शहीद-ए-आजम भगत सिंह: युग दृष्टा, युगपुरुष, वैज्ञानिक समाजवादी क्रांतिकारी, निर्भीक एवं स्वतंत्र पत्रकार

जन्मदिन पर विशेष लेख

डॉ. रामजीलाल

 

– डॉ. रामजीलाल
सेवा निवृत्त प्राचार्य , दयाल सिंह कॉलेज ,करनाल( हरियाणा)
– संपर्क सूत्र. 816 88 10760 e-mail –drramjilal1947@gmail.com

(समाज वीकली)- भगत सिंह (जन्म 28 सितंबर 1907 — शहादत 23 मार्च1931) का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ. इनके पिता जी नाम सरदार किशन सिंह और माता जी का नाम विद्यावती कौर था . इनके पिता सरदार किशन सिंह पर क्रांतिकारी होने के नाते अंग्रेजी सरकार के द्वारा 42 मुकदमें चलाए गए तथा वे 2 वर्ष से अधिक जेल में भी रहे. इनके चाचा सरदार अजीत सिंह भी क्रांतिकारी थे. क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उनको लाला लाजपत राय के साथ देश निकाला दे दिया गया था. दूसरे चाचा सरदार स्वर्ण सिंह की मृत्यु सन् 1910 में 23 वर्ष आयु में ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार के द्वारा दी गई यातनाओं के कारण जेल में हुई थी. हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि बचपन से ही भगत सिंह के रोम- रोम में क्रांतिकारी रक्त धारा का प्रवाह था. भगत सिंह एक मौलिक चिंतक, दार्शनिक, दूरदर्शी युग दृष्टा एवं युग पुरुष थे. वह एक तर्कशील चिंतक थे. उनका चिंतन वैज्ञानिक था. वह प्रथम श्रेणी के राष्ट्रभक्त होने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीयवाद तथा विश्व शांति एवं युद्धों के उन्मूलन के अत्यधिक समर्थक थे. वास्तव में भगत सिंह ‘ गंभीर व तर्कशील अध्येता’ तथा” पुस्तक कीट” थे. भगत सिंह को क्रांतिकारी विचारों तथा उत्कृष्ट शहादत के कारण समस्त विश्व जानता है. परंतु जनता के अधिकांश भाग को यह मालूम नहीं है कि भगत सिंह एक निर्भीक, स्पष्टवादी एवं क्रांतिकारी पत्रकार भी थे.

ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार के शोषण के विरुद्ध तथा स्वतंत्रता प्राप्ति हेतू राष्ट्रीय आंदोलन के लिए जनता को जागरूक तथा लामबंद करने के लिए राष्ट्रीय नेताओं ने अपने विचारों, सिद्धांतों, समाचारों और उद्देश्योंको जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए पत्रकारिता का बहुत प्रयोग किया गया. 19वीं शताब्दी में सुरेंद्रनाथ बनर्जी तथा दयाल सिंह मजीठिया तथा बीसवीं शताब्दी में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी ,जवाहरलाल नेहरू, डॉ. भीमराव अंबेडकर तथा असंख्य नेताओं ने जनता को जागरूक करने के लिए तथा अपने विचारों को जनता तक पहुंचाने के लिए समाचार पत्रों की स्थापना की. ब्रिटिश के विरुद्ध प्रचार करना कोई आसान कार्य नहीं था. राष्ट्रीय नेताओं को समाचार पत्र लेख लिखने के लिए कारण कैद की सजा तथा जेलों में डाला गया, जुर्माने, नाना प्रकार के अत्याचार किए गए तथा प्रेस और दफ्तरों पर पुलिस द्वारा प्रतिबंध लगाकर जब्त कर लिया जाता था.

भारत के विभिन्न भागों में क्रांतिकारियों तथा क्रांतिकारी संगठनों के द्वारा भी ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपने विचारधारा को जनता तक पहुंचाने के लिए समाचार पत्रों का संचालन किया. क्रांतिकारियों के समाचार पत्र साप्ताहिक होते थे. भगत सिंह भी एक क्रांतिकारी थे. उन्होंने अपने विचारों का प्रचार और प्रसार करने के लिए ,किसानों और मजदूरों की आवाज को उठाने के लिए एवं अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध जनता को जागरूक, शिक्षित, संगठित तथा आंदोलित करने के लिए पत्रकारिता का सहारा लिया.

भाषा की उत्कृष्ट तथा गुणवत्ता पूर्ण जानकारी
एक सफल पत्रकार के लिए भाषा की उत्कृष्ट तथा गुणवत्ता पूर्ण जानकारी होना बहुत जरूरी है. शहीद-ए-आजम भगत सिंह इस बात से अवगत थे. उनकी पंजाबी, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ और महारत हासिल थी. इनके अतिरिक्त बंगाल के क्रांतिकारी संगठनों और क्रांतिकारी समाचार पत्रों में संपर्क स्थापित करने के लिए तथा अपने लेख प्रकाशित करने के लिए बटुकेश्वर दत्त से बांग्ला भाषा भी सीखी. परंतु इसमें अधिक महारत हासिल नहीं थी. इसके बावजूद भी वह बांग्ला भाषा में लेख लिखते थे और प्रकाशित भी होते थे.

16 वर्ष की आयु में लेखन का प्रारंभ
लेखक के रूप में भगत सिंह की यात्रा का प्रारंभ 16 वर्ष की आयु में हुआ. सन् 1924 में भाषा संबंधी विवाद के बारे में उसने जो निबंध लिखा उससे भगत सिंह के विचारों की एक छोटी आयु में भी परिपक्वता की झलक दिखाई पड़ती है. इस लेख में भगत सिंह ने सामाजिक सौहार्द तथा सामाजिक सद्भावना को विशेष स्थान दिया. इसलिए के आधार पर ‘पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन’ के द्वारा भगत सिंह को ₹50 का इनाम दिया गया. 16 वर्ष की आयु में यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी. यह लेख भगत सिंह की शहादत के बाद 28 फरवरी 1933 को” हिंदी संदेश” में प्रकाशित किया गया. इस लेख में हिंदी के संबंध में जो उन्होंने संदेश दिया वह बहुत अधिक महत्वपूर्ण है. भगत सिंह का मानना था कि एक दिन हिंदी भारत के राष्ट्रीय भाषा होगी परंतु साथ साथ उन्होंने यह भी सचेत किया की भाषा को गैर -हिंदी भाषी लोगों पर थोपनें की बजाए इसके प्रचार और प्रसार के द्वारा जनता को तैयार किया जाए. यह विचार आज 2022 में भी सार्थक है.

पत्रकार के रूप में भगत सिंह
16 वर्ष की आयु से लेकर 23 वर्ष की आयु तक 7 वर्षों में भगत सिंह ने विभिन्न समाचार पत्रों में अपने लेख लिखें और पत्रकारिता भी की. यह ध्यान देना जरूरी है की पत्रकारिता उनका आंशिक व्यवसाय था. भगत सिंह का पूर्ण कालिक कार्य क्रांतिकारी आंदोलन के लिए जनता को संगठित करना और आंदोलित करना था. भगत सिंह का मानना था कि क्रांति के लिए जनता विशेष तौर से किसानों और मजदूरों को संगठित करना तथा आंदोलित करना मुख्य कार्य है. भगत सिंह की हिंसा के पुजारी नहीं थे. उनका मानना था कि अहिंसा प्रत्येक आंदोलन का आधारभूत सिद्धांत है तथा अपने विचारों के प्रचार के लिए समाचार पत्रों में रिपोर्टिंग करना तथा लेख लिखना क्रांतिकारी आंदोलन के संगठनों तथा क्रांतिकारियों को अहिंसात्मक तरीके से तैयार किया जा सकता है.

क्रांतिकारियों के लिए समाचार पत्रों में लेख लिखकर सरकार का विरोध करना कोई आसान कार्य नहीं था. क्योंकि क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के कारण उनका हमेशा पुलिस की कार्रवाई से भी बचना जरूरी था. यही कारण है अपने लेखों में लेखक के रूप में छद्म नामों ‘ बलवंत’, ’विद्रोही’, ’बीएस संधू’, ‘पंजाबी युवक’ इत्यादि का प्रयोग करते थे.

भगत सिंह के पत्रकारिता के जीवन को दो भागों में बांटा जा सकता है
पत्रकारिता के प्रथम भाग में भगत सिंह ने स्वतंत्रता सेनानियों तथा उनके स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान का वर्णन किया है. यह पहलू ‘चांद पत्रिका’ में संपादित उनके एक लेख स्पष्ट दिखाई देता है. परंतु पत्रकारिता के दूसरे भाग में उनके विचारों में मूलभूत परिवर्तन दिखाई देता है. भगत सिंह कोई रोमांचकारी राष्ट्रवादी नहीं थे अपितु एक परिपक्व क्रांतिकारी तैयार हो चुके थे. उनका उद्देश्य स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, सांप्रदायिक सौहार्द, अंतरराष्ट्रीयवाद, विश्व शांति इत्यादि था. इसके अतिरिक्त उनकी लेखनी का मुख्य उद्देश्य शोषण, भुखमरी, अनपढ़ता, अज्ञानता, सामाजिक और आर्थिक असमानता तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से जनता को मुक्ति दिलाने के लिए ऐसी क्रांति करना था जहां कोई शोषण ना हो अर्थात् शोषण रहित एवं वर्ग विहीन समाज की स्थापना करना था. वह ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करना चाहते थे तथा ऐसे भारत की कल्पना उनके क्रांतिकारी विचारों में थी जहां राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त हो. इन्हीं विचारों के आधार पर वह पत्रकारिता के जीवन के दूसरे भाग में लिखते रहे. संक्षेप में पत्रकारिता के दूसरे चरण में भगत सिंह एक वैज्ञानिक समाजवादी,गंभीर अध्येता तथा क्रांतिकारी योद्धा के रूप में नजर आते हैं.

गणेश शंकर विद्यार्थी से भगत सिंह को पत्रकार बनने की प्रेरणा
जब परिवार के सदस्यों ने भगत सिंह के ऊपर शादी करने का दबाव डाला तो वह लाहौर छोड़कर कानपुर चले गए .कानपुर में क्रांतिकारियों के सहयोग के कारण भगत सिंह की मुलाकात कांग्रेस के प्रसिद्ध नेता व क्रांतिकारियों के सहयोगी गणेश शंकर विद्यार्थी से हुई. भगत सिंह को पत्रकार बनने की प्रेरणा कानपुर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र’ प्रताप’ (कानपुर) के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी से मिली . भगत सिंह की तेज तरार लिखने की शैली को देखकर उसे गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने संपादक मंडल में स्थान दिया. सत्रह वर्ष की आयु में भगत सिंह का प्रताप (कानपुर) में ’पंजाब की भाषा तथा लिपि की समस्या’ पर प्रथम लेख प्रकाशित हुआ. गणेश शंकर विद्यार्थी संप्रदायवाद तथा सांप्रदायिक हिंसा के घोर विरोधी थे. सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए जब उन्होंने प्रयास किया तो उनकी हत्या कर दी गई. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के पत्रकारिता के इतिहास में सांप्रदायिक दंगों में होने वाली यह प्रथम हत्या थी.

समाचार पत्र एवं साप्ताहिक पत्रिकाएं
भगत सिंह के लेख विभिन्न समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. इनमें प्रताप (कानपुर), वीर अर्जुन (दिल्ली), वंदे मातरम उर्दू साप्ताहिक पत्रिका (लाहौर), कीर्ति साप्ताहिक पत्रिका (पंजाब), बंगाली भाषा की साप्ताहिक पत्रिका मतवाला (कोलकाता), द पीपुल (लाहौर) मुख्य हैं.

इस लेख में उनके सभी लेखों का वर्णन करना तो बहुत कठिन है परंतु महत्वपूर्ण लेखों का वर्णन करना बहुत जरूरी है ताकि उनके चिंतन का पता लगाया जा सके. प्रताप (कानपुर) में 15 मार्च 1926 को उनका एक लेख प्रकाशित हुआ. इस लेख का शीर्षक था ‘भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का परिचय ‘तथा उपशीर्षक था ‘होली के दिन रक्त के छींटे. यह लेख ‘पंजाबी युवक’ के नाम से छपा. ‘पंजाब का पहला उभार’ लेख लाहौर से प्रकाशित होने वाली उर्दू पत्रिका ‘वंदे मातरम’ में प्रकाशित हुआ. यह दोनों लेख बहुत अधिक प्रेरणादायक है.

भगत सिंह ने अधिकांश लेख पंजाब से प्रकाशित होने वाली सप्ताहिक पत्रिका’ कीर्ति’ में लिखें. सप्ताहिक पत्रिका ‘कृति’ का संपादन गदर पार्टी के द्वारा किया जाता था. यह पत्रिका उर्दू और पंजाबी में प्रकाशित होने के कारण सभी धर्मों के अनुयायियों में लोकप्रिय थी. इस पत्रिका में भगत सिंह ने काकोरी षड्यंत्र के क्रांतिकारियों की प्रशंसा में जो लेख माला प्रारंभ की उसके कारण भगत सिंह को सन् 1927 में गिरफ्तार कर लिया गया और जेल के अंदर अत्याचारों को झेलना पड़ा. परंतु भगत सिंह के अदम्य साहस पर इन अत्याचारों का कोई प्रभाव नहीं हुआ.

पत्रकारिता के उद्देश्य
भगत सिंह ने पत्रकारिता के उद्देश्यों का वर्णन करते हुए कहा कि समाचार पत्रों का मुख्य उद्देश्य जनता को शिक्षित करना उनके दिमाग को स्वच्छ करना संकुचित तथा विभाजनकारी भावनाओं से सुरक्षा करना, संप्रदायवाद का उन्मूलन करना तथा राष्ट्रवाद की प्रोन्नति करना इत्यादि है. भगत सिंह के अनुसार पत्रकारिता एक बड़ा पवित्र व्यवसाय है. परंतु तत्कालीन पत्रकारिता पर प्रहार करते हुए उसने बड़ा स्पष्ट कहा कि आज यह व्यवसाय जो कभी सम्मानजनक माना जाता था वह सबसे घटिया है. लगभग 100 वर्ष पूर्व व्यक्त किए गए भगत सिंह के विचार आज भी पूर्णतया प्रासंगिक हैं क्योंकि राष्ट्रीय मेंन स्ट्रीम मीडिया जिसे जनता की आवाज उठाने चाहिए थी वह अधिकारियों, सत्ताधारी राजनेताओं तथा कारपोरेट की आवाज को बुलंद करता है और आवाज रहित जनता को गुमराह कर रहा है.

यही कारण है कि किसान आंदोलन सन् 2020- सन् 2021 के समय किसानों ने मेंस्ट्रीम मीडिया का बहिष्कार ही नहीं किया अपितु किसान विरोधी समाचार पत्रों की प्रतियां भी दिल्ली बॉर्डर तथा अन्य धरना स्थलों पर जलाई गई .यह “गोदी मीडिया” तथा “कारपोरेटस” के लिए एक सबक था .मेंस्ट्रीम मीडिया को चुनौती देते हुए ‘कीर्ति’ साप्ताहिक पत्रिका (पंजाब), तथा भगत सिंह के विचारों से प्रभावित होकर पंजाब के प्रगतिशील युवाओं ने तीन भाषाओं – पंजाबी, हिंदी तथा इंग्लिश में किसानों की आवाज को जन जन तक पहुंचाने के लिए ‘ट्रॉली टाइम्स’पत्रिका का संपादन किया.

सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज
20 वीं शताब्दी के दूसरे दशक में पत्रकारिता के माध्यम से भारतवर्ष के विभिन्न संप्रदायों में घृणा और नफरत भर कर सांप्रदायिक हिंसा और दंगे करवाए गए. ब्रिटिश सरकार के द्वारा ‘फूट डालो ,राज करो की नीति’ के आधार पर हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने तथा राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के लिए सांप्रदायवादी ज्वाला को दावानल का राक्षसी स्वरूप प्रदान किया गया. जगह- जगह सांप्रदायिक दंगे कराए गए. समस्त हिंदुस्तान में सांप्रदायिक ज्वाला भड़क रही थी .सन् 1926 में लाहौर में भंयकर हिंदू-मुस्लिम दंगा हुआ .भगत सिंह ने सांप्रदायिक दंगों से व्यथित होकर जून 1928 में ‘कीर्ति’ समाचार पत्र में अपने विचार व्यक्त करते हुए ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ नामक लेख लिखा.

भगत सिंह के अनुसार:
‘भारत की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म का अनुयायी दूसरे धर्म का जानी दुश्मन है .अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है…. ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकार में नजर आता है .इन धर्मों ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है…. और अभी पता नहीं यह धार्मिक दंगे हिंदुस्तान का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया और हमने देखा कि अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं.’
भगत सिंह ने इस लेख में सांप्रदायिक दंगों के कारणों तथा उनके इलाज का विस्तृत विवरण किया है. भगत सिंह के अनुसार:
‘सांप्रदायिक दंगों के मुख्य कारण सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों में प्रकाशित उत्तेजना पूर्ण लेखों और शीर्षकों की मुख्य भूमिका होती है. इसके अतिरिक्त नौकरशाही, जनता की आर्थिक स्थिति तथा सांप्रदायिक नेताओं के धंधों के कारण भी संप्रदायवाद बढ़ा है. सांप्रदायिक दंगे जनता की शक्ति को कमजोर करते हैं तथा क्रांति के मार्ग में अवरोधक हैं.’

सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए भगत सिंह ने लिखा:
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है .मेहनतकशों व गरीब किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें हथकंड़ों से बचकर रहना चाहिए औरइनके हत्थे चढ़ कुछ भी नहीं करना चाहिए. संसार के सभी गरीब के चाहे वह किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसमें है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो. इन यत्नो से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जाएंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी.’

आज से 100 साल पहले भगत सिंह ने संप्रदायवाद ,संप्रदायिक हिंसा और दंगों के बारे में जो विचार कलम बंद किए वह आज भी प्रासंगिक है. वर्तमान समय में समाचार पत्रों, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया , सांप्रदायिक राजनेताओं, पत्रकारों, संपादकों, संवाददाताओं, चैनलों पर बहस तथा चैनलों के एंकरों तथा सांप्रदायिक प्रचारकों के द्वारा बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक, हिंदू बनाम मुस्लिम, हिंदू बनाम क्रिश्चियन इत्यादि के आधार पर सांप्रदायिक भावनाओं को भड़का कर अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा का प्रचार किया जाता है.

इस विभाजनकारी प्रवृत्ति का नंगा नाच किसान आंदोलन सन् 2020 -सन् 2021 के समय देखा गया है.आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार के द्वारा अनेक हथकंडे अपनाए गए तथा सरकार के मंत्रियों, भाजपा के पदाधिकारियों, सरकार के समर्थकों, राष्ट्रीय मीडिया, व्हाट्सएप, सोशल मीडिया इत्यादि के द्वारा किसानों के विरुद्ध बहुत अधिक दुष्प्रचार किया गया. भारतीय जनता पार्टी तथा एनडीए के सहयोगी दल “फूट डालो शासन करो’ की नीति पर चलते हुए समाज में किसानों के प्रति घृणा पैदा करने के लिए प्रयास किया गया. भारतीय राजनीति में नए-नए मुहावरों का प्रयोग होने लगा. नागरिकों तथा किसानों को धर्म, जाति, भाषा, भूमि, क्षेत्र, वर्ग (संपन्न वर्ग तथा संपन्नहीनता वर्ग), देशभक्त बनाम देशद्रोही, हिंदुस्तानी बनाम पाकिस्तानी इत्यादि के आधार पर बांटने का भरसक प्रयास किया. किसानों को आतंकवादी, खालिस्तानी, नक्सलवादी, आंदोलनजीवी, परजीवी , पाकिस्तानी समर्थक, पाकिस्तान और चीन के एजेंट इत्यादि कहकर भी आलोचना की गई. केवल यही नहीं तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, समाचार पत्र, सोशल मीडिया, सरकार, सरकार के समर्थकों तथा पत्रकारों के द्वारा किसानों की आलोचना की गई. किसानों को विपक्षी दलों द्वारा प्रेरित, राष्ट्र विरोधी तथा षड्यंत्रकारी कह कर बदनाम तथा अपमानित किया गया. केवल यही नहीं अपितु हिंदुस्तानी बनाम पाकिस्तानी,हिंदू किसान बनाम मुस्लिम किसान ,सिख बनाम हिंदू ,मुस्लिम बनाम ईसाई, नकली किसान बनाम असली किसान, गरीब व लघु किसान बनाम अमीर किसान, कृषि कानूनों के समर्थक किसान बनाम विरोधी किसान इत्यादि का कैसेट निरंतर बजता रहा. यह निश्चित रूप में भगत सिंह के चिंतन के बिल्कुल विपरीत है.
एडिटरस गिल्डज आफ इंडिया ने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि आंदोलन करने वाले किसानों को खालिस्तानी अथवा राष्ट्र विरोधी कहना पत्रकारिता के उत्तरदायित्व और नैतिकता के विरुद्ध है. यह निश्चित रूप में भगत सिंह के चिंतन के बिल्कुल विपरीत है.

विशेषतौर से इस प्रचार का शिकार मुस्लिम संप्रदाय है. मुस्लिम संप्रदाय के विरुद्ध घृणा और नफरत जिस ढंग से फैलाई गई है उसे सामाजिक सद्भावना और सामाजिक सौहार्द को ठेस पहुंची है. यही कारण है कि सन् 2014 तथा सन् 2019 के लोकसभा के चुनावों में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात यह पहला अवसर है जब सत्ताधारी दल( भारतीय जनता पार्टी) का एक भी मुस्लिम सदस्य लोकसभा में नहीं है.

भगत सिंह के अनुसार किसानों और श्रमिकों में वर्ग चेतना के आधार पर सांप्रदायिक दंगों को रोका जा सकता है. भगत सिंह के विचार की प्रासंगिकता किसान आंदोलन सन् 2020 -सन् 2021 में दृष्टिगोचर होती है. यही कारण है कि सरकार के विभाजनकारी एजेंडे के बावजूद भी किसानों में सामाजिक तथा राजनीतिक चेतना उत्पन्न होने के कारण धर्मनिरपेक्षता व पारस्परिक भाईचारे की भावना उत्पन्न हुई. 378 दिन चलने वाले किसान आंदोलनके दौरान सांप्रदायिक तनाव व सांप्रदायिक हिंसा की एक भी घटना नहीं हुई नहीं हुई. केवल यही नहीं अपितु सन् 2013 में मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगों के कारण जो तनाव उत्पन्न हुआ था,इस आंदोलन में उसको समाप्त कर दिया. किसान आंदोलन के समय हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख तथा अन्य धर्मों के किसानों ,मजदूरों ,कृषि मजदूरों इत्यादि के मध्य लगभग एक ‘नवीन वर्ग चेतना ‘उत्पन्न हुई. संक्षेप में भगत सिंह के अनुसार ‘यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं. धर्मों में चाहे हम अलग अलग ही रहें’.

अछूत का प्रश्न–ऐसे थे भगत सिंह
भगत सिंह का महत्वपूर्ण लेख’ अछूत का प्रश्न’ जून 1928 में ‘विद्रोही’ उपनाम से’ कीर्ति’ में प्रकाशित हुआ. यह लेख बहुत अधिक स्टीक और आज भी प्रासंगिक है. इस लेख में उसने लिखा कि’ कुत्ता तुम्हारी गोद में बैठ सकता है. तुम्हारी रसोई में निसंग फिरता है. लेकिन इंसान का स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है. हम पशुओं की पूजा कर सकते हैं लेकिन इंसान को पास नहीं बैठा सकते.’ भगत सिंह ने आगे लिखा कि किस आधार पर ऊंच-नीच की भावना पैदा होती है तथा लोगों के मन में घृणा और नफरत उत्पन्न होती है. यह विकास के कार्यों में बाधा डालती है और शोषण को बढ़ावा देती है. इस समस्या को पुनर्जन्म का फल बताया जाता है ताकि विरोध ना कर सकें. भगत सिंह ने अछूत( अनुसूचित) वर्ग को ‘सर्वहारा वर्ग’ माना और उनको संगठित करने की प्रेरणा दी . भगत सिंह ने बिल्कुल स्पष्ट कहा की अछूत देश के आधार हैं. उसने अछूतों को प्रेरणा देते हुए कहा की तुम देश की’ वास्तविक शक्ति हो,सोए हुए शेर हो, उठो और बगावत खड़ी कर दो.’ भगत सिंह के सिद्धांत और व्यवहार में कोई अंतर नहीं था .जब भगत सिंह फांसी लगने से पूर्व काल कोठरी में बंद थे तो उन्होंने जो भंगी (जमादार )सफाई करने के लिए आता था उसको वह बेबे(माता) के नाम से पुकारते थे. उसने बेबे को बार-बार यह प्रार्थना की कि वह उसके हाथ की रोटी खाना चाहता है जबकि सफाई कर्मचारी(बेबे ) इंकार करता रहा. अंततः बेबे को मानना पड़ा. बेबे के हाथ की रोटी खाकर वह अभूतपूर्व आन्दित हुआ.ऐसे थे भगत सिंह.

देश की स्वतंत्रता के 75 वर्ष में अनेक कानूनों के बावजूद भी छुआछूत की समस्या समाप्त नहीं हुई. दलित वर्ग के विरुद्ध अत्याचार और हिंसात्मक घटनाओं तथा महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और बलात्कार के केसों की समाचार पत्रों में सुर्खियां बनती रहती है. दलितों को पीटना, घर जलाना, मंदिर में प्रवेश करने से रोकना, अपने अधिकारों की मांग करते हैं तो उनके विरुद्ध अत्याचार करना इत्यादि की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हर रोज समाचार पत्रों की सुर्खियां होती हैं. अनुसूचित जाति (दलित) विरोधी मानसिकता के लोगों को जब समाचार पत्रों में दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की सुर्खियां नहीं मिलती तब उनको समाचार पत्र अधूरे नजर आते हैं . अनुसूचित जाति के विरुद्ध आरक्षण को समाप्त करने के लिए सोशल मीडिया पर बार-बार प्रचार किया जाता है. यहां यह बताना भी जरूरी है कि पुलिस तथा प्रशासन का दृष्टिकोण प्राय: दलित विरोधी है.

अंतरराष्ट्रीय संस्था, विश्व प्रेम तथा राष्ट्र के लिए बलिदान
भगत सिंह ने ‘बलवंत’ उपनाम से कोलकाता से प्रकाशित होने वाली बांग्ला भाषा की साप्ताहिक पत्रिका “मतवाला” (कोलकाता) में 15 नवंबर 1924 तथा 22 नवंबर 1924 लेख लिखे. इन लेखों में विश्व शांति, युद्ध उन्मूलन, अंतरराष्ट्रीय संस्था तथा विश्व प्रेम पर बल दिया. इन लेखों से भगत सिंह के चिंतन में अंतरराष्ट्रीयवाद तथा विश्व प्रेम तथा शांति की संपूर्ण झलक दिखाई देती है. इसी पत्रिका में 16 मई 1925 को ’युवक’ शीर्षक नाम से एक और लेख प्रकाशित हुआ. इस लेख में भगत सिंह ने युवाओं को राष्ट्र के लिए बलिदान देने के लिए प्रेरणा दी.

किसानों व श्रमिकों की स्थिति के संबंध में विचार
भगत सिंह एक गंभीर अध्येता थे .उनको भारत के किसानों एवं श्रमिकों की स्थिति का वास्तविक एवं गहरा ज्ञान था. किसानों व श्रमिकों की स्थिति का वर्णन करते हुए भगत सिंह ने कहा:
‘ समाज का प्रमुख अंग होते भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प करते जाते हैं .दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज हैं .दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया कराने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढ़कने भर को कपड़ा नहीं पा रहा है. सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार, बढ़ई गंदे बाड़ो में रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते .हैं इसके विपरीत समाज के जोंक, शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा -न्यारा कर देते हैं.’

भगत सिंह के शहादत के पश्चात 27 सितंबर 1931 को ‘द पीपल‘ (लाहौर) में ‘मैं नास्तिक क्यों’? लेख प्रकाशित हुआ. यह लेख यथार्थवादी चिंतन एवं बौद्धिकता का अद्भुत एवं मौलिक मिश्रण है. इस लेख में भगत सिंह ने पूंजीवादियों के द्वारा श्रमिक वर्ग के शोषण का वर्णन किया है. पूंजीवादियों के द्वारा श्रमिकों के शोषण के संबंध में इस लेख में भगत सिंह ने लिखा :
‘कारावास की कोठरियों से लेकर , झोपड़ियों तथा बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों -लाख इंसानों के समुदाय से लेकर ,उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूंजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्य पूर्वक या कहना चाहिए, निरुतसाह हो कर देख रहे हैं तथा उस मानव शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देख कर कोई भी व्यक्ति जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है ,भय से सिहर उठेगा और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बांटने की बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक -जिनकी नींव मानव की हड्डियों के पर पड़ी है… उसको यह सब देखने दो और फिर कहे ‘सब कुछ ठीक है’ .क्यों और किस लिए ?यही मेरा प्रश्न है तुम चुप हो, ठीक है. तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूं.’
मजदूरों और किसानों को शोषण से तभी मुक्ति प्राप्त होगी जब राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में संपूर्ण बदलाव हो. एक ऐसी व्यवस्था स्थापित हो जहां किसानों, मजदूरों, महिलाओं और आम आदमी को शोषण से मुक्ति प्राप्त हो. एक ऐसी व्यवस्था जहां धनी वर्ग की अपेक्षा सत्ता अथवा सरकारी मशीनरी पर भारतीय किसानों और मजदूरों का नियंत्रण हो ताकि शोषण, शोषण कर्ता और शोषण पर आधारित व्यवस्था समाप्त हो. परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष के पश्चात भी श्रमिकों और किसानों को शोषण से मुक्ति प्राप्त नहीं हुई भारत में पूंजीपति वर्ग की संपत्ति निरंतर बढ़ रही है और लगभग 84 करोड लोग राशन पर गुजारा कर रहे हैं.
भगत सिंह का मूल उद्देश्य केवल भारत को स्वतंत्र कराना ही नहीं था अपितु वह ब्रिटिश हुकूमत खत्म होने के पश्चात सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन चाहते थे. वह एक ऐसी व्यवस्था चाहते थे जहां किसानों और मजदूरों का शोषण ना हो. यही कारण है कि उनके विचार कांग्रेस पार्टी के विचारों से बिल्कुल बिल्कुल भिन्न थे. कांग्रेस पार्टी का मूल उद्देश्य राजनीतिक व्यवस्था बदलना था आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था नहीं. भगत सिंह के धारणा थी कि किसानों और मजदूरों को शोषण से तभी मुक्ति मिलेगी जब वर्ग रहित तथा शोषण रहित समाज की स्थापना हो. उसने स्पष्ट कहा कि भारत का प्रमुख लॉर्ड इरविन अथवा लॉर्ड रीडिंग की जगह यदि पुरुषोत्तम दास ठाकुरदास टंडन हो इससे जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता.यह बात भगत सिंह ने’कौन के नाम संदेश’ .कांग्रेस की आलोचना करते हुए कही थी.

उनके यह विचार आज सन् 2020 में भी प्रसांगिक लगते हैं. राजनीतिक व्यवस्था में सत्ता परिवर्तन हुए. परंतु आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन ना होने के कारण किसानों और मजदूरों का आज भी शोषण जारी है. सन् 2014 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस नीत यूपीए गवर्नमेंट की हार हुई और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत एनडीए की सरकार बनी. सन् 2019 के लोकसभा के चुनाव में भी भाजपा नीत एनडीए की सरकार बनी. परंतु किसानों और मजदूरों की अवस्था में परिवर्तन नहीं हुआ है और आज भी शोषण जारी है.

भारत सरकार के गृह विभाग की शाखा एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, सन् 2014 से लेकर सन् 2021 तक भारत में 53,881 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है जिसका मतलब यह है कि 21 किसान रोज़ हताश और निराश होकर अपनी जान देने पर मजबूर हैं.द हिंदू के अनुसार, ‘भारतीय किसानों की विकट स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है? इस सरकार की नीतियां.’ यह अवधारणा बिल्कुल सटीक है.

इस समय भाजपा नीत एनडीए की सरकार के द्वारा जिस तरीके से निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है आम जनता का शोषण और भी अधिक होगा.केवल यही नहीं अभी तो सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को भी कारपोरेट तथा धनाढ्य वर्गों को बेचा जा रहा है. इसे गरीब और अमीर के बीच में बहुत बड़ी खाई उत्पन्न हुई है.
यदि वर्तमान संदर्भ में इस बात को लागू करें तो यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आ गए अथवा कांग्रेसी सरकार की जगह भारतीय जनता पार्टी की सरकार आ गई तो आम जनता का शोषण जारी है और पूंजीपति वर्ग को जो सुविधाएं दी जा रही हैं . पूंजीवादी व्यवस्था निरंतर विकसित होती जा रही है. इस तथ्य की पुष्टि हम यूपीए सरकार तथा एनडीए सरकार के द्वारा पूंजीपति वर्ग को दी जाने वाली छूट के आंकड़ों के आधार पर करने का प्रयास करेंगे. भारत की केंद्रीय सरकारों ने कॉर्पोरेट को सुविधाएं और छूट प्रदान करें खरबों रुपए का लाभ पहुंचाया है .एक रिपोर्ट के अनुसार कॉर्पोरेट को सन्2005-सन् 2006 से सन्2015- सन्2016 तक ₹ 42, 08347 करोड़ इनकम टैक्स ,एक्साइज ड्यूटी और कस्टमड्यूटी में छूट दी गई.सन्2005–सन्2006 के मुकाबले सन्2015-सन्2016.यह छूट 140.59 प्रतिशत थी. इस छूट को सब “सब्सिडी” का नाम नहीं दिया गया जबकि गरीबों, बेरोजगारों तथा स्वास्थ्य पर जो“सब्सिडी” जाती है उसे “वेस्टफुल सब्सिडी” (रेवड़ी) के नाम से पुकारा जाता है.सन् 2016 तक कॉर्पोरेट घरानों को जो छूट दी गई है उससे मनरेगा का कार्यक्रम 109 बरस तक चल सकता है. सन्2005-सन्2006 से सन्2015-सन्2016 तक सोना,डायमंड तथा जेवरात पर 4.6 ट्रिलियन डॉलर की छूट दी गई है.यह राशि सन् 2015-16 बजट में कृषि और कृषक कल्याण के लिए निर्धारित राशि से13 गुणा अधिक है.

कॉर्पोरेट जगत को सुविधाओं के मामले में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में यूपीए तथा भाजपा नीत एनडीए सरकारें किसान विरोधी तथा कॉर्पोरेट प्रस्त हैं. परंतु भाजपा नीत एनडीए सरकार बहुत अधिक कॉर्पोरेट प्रस्त है. केवल यही नहीं अपितु जो पैसा एनपीए करके बैंकों का “मुंडन संस्कार” (हेयर कटिंग) किया गया और “विलफुल डिफॉल्टर्स” को लाभ पहुंचाया गया. इसका किसान विरोधी लोग वर्णन नहीं करते.

एनपीए के आंकड़े चौकाने आने वाले हैं. सन् 2008- सन् 2014 से सन् 2014- सन्2020 तक आरबीआई के आंकड़े बताते हैं कि सन् 2014- सन् 2015 से सन् 2019- सन् 2020 तक पीएसबी का नया सकल एनपीए लगभग 18.28 लाख करोड़ रुपये रहा, जो यूपीए शासन में सन् 2008-09 से सन् 2013-14 तक लगभग 5 लाख करोड़ रुपये था… पीएसबी ने पिछले छह वर्षों में 6,83,388 करोड़ रुपये के “खराब ऋण” को “बट्टे खाते “में डाल दिया, जो सन् 2008 से सन् 2014 की अवधि में किए गए 32,109 करोड़ रुपये से भारी वृद्धि है. बैलेंस शीट को साफ करने के लिए बैंक अपने अभ्यास के हिस्से के रूप में चार साल से अधिक पुराने एनपीए को बट्टे खाते में डाल देते हैं. आरटीआई कार्यकर्ता प्रफुल्ल शारदा की आरटीआई द्वारा मांगी गई सूचना के अनुसार मोदी सरकार ने 1 अप्रैल 2015 से 31 मार्च 2021 तक बैंकों के 11,19,482 करोड़ रुपए ‘राइट ऑफ’किए हैं . आरटीआई में यह भी खुलासा किया गया है कि सन् 2004 से सन् 2014 तक केंद्र की यूपीए सरकार के द्वारा 2.22 लाख करोड रुपए के लोन माफ किए गए थे .दूसरे शब्दों में मोदी सरकार के द्वारा बैंक लोन 5 गुना अधिक’राइट ऑफ, किए गए हैं. प्रफुल्ल शारदा को मिली सूचना के अनुसार कोरोना काल के 15 महीनों में भाजपा नीत केंद्र सरकार ने 2,45,456 रूपये के “लोन माफ” किये हैं. सरकारी बैंकों ने,56,681करोड़ रूपये के ‘लोन राइट ऑफ’ किए. जबकि निजी बैंकों ने 80,883 करोड़ रूपये,फौरन बैंकों ने 3826 करोड़ रूपये , एनबीएफसी ने 1216 करोड़ रूपये के ‘लोन माफ. किये है तथा शेड्यूल कॉमर्स बैंक ने 2859 करोड़ रूपये’राइट ऑफ’ किए हैं.

इसके बिल्कुल विपरीत गुजरात के किसान को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने महज 31 पैसे बकाया रहने पर नो ड्यूज सर्टिफिकेट देने से इनकार कर दिया .किसान को गुजरात उच्च न्यायालय में 2 साल मुकदमा करना पड़ा और न्यायालय ने अपने आदेश में कहा ‘यह उत्पीड़न के अलावा और कुछ नहीं’ है
भारतीय किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य किसी भी सरकार ने नहीं दिया .परिणाम स्वरूप खेती घाटे का सौदा बनता जा रहा है . संयुक्त राष्ट्र की तीन एजेंसियों, खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) , संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने ‘ए मल्टी बिलियन डॉलर ऑपर्च्यूनिटी’ की रिपोर्ट (2021) के अनुसार “पिछले बीस सालों से भारत में कृषि की नीतियां इस तरह की रही हैं, जिससे खाद्य पदार्थों के दाम न बढ़ाकर उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा की जा सके। इसका खामियाजा किसानों को सजा के तौर पर झेलना पड़ता है ’ इस तथ्य की पुष्टि आर्थिक सहयोग और विकास संगठन द्वारा ‘कृषि नीतियों की निगरानी और विकास 2020’ की रिपोर्ट में भी की गई है .रिपोर्ट के अनुसार भारत में खाद्य पदार्थों की कीमतें कम रखने की सजा किसानों को भुगतनी पड़ती है. आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (2020) की रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि भारतीय किसानों के लिए ‘उत्पादक समर्थन आकलन’ 5.7 % नकारात्मक है. परिणाम स्वरूप सन् 2019 में भारतीय किसानों को 23 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है. यदि यही स्थिति जारी रहती है व किसान हितैषी नीतियां नहीं बनती तथा किसानों को उनके उत्पाद का स्वामीनाथन रिपोर्ट (सन् 2006) के द्वारा सुझाए गए सीट् + 50% फार्मूले के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य कानूनी जमा नहीं पहनाया गया तो किसानों के कभी भी अच्छे दिन नहीं आएंगे और लूट तथा शोषण जारी रहेगा.भारतीय किसानों को इस बात को पूर्णतया समझना चाहिए और अपने अधिकारों के लिए निरंतर जागरूक ही नहीं अपितु शिक्षित, संगठित और आंदोलित भी होना चाहिए ताकि सरकार की नीतियों में बदलाव करवा कर किसान हितैषी नीतियों का निर्माण करवाया जा सके. इस निजीकरण का स्पष्ट प्रभाव कोरोना काल में नजर आया जब लाखों मजदूरों को अपने कार्य स्थलों से अपने गांव की ओर चिलचिलाती धूप में नंगे पांव बिना किसी सुविधा के अपने गांव की ओर रवाना होना पड़ा तथा किस तरीके से उन्होंने यातनाएं झेली और अपने ही देश में वह बेगाने हो गए. एक ओर विभिन्न राज्यों की पुलिस अपने घर वापस लौटते हुए श्रमिकों पर लाठियां बरसा रही थी तो दूसरी ओर सुविधा भोगी लोग पुलिस पर फूल बरसा रहे थे. यह एक विडंबना नहीं तो और क्या है?

मैं नास्तिक क्यों?
भगत सिंह का बहुत चर्चित एवं महत्वपूर्ण लेख’ मैं नास्तिक क्यों ?’उसकी शहादत के बाद लाहौर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ‘द पीपुल’ में 27 दिसंबर 1931को प्रकाशित हुआ. इस लेख में भगत सिंह ने धार्मिक पूजा पाठ, आत्मा- परमात्मा ,पुनर्जन्म, मृत्यु उपरांत स्वर्ग लोक अथवा नरक की परिकल्पना, पाप- पुण्य ,भूत –प्रेत, दुष्ट आत्माओं इत्यादि अवधारणाओं का क्रमबद्ध तरीके से खंडन किया.. भगत सिंह का मानना था कि” ईश्वर में विश्वास और रोज -बेरोज की प्रार्थना को मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ मानता हूं”. भगत सिंह का यह लेख समस्त भारत में बहुत अधिक चर्चित रहा. दक्षिण भारत में समाज सुधारक पेरियार के द्वारा तमिल भाषा में प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र’-कुडाई आरसू ‘में 22 और 29 मार्च 1931 को प्रकाशित हुआ.यह लेख भगत सिंह की मौलिकता बौद्धिकता एवं प्रतिबद्धता की सर्वोच्च रचना माना जाता है. इस आधार पर भगत सिंह अधिकांश क्रांतिकारियों, राजनेताओं तथा पत्रकारों से बिल्कुल भिन्न थे. मार्क्सवादी प्रभाव के कारण सन् 1922 तक भगत सिंह पूर्णतया नास्तिक बन गए. यही कारण है कि फांसी लगने का भय भी भगत सिंह को विचलित ना कर सका.

संक्षेप में राजनीतिक व्यवस्था बदलने में परिवर्तन से आम जनता के आर्थिक और सामाजिक खुशहाली पर कोई व्यापक प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि शोषण जारी रहता है . भगत सिंह ने समाचार पत्र और पत्रिकाओं में जो विचार प्रकट किए हैं वह तब तक प्रसांगिक रहेंगे जब तक भारत में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, गरीब और अमीर में खाई, महंगाई इत्यादि का साम्राज्य रहेगा. वर्तमान समय में जिस प्रकार प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कारपोरेट का कब्जा है तथा पत्रकारों पर सरकार का नियंत्रण निरंतर बढ़ रहा है; ऐसी स्थिति में भगत सिंह वास्तव में इन पत्रकारों से बिल्कुल अलग ”ध्रुव तारे” की तरह चमकते हुए नजर आते हैं तथा भारतीय युवाओं के महानतम प्रेरणा स्त्रोत एवं हृदय सम्राट हैं.

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