संतोष कुमार बंजारे
“गोंडवाना स्वदेश” पत्रिका के संपादक मंडल हैं।
भारतीय संविधान के आर्टिकल-15 पर बनी फ़िल्म “आर्टिकल-15” जिसके निर्माता और निर्देशक अनुभव सिन्हा व लेखक गौरव सोलंकी है। यह फ़िल्म भारतीय समाज में 5000 वर्षों से चली आ रही घृणित जातीय व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है। फ़िल्म में बताया गया है कि कैसे भारत देश में दलित पैदा होना अपने आप में एक अक्षम्य अपराध है। जिसके कारण न्याय एक ऊँची और महँगी चीज है। फ़िल्म का मुख्य सार उन तीन दलित लड़कियों से शुरू होता है जिनको अपने मेहताने में 25 रूपये के जगह 28 रूपये मतलब महज 3 रूपये इजाफ़ा करवाने के एवज में लड़कियों के साथ सामूहिक दुष्कर्म और उनकी हत्या हो जाती है, जिसमें बिल्डर और कुछ पुलिस शामिल होते हैं। और फिर उनमें से 2 लड़कियों की हत्या करके गाँव के ही पेड़ में लटका दिया जाता हैं ताकि गाँव के छोटी जाति वाले लोग फिर से उन लड़कियों की तरह आगे कोई डिमांड न करे और अपनी दलित पहचान के औकात में रहे। साथ ही पुलिस द्वारा उनके ही पिता लोगों को झूठे केस में अंदर कर देती है, उनके बेटियों को समलैंगिक बताकर पीएम रिपोर्ट भी बदलवा दी जाती है। यह दृश्य आपको उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िले में हुए 2014 की घटना को याद दिलाएगी जहाँ पर दो नाबालिग लड़कियाँ जो रिश्ते में बहनें थीं, उनका सामूहिक बलात्कार कर शव पेड़ पर लटका दिए गए थे।
इसी बीच फ़िल्म के हीरो यानि आयुष्मान खुराना अपर पुलिस अधीक्षक की पोस्टिंग उस क्षेत्र में होती है जिनको उससे पहले समाज में फैले जात-पात प्रथा के बारे में कोई ज्ञान नहीं होता चूँकि वह खुद फ़िल्म में एक ब्राह्मण के किरदार में होता है। धीरे-धीरे वह उस गाँव की सामाजिक संरचना को समझता है और दलित-आदिवासियों के साथ होने वाले जातीय घृणा को समझना शुरू करता है। जिसमें वह पाता है कि उनके ही विभाग के दो पुलिसकर्मी भी बच्चियों के बलात्कार में शामिल होते है और साथ में गाँव के ही एक बिल्डर सड़क निर्माणकर्ता इसके मुख्य आरोपी होते हैं। उसमें से तीसरी बच्ची किसी तरह भाग कर अपनी जान बचा लेती है, जिसके लिए हीरो अपने इन्वेस्टिगेशन जारी रखता है। हालांकि अपराध में लिप्त पुलिस वाले इस केस को दबाने के लिए दिल्ली तक दबाव बनवा कर सीबीआई द्वारा हीरो को इस केस से दूर करना चाहते हैं लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाता है और अंततः हीरो की जीत होती है।
फ़िल्म की सुटिंग एक स्थान लालगांव पर आधारित हैं जो पूरी तरह दलित-आदिवासी आबादी जैसा प्रतीत होता है। फ़िल्म के बैकग्राउंड में मलिन बस्ती, गंदगी, कचरा, सुवर और खेत खलिहान जैसे दृश्यों से भरा पड़ा है जो प्राय: गांवों में बस्तियों में देखा जा सकता है। साथ ही फ़िल्म में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर और उनके संवैधानिक विचार तथा जय भीम के नारों को भी स्थान दिया गया है। देश को संविधान से चलने व चलाने की वकालत की गई है। इसमें बताया गया है कि कैसे उनको कभी हरिजन और कभी बहुजन लेकिन इस देश का जन नहीं माना जाता है तथा वोट पाने और साम्प्रदायिक दंगा फ़ैलाने के लिए कैसे उपयोग किया जाता है।
आपको बता दें कि अब से कुछ साल पहले से दलित-आदिवासी पर आधारित फ़िल्में बनने लगी हैं जैसे कि “काला”, “कबाली”, माँझी “द माउंटेन मैंन” “चक्र्व्यु” जिसमें अब दलित-आदिवासियों के पहचान, अस्मिता, संवैधानिक अधिकार और उनके महानायकों को भी भारतीय बॉलीवुड में सीधा सिनेमा के माध्यम से प्रदर्शन किया जा रहा है। अब से कुछ साल पहले ऐसे फिल्मों को परदे पर उतारना रिस्क का काम माना जाता था और फ़िल्म के कमाई के बारे में निर्माता निर्देशक डरते थे। लेकिन अब भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक ऐसे फ़िल्में बनने लगे हैं जिसका मुख्य कारण अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के गोलबंदी, संविधान के प्रति लगाव होना व वर्तमान में होने वाले जनआन्दोलन मुख्य कारक है और सबसे ज्यादा फ़िल्में देखने वाले वर्ग भी यही लोग है जो निर्माता निर्देशक को मालामाल करते हैं। शायद इसलिए भी अब ऐसी फ़िल्में बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्सों में लगने लगी और आगे और भी बहुत सारी फ़िल्में बनेंगीं जो बहुजन आन्दोलन और संविधान पर आधारित पटकथा लिखीं जाएँगी।
फ़िल्म “आर्टिकल-15” कोई नई चीज नहीं बता रहा हैं लेकिन समाज को आईना जरुर दिखाता है कि कैसे दलितों के साथ अत्याचार होता है और वे इसका विरोध भी नहीं कर सकते और घुट-घुट कर जीने मजबूर हैं। यह फ़िल्म मात्र एक घटना पर आधारित है जबकि स्थान और क्षेत्र के हिसाब से दलितों पर असंख्य तरह के अत्याचार आये दिन होते रहते हैं। फ़िल्म में जातिवाद और जात-पात के उद्गम और इसके पोषक वर्ग को सीधा-सीधा इंगित करने में निर्देशक असफल रहा है, साथ ही इस प्रथा को खत्म करने के बारे में उपाय नहीं दिखाता। इसमें अम्बेडकरवाद का समर्थन करने वालों के बारे में दिखाया गया है जो भीम आर्मी के हुबहू प्रतीत होता है जिसे राज्य के सुरक्षा के दृष्टि से खतरा बता कर रासुका कानून लगाकर और इनकाउंटर करवा दिया जाता है। फ़िल्म को एक बार जरुर देखना चाहिए क्योंकि ऐसे समय में ऐसे चुनौती भरे और कठिन विषयों पर फ़िल्म बनाना अपने आप में एक अच्छा कार्य है, क्योंकि मनोरंजन के बहाने ही सही कुछ लोगों को यह तो पता चला की संविधान के आर्टिकल-15 क्या है? और दलितों के साथ भारतीय समाज खासकर उच्च वर्ग के लोग जात के नाम पर कैसा अत्याचार करते हैं। इसमें सभी किरदारों ने अच्चा अभिनय किया है जो फिल्म को सफल बनाती है।
लेकिन समीक्षा के अंत में दर्शकों के लिए कुछ सवाल है, क्या हम भारतीय लोग भारत के संविधान को समझने के लिए ऐसे फ़िल्मों का इन्तेजार करते रहेंगे? क्यों हम संविधान को किस्तों में जानना चाह रहे हैं? क्यों हम संविधान को खुद से नहीं पढ़ना चाहते हैं? क्यों हमारे कुछ भारतीय लोग इस फ़िल्म के प्रदर्शन के रोक के लिए सड़कों पर हैं? जबकि वह लोग भी जातिवाद खत्म करना चाहते हैं?
क्या है भारतीय संविधान में आर्टिकल-15 ?
Prohibition of discrimination on grounds of religion, race, caste, sex or place of birth.
15. (1) The State shall not discriminate against any
citizen on grounds only of religion, race, caste, sex, place
of birth or any of them.
(2) No citizen shall, on grounds only of religion, race,
caste, sex, place of birth or any of them, be subject to any
disability, liability, restriction or condition with regard to—
(a) access to shops, public restaurants, hotels and
places of public entertainment; or
(b) the use of wells, tanks, bathing ghats, roads
and places of public resort maintained wholly or
partly out of State funds or dedicated to the use of
the general public.
(3) Nothing in this article shall prevent the State from
making any special provision for women and children.
1[(4) Nothing in this article or in clause (2) of article 29
shall prevent the State from making any special provision
for the advancement of any socially and educationally
backward classes of citizens or for the Scheduled Castes
and the Scheduled Tribes.]
2[(5) Nothing in this article or in sub-clause (g) of
clause (1) of article 19 shall prevent the State from making
any special provision, by law, for the advancement of
any socially and educationally backward classes of
citizens or for the Scheduled Castes or the Scheduled
Tribes in so far as such special provisions relate to their
admission to educational institutions including private
educational institutions, whether aided or unaided by
the State, other than the minority educational institutions
referred to in clause (1) of article 30.]