कोरोना: कब मास्क दफन होंगे….

अभय कुमार

(समाज वीकली)- एक, दो, तीन, चार, पांच….। जी, पांच दिन पहले, मैं घर से निकला था। आज फिर समान खरीदने के लिए, कदम बाहर निकालना पड़ा। पहले दूध, हरी सब्जी और धनिया पत्ती खत्म हुई। नेक्स्ट डे, बाकी सब्जी पीली पड़ने लगी। पानी छिड़ककर उसे हरा रखने की पूरी कोशिश की। कुछ हद तक, कामयाब रहा। मगर दिल्ली की सब्जी न जाने कहां से आती है कि एक से दो दिन बाद वह गलने और सड़ने लगती है। और रुई की तरह “फंगस” उस के ऊपर घर बना लेते हैं।

हरी सब्जी जब खत्म हुई, तो नेक्स्ट टारगेट कैबेज था। कैबेज थोड़ा ज्यादा टिकता है। गोल-गोल और काले-काले बैगन भी दूसरी सब्जी के मुकाबले ज्यादा दिनों तक टिक जाती है। कैबेज का भुजिया, बैगन का भरता और सब्जी ने एक-आध दिन और निकाल दिए। चिकन खाने का मन तो करता रहा है, मगर डर लगता है कौन जाए चिकन लेने। कभी-कभी सोचता हूं कि जब बड़ा-बड़ा इंसान कोरोना के शिकार बन रहे हैं, तो छोटा सा चिकन बचा होगा? मेरी इन बातों का कोई “साइंटिफ” आधार नहीं है, फिर भी डर और शक है कि जाता नहीं। अंगूर खट्टे हैं कि तरह मन को “कनसोल” करता हूं, “चिकन नहीं खाने से क्या हो जायेगा?”

जब बंगाल में हवाई चप्पल और सूती साड़ी पहनने वाली एक महिला ने दस लाख का सूट-बूट पहनने वाले नेता को हरा दिया, तो खुशी का इजहार सोशल मीडिया पर काफी हुआ। एक साहब ने खुशी में मछली और चावल और साथ में रसगुल्ला का फोटो शेयर किया। सही कह रहा हूं तस्वीर दिखकर मुंह में पानी आ गया। कोरोना लॉकडाउन में मछली भी बहुत खाने का मन कर रहा है। खूब सारी मिर्ची वाली मछली। खूब “डीप फ्राई” की हुई।

मछली कलतक जेएनयू के शंभू दादा की दुकान पर मिल जाती थी। मगर लॉकडाउन और कोरोना दे उससे भी हमें महरूम कर दिया। शंभू दादा की मछली के काफी लोग शौकीन हैं। मुझे उनके यहां “बाटा” और “प्रॉन” खाने का ज्यादा मन करता है। रोह मछली मुझे उतनी पसंद नहीं है, क्योंकि उसकी ग्रेवी मीठी-मीठी सी लगती है। मछली का मतलब है कि खूब सारी मिर्ची…..।

मछली खाने का शौक मुझे अपने गांव से मिला। मेरा गांव बिहार में गंडक नदी के किनारे बसा हुआ है। समझ लीजिए नदी के उसपर जिला गोपालगंज और इस पर चंपारण। बड़ी खुशी की बात है कि हमारी गंडक नदी अभी तक बहुत हद तक प्रदूषित होने से बची हुई है। गंडक को नारायणी नदी भी कहा जाता है, जो नेपाल से निकलकर सोनपुर में गंगा में विलीन हो जाती है। प्रदूषित न होने की वजह है कि इस नदी के किनारे अभी तक कोई उद्योग या बड़ा शहर नहीं बसा है। अभी भी नदी का पानी आप पी सकते हैं। पानी साफ दिखता है।

जब पानी साफ होगा तो पानी में रहने वाले जीव और जन्तु भी स्वस्थ होंगे। मछली भी सेहतमंद होगी। सच कहता हूं मैंने अपनी नदी की ताजा मछली से ज्यादा मीठी और लजीज मछली कहीं नहीं खाई है। वहां मछली बनाने कोई बड़ा शेफ नहीं आता है। न ही उसमें कोई खास कीमती और “सीक्रेट” मसाला पड़ता है। बनाना बहुत ही आसान होता है। अगर मछली नदी की हो, और ताजा हो तो आप को कुछ करने की जरूरत नहीं है। मछली को रगड़ के साफ कर लीजिए। फिर उसमें नमक और हल्दी डाल दीजिए। फिर गर्म तेल में डीप फ्राई करना होता है। मसाले में पीला सरसो, लहसुन, और मिर्च का पेस्ट बनाना होता है। पेस्ट को तेल में खूब फ्राई कीजिए। याद रखिए मसाला खूब पकना चाहिए। जब मसाला लगे कि अब जल सकता है, तो उसमें पानी डाल दीजिए। ग्रेवी न बहुत पतला होना चाहिए और न बहुत गाढ़ा। उबलते ग्रेवी में फ्रायड मछली डाल कर, थोड़ी देर उबाल लीजिए। फिर चूल्हा बंद कर, चावल के साथ खाइए।

आप सोच रहे होंगे मैं किन हसीन ख्वाबों में डूब गया हूं। आज तो खाने की मुसीबत है, और मैं मछली खाने की बात कर रहा हूं! आप की बात सही है। जब मुसीबत आती है, तो जीभ और मन और भी तरसने लगता है। हर चीज बड़ी बन जाती है। मेरे एक जेएनयू के दोस्त के पास पैसे नहीं होते थे। उनको गुलाब जामुन खाने का हर वक्त मन करता था। बार-बार मुझसे शिकायत करते कि मैं कभी उनको गुलाब जामुन नहीं ऑफर करता। करता तो था, मगर वह इसके इतने शौकीन थे कि उनको लगता था कि मैंने उन्हें लंबे वक्त से उन्हें मिठाई नहीं खिलाई है। जेएनयू में ट्रिपल ऐस की कैंटीन सुकांतो दादा चलते हैं। उनकी दुकान पर जब भी मेरे दोस्त जाते, गुलाब जामुन जरूर खाते। एक से तो कभी काम नहीं चलता था। दो, तीन और कभी-कभी चार चाहिए। गुलाब जामुन देखकर उनके चेहरे पर बड़ी खुशी आ जाती थी।फिर वह मेरी तारीफ करने लगते और कहते “देयर इज नो अन लाइक यू इन जेएनयू”।

अब मुझे मेरे दोस्त का दर्द समझ में आ रहा है। कमी की वजह से इंसान एक एक चीज के लिए तरस जाता है। आज कुछ ऐसा कोरोना लॉकडाउन ने कर दिया है। बहुत सारे लोग पैसे की कमी की वजह से खा पी नहीं रहे हैं। परेशानी और भूखमरी बढ़ रही है। मेरे साथ अभी तक इस तरह की दिक्कत तो नहीं है। मगर पैसे रहते, घर में समान नहीं रहता। बार-बार दिल करता है कि बाहर जा के कुछ अच्छा सा खरीद कर लाऊं, मगर दिमाग कहता है कि ज्यादा से ज्यादा टाइम रूम पर रहूं। आजकल दिल के ऊपर दिमाग ज्यादा भरी पड़ रहा है।

मगर, आज घर में नमक तक खत्म हो गया था। हरी सब्जी, दूध, मसाला, ब्रेड, अंडा के बगैर काम चल रहा था, मगर नमक ने मुझे घर से बाहर निकाल ही दिया। दो-दो मास्क लगाया। एक मास्क रास्ते में गिर पड़ा। हरी सब्जी ली। टमाटर के लिए दो दुकानों का चक्कर लगाना पड़ा। केला भी खरीदा। खीरा भी लिया। आलू और प्याज भी लिया। आटा, दूध, चाय, दाल, मसाला भी खरीदा। अंडे भी लिए। आखिर में चिकन लेने की भी हिम्मत की। मगर देखते ही देखते समान बढ़ता गया। ऊपर के फ्लोर तक बीस किलो से ज्यादा समान खींचने में जान निकल गई। किसी तरह धीरे धीरे ऊपर चढ़ा। कमरे में आते आते अंडे फूट कर पानी हो गए। चढ़ती सांस की बीच कपड़ा खोला। साबुन से नहाया। नहाते वक्त सोच रहा था “कहीं कोरोना…नहीं….”।

बस, एक ही तमन्ना दिल में है। कब यह कोरोना खत्म होगा। कब मैं खुले सांस में जीने लगूंगा। कब मुझे एक इंसान से डर नहीं लगेगा। कब मास्क दफन होंगे….।

– अभय कुमार
जेएनयू
5 मई, 2021

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