादी पार्टियों, नेताओ, ने कोई शब्द नहीं बोले हैं, उनकी जुबान चुप है। क्या इसलिए कि वे उनका नोटिस लेना तक नहीं चाहते। क्या उनकी आलोचनाओ से हम इतना घबराते हैं कि एक शब्द भी उनके बारे मे और अंबेडकर मिशन को उनके योगदान को हम याद नहीं करना चाहते हैं ? आश्चर्य की बात है कि बाबा साहब के नाम पर रोज सुबह शाम बड़े बड़े दावे करने वाले लोगों को भी इतना जानने की फुरसत नहीं कि अम्बेडकरी आंदोलन आखिर 1956 के बाद से आगे कैसे बढ़ा और कौन लोग तो आंदोलन को मुश्किल हालातों से यहा तक खड़ा कर सके। यदि ये भी मान ले कि अम्बेडकरी आंदोलन को बहुजन समाज पार्टी ने सबसे अधिक मजबूत किया है या जन जन तक पहुंचाया है तो भी इतना तो सोचना पड़ेगा कि बसपा के उदय से पहले आंदोलन आखिर चला कैसे ? मान सकते हैं कि आर पी आई मे काँग्रेस ने सेंध लगा डी थी और वो विफल हो गई और उसके बहुत से कारण थे और एक था बाबू जगजीवन राम जैसे कद्दावर नेता का काँग्रेस मे होना जिन्होंने सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों मे दलितों की भागीदारी को बढ़ाने मे भरपूर योगदान दिया। बाबू जी के चलते दलितों का एक बहुत बड़ा वर्ग काँग्रेस के साथ रहा लेकिन ये बात भी हकीकत है के अम्बेडकरी कार्यकर्ता चाहे कम रहे हो लेकिन पूरे दम खम से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे और शायद यही वजह है कि उत्तर प्रदेश मे बसपा इतनी मजबूती से आगे बढ़ी क्योंकि अम्बेडकरी आंदोलन की एक मजबूत विरासत वहा मौजूद थी और उन्हे एक राजनैतिक नेतृत्व की आवश्यकता थी।

बाली अब चले गए लेकिन बहुत साल पहले मैंने उनसे एक सवाल पूछ ही लिया। बाली जी के बाद कौन ? उन्होंने मुझे बताया कि भीम पत्रिका का एक ट्रस्ट है और वो ट्रस्ट ही उसे चलाएगी। एक महत्वपूर्ण बात उन्होंने मुझसे कही कि ये कोशिश मत करना कि कोई दूसरा बाली आएगा। बाली से बेहतर हो सकता है या उनसे खराब होगा लेकिन कोई दूसरा बाली नहीं होगा। आज अम्बेडकरी आंदोलन से सबसे बड़े संरक्षक लाहोरी राम बाली जी के योगदान को याद करना ही पड़ेगा।। समाज और आंदोलन के लिए उनके विचारों को चलने पर आगे निकल सकते हैं। उहोने कई बार ये कहा कि राजनैतिक आंदोलन प्रोग्राम बेस्ड होते हैं न कि जाति आधारित इसलिए अम्बेडकरवादियों को अपनी समान विचारधारा के लोगों के साथ न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करके आंदोलन करना होगा तभी सफलता मिलेगी और सांस्कृतिक तौर पर उन्होंने पहले ही कह दिया था कि दलितों के लिए बाबा साहब का सांस्कृतिक मार्ग धम्म का रास्ता ही सबसे उपयुक्त होगा।
एल आर बाली जी की स्मृति को सादर जयभीम !!

मेरे लाहौरी राम बाली जी के साथ किये गए दो इंटरव्यू के लिंक 
https://www.youtube.com/watch?v=XJFTWaJojHo
https://www.youtube.com/watch?v=L8yaisDcthE

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