(समाज वीकली)
मेरी माँ
रोज सुबह निकल जाती है
हाथ में झाडू
मुँह पर ढाटा बाँध
और…….
उसके साथ-साथ
मुहल्ले की कई माँ निकलती हैं
इसी वेशभूषा में
चौराहे, गलियां और सड़के
चमका देती हैं,
लोगो के निकलने से पहले,
तो कहीं घरों में
शौचालय और गुसलखानो को
साफ करती हैं,
रसोई और कमरों को
छूने की इजाजत जो नहीं,
इन माँओ को।
कभी… रस्ते में
स्कूल जाते देख
अपने बालको को
दुबक जाया करती हैं
तो कभी…
अनदेखा कर जाती हैं
कम तनख्वाह में
बमुश्किल घर चला पाती हैं
नींव हैं ये…..
स्वच्छ्ता अभियान की
फिर भी…. डरती हैं
ग़रीब आँखो के छोटे सपने
टूट ना जाये
कच्चा काम है संविदा का
कहीं छूट ना जाये।।
पुस्तक : कब तक मारे जाओगे (जाति-व्यवस्था के घिनौने रूप को ढोने वाले समुदाय पर केन्द्रित काव्य-संकलन) / संपादक : नरेन्द्र वाल्मीकि / पृष्ठ 240 / मूल्य : ₹160 (डाक खर्च सहित) / प्रकाशक : सिद्धार्थ बुक्स, दिल्ली। पुस्तक प्राप्त करने के लिए संपर्क करें। मो. : +91 9720 866 612