अम्बेडकरवाद चिन्तक, लेखक और कवि श्री ईश कुमार गंगानिया से विद्याभूषण रावत की बातचीत
(समाज वीकली)- श्री ईश कुमार गंगानिया पिछले बीस वर्षो से अम्बेडकरवादी साहित्य सृजन में लगे है. उत्तर प्रदेश के छपरौली में १९५६ में जन्मे ईश का परिवार बचपन में ही हरियाणा चला गया और वही से उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की. बेहद मेहनत के उन्होंने छोटी मोटी नौकरिया करते और घर की जिम्मेवारी पूरी करते करते अंग्रेजी साहित्य और राजनीति विज्ञान में एम् ए किया और उसके बाद बी एड की डिग्री भी प्राप्त की. बाद में दिल्ली सरकार के अंतर्गत विद्यालय में पढ़ाने के उपरान्त अब वह पूर्ण रूप से साहित्य संसार से जुड़े है.
श्री गंगानिया अम्बेडकरवादी पत्रिका अपेक्षा के उप सम्पादक भी रहे और उन्होंने ‘आजीवक विजन’ नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन भी किया है. अभी तक उनकी दो दर्जन से अधिक पुस्तके आ चुकी है जिनमे कहानी संग्रह, कविता संग्रह, एक ग़ज़ल संग्रह, आजीवक पर विस्तारपूर्वक विश्लेषण करती कुछ पुस्तके है. उन्होंने द सर्जिकल स्ट्राइक नामक एक उपन्यास भी लिखा है. अन्ना के आन्दोलन से लोकतंत्र को हुए खतरे के विषय में भी उनकी एक पुस्तक है.
ईश कुमार गंगानिया अपने को अम्बेडकरवादी साहित्यकार मानते है और दलित बहुजन अस्मिताओ के नाम पर चल रहे विभिन्न समूहों से अपनी दूरी बनाये रखे है क्योंकि वह यह मानते है के अधिकांश साहित्य ‘सवर्णों पर ऍफ़ आई आर’ या चार्जशीट की तरह है और उससे आगे नहीं निकल पा रहां है. वह बाबा साहेब आंबेडकर का उदाहरण देते हुए कहते है के हमें एक बेहतर साहित्य और विकल्प देना होंगा और ‘शोषण और शोषित’ की मानसिकता से बाहर आना पडेगा. बाबा साहेब ने अपने ज्ञान और अध्ययन से इतनी बड़ी रेखा खडी कर दी के बड़े बड़े लोगो को उन्हें पढना और उनका सम्मान करना एक मज़बूरी बन गया है.
ईश कुमार गंगानिया के साथ विद्या भूषण रावत की विस्तृत बातचीत आप हमारे यू ट्यूब चैनल लोकायत पर देख सकते है : https://www.youtube.com/watch?v=tDZjepghTZg
साथ ही उनके साथ बातचीत के ये अंश यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे है.
आप आजीवक विचारधारा से कब और कैसे जुड़े ?
रावत जी, जहां तक आजीवक शब्द से मेरे परिचय का सवाल है, जब मैं ‘अपेक्षा’ (त्रैमासिक) के उप-संपादक के रूप में कार्य कर रहा था। डा. धर्मवीर ‘अपेक्षा’ में प्रकाशित मेरे दो आलेख पढ़ चुके थे और मुझसे प्रभावित भी थे। डा. धर्मवीर से मेरी पहली मुलाकात आईएसआई लोधी कालोनी, दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान हुई। इसी मुलाकात के दौरान उन्होंने मुझसे आजीवक का जिक्र किया और इसके लिए मुझे ए.एल.बाशम की पुस्तक पढ़ने का परामर्श दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे इस विषय पर काम करने के लिए प्रोत्साहित भी किया।
मैं अपने काम में जुट गया और आजीवक पर अपने निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले मैं आचार्य आनंद झा की पुस्तक ‘चार्वाक दर्शन’ पढ़ चुका था और आजीवक के साथ-साथ उसकी परिभाषा का व्यापक संदर्भ भी भलि भांति जान चुका था, जो चार्वाक दर्शन के अनुसार इस प्रकार है-‘लोकायत-सिद्धान्त अनुगामी जन ही ‘आजीवक’ नाम से इसलिए अभिहित होते थे कि शरीरात्मवादी होने के कारण शरीर के सदुपयोगार्थ, उसकी रक्षा के लिए आजीवक को, अर्थात श्रमात्मक आजीविका को, वे मुख्य कर्तव्य के रूप में अपनाते थे। एतदतिरिक्त यह भी कारण था आजीवक नाम से उनके पुकारे जाने का, कि वे श्रमोपयोगी स्वास्थ्य के लिए सदा सचेष्ट रहते थे। क्योंकि आजीवक का दूसरा अर्थ, पूर्ण रूप से जीवन का, अर्थात स्वस्थ्य जीवन का संपादन भी होता है। शरीर को आत्मा मानने वाले अपने स्वस्थ्य-स्वरूप जीवन के संपादन में सर्वथा सचेष्ट हों, यह सर्वथा युक्तिसंगत ही है। इन सारी बातों पर ध्यान देने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह दर्शन जन-जीवन से घनिष्ठता रखने वाले कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि, राजनीति-स्वरूप दण्डनीति और स्वास्थ्यप्रद आयुर्वेद इन तीनों से पूर्ण रूप से सम्बद्ध था।’
इस प्रकार अपेक्षा के तीसरे अंक (अप्रैल-जून 2003) के आने से पहले आजीवक को लेकर मेरी समझ साफ हो गई थी। इस अंक में कंवल भारती की पुस्तक ‘दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म’ की आलोचना के दौरान मैंने अपने निष्कर्ष को इस प्रकार व्यक्त कर दिया था-‘यदि ‘दलित’ ‘आजीवक’ और दलित साहित्य ‘आजीवक साहित्य’ में परिवर्तित हो जाएं तो यह ‘दलित’ शब्द की परिभाषा और गैर-दलित का भी दलित होने न होने जैसे अनावश्यक विवाद को समाप्त किया जा सकता है। यह अधिक गरिमापूर्ण संस्कृति का द्योतक है और दलितों के मनोबल और स्वाभिमान को ऊर्जा प्रदान करने की पर्याप्त सामर्थ्य रखता है। यह आग्रह डा. अम्बेडकर को किसी भी दृष्टि से कमतर व गलत आंकना नहीं है बल्कि उनके स्वाभिमान और दलित आंदोलन को आगे बढ़ाना है। इस पर निष्पक्षता व गंभीरता से विचार होना चाहिए।’ गौरतलब यह भी है कि मेरे निष्कर्ष के काफी अर्से बाद तक भी न डा. धर्मवीर ने और न ही कंवल भारती ने इसके प्रारूप को लेकर अपनी कोई लिखित प्रतिक्रिया दी और न ही उनका इस विषय पर कोई काम ही आया। जहां तक आजकल इसके फर्जी पैरोकारों का सवाल है, उनका इस मामले में कोई वजूद ही नहीं था। खैर…
आप अम्बेडकरी साहित्यकार हैं। आपने अपने को ‘अस्मिताओं’ के अन्य संस्थानों और संगठनों से नहीं जोड़ा। क्या फर्क है अम्बेडकरी साहित्य और अस्मिताओं पर आधारित अन्य साहित्य का ?
रावत जी, यह हकीकत है कि मेरा 2018 तक का साहित्य अम्बेडकरवादी साहित्य के बैनर तले लिखा गया। इसके बाद निरंतर चिंतन-मनन के दौरान मुझे एहसास हुआ किसी ‘वाद’ को आधार बनाकर लेखन-सृजन करने से वैचारिक व मानसिक स्वतंत्रता का हनन होता है। यह चिंतन व लेखन के दायरे को ही सीमित नहीं करता बल्कि इसके उद्देश्य को संकीर्ण व बोना बना देता है। इसकी एक दूसरी वजह यह भी है कि यह खुले तौर पर बुद्धिज्म और अम्बेडकरीज्म के साथ एक प्रकार की गद्दारी है क्योंकि ये दोनों चिंतन-दर्शन व्यक्ति को किसी व्यक्ति, पुस्तक, धर्मग्रंथ, परंपरा आदि की गुलामी का जबरदस्त विरोध करते हैं।
दूसरे, मेरा भी मानना है कि दलित समाज से जुड़ा व्यक्ति किसी द्वीप विशेष पर तो रह नहीं रहा है। वह एक विविधताओं से भरे समाज, राष्ट्र और ग्लोबल विलेज का नागरिक है। जब तथागत और बाबा साहब का चिंतन दर्शन लोकल से लेकर ग्लोबल तक बेहद व्यापक है और प्रासांगिक भी, तो फिर हम होते कौन हैं इसे जातियों की संकीर्ण दीवारों मैं कैद करने वाले। इसलिए हमारे चिंतन-मनन व लेखन के विषय लोकल से लेकर ग्लोबल तक क्यूं नहीं होने चाहिए। मुझे लगता है हमें इस नजरिए पर गंभीर चिंतन-मनन की जरूरत है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि व्यक्ति या लेखक जाति या धर्म से जुड़े ज्वलंत लोकल मुद्दों पर अपनी लेखनी या जुबान न चलाए। यद्यपि मैं बाबा साहब व तथागत के चिंतन-दर्शन से बेहद प्रभावित हूं लेकिन फिर भी आज मैं किसी एक या समूह विशेष का लेबल्ड होने में विश्वास नहीं करता हूं। मैं अपनी निजी वैचारिक स्वतंत्रता को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करता हूं। यह मुझे आनंद की अनुभूति कराता है, सुकून देता है।
जहां तक अस्मिताओं का प्रश्न है, अस्मिताएं अनेक प्रकार की हो सकती हैं। वे निजी भी हो सकती हैं और सामूहिक भी। संभवत: यहां आपका अस्मिता से अभिप्राय सामाजिक अस्मिता से है। इस अस्मिता के पुर्नस्थापना के लिए अनेक संगठन व संस्थाएं काम कर रहे हैं। यहां आपका आशय दलित लेखक संघों या अम्बेडकरवादी लेखक संघों से भी है। रावत जी, यह पूरा सच नहीं है कि मैंने अपने आपको किसी संगठनों से नहीं जोड़ा। शुरुआती दौर में मैं डा. तेजसिंह के साथ चार वर्ष यानी 2004 के अंत तक दलित लेखक संघ का हिस्सा रहा हूं। आज भी यदा-कदा मुझसे इनका हिस्सा बनने का आफर आते रहते हैं। लेकिन इनका हिस्सा न बनने के पीछे मेरी कुछ लॉजिकल मजबूरियां हैं।
मेरी पहली मजबूरी इस साहित्य विशेष के नामकरण ‘दलित साहित्य’ को लेकर है। जाहिर नाम ‘दलित साहित्य’ है तो संगठन भी इसी नाम से बनेंगे। इनके अलावा अम्बेडकरवादी लेखक संगठन भी हमारे आसपास कई मौजूद हैं। इनका नाम भले ही अम्बेडकरवादी लेखक संघ हो गया हो लेकिन चर्चा में दलित साहित्य, दलित कहानी , दलित कविता वगैरा-वगैरा के अलावा अम्बेडकरवाद शब्द के प्रतिनिधित्व की किसी वोकेबुलरी का यहां कुछ लेना-देना नहीं रहता। हां, आजकल स्वयं को अम्बेडकरवादी साहित्यकार होने का तमगा हर दलित साहित्यकार लगाने को आतुर रहता है लेकिन न उनकी वैचारिकी दलितपन के दायरे से बाहर आ पाई है और न ही लेखन के तौर-तरीके में इसको पुख्ता करने वाला कोई बदलाव ही आया है।
इस संबंध में मेरे लॉजिकल अलगाव की अगली वजह है कि ‘दलित’ शब्द किसी गरिमामय अस्मिता का प्रतिनित्व नहीं करता है और न ही कभी कर सकता है। कोई व्यक्ति न जन्म से जातियां लेकर पैदा होता है और न ही दलितपन। यह स्पष्ट है कि जातियों को जन्मजात और जीवन के अंत तक बनाए रखना ब्राह्मणवादी षडयंत्र का हिस्सा है और इसका विरोध निरंतर जारी है। इसी तर्ज पर क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि ‘दलित’ शब्द के कलंक को जन्मजात बनाने और जीवन के अंत तक चस्पा रखने की साजिश दलित शब्द के पैरोकारों की है? इस शब्द को लेकर बाबा साहब ने भी वाल्यूम चार के पेज 228-229 पर ‘नामकरण’ शीर्षक से अपनी असमहति व्यक्त की है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि जब कोई गरिमामय अस्मिता का पोषक शब्द नहीं मिल जाता तब तक अस्थाई पहचान के रूप से अस्पृश्य व बहिष्कृत जैसे शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है।
मेरी अगली असहमति यह है कि दलित शब्द को अस्मिता का चोला पहनाने के लिए यह तर्क आम है कि दलित लेखन डा. अम्बेडकर, बुद्ध, पेरियार, फुले, और संतों के चिंतन-दर्शन पर आधारित है। इसे सिरे से खारिज करता हूं और कहना चाहता हूं कि बाबा साहब ने इसे कभी सहमति नहीं दी है। मेरा सवाल यह है कि क्या बाबा साहब ने सिर्फ ‘जाति’ के विषय पर ही अपना चिंतन-दर्शन दिया है ? क्या उन्हें मात्र सामाजिक असमानता के विषय के विद्वान के आधार पर 100 सर्वोच्च इंटलक्चुअल में श्रेष्ठतम माना जाता है या उनके बहुआयामी उल्लेखनीय चिंतन-दर्शन के आधार पर? लेखन के दायरे में बाबा साहब को जातियों तक सीमित कर बौना करने की नासमझी कौन-सी श्रेणी में आता है, यह तो दलित शब्द के पैरोकार ही तय कर सकते हैं। मेरा मानना है कि बाबा साहब के व्यापक चिंतन-दर्शन की छाप मौजदा दलित साहित्य में नहीं है।
जहां तक पेरियार का मसला है उन्होंने ‘सेल्फ-रिस्पेक्ट मूवमेंट’ चलाया था और राजनीति की बड़ी से बड़ी पेशकश तक ठुकरा दी थी। इसलिए वहां समाज में मौजूद अस्मिता की गूंज आज भी बराबर बरकरार है। फुले ने ‘सत्यशोधक समाज’ बनाने के लिए आन्दोलन चलाया जिसमें कहीं भी हीनताबोध के लिए कोई स्थान नहीं है। यह जबरदस्त अस्मितापरक पहचान का द्योतक है। बुद्ध ने बौद्ध बनाने की बात की थी मुझे नहीं लगता कि उनके चिंतन-दर्शन में कहीं भी व्यक्ति व समाज को दलित या जातियों को मजबूत करने के लिए कोई फार्मूला दिया हो। अगर दिया है तो दलित साहित्यकार देश-दुनिया को बताने में अपनी विद्वता का प्रदर्शन करें। पूरा संत साहित्य जातियों की कुरुपता और इनके विरुद्ध आन्दोलन से भरा पड़ा है। ये सभी व्यक्ति को नकारात्मक अस्मिता के विरुद्ध जंग छेड़े हैं, न कि खुद नकारात्मक अस्मिता की स्थापना करने व इसे ओढ़ कर जीवनयापन के लिए आन्दोलित रहे हैं।
बड़ी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि अनेक मामलों में ये साहित्य व संगठन दलित को लेकर कभी राजनीति करते नजर आते हैं तो कभी हथियार की तरह इसे इस्तेमालकर जंग लड़ते नजर आते हैं। मुझे साहित्य की ऐसी राजनीति और राजनीति के ऐसे साहित्य की जंग दोनों से डर लगता है। इसलिए ऐसे किसी भी साहित्य एवं संगठन का हिस्सा बनने के विचार मात्र से मेरा दम घुटता है। यह मुझे अपने तर्क-विवेक के साथ गद्दारी करने जैसा आभास कराता है जो मेरे व्यक्तित्व का कभी हिस्सा नहीं रहा और संभवत: न ही कभी आगे हो सकता है।
आप की नज़र में हिंदी में कितना साहित्य इस समय अम्बेडकरी कहा जा सकता है ?
अम्बेडकरवादी साहित्य से मेरा तात्पर्य उस साहित्य से है जो जीवन के किसी भी क्षेत्र विशेष में स्थापित लाईन को काट कर छोटा करने की अपेक्षा उसके समानांतर, उसी क्षेत्र विशेष में, तर्क-विवेक की सकारात्मकता कसौटी के आधार पर, दूसरी बड़ी लाईन खींच कर मौजूदा लाईन को बोना कर दे। डा. अम्बेडकर ने अपने चिंतन-दर्शन की रचनात्मकता को व्यापकता के उस शिखर पर पहुंचा दिया कि बाकी लाईने स्वत: ही छोटी होती चली गई। अब डा. अम्बेडकर की वैचारिक छतरी के नीचे लिखे जा रहे साहित्य व चिंतन में कितनी रचनात्मता है और कितनी व्यापकता की बुलंदी है, इसको समझना किसी भी साधारण से व्यक्ति के लिए भी मुश्किल नहीं है। इसलिए उदाहरण गिनाने की अपेक्षा मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि लोग इसे अपने ही नजरिए से देखें और निष्कर्ष पर स्वयं पहुंचे कि वे कितने अम्बेडकरवादी हैं और कितने जातिवादी यानी दलितवादी। वे स्वयं अपने अंदर झांक कर दूध का दूध और पानी का पानी आसानी से कर सकते हैं।
क्या दलित साहित्य ने राजनीति को प्रभावित किया या ये उत्तर भारत की बदलती राजनैतिक परिस्थितियों से उपजा साहित्य है?
मुझे ऐसा नहीं लगता कि किसी भी ऐंगल से दलित साहित्य ने राजनीति को प्रभावित किया हो। इसके विपरीत राजनीति ने साहित्य और साहित्यकारों को जरूर प्रभावित किया है। हमने साहित्य को राजनीति की भाषा बोलते देखा है। साहित्यकारों को राजनीति के पीछे भागते देखा है जो राजनीति में प्रवेश के लिए किसी भी विचारधारा की बैसाखी धारण करने लिए लालायित रहते हैं। यहां नाम लेना उचित नहीं लेकिन हमारे सामने अनेक प्रत्यक्ष उदाहरण मौजूद हैं जहां दलित साहित्य से जुड़े व्यक्तियों ने अपने से धुर-विरोधी विचारधारा का दामन थामा और समाज के साथ धोखा किया है। दूसरे, मैं सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में एक ओर बात साझा करना चाहता हूं कि दलित साहित्य खुद अपने आपमें आईडियोलॉजिकल क्राइसिस से जूझ रहा है, फिर वह राजनीति का क्या मार्गदर्शन करेगा।
रावत जी, सिक्के का एक दूसरा पहलू यह भी है कि राजनीति की कोई आईडियोलॉजी नहीं होती। उसकी आईडियोलॉजी भी अगर कोई होती है तो वह है किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करना। किसी भी राजनीति की साहित्य जैसी वैचारिक प्रतिबद्धता व नैतिकता नहीं होती। यह अलग बात है कि साहित्य भी इन प्रतिबद्धताओं के साथ समझौता करने में पीछे नहीं है, खैर…। राजनीति में आदर्श जुमले का काम करते हैं जो जनता को गुमराह करने व उनके लोकतांत्रिक अधिकारों पर डकैती डालने के लिए उपयुक्त माहौल बनाने के काम आते हैं। दलित राजनीति में भी तथागत और डा. अम्बेडकर का इस्तेमाल कमोबेश मासूम जनता के इमोशनल ब्लैकमेलिंग के लिए नारेबाजी व जुमलेबाजी के सामान के रूप में किया जाता है, न कि उनके जीवन-दर्शन को अंगीकार कर समाज व राजनीति में अमूलचूल परिवर्तन करने के लिए, जो उन महापुरुषों का सपना था। आज के अवसरवादी युग में सफलता की सीढ़ी चढ़ने के लिए मासूम जनता को बेवकूफ बनाने की डिग्री ही सफलता या विफलता की कुंजी है। राजनीति में बाकी सब लफ्फाजी है, मक्कारी है, विचारधारा या आदर्श के मामले इससे अधिक कुछ नहीं। वैसे इनका किसी यथार्थ से कोई लेना-देना नजर नहीं आता।
वैसे भी आज की पतित राजनीति से किसी वैचारिक प्रतिबद्धता की अपेक्षा करना इसके साथ घोर अन्याय करना है। राजनीति साहित्य का अनुसरण या मार्गदर्शन तब स्वीकार कर सकती है जब समाज शिक्षित, विवेकशील व मानवीय मूल्यों का सम्मान करने वाला होगा। मुझे ऐसा कुछ निकट भविष्य में संभव होता नजर नहीं आता। स्पष्ट है कि न तो दलित साहित्य में राजनीति की मदद करने जैसी क्षमता है और न ही राजनीति किन्ही मूल्यों अंगीकार करने की नीयत ही रखती है। इसलिए मौजूदा परिस्थिति में मुझे लगता है, दलित साहित्य और दलित राजनीति के गठजोड़ या एक दूसरे के पूरक होने का ख्याल आसमान में कील ठोकने जैसा है।
दलित साहित्य में आत्मकथाओं ने बहुत धूम मचाई है. बहुतों के विभिन्न भाषाओं में अनुवाद भी हुए हैं. आपको क्या पसंद है और क्यों ?
मुझे लगता है सामान्य वर्ग द्वारा आत्मकथा लिखने के पीछे जो कॉमन मोटिव होता है कि व्यक्ति विशेष ने किन-किन संघर्षों और विषम परिस्थितियों से गुजरते हुए सफलता की कितनी बुलंदियों को छुआ है। इसके केन्द्र में व्यक्ति का निजी जीवन होता है। सामान्यत: इसके दो मोटिव होते हैं, एक-अपनी लोकप्रियता को पब्लिसाइज़ करना और दूसरा पाठकों के पक्ष में होता कि वे इससे कितनी प्रेरणा हासिल करते हैं और अपनी बुलंदी के कितने नए किर्तिमान स्थापित करते हैं। यह अलग प्रश्न है कौन व्यक्ति अपनी आत्मकथा में तथ्यों के साथ कितना खिलवाड़ या मैनिपुलेशन करता है। मुझे लगता है कि आत्मकथा में मैनिपुलेशन की संभावनाएं निरंतर बनी रहती हैं।
जहां तक दलित आत्मकथाओं यानी स्वकथनों का प्रश्न है। स्वकथनों के पैरोकारों के द्वारा यह दावा किया जाता है कि ये परंपरागत आत्मकथाओं की तरह व्यक्ति केन्द्रित न होकर तथाकथित समाज केन्द्रित होती हैं। बगैर नामों का उल्लेख किए मुझे यह कहना जरूरी महसूस हो रहा है कि बहुत सारे दलित लेखकों ने बगैर सफलता की बुलंदियों को छुए अपने स्वकथन लिख डाले। इनका एक पूर्व-निर्धारित लक्ष्य आत्मकथा को ढाल बनाकर लोकप्रियता हासिल करना हो सकता है। दूसरा, बाद में साहित्य सृजन में इस लोकप्रियता का लाभ लेना भी हो सकता है। इसमें समाज का कितना हित होता है और खुद का कितना, यह अलग से विचारणीय पहलू हो सकता है। खैर…
आत्मकथा/स्वकथन के मामले मुझे लोकप्रियता हासिल करने के ओछे हथकंडे आहत करते हैं। इस मामले सबसे महत्वपूर्ण तत्व स्वकथन का कंटेंट है। मुझे यहां बहुत बड़ी गफलत नजर आती है। लोकप्रियता हासिल करने के चक्कर में हमारे कुछ मित्रों ने आत्म-उत्पीड़न को इतनी हवा दी की इसकी आंधी में खुद व परिवार के पुरुषों के साथ-साथ पत्नी, मां-बहन और पूरी नारी अस्मिता के जिस्म से आंचल तक गायब हो गए। कुछ ज्यादा बेड़े विद्वान मित्रों ने अपने निजी पारिवारिक फेलियर को भी दलित सहित्य में सहानुभूति एनकैश करने का औजार बना डाला और स्टाडम की दौड़ में सवार हो गए। बकौल राजेन्द्र यादव ‘दलितों का सारा लेखन स्वर्णों के खिलाफ आरोप-पत्र जैसा है।’ मेरे एक मित्र डा. राजेश चौहान दलित साहित्य को पुलिस एफआईआर की तर्ज पर लिखे होने के रूप में देखते हैं। मेरी दृष्टि में दलित आत्मकथा/स्वकथन साहित्य की अन्य विधाओं से ज्यादा बड़े आरोप पत्र हैं। यह अपने-आपमें एक विवाद का विषय हो सकता है, जाहिर है भी।
जहां तक मुझे समझ आता है आत्मकथा लेखन में तेजी के पीछे गैर-दलित साहित्यकारों की घृणित मानसिकता भी इसका एक बड़ा कारण है। इन्होंने दलित स्वकथनों को चटकारे लेकर पढ़ा, जानबूझकर अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों की बजाय इनको प्राथमिकता दी और विभिन्न मंचों से इन्हें प्रचारित-प्रसारित कर आग में घी का काम किया। हमदर्दी के अंबार लगा दिए। लेकिन जब दलित साहित्य के शोषण उत्पीड़न के मुद्दों पर साथ खड़े होकर बुराई के विरुद्ध सामूहिक लड़ाई का हिस्सा बनने की बात आती है तो राजेन्द्र यादव जैसे दलितों के स्वघोषित मसीहा अपना पल्ला झाड़ लेते हैं और तर्क देते हैं-जमींनी लड़ाई तो दलितों को स्वयं लड़नी पड़ेगी, हंस साहित्य तो सिर्फ हवाई हमले करता है।
मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा लेकिन यह मेरी निजी मान्यता है कि दलित स्वकथनों में उत्पीड़न छिपाने की जरूरत नहीं है। दरअसल हमारा फोकस उत्पीड़न का सेंसेशनल बनाने की बजाय इसपर बात होना चाहिए कि हमने कितना इंटेलीजेंटली मुद्दे का हेंडल किया और भविष्य में इन्हें रोकने और इनसे मुक्ति के कितने नए विकल्पों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। कंटेंट का विस्तार अपने क्रियाकलापों का होना चाहिए, न कि उत्पीड़न के तौर-तरीकों का। अगर हमारे दलित भाइयों को यह लगाता है कि उत्पीड़न का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन और उत्पीड़क को अधिक से अधिक जल्लाद दिखाने से हमारी समस्या के सुलझाने में कुछ मदद मिलेगी, मुझे ऐसा नहीं लगता। इसके विपरीत उत्पीड़न के विरूद्ध हमारी जंग, हमारा होंसला अपने समाज के लोगों में ऊर्जा देने का काम करेगा और हम अपनी लड़ाई खुद लड़ने और जीतने की ओर अग्रसर होंगे। मुझे लगता है कि हमें आग को आग से बुझाने के विकल्पों की बजाए आग को पानी से बुझाने की विकल्पों को भी तलाशना होगा और उन्हें प्राथमिकता दिए जाने के लिए आगे आना होगा।
आज दुनिया में जो राजनितिक परिदृश्य है उसमें दलित साहित्य अथवा अम्बेडकरी साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है?
रावत जी, जैसाकि मैंने पहले कहा कि आज हम किसी जाति विशेष के संवाहक ही नहीं करते हैं बल्कि विविधताओं से परिपूर्ण भारतीय समाज, राष्ट्र और ग्लोबल विलेज का अभिन्न अंग हैं। आज कोई भी आन्दोलन देश की सीमाओं में कैद नहीं रह सकता। यह देश की सीमाओं से परे विश्व में अपनी गूंज दर्ज करता है। अमेरिकन अश्वेत नागरिक जार्ज फ्लॉएड ही हत्या ने अमेरिकन राजनीति में हलचल पैदा कर दी इसने दलित साहित्य व समाज को भी उद्वेलित किया जिसकी गूंज अपनी सत्ता के गलिहारे तक गई।
इसी तर्ज पर हाथरस की गुडि़या के बलात्कार, हत्या और रात के अंधेरे में परिवार की गैर-मौजूगी में उसके शव के दहन किए जाने से यूपी और देश की राजनीति में भूचाल ला दिया था। उत्पीड़न के मामलों में एक देश के उत्पीडि़त दूसरे देश के उत्पीडि़तों से प्रेरणा ही नहीं, ऊर्जा भी लेते हैं। विदेशी सरकारों व विश्वविद्यालयों में बाबा साहब के सम्मान व स्वीकार्यता से जुड़े गरिमामय क्रियाकलाप और इसी तर्ज पर हमारे देश में अश्वेत आन्दोलन और मार्टिन लूथर किंग की स्वीकार्यता ऊर्जा के अद्भुत स्त्रोत हैं। इनके चिंतन-दर्शन से प्रभावित साहित्य, समाज व राजनीति की अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और विदेशी सदनों तक में गूंज विश्व-राजनीति को प्रभावित करते हैं। जितना तथाकथित दलित/अम्बेडकरवादी साहित्य सोद्देश्यता की कसौटी पर खरा उतरेगा और राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों को प्रभावित करेगा उतना ही वह देश की राजनीति के साथ-साथ विश्व-राजनीति व विश्व समुदाय को प्रभावित करेगा।
क्या आपको लगता है कि अभी तक का दलित साहित्य ब्राह्मणवाद की आलोचना तक सीमित है, उसमें विकल्प में उतना जोर नहीं दिया गया है ?
रावत जी, काश! मैं कह पाता कि यह आरोप गलत है। इसके विपरीत न चाहते हुए भी मुझे इस मुद्दे पर पुन: मुझे राजेन्द्र यादव और राजेश चौहान के साथ खड़ा होना पड़ रहा है। जैसाकि मैंने आत्मकथाओं के संबंध में आपसे पहले साझा किया है। मैं इसे पुन: दोहरा देना चाहता हूं जो जरूरी भी है और प्रासांगिक भी। बकौल राजेन्द्र यादव ‘दलित का सारा लेखन सवर्णों के खिलाफ आरोप-पत्र जैसा है।’ यही बात डा. राजेश चौहान के अनुसार-दलित साहित्य ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एफआईआर की तरह लिखा गया है, ऐसी किसी एफआईआर के आधार पर कार्यवाही होना बड़ी बात है।
मैं क्षमा याचना के साथ कहना चाहता हूं कि लगभग पचास वर्ष की लम्बी यात्रा के बावजूद दलित साहित्य आज भी इसी पैट्रन पर लिखा जा रहा है। यहां मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा हूं। इसके लिए मैं मोटे तौर पर इस साहित्य के वरिष्ठ साहित्यकारों को भी जिम्मेदार मानता हूं। उन्होंने कनिष्ट रचनाकारों के आरोप-पत्र रूपी साहित्य के न तो खतरों को समझा और न उनका ईमानदारी से सहानुभूतिपूर्ण खंडन ही किया। मार्गदर्शन तो दूर की बात है। जब खंडन व मार्गदर्शन ही नहीं किया तो फिर परिवर्तन की उम्मीद कहां से आएगी। इसका दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है कि ये तथाकथित वरिष्ठ साहित्यकार स्वयं वैचारिक क्राइसिस के शिकार रहें हैं। दूसरे, खेद के साथ कहना पड़ रहा है मैंने खुद बहुत सारे वरिष्ठ साहित्यकारों को असुरक्षित व झूठी लोकप्रियता हासिल करने के लिए अशोभनीय हथकंडे अपनाते देखा है। इनके लेखन में भी निरंतर इनोवेटिव एप्रोच का जबदस्त अभाव नजर आता है। संभवत: ये इनोवेटिव एप्रोच को स्पेस ही नहीं देना चाहते। कहने की जरूरत नहीं कि दलित साहित्य की लगभग सारी ऊर्जा ब्राह्मणवाद को कठघरे में खड़ा करने में जाया हो रही है। गौलतब यह भी है कि इस संबंध में भी नया कुछ नहीं है जो पहले सैंकड़ों-हजारों बार न दोहराया गया हो।
मुझे इस समस्या के विकराल रूप धारण करने के पीछे आत्ममंथन का अभाव लगता है। शायद, हम यह मान कर चल रहें हैं कि ब्राह्मणवाद को बार-बार एक्सपोज करने से समता, स्वतंत्रता व बंधुता का लक्ष्य प्राप्त हो जाएगा। दूसरी वजह यह भी है कि हम आत्ममंथन से डरते हैं। यदि कोई अपने अंदर का व्यक्ति भी अपने अंदर की कमजोरियों को सार्वजनिक करता है, तो उसे दुश्मन की तरह देखा जाता हैं और ब्राह्मणवादियों की श्रेणी में रखकर उसकी आलोचना करते हैं। मेजोरिटी के दम पर उसे हतोत्साहित व बायकाट करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि अम्बेडकरवाद और आजीवक (यहां मैं आजीवक के फर्जी पैरोकारों की बात नहीं कर रहा हूं।) के पैराकार इस मेजोरिटी आतंक के शिकार हुए हैं क्योंकि इन्होंने संवाद के अवसरों की सामूहिक हत्या कर दी गई।
मुझे इसकी एक खास वजह यह भी नजर आती है कि हम अपनी गंदगी तो कार्पेट के नीचे छिपाकर रखना चाहते हैं लेकिन सामने वाले की गंदगी को दशकों से एक ही अंदाज में उछाले जाने से कभी बोर नहीं होते। शायद ऐसा करने में हमे सोचने-विचारने के लिए कोई मेहनत-मशक्कत की जरूरत नहीं होती है। सब माल मुफ्त में उपलब्ध है। यह तो वही बात हो रही है, मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन।
यदि मैं इसे दूसरे रूप में बताने का प्रयास करूं तो स्थिति ज्यादा स्पष्ट हो सकती है। दरअसल, हम निरंतर आईने को साफ करने में हलकान हुए जा रहे हैं और यह नहीं समझ पर रहे हैं कि गंदगी आईने में नहीं, गंदगी हमारे फेस पर है। यदि हमने अपने फेस को साफ कर लिया तो आईना साफ करने में ऊर्जा जाया करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। यहां मेरा तात्पर्य आत्ममंथन से है जिस दिन हमने आत्ममंथन से उपजे निष्कर्षो को ईमानदारी से अंगीकार कर इस पर काम करना शुरु कर दिया हमें अपनी अधिकतर समस्याओं के समाधान के लिए दूसरों का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा।
बहुत से साहित्यकारों ने बुद्ध और कबीर की जातिया भी ढूंढ निकाली ? क्या कहेंगे इस विषय में ?
रावत जी, इसमें कोई संदेह नहीं है भारत में जाति एक ऐसा कोढ़ है जिसे निरंतर खुजलाए जाने की जरूरत रहती है ताकि यह कोढ़ निरंतर बना रहे और इसका उपचार न हो सके। इसका लाभ जातिवादियों को मिलता है जो जाति की विरासत में निरंतर फल-फूल रहे हैं। लेकिन दलित साहित्यकार जाने-अनजाने इस छूत का शिकार हो गए हैं। इसलिए इनके सोने-जागने, उठने-बैठने और सांस लेने तक में जाति ने अपनी घुसपैठ कर ली है। बाबा साहब ने जातिवादियों के बारे एक बड़ी खूबसूरत बात कही थी जो सार रूप में कुछ इस प्रकार है-उनके लिए नैतिकता, न्याय और व्यवहार जाति के आधार पर तय होता है। यदि व्यक्ति उनकी अपनी जाति का है तो नैतिकता, न्याय और व्यवहार के सारे मानदंड अलग होंगे, सकारात्मक होंगे। यदि व्यक्ति किसी दूसरी जाति का है तो यही मानदंड एकदम अलग होंगे यानी नकारात्कमक होंगे।
खेद का विषय है कि दलितों ने जातिवादियों से लड़ने के लिए जाति को अपना हथियार बना लिया है। बकौल तथागत आग से आग कभी नहीं बुझती यह पानी से बुझती है। इसलिए मुझे लगता कि दलित साहित्य जाति के टूल से जाति उन्मूलन की जंग कभी नहीं जीत पाएगा। मुझे ऐसा लगता है दलित साहित्यकारों के कारतूस बैक-फायर कर रहे हैं इसलिए ये अपनी जातियों को मजबूत कर रहे हैं और जातियों के महिमंडन के इतिहास लिख रहे हैं। ये प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जातियों के आधार पर गोलबंद हो रहें हैं और इसी आधार पर संगठन बना रहे हैं। ऐसा कार्य करके ‘दलित’ को वर्ग या ब्रोडर यूनिटी बनाने की अपेक्षा अपने अंदर एक घातक विभाजन को जन्म दे रहे हैं।
यह इनके जातिवादी कारतूसों के बैक-फायर का ही परिणाम है कि हम तथागत बुद्ध, कबीर, डा. अम्बेडकर, फुले, पेरियार आदि सभी को जाति की कीच में घसीटने से बाज नहीं आते। फर्जी आजीवक के पैरोकारों ने तो इस कीच को दलदल का अखाड़ा बना छोड़ा है। वे खुद तो इस दलदल में फंसे हैं और अन्य को भी इसी दलदल में फंसाकर अपनी चौहदराट स्थापित करने के पक्षधर हैं। लगता है हर साख पे उल्लू बैठा है, मगर यह तो समय ही बताएगा कि अंजाम ए गुलस्तिां क्या होगा।
महिलाओं के प्रश्न पर भी बहुत द्वन्द नज़र आते है। कई बार तो बेहद अशालीन भाषा का इस्तेमाल होता है। मैं जानना चाहता हूँ ये ‘जार कर्म क्या होता है और आप ऐसी भाषा को किस सन्दर्भ में देखते है?
रावत जी, मुझे इस बात को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि महिलाएं पुरुषवादी मानसिकता का शिकार कल भी थी और आज भी हैं। इसके प्रमाणिक उल्लेख महिलाओं के लेखन और उनकी आत्मकथाओं में बराबर देखने को मिलते हैं। महिलाएं आमतौर पर दो स्तर पर अभिषाप झेलती हैं। एक-परिवार के स्तर पर और दूसरे परिवार से बाहर। लेकिन दलित महिलाएं एक तीसरा अभिषाप भी झेलती है, वो है-दलित महिला होने के नाते। लेकिन जैसाकि मैंने पहले जिक्र किया है कुछ हमारे अधिक विद्वान साथी अपनी पारिवारिक असफलताओं के कारण कुंठाग्रस्त हो जाते हैं। वे अपनी कुंठाओं को साहित्य का सामान बनाते हैं और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की मुहिम चलाते हैं।
ऐसे मामले में मुंशी प्रेमचंद की कहानी कफन का अक्सर इस्तेमाल किया जाता है। मेरे पास नाम लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, इसलिए डा. धर्मवीर के नाम का उल्लेख करना मेरी मजबूरी है क्योंकि वर्तमान संदर्भ में ‘जार-कर्म’ के पद का इस्तेमाल उन्हीं ने किया है। वे मुंशी प्रेमचंद के परिवार को लेकर और प्रेमचंद की नीली आखों को लेकर उनपर जार होने का आरोप लगा चुके हैं। कफन कहानी के संबंध में भी बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा बताकर ठाकुर को नहीं, बुधिया को जार-कर्म का दोषी ठहराते हैं और घीसू व माधव के असंवेदनशील व गैर-जिम्मेदाराना आचरण को प्रतिरोध के रूप में देखते हैं, ठीक ठहराते हैं।
इतना ही नहीं डा. धर्मवीर साहित्य की जंग को अपने तक भी घर ले जाने में संकोच नहीं करते हैं। वे अपनी आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेडि़या’ में एक प्रकार से अपनी पत्नी को बुधिया की तर्ज पर अपराधी ठहराते हैं और खुद घीसू और माधव की तर्ज पर स्वयं प्रतिकार करते नजर आते हैं। यहां भी जब उन्हें अपनी कुंठा राहत नहीं मिलती तो वे अपनी कुंठा को पूरे दलित समाज पर थोपते हैं। वे दलित समाज की महिलाओं को जार की श्रेणी में रखकर टिप्पणी करते है कि दलित पुरुष गैर-दलितों की अवैध संतानों की परवरिश के लिए अभिषप्त हैं। बड़े खेद का विषय है कि अपनी पत्नी व पूरे समाज की महिलाओं को जार-कर्म से आरोपित करना हिन्दूवादी किसी भी धर्मग्रंथ में नहीं मिलेगा, लेकिन धर्मवीर के यहां सक जायज है। आज डा. धर्मवीर हमारे बीच नहीं हैं, संभवत: वे सारी कुंठाओं से मुक्त हैं लेकिन वे अपने पीछ फर्जी आजीवकों की एक छोटी-सी फर्जी जमात पीछे छोड़ गए हैं वो आज भी उनके द्वारा की गई जुगाली को अपने मुंह में लिए बैठे हैं और समय-समय पर जार कर्म को लेकर अपना मुंह चलाने से बाज नहीं आते। संभवत: समय ही करेगा उनके भी भविष्य का फैसला, मुझे उनके बारे में कुछ और नहीं कहना है। जाहिर है, जरूरत भी नहीं है।
आर्थिक उदारीकरण के दौर में हमारे साहित्य को क्या पूंजीवाद के खतरों को भी अपने अजेंडा में शामिल नहीं करना चाहिए ?
रावत जी, जैसाकि मैंने आपसे शुरु में चर्चा की है कि दलित समाज का व्यक्ति या गैर-दलित समाज का संवाहक, वह विविधताओं से भरे समाज और राष्ट्र का नागरिक भी होता है। इस नाते वह ग्लोबल विलेज का नागरिक भी स्वत: ही हो जाता है। इसलिए प्रत्येक नागरिक की स्वत: जिम्मेदारी हो जाती है कि वह लोकल के साथ-साथ ग्लोबल मुद्दों के प्रति भी जागरुक बना रहे और अपनी यथासंभव रचनात्मक भूमिका अदा करता रहे। इसलिए पूंजीवाद या उदारीकरण ही व्यक्ति के अजेंडे में शामिल नहीं रहेंगे बल्कि प्रत्येक मुद्दा विश्व नागरिक के ऐजेंड में रहेगा। गौरतलब यह है कि सबसे महत्वपूर्ण विषय प्राथमिकता निर्धारण का रहेगा। कौन-सा मुद्दा कब, कैसे और कितना अपने अजेंडे पर रहेगा, यह समय, काल और परिस्थितियां तय करेंगी। उम्मीद है आप मेरा आशय समझ गए होंगे।
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