विनिवेशीकरण व निजीकरण- जनविरोधी नीतियां : आरक्षण व सामाजिक न्याय को समूल नष्ट करने की दिशा में अग्रसर
डॉ. रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा-भारत)
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(समाज वीकली)-
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
आज से 143 वर्ष पूर्व सन् 1882 में ब्रिटिश सरकार के द्वारा हंटर आयोग की स्थापना की गई .उस समय समाज सुधारक ज्योतिराव फूले ने नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा व आनुपातिक प्रतिनिधित्व अर्थात आरक्षण की मांग उठाई. नौकरी में विदेशियों की भर्ती के विरुद्ध ट्रावनकोर -कोचिन में भारी प्रदर्शन हुएऔर मूल निवासियों के लिए नौकरियों में आरक्षण की मांग को व्यापक स्तर पर उठाया गया.
सन्1902महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहूजी महाराज ने अपने राज्य में दलित वर्गों /पिछड़े वर्गों/समुदायों के कल्याण के लिए व प्रशासन में उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण की अधिसूचना जारी की. दलित वर्गों /पिछड़े वर्गों/समुदायों के कल्याण के लिए आरक्षण के संबंध में भारतीय इतिहास में यह प्रथम आधिकारिक राजपत्र है. इस ऐतिहासिक अधिसूचना के द्वारा आरक्षण को क्रमबद्ध तरीके से लागू किया गया.
भारतीय परिस्थितियों का संज्ञान लेते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार ने सन् 1908 में प्रशासनिक सेवाओं में विभिन्न जातियों व समुदायों के लिए सीमित आरक्षण लागू किया.इसके उपरांत भारत सरकार अधिनियम,1909 में आरक्षण का प्रावधान विद्यमान था . मद्रास प्रेसीडेंसी में जातिय पृष्ठभूमि आज्ञा पत्र के अनुसार 44% सीटें गैर- ब्राह्मणों के लिए,ब्राह्मणों के लिए 16 % ,मुसलमान के लिए16%,एंग्लो इंडियन/ईसाइयों के लिए 16 % तथा अनुसूचित जातियों के लिए 8% आरक्षण का प्रावधान किया गया .अन्य शब्दों में सरकारी नौकरियों में शत-प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई .
सन्1935 में कांग्रेस पार्टी के द्वारा अनुसूचित जातियों(दलित वर्ग) के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था के लिए प्रस्ताव पास किया. भारत सरकार अधिनियम ,1935 में आरक्षण संबंधी अनेक प्रावधान विद्यमान थे. डॉ. भीमराव अंबेडकर ने सन् 1942 मेंअनुसूचित जातियों को शिक्षा और नौकरियों मेंआरक्षण को दलित वर्गों के उद्धार के लिए अति अनिवार्य माना और उन्होंने दलित वर्गों को शिक्षित, जागरूक और लामबंद करने के लिए भारतीय दलित महासंघ स्थापित किया.सन् 1946 में कैबिनेट मिशन की रिपोर्ट में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की महत्वपूर्ण संस्तुति की गई.
संविधान सभा : आरक्षण अत्यधिक विवाद का विषय
संविधान सभा में संसद , राज्य विधान सभाओं तथा शिक्षा व सरकारी नौकरियों में आरक्षण की शुरुआत संविधान की ड्राफ्ट समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर के द्वारा की गई थी. इसका विरोध संविधान सभा से सड़क तक हुआ. संविधान सभा और इसके पश्चात संसद में अत्यधिक विवाद का विषय रहा है. भारतीय संविधान सभा मेंआरक्षण के संबंध में भाग लेने वाले सदस्यों के विचारों में बहुत बड़ा विरोधाभास है . यदि एक ओर विधानसभाओं अथवा नौकरियों मेंआरक्षण की वकालत जाति आधार पर हो रही थी तो दूसरी ओर वकालत आर्थिक आधार व राजनीतिक आधार के पक्ष थी.परंतु अन्तत: फैसला जातिय आधार के पक्ष में हुआ.सविंधान सभा की बहस में भाग वाले सदस्यों में डॉ. भीमराव अंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल, टी.टी. कृष्णमाचारी,के.टी .शाह ,एए. गुरुंग ,एस. नागप्पा(मद्रासअब तमिलनाडु),मोहनलाल गौतम,महावीर त्यागी,जेड. एच .लारी,जेरोम डिसूजा ,एच.सी. मुखर्जी इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं.
डॉ. भीमराव अंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू बनाम सरदार पटेल :गंभीर मतभेद
डॉ. भीमराव अंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल के मध्य संसद व विधान पालिकाओं में अनुसूचित जातियों के आरक्षण के संबंध में बहुत अधिक मतभेद था . सन्1990 बैच के हरियाणा कैडर के आई. ए. एस. अधिकारी, राजशेखर वुद्रूं की पुस्तक( अंबेडकर, गांधी और पटेल :मेकिंग ऑफ इंडिया’ज इलेक्ट्रोल सिस्टम — Rajshekhar Wondro, Ambedkar, Gandhi and Patel: The Making of India’s Electoral System) में इस विवाद का विस्तृत तौर पर वर्णन किया है.डॉ.भीमराव अंबेडकर ने दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की बात पर बल दिया .इस प्रस्ताव का सरदार पटेल व उसके साथियों ने जबरदस्त विरोध किया. राजशेखर वुद्रूं ने लिखा कि संविधान निर्माण के समय अनुसूचित जातियों के फैसले के समय सारी फाइलें भारत का गृह मंत्री होने के कारण सरदार पटेल के नियंत्रण में थी. परिणाम स्वरूप डॉ. भीमराव अंबेडकर को संसद व विधानपालिकाओं में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों पर संतोष करना पड़ा. संसद तथा विधानसभा में सर्वप्रथम अनुसूचित जातियोंऔर अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण 10 वर्ष के लिए किया गया था.परंतु यह कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है.क्योंकि जब तक ‘सामाजिक असमानता व अस्पृश्यता’ विद्यमान है तब तक आरक्षण समाप्त होने का प्रश्न पैदा नहीं होता. डॉ. अंबेडकर के अनुसार जब तक छुआछूत समाप्त नहीं हो जाती तब तक संसद व विधान पालिकाओं में आरक्षण जारी रहना चाहिए . डॉ. भीमराव अंबेडकर ने स्पष्ट तौर पटेल के संबंध में कहा, ‘आप खुद को कांग्रेसी सोचते हैं और इसे राष्ट्रवाद इसका पर्याय मानते हैं. मुझे लगता है कि कोई व्यक्ति कांग्रेसी हुए बगैर भी राष्ट्रवादी हो सकता है… मैं अपने आप को किसी भी कांग्रेसी से बड़ा राष्ट्रवादी मानता हूं’.
(हरीश खरे, ‘पत्रकारों के लिए है इम्तिहान की घड़ी’,दैनिक ट्रिब्यून, खुला पन्ना, 1 जनवरी 2018, पृ .7 ).
दस साल के पश्चात प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सन्1961 में संसद व विधान पालिकाओं में आरक्षण 10 साल आगे बढ़ाने का प्रस्ताव संसद से पारित करवाया जो आज भी जारी है.वर्तमान समय में स्वर्ण जातियों के लोग दलित आरक्षण के विरोधी हैं. यही कारण है कि भाजपा के नेता एवं दक्षिणपंथी विचारधारा के समर्थक नेहरू और गांधी की अपेक्षा सरदार पटेल को अपना ‘अवतार’ मानते हैं यद्यपि भारत सरकार के तत्कालीन गृह मंत्री ,सरदार पटेल ने 4 फरवरी, 1948 को राष्ट्रीय स्वयं संघ पर प्रतिबंध लगाया था.
भारत का संविधान एवं आरक्षण
भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा . भारत के संविधान के अनुच्छेद15 (4) तथा 16(4) के अनुसार केंद्रीय व राज्य सरकारों को आरक्षण के प्रावधान को लागू करने के लिए शक्ति प्राप्त है. अर्थात् “सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि” से “पिछड़े वर्गों” के लिए राज्य (केंद्रीय व राज्य सरकारें) सार्वजनिक नौकऱियों में समुचित प्रतिनिधित्व हेतु आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है. संविधान का अनुच्छेद 16 (4) नागरिकों के पिछड़े वर्गों के हित में आरक्षण की अनुमति देता है .परंतु इस अनुच्छेद में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का वर्णन नहीं है.
“सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि” से “पिछड़े वर्गों” में कौन सम्मिलित है?
यह एक यक्ष प्रश्न है. इस प्रश्न का स्पष्टीकरण संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में क्रमशः अनुसूचित जाति (एससी ) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) को “सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि” से “पिछड़े वर्गों” में माना है. संविधान सभा में बहस के बाद “आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का भी परित्याग” कर दिया गया. डॉ. आंबेडकर ने एससी और एसटी की जगह ‘पिछड़ा वर्ग’’ कहकर संबोधित किया. इन अनुच्छेदों से अधोलिखित बात स्पष्ट होती हैं:
प्रथम, आरक्षण ‘शैक्षणिक और सामाजिक’ दृष्टि से ‘पिछले वर्गों’ को दिया गया है;
द्वितीय, शैक्षणिक और सामाजिक दृष्टि से पिछले वर्गों मेंअनुसूचित जातियां और अनुसूचित जन जातियां सम्मिलित हैं (अनु.341व342);
तृतीय, सविधान के इन अनुच्छेदों में आरक्षण के आर्थिक आधार का प्रावधान नहीं है;
चतुर्थ, कालांतर में आरक्षण के संबंध में अनेक श्रेणियों जैसे-पिछड़ा वर्ग, दिव्यांग, आर्थिक आधार पर पिछड़ा वर्ग, भूतपूर्व सैनिकों, महिलाओं इत्यादि को आरक्षण प्रदान किया गया. इनका वर्णन अनुच्छेद 15(4), 16(4), 341व342 में नहीं है;
पंचम, इन अनुच्छेदों में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण का वर्णन नहीं है;
छठा, संविधान के इन अनुच्छेदों में अस्थाई नियुक्तियों/अनुबंध नियुक्तियों में आरक्षण प्राप्त होगा अथवा नहीं होगा का कोई वर्णन नहीं है.
इनमें से कुछ विसंतियों को दूर करने के लिए संवैधानिक संशोधन भी किए गए हैं. परंतु अनुबंध अथवा अस्थाई नियुक्तियों पर आरक्षण लागू न करके आरक्षणित सीटों को अनारक्षित करने की साजिस जारी है.
A.राष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ा वर्ग आयोग: काका कालेलकर( 29 जनवरी, 1953–30 मार्च 1955)
15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में पिछड़े वर्गों से संबंधित तथ्यों की जानकारी के लिए सरकार की सिफारिश पर भारत के संविधान के अनुच्छेद 340 के अंतर्गत तत्कालीन प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद (26 जनवरी, 1950 से 13 मई, 1962) के द्वारा 29 जनवरी, 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग की गठन किया.इस आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर थे.इसीलिए इस आयोग को काका कालेलकर आयोग के नाम से भी जाना जाता है. इस आयोग ने 30 मार्च 1955 को अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी. रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2,399 पिछली जातियों की सूची तैयार की गई तथा इनमें से 837 जातियों को तारांकित ‘(सबसे पिछड़ी जातियां) वर्गीकृत किया गया. यद्धपि जवाहरलाल नेहरू प्रगतिशील व समाजवादी चिंतक थे तथा संसद में उनका अभूतपूर्व बहुमत था.इसके बावजूद भी प्रतिक्रियावादी एवं पिछड़े वर्गों के विरोधी स्वर्ण जातियों के सांसदों के विरोध के कारण हिंदू कोड बिल की भांति इस रिपोर्ट को लागू नहीं कर सके .
B.राष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ा वर्ग आयोग: मंडल आयोग(1 जनवरी 1979 — 31 दिसंबर 1980)
आपातकालीन स्थिति(1975-1977) के पश्चात जब भारत मेंजनता पार्टी नीत मोरारजी देसाई सरकार केंद्र में बनी . मोरारजी देसाई की सरकार के परामर्श के अनुसार भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी(25 जुलाई 1977 से 25 जुलाई 1982) ने सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग आयोग (एसईबीसी) का 1 जनवरी 1979 का गठन किया. इस आयोग के अध्यक्ष सांसद बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (बीपी मंडल — बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री, यादव जाति से संबंधित अमीर जमींदार) थे .इसलिए इस को मंडल आयोग (1979) नाम से जाना जाता है.
मंडल आयोग ने भारत के अनेक जिलों में जाकर और विभिन्न जातियों के प्रतिनिधियों से संपर्क किया. जब यह आयोग करनाल(विश्राम गृह) में आया कंबोज जाति के प्रतिनिधि चौ. देशराज कंबोज के साथ प्रस्तुत लेख के लेखक डॉ. रामजीलाल भी थे. हम दोनों ने कंबोज जाति संबंधित शैक्षणिक , आर्थिक व ऩौकरियों में भागीदारी के तथ्यों के संबंध में आयोग को अवगत कराया.एसएस गिल (युवा अधिकारी), आयोग के सचिव थे.आय़ोग अध्यक्ष व सचिव ने बहुत अधिक शालीनतापूर्वक व शांतिपूर्ण ढ़ग से बातचीत की.दो वर्ष के पश्चात आयोग ने 31 दिसंबर 1980 को राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की.मंडल आयोग की रिपोर्ट(1980) में अनेक संस्तुतियां की गई . मंडल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भारत में पिछड़ी जातियों की संख्या 3743(कुल जनसंख्या का 52%) हैं.शिक्षा व सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए 27% की सिफारिश की गई. मोरारजी देसाई व चौधरी चरण सिंह की सरकारों के गिरने के पश्चात श्रीमती इंदिरा गांधी (सन्1980-सन्1984)और राजीव गांधी (सन्1984-सन्1989)सत्ता में आए.जवाहरलाल नेहरू की भांति श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकारों के साथ भी संसद में अभूतपूर्व बहुमत था.परंतु आरक्षण विरोधी उच्च जातियों के सांसदों के दबाव के कारण आरक्षण को लागू न कर सके और मंडल कमीशन की रिर्पोट को भी काका कालेलकर आयोग की रिर्पोट की भांति ठंड़े बस्ते में ड़ाल दिया.
मंडल आयोग की रिपोर्ट का क्रियान्वन: प्रतिक्रियांए
कांग्रेस पार्टी के चुनाव(नवंबर1989 ) में हारने पश्चात केंद्र में वीपी सिंह के नेतृत्व में गठबंधन सरकार (2 दिसंबर 1989 से 10 नवंबर 1990)स्थापित हुई. भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सोमनाथ के मंदिर से लेकर अयोध्या तक ‘राम रथ यात्रा’ का आयोजन किया गया.वीपी सिंह इसके विरुद्ध थे. उनको मालूम था कि उनकी सरकार कुछ दिन की मेहमान है कभी भी गिर सकती है. 7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने की अधिसूचना जारी की गई. इस अधिसूचना के अनुसार शिक्षा ,सरकारी नौकरियों और सार्वजनिक उपकरणों में पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण की व्यवस्था की गई.इस अधिसूचना के बाद विशेष तौर से उत्तरी भारत में उच्च जातियों के विद्यार्थियों और युवाओं के द्वारा विरोध किया गया.आरक्षण लागू करने के विरोध में भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस पार्टी व लालकृष्ण आडवाणी, देवीलाल व चंद्रशेशेखर जैसे दिग्गज़ नेता भी थें.23 अक्टूबर1990 को आडवाणी के गिरफ्तारी के पश्चात भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया और 10 नवंबर1990 को वीपी सिंह की सरकार के विरुद्ध लोक सभा में अविश्वास का प्रस्ताव पास हो गया. परिणामस्वरूप वीपी सिंह की सरकार को त्यागपत्र देना पड़ा.
वीपी सिंह की सरकार के द्वारा मंडल कमीशन की सिफारिश को लागू करने का निर्णय राजनीति पर गहरी छाप छोड़ गया तथा ‘मंडल बनाम कमंडल’की राजनीति प्रारंभ हो गई और ‘सामाजिक न्याय’ शब्दावली बहुत अधिक लोकप्रिय हो गई. वह जातियां {जैसे हरियाणा में जाट व महाराष्ट्र में मराठा} जो नवंबर 1990 में आरक्षण का विरोध कर रही थी. कालांतर में उन्हीं जातियों के द्वारा आरक्षण की मांग की गई. जातिगत आरक्षण की मांग ‘वोट बैंक’ की राजनीति की ओर अग्रसर हो गई. परिणामस्वरूप आरक्षित श्रेणी में जातियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है.
आरक्षित जातियों की संख्या
इस समय भारत में अनुसूचित की संख्या 1108, अनुसूचित जनजातियों की संख्या 730 (जनगणना सन् 2011) तथा पिछड़े वर्गों की संख्या 5013 (दैनिक ट्रिब्यून् (चंडीगढ़). 27 फरवरी 2021. पृ. 8). संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (संशोधन) विधेयक, 2024 और संविधान (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति) आदेश (संशोधन) विधेयक, 2024 अनुसार आंध्र प्रदेश में, तीन – (बोंडो पोरजा, खोंड पोरजा, पारंगीपेरजा) जातीय समूहों और ओडिशा में चार समूहों को अनुसूचित जनजातियों की सूची में जोड़ा जा रहा है. आजादी के 76 साल बाद अंडमान द्वीप से 75 आदिम कमजोर जनजातीय समूहों (पीवीटीजी) को अनुसूचित सूची में जोड़ा गया है. अंडमान द्वीप के ऐसे 10 पीवीटीजी के नाम अनुसूचित जनजातियों की सूची में नहीं जोड़े गए .
आरक्षण और सर्वोच्च न्यायालय :इंदिरा साहनी बनाम भारतीय संघ विवाद(16 नवंबर, 1992
मंडल आयोग की सिफारिश के क्रियांवन को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया गया .सर्वोच्च न्यायालय के नौ-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा इंदिरा साहनी बनाम भारतीय संघ विवाद में 16 नवंबर, 1992 को ऐतिहासिक निर्णय घोषित गया. इस ऐतिहासिक निर्णय के मुख्य केंद्र बिंदु अधोलिखित हैं:
प्रथम, ओबीसी के लिए 27% आरक्षण को संवैधानिक घोषित गया,
द्वितीय, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा 50 परसेंट आरक्षित कोटे की सीमा को संवैधानिक करार दिया,
तृतीय, मंडल कमीशन की रिपोर्ट की संतुत्तियों को जब लागू किया गया उसमें मलाईदार परत (क्रीमी लेयर) का वर्णन नहीं था .पंरतु सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में ‘क्रीमी लेयर’ को जोड़ दिया.परिणामस्वरूप मंडल कमीशन की संस्तुतियां ‘डाइल्यूट’ हो गई . हम अपने सुधी पाठकों को यह बताना चाहते हैं कि मलाईदार परत (क्रीमी लेयर )शब्दावली का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1975 में केरल राज्य बनाम एनएम थॉमस मामले में किया गया था.
जातिय आधार पर जनगणना :अति अनिवार्य
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पश्चात आरक्षण सीमा 50% से अधिक नहीं हो सकती.ओबीसी केलिए 27%,एससी केलिए15%, एसटी केलिए 7.5%आरक्षण की व्यवस्था है. अथार्त कुल योग 49.5 % है. जबकि इन जातियों की आबादी -ओबीसी 52%, एससी 15%व एसटी 7.5%है.अथार्त इन तीनो श्रेणियों की आबादी भारत की कुल आबादी का 74.5% है. इसलिए बार-बार यह नारा बुलंद किया जाता है, ’जिसकी जितनी संख्या भारी,उसकी उतनी हिस्सेदारी’. यही कारण है कि इंडिया गठबंधन के नेता लोकसभा निर्वाचन (2024 ) की मुहिम में बार-बार जातिय आधार पर जनगणना पर बल दे रहे हैं.
आरक्षित सीट – प्रवेश, सीधी भर्ती, पदोन्नति, दिव्यांग एवं ईडब्ल्यूएस( EWS ): कानूनी प्रावधान
आरक्षित सीटों के लिए के प्रवेश के समय न्यूनतम अंकों और आयु की सीमा में छूट भी दी गई है.केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (शिक्षक संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम, 2019 के अनुसार सीधी भर्ती के सभी पदों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है. केवल यही नहीं अपितु केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों (सीईआई) में एससी या एसटी या ओबीसी के लिए आरक्षित खाली सीटों के लिए केवल एससी या एसटी या ओबीसी उम्मीदवार के अतिरिक्त किसी अन्य उच्च जातियों के उम्मीदवार की नियुक्ति नहीं की जा सकती. संविधान के 77 वें संशोधन अधिनियम, 1995 के अनुसार अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था है.
संविधान के103वें संशोधन अधिनियम 2019 के अनुसार शिक्षण संस्थानों और सार्वजनिक नौकरियों में आर्थिक दृष्टि से पिछडे़ लोगों (ईडब्ल्यूएस) के लिए10%, आरक्षण किया गया. एससी, एसटी, ओबीसी और ईडब्ल्यूएस (EWS) जैसे विभिन्न वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों के संबंध में लगभग 60% सीटें आरक्षित हैं. सभी श्रेणियों में 3% सीटें दिव्यांग व्यक्तियों के लिए भी आरक्षित हैं.
लोकसभा चुनाव 2024 : आरक्षण विवाद
वर्तमान लोकसभा चुनाव 2024 में राजनीतिक दलों के द्वारा आरक्षण के संबंध में एक दूसरे पर दोषारोपण किया जा रहा है. इंडिया गठबंधनऔर कांग्रेस पार्टी के नेता विशेषतः राहुल गांधी सार्वजनिक मंचों से बार-बार दो बातों पर बल दे रहे है:
प्रथम, भाजपा और नरेंद्र मोदी का उद्देश्य ‘’संविधान बदल कर देश का लोकतंत्र तबाह कर देना’’; और
द्वितीय,’’दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों का आरक्षण छीन कर देश चलाने में उनकी भागीदारी खत्म करना.’’
अन्य शब्दों में यदि भाजपा तीसरी सत्ता में आती है तो वह आरक्षण और संविधान दोनों खत्म कर देगी.ऐसा इंडिया गठबंधन व इसके नेताओं का कहना अथवा दोषारोपण है.जबकि कांग्रेस को संविधान और आरक्षण का प्रहरी मानते हुए राहुल गांधी ने भारतीय जनता को आश्वासन देते हुए कहा देते कहा कि ‘’संविधान और आरक्षण की रक्षा के लिए कांग्रेस चट्टान की तरह भाजपा की राह में खड़ी है. जब तक कांग्रेस है वंचितों से उनका आरक्षण दुनिया की कोई ताकत नहीं छीन सकती.‘’
इसके बिलकुल विपरीत भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का कहना है कि इंडिया गठबंधनऔर कांग्रेस पार्टी अनुसूचित जातियोंतथा अनुसूचित जनजातियोंऔर पिछले वर्गों को दिए गए आरक्षण के विरुद्ध है. एक जनसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐतिहासिक तथ्यों की जांच किए बिना यहां तक कह दिया कि जवाहरलाल नेहरू एससी-एसटी और ओबीसी के आरक्षण के विरुद्ध थे. यूपी में की एक रैली को संबोधित करते हुए अमित शाह ने कहा कि ‘बीजेपी न तो आरक्षण हटाएगी और न ही किसी को ऐसा करने देगी.’
इंडिया गठबंधन और कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी आरक्षण के खिलाफ माना है. परिणामस्वरूप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संचालक ( मुखिया)मोहन भागवत ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ संविधान द्वारा प्रदत आरक्षण का समर्थन करता है..मोहन भागवत के शब्दानुसार‘संघ का कहना है कि आरक्षण तब तक जारी रहना चाहिए जब तक लोग, जिन्हें यह दिया गया है, महसूस करें कि उन्हें इसकी आवश्यकता है.’ अन्य शब्दों में मोहन भागवत के कहने का तात्पर्य यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरक्षण का समर्थन करता है, खिलाफ नहीं है.
विनिवेशीकरण व निजीकरण- जनविरोधी नीतियां : आरक्षण को समूल नष्ट करने की दिशा में अग्रसर
सोवियत संघ के भंग होने के पश्चात विश्व में उदारीकरण,निजीकरणऔर वैश्वीकरण की विचारधारा की आंधी का प्रभाव समस्त विश्व की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ा. भारत कोईअपवाद नहीं है.भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव तथा वित्त मंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने विनिवेशीकरण का बीज बोया और धीरे-धीरे इसने एक विशालकाय वट वृक्ष का रूप धारण कर लिया. सन् 2014 से सन्2024 तक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत राजग सरकार के लगभग 10 वर्ष के अंतराल में विनिवेशीकरण की नीति चरम सीमा पर पहुंच गई.जयप्रकाश नारायण के अनुसार पिछले सात दशक में निर्मित सरकारी संस्थान एवं उपक्रम कॉर्पोरेट के नियंत्रण मेंआते जा रहे हैं . उदाहरण के तौर पर रेल, भेल, सेल, गेल, एयरलाइन, दूरसंचार, बिजली वितरण उत्पादन, हवाई अड्डे, बंदरगाह, सैनिक साज-सामान के उत्पादन वितरण, शिक्षा, स्वास्थ, इंजीनियरिंग के संस्थान तथा खनिज और प्राकृतिक संपदा इत्यादि पर कॉरपोरेट्स का कब्जा है. निजी क्षेत्र मेंआरक्षण लागू नहीं है.
इनके अतिरिक्त केंद्रीय तथा राज्य स्तरीय प्रशासनिक सेवाओं में लेटरल एंट्री (Lateral Entry)के द्वारा आरक्षण कीअवहेलना की जाती है. नई शिक्षा नीति के अंतर्गत विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों के लिए निर्धारित योग्यताओं के बगैर अनुभव के आधार पर नियुक्तयों का प्रावधान आरक्षित जातियों –एससी-एसटी और ओबीसी के हितों के लिए अत्यधिक घातक सिद्ध होगा. परिणामस्वरूप भारत सरकार और राज्य सरकारें संविधान सशोधन के बिना ही आरक्षण को समूल नष्ट करने की दिशा में अग्रसर हैं. यही कारण है कि कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने आरोप लगाया कि मोदी सरकार ने पिछले 10 वर्षों में एससी, एसटी और ओबीसी के आरक्षण को कमजोर करने के लिए निजीकरण को एक “हथियार” के रूप में इस्तेमाल किया है.
निजीकरण तथा उदारीकरण की जनविरोधी नीतियों के कारण 13जुलाई 2021को प्रकाशित लेख के अनुसार केंद्रीय सरकार व राज्य सरकारों में 60 लाख रिक्तियां थी. एक वर्ष के पश्चात भी स्थिति में सुधार नहीं हुआ. न्यायमूर्ति एचएन नागामोहनदास आयोग की 7 नवंबर 2022 को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार के अनुसार केंद्र, राज्य सरकारों, सार्वजनिक उपक्रमों में 60 लाख से अधिक रिक्तियां थी.8 अगस्त 2023 को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार के40 लाख स्वीकृत पदों में से 9.64 लाख पद रिक्त थे.
इन रिक्त पदों पर स्थाई भर्ती न होने के कारण अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों व पिछड़ा वर्ग से संबंधित आरक्षित कोटा लागू नहीं किया जाता . परिणामस्वरूप अप्रत्यक्षतौर परआरक्षण खत्म हो जाता है. यदि रिक्त पदों पर अस्थाई अथवा अनुबंध पर नियुक्तियां की जाती है तो वहां सीट आरक्षित नहीं होती. यह तरीका भी नौकरियों में आरक्षण को समाप्त करने का एक महत्वपूर्ण शस्त्र है. इसके कारण अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों को जो आरक्षण का अधिकार है वह उससे वंचित हो जाते हैं.
यह एक सर्वविदित और बहुचर्चित विषय है कि निजीकरण,उदारीकरणऔर भूमंडलीकरण की नीतियों के परिणाम स्वरूप नौकरियों और आरक्षण दोनों पर बुरा प्रभाव पड़ा है.बेरोजगारी चरम सीमा पर पंहुच गई.न्यायमूर्ति एचएन नागामोहनदास आयोग ( 7 नवंबर 2022 )ने स्पष्ट किया कि ‘’विनिवेश कार्यक्रम, श्रम प्रणाली केअनुबंध और आउटसोर्सिंग और देश में बैकलॉग को न भरने के कारण एससी /एसटी समुदायों के लिए मौत की घंटी बजा दी जिससे सामाजिक न्याय अप्रासंगिक हो गया है’’.
सारांशतः राजनीतिक दलों के द्वारा एक दूसरे पर दोषारोपण तो किया जा रहा है परंतु यह स्पष्ट नहीं करते कि यदि सत्ता में आते हैं तो क्या वे विनिवेशीकरण और कॉर्पोरेटरीकरण की नीतियां बंद करेंगे?. हमारा सुनिश्चित अभिमत है कि विनिवेशीकरण और कॉर्पोरेटरीकरण की जनविरोधी और आरक्षण विरोधी नीतियां बंद होनी चाहिए. प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तथा विभिन्न प्रोजेक्टस पर राजकीय नियंत्रण स्थापित करके लोकहितकारी नीतियों का निर्माण और स्थाई कर्मचारियों की भर्ती के द्वारा बेरोजगारी पर अंकुश लगाना अतिआवश्यक है. परिणामस्वरूप संविधान और आरक्षण भी सुरक्षित रहेगा और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों व पिछड़े वर्गों की प्रशासनिक व शैक्षिक सहभागिता में वृद्धि होने के कारण भारतीय लोकतंत्र सुदृढ़ होगा. अंततः सामाजिक न्याय की प्रासंगिकता पुनः स्थापित होगी