कोरोना महामारी और दिल्ली का एक दलित मजदूर

(समाज वीकली)- कुछ दिनों से बीमार चल रहे जेएनयू के एक सफाई कर्मचारी को, मैंने आज शाम फोन लगाया। कल ही उससे बात हुई थी। उसने खुद मुझे फोन किया और कहा कि “मोबाइल आज ही मेरे पास आया है। आप का कॉल देखा तो बात करने की सोची।” सफाई कर्मचारी अभी दिल्ली के एक अस्पताल में जेर-ए-इलाज है। मुझे बेड पर लेटे ही, कल उसने मुझे फोन लगाया था और कहा, “अब ठीक हो रहा हूं।” यह सुनकर बड़ी खुशी हुई। मैंने उसको सलाह देते हुए कहा, “ख्याल रखिए, आप। कुछ दिन और एहतियात रखना होगा। कोरोना के केस काफी बढ़ रहा है। अच्छा खाना भी खाना होगा। साफ पानी पीजिए, और वह भी ढेर सारा…।” उसने मेरी बात में “हां” मिलाते हुए कहा ,”भैया, मैं पूरी बातों का ख्याल रख रहा हूं।” मैने फिर कहा कि खाने पीने की कमी मत कीजिएगा। फल, दूध, और सब्जी खूब लीजिए। पैसे की परवाह मत कीजिए। कहीं से मैनेज किया जाएगा।” मेरी बात काटते हुए सफाई कर्मचारी ने कहा, “अभी कोई दिक्कत नहीं है। हम मेहनत की कमाई खाने में यकीन रखते हैं।”

यह कल की बात है। बिलकुल चौबीस घंटे पहले की। कल शाम को सब कुछ ठीक मालूम लगा। आज फिर फोन लगाया। घंटी देर तक बजती रही। सोचा कि शायद सफाई कर्मचारा आराम कर रहा होगा। घंटी बज रही कॉल को कटने ही वाला था कि फोन पिक कर लिया गया। मैने कहा, “भाई कैसे हैं? मैं अभय बोल रहा हूं।” उधर से जो आवाज आई वह नई थी। फोन उठाने वाला शख्स सफाई कर्मचारी का छोटा भाई था। छोटा भाई किसी प्राइवेट हॉस्पिटल में काम करता है, और दिल्ली में जमुना पार भजनपुरा के आसपास कहीं रहता है। “भैया की तबियत खराब है। ऑक्सीजन चढ़ रहा है।”

“कल तो तो ठीक थे, अब क्या हो गया?”, मैने पूछा।

सच पूछिए आजकल हर कॉल को रिसीव करते डर लगता है। अगर कोई कॉल मिस्ड हो जाए, तो दिल में बुरे बुरे ख्यालात दौड़ने लगते हैं। “क्या मालूम वह….नहीं, नहीं!”

फोन पर किसी न किसी के जाने की खबर आ रही है। आज इंसान इतना कमज़ोर होता है, यह अब खुल के दिख रहा है। कई हफ्तों से मेरी उर्दू की क्लास बंद है। दिल ही नहीं करता पढ़ने का।

मगर कई लोग यह भी नसीहत करते हैं कि “खुद को बिजी रखो”। “टाइम को अच्छे कामों में लगाओ।” इसी नसीहत को मानते हुए कल मैंने अपने स्टूडेंट्स से मैसेज करके पूछा, “अगर आपलोग तैयार हों, तो इस हफ्ते से क्लास दुबारा शुरू की जाए?” एक ने जवाब दिया, “अभी हम क्लास लेने की हालत में नहीं हैं।” दूसरे छात्रा का जवाब और भी दर्दनाक था, “मेरे दो रिश्तादार गुजर गए हैं। अभी मैं क्लास नहीं ले पाऊंगी।” मुझे यह सब सुन कर मन बहुत दुख हुआ। और क्लास को सस्पेंड रखने का फैसला लिया गया।

कॉल, फोन, मैसेज आजकल बड़े डरावने लग रहे हैं। कुछ ऐसा ही मैसेज मुझे सफाई कर्मचारी के भाई ने भी दी। “डॉक्टर ने तो दो दिन पहले कहा था कि छुट्टी मिल जाएगी। मगर फिर रात से भाई की तबियत बिगड़ने लगी। एक ही पल में ठीक हो जाते हैं, और दूसरे पल बीमार। अभी उनका ऑक्सीजन लेवल स्टेबल नहीं है। नब्बे से नीचे गिर जा रहा है।”

ऑक्सीजन का कोई स्टैंडर्ड लेवल होता है, यह मैंने कोरोना काल में ही जाना। कोई “ऑक्सीमीटर” होता है, आजकल ही दोस्तों से सुना। यह भी सुन रहा हूं कि ऑक्सीमीटर बाजार में मौजूद नहीं है। फिर कोई कहता है कि बड़े महंगे दाम में इसकी कालाबाजारी हो रही है। एक मेरे दोस्त को उसके किसी दोस्त ने ऑनलाइन ऑक्सीमीटर का लिंक भेजा और इसे जल्दी से खरीदने को कहा।

पेमेंट आनलाइन करना था। इसलिए दोस्त ने मुझसे गुजारिश की कि मैं इसका नेट से पेमेंट कर दूं। इसकी जरूरत दोस्त ने अपने बुज़ुर्ग पापा और मम्मी के लिए महसूस किया। दिल्ली से इसे आनलाइन बुक किया गया, जो यहां से हजार किलो मीटर का सफर तय करके उसके घर पहुंचेगा।

ऑक्सी मीटर की खरीदारी पर दोस्त को बड़ा सुकून महसूस हुआ। अभी भी ऑक्सी मीटर घर नहीं पहुंचा है। एक छोटे से मशीन के लिए, जो इलेक्टोनिक घड़ी की तरह है, की कीमत आज कल दो हजार रूपये है। आपदा में कौन कहता है अवसर का मौका नहीं होता? अवसर उन्हीं को मिलता है, जो अवसर बनाना जानते हैं।

मगर सफाई कर्मचारी के परिवार आपदा में कब से घिरा है। उसका इलाज प्राइवेट हॉस्पिटल में चल रहा है। सुना है कि जेएनयू के छात्रों ने उसके लिए पैसा इकट्टा किया था। नहीं तो हालत और भी खराब हो गई होती।

प्राइवेट अस्पताल के मालिक को बीमार इंसान के बदन में पीड़ा और दुख के बजाए पैसा दिखता है। वह चाहता है कि लोग हर रोज बीमार पड़े और अस्पताल आबाद हो। निजी अस्पताल का चक्कर मार चुका कोई भी इंसान जनता है कि जितना दर्द सुई लगने से मरीज को महसूस नहीं होता है, उससे ज्यादा दर्द शायद पैसे इकट्ठा करने वाले मरीज के घर वालों को झेलना पड़ता है। मुझे याद है, दो साल पहले मेरे पिताजी बीमार थे। जब एक दिन उनको बुखार काफी बढ़ गया, तो मैं उनको लेकर पटना के एक अस्पताल गया। अस्पताल में सुई तब तक न लगी, जब तक सुई देने से संबंधित मैंने पेमेंट अदा नहीं किया।

सफाई कर्मचारी आज कोरोना काल में बेहद बीमार है। उसे कोरोना नहीं बल्कि जालिम सिस्टम मार रहा है। सफाई कर्मचारी जेएनयू में कई सालों से काम करता रहा है। याद रखने की बात है कि जेएनयू में पक्की नौकरी की जगह कच्ची यानी ठेकेदारी पर आधारित नौकरी सालों पहले कर दी गई। आपने भी मिडल क्लास को यह कहते हुए सुना होगा, “सरकारी नौकरी मिलने के बाद लोग काम नहीं करते। प्राइवेट में कितना काम होता है।”

इस तरह की अफवाह एक खास मकसद के साथ 1980 और 1990 के बाद से भारत में फैलाया गया। इस के पीछे सरकारी संपत्ति को निजी लोगों के हाथों बेचना था। मजदूरों की मजदूरी कम करनी थी, और उनसे काम ज्यादा लेना था।

अमीरों के इसी जाल में कई बार आम लोग भी फंस जाते हैं, और सरकारी डिपार्टमेंट और सरकारी कर्मचारी को गली देते हैं। इस से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सरकारी कार्यालय में भ्रष्टाचार है, और कुछ कर्मचारी अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं निभाते। मगर सर में दर्द होने पर सर फोड़ तो नहीं दिया जाता? अगर किसी इदारे में दिक्कत आ जाए, तो उसे ठीक करना बेहतर रास्ता है या उसे किसी निजी आदमी से बेच देना?

कभी आप ने सोचा है कि जो पब्लिक सेक्टर वर्षो से नुकसान में दिखाए जा रहे थे, उसको प्राइवेट कंपनी खरीदने के लिए इतना बेचैन क्यों रहती है? अगर बाजार में बैगन सड़ा होता है, तो उसे कोई नहीं खरीदता। जिस पब्लिक सेक्टर को सड़ा और गला कहके कौड़ी के भाव बेच दिया जाता है, वह कैसे प्राइवेट हाथों में जाने के बाद कैसे हरा भरा हो जाता है? आखिर “बेकार” पड़े पब्लिक सेक्टर की कोई कामयाब बिजनेसमेन खरीदना क्यों चाहता है?

आजादी के बाद पब्लिक सेक्टर का सब से ज्यादा फायदा पढ़े लिखे, अमीर बड़ी जातियों ने उठाया। दादा और पापा एसपी और डीएम बनें, रिश्तेदार राजदूत बनकर रसगुल्ला काटें, सरकार के सचिव बन के देश की पॉलिसी बनाई और अपने बच्चों के देश और विदेश की सबसे अच्छी और महंगी तालीम दी। मगर जब इन आला आफिसर के बच्चे बड़े हुए और वह खुद नौकरी से रिटायर्ड हुए तो पब्लिक सेक्टर को बुरा भला कहने लगें, और उसे भारत की प्रगति में बाधा कहा।

उस वक्त पिछड़ी और दलित समुदाय के लोग पढ़ना लिखना शुरू किया था और सरकारी नौकरी के लिए फॉर्म भरे थे। मगर उन्हें नौकरी से दूर करने के लिए, पब्लिक सेक्टर को बेचा जाने लगा। पब्लिक सेक्टर को निजी सेक्टर बनाने का सबसे बड़ी चोट रिजर्वेशन पर पड़ा है और इसके सब से बड़े विक्टिम दलित, आदिवासी और पिछड़ी कास्ट रही हैं।

जेएनयू का बीमार सफाई कर्मचारी इसी पॉलिसी का मारा हुआ है। पहले जेएनयू में सफाई कर्मचारी सरकारी होते थे। सरकारी कर्मचारी की सैलरी आज कल चालीस से पचास हजार है। वही, बीमार सफाई कर्मचारी, जो प्राइवेट है और कॉन्ट्रैक्ट पर है, को दस से बारह हजार ही मिलते हैं। सरकारी कर्मचारी को रहने के लिए घर मिलता है और हेल्थ के अलावा और भी सुविधाएं। उनको हफ्ते में दो छुट्टी मिलती है। अगर वह बीमार हो जाएं, तो उसका इलाज जेएनयू के हेल्थ में उनका होता है।
मगर ऐसी सारी सुहुलियत कॉन्ट्रैक्ट वाले सफाई कर्मचारी से छीन ली गई है और ऊपर से उसको पीछे पांच महीनों से सैलरी भी नहीं दी गई थी। बहुत प्रदर्शन और हड़ताल के बाद उनको एक महीने की सैलरी रिलीज की गई।

जब जेएनयू का वीसी बीमार हो जाए, तो उसके लिए सारी हेल्थ फैसिलिटी है। मगर, एक ठेके पर काम करने वाला सफाई कर्मचारी बीमार हो जाए, तो उसे कोई स्वस्थ सुविधा नहीं। इससे बढ़कर कोई और नाइंसाफी और जुल्म हो सकता है?

मैं आप से ही पूछता हूं क्या यूनिवर्सिटी सफाई कर्मचारी के बगैर एक दिन भी चल सकती है? अगर जेएनयू का वीसी इस्तीफा कर दें और नई नियुक्ति एक साल तक न हो, तब भी यूनिवर्सिटी चल सकती है। और अगर सफाई कर्मचारी काम न करे तो यूनिवर्सिटी कितने दिनों तक चलेगी? एक दिन में ही यह नर्क बन जाएगी। कोई शक है आप को इस में?

सफाई कर्मचारी माता के कोख से सफाई कर्मचारी नहीं बनता। कोई नहीं चाहता आप का बाथरूम और टॉयलेट साफ करना। कोई चाहता दूसरे की गंदगी कोई साफ करना। आप फ्लोर को गंदा करे और उसे दूसरा चांद की तरह चमकाए और सुंदर बनाए।

भारत में सफाई कर्मचारी दलित है। कोई इक्का दुक्का किसी और जात से मिल जायेगा। भारत में सफाई कर्मचारी का होना जात पर आधारित समाज की गवाही देती है। यह डिवीजन आफ लेबर यानी कामों के बटवारे के जालिम सिद्धांत की अलामत है। यह डिवीजन आफ लैबरेर भी बन चुका है।

जाते जाते यह भी तो जान लीजिए कि जो जेएनयू आज अपने सफाई कर्मचारी को अकेला छोड़ दिया है, जो प्रशासन उसकी हाल खबर भी नहीं ले रहा है, उसीने सफाई कर्मचारी को दर्द भी दिया है।

खुद बीमार सफाई कर्मचारी ने कल मुझे बताया कि “मेरी तबियत खराब इस लिए हुई है कि सीने में बहुत सारा कचरा, गंदगी और इन्फेक्शन चला गया है। कुछ रोज पहले मुझेसे कहा गया कि जेएनयू सेंटर लाइब्रेटी के आठवें फ्लोर पर जाके कचरा साफ कर दो। बहुत दिनों से लाइब्रेरी बंद पड़ी थी, इसलिए वहां बहुत ही ज्यादा धूल और गंदगी जमा हो गया था और पेपर सड़ चुके थे। मैंने कहा कि मेरे तबियत ठीक नहीं है और मैं वह काम नहीं कर पाऊंगा। फिर मुझे आदेश दिया गया कि काम मत करना मगर दूसरों से काम तो करवा ही सकते हो। किसी की बात को ‘ना’ कहने की आदत नहीं है मेरी। मैं आठवें फ्लोर पर गया और काम करवाया। वही से मेरे सीने के अंदर धूल, मिट्टी, कचरा और इन्फेक्शन गया। उसके बाद मेरे तबियत खराब हुई और सीने में काफी तकलीफ हुई। मुझे नहीं मालूम किसने बाद में मुझे यहां हॉस्पिटल लाया।”

जिस जेएनयू ने सफाई कर्मचारी की जान जोखम में डाल दिया, उसे जरा भी मतलब नहीं कि वह कैसा है। प्रशासन में से किसी ने उसे अभी तक एक पैसे की मदद नहीं की है। और न ही प्रशासन ने कहा कि उसके इलाज की जिम्मेदारी खुद यूनिवर्सिटी उठाएगी।

यह सब सिर्फ हमारे देश में ही हो सकता है। ऐसा कर के ही शायद भारत “विश्वगुरू” बन सकता है। आप को क्या लगता है?

– अभय कुमार
जेएनयू
7 मई 2017

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