– विद्या भूषण रावत
(समाज वीकली)- तमिलनाडु का द्रवीडियन मोडेल की आजकल उत्तर भारत मे बहुत चर्चा है। बहुत से लोग डी एम की सरकार के आने के बाद इस मोडेल की चर्चा शुरू किये। इसमे कोई संदेह नहीं के तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने राज्य को एक ऐसी सरकार दी है जिसकी लोग बहुत दिनों से तलाश मे थे। राज्य मे स्कूलों की बेहतरी के लिए उन्होंने दिल्ली राज्य के स्कूलों को देखा। नीट के प्रश्न पर उन्होंने केंद्र की नीति का खुलकर विरोध किया और उनकी सरकार ने ऐसे फैसले लिए हैं जो देश भर के लिए एक संदेश हैं चाहे वह स्कूलों मे नाश्ते का सवाल हो या मंदिरों मे गैर ब्राह्मण तमिल बोलने वाले पुजारियों का प्रश्न, सभी पर उत्तर भारत मे दलित ओबीसी नेता चुप्पी साधे रहते हैं। तमिलनाडु के वित्त मंत्री ने तो खुले तौर पर नरेंद्र मोदी के मोडेल को ही चुनौती दी है और उनका वो विडिओ बहुत लोकप्रिय हुआ है जब वह दिल्ली के एक प्राइम टाइम शो मे एंकर को ऐसे जवाब दिए कि शायद दोबारा उस शो मे वो उन्हे न बुलाए। उत्तर भारत के बहुत से बहुजन बुद्धिजीवी जो यहा के बहुजन नेताओ के इग्नोर किये जाने से दुखी है उन्हे तमिलनाडु मे एक नई आशा की किरण दिखाई दी है। तमिलनाडु का पेरियार मोडेल भारत के लिए भी एक संदेश है और हालांकि आज एम के स्टालिन हो या डी एम के हों वे सभी राजनीति की मज़बूरीयों को भी समझते है और बदलते वक्त मे आप पुराने मोडेल के आधार पर बार बार उपलब्धियों का बखान भी नहीं कर सकते। मतलब ये के ब्राह्मणों को पानी पी पी के कोसने से कोई द्रवीडियन मोडेल सफल हो जाएगा ये मानना बहुत बड़ी भूल होगा। उत्तर भारत मे अक्सर पेरियार एक वर्ग मे हीरो तो दूसरे मे विलन बना दिए गए। लेकिन विलेन बनाने वालों की ताकत इतनी बड़ी थी कि बसपा ने अपने प्रमुख बैनरों से पेरियार का नाम हटा दिया हालांकि बसपा के सत्ता मे आने के बाद 17 सितंबर 1995 को लखनऊ के परिवर्तन चौक मे तीन दिवसीय पेरियार मेला आयोजन किया जिसका भाजपा ने विरोध किया था।
पेरियार अक्टूबर 1968 अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग के सम्मेलन की अध्यक्षता करने लखनऊ आए थे भदंत आनंद कौतसयालायायन, अखिल भारतीय भीम सेना के अध्यक्ष श्री बी श्याम सुंदर, श्री शिव दयाल चौरसिया, श्री छेदी लाल साथी, श्री ललाई सिंह यादव, और मुस्लिम मजलिस के श्री ए जे फरीदी शामिल थे। पेरियार के लखनऊ आने का जनसंघ और आर एस एस जैसे संघठनों ने विरोध किया भी किया था लेकिन वे पेरियार को लखनऊ आने से नहीं रोक पाए। पेरियार एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व थे और उनका सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टिकोण तमिलनाडु मे बृहत्तर परिवर्तन लाया। गैर ब्रह्मणवाद आंदोलन को सामाजिक नये और बहुजन समाज का प्रश्न बना कर पेरियार ने तमिल समाज मे बहुत बड़े राजनीतिक परिवर्तन को जन्म दे दिया जिसकी तुलना दूसरे प्रदेशों से नहीं की जा सकती। तमिलनाडु मे 1967 के बाद से ही द्रवीडियन पार्टियों की सरकारे रही हैं। उससे पहले वहा के कामराज के नेतृत्व मे काँग्रेस की सरकार थी लेकिन 1967 के बाद से पहले डी एम के और उसकी प्रतिद्वंदी के रुप मे अखिल भारतीय अन्ना द्रुमउक पार्टी उभरी। दोनों पार्टियों की वैचारिक पृष्टभूमि पेरियार के सामाजिक न्याय के आंदोलन की रही है हालांकि ये भी हकीकत है के ए आई दी एम के का झुकाव सवर्णों और दलितों के साथ भी था और इसी कारण वो तमिलनाडु मे सफल रही। तमिलनाडु मे आज भी 69% आरक्षण है जो सुप्रीम कोर्ट के 50% आरक्षण सीमा से अधिक है और उस समय आया जब सुश्री जयललिथा वहा की मुख्यमंत्री थी और उन्होंने इस संदर्भ मे केंद्र सरकार पर दबाब डाल जिसमे अन्य पार्टियों का पूरा समर्थन था और इस प्रकार वहा की सभी पार्टियों के आपसी एकता से केंद्र सरकार को पूरा आरक्षण संविधान कि 9 वी अनुसूची मे डालना पड़ा जिसे किसी भी न्यायालय मे चुनौती नहीं दी जा सकती। तमिलनाडु मे आरक्षण जस्टिस पार्टी के समय से था और अब यह लगभग आनुपातिक व्यवस्था पर आधारित है। लेकिन ये भी एक कटु सत्य है के ब्रह्मणवाद विरोध के नाम पर ताकतवर पिछड़ी जातियों के हाथ मे सत्ता आई और दलितों की स्थिति बहुत गंभीर बनी रही।
अभी तमिलनाडु मे डी एम के नेता ए राजा का एक बयान बहुत ‘प्रचलित’ हो रहा है जिसे उत्तर भारत मे ‘क्रांतिकारी’ रूप मे प्रस्तुत किया जा रहा है। ये वही उत्तर भारतीय हैं जिन्होंने पेरियार को केवल भगवानों का विरोधी तक सीमित कर दिया और उनके विस्तृत सामाजिक न्याय के सवाल, भाषा के सवाल और पिछड़े वर्ग के लोगों की सत्ता मे भागीदारी के सवाल को गायब कर दिया जाता है। पेरियार के स्वाभिमान आंदोलन मे विवाह और जेंडर का प्रश्न बेहद महत्वपूर्ण था। लेकिन बावजूद पेरियार की विचारधारा के हकीकत यह है के द्रविड पार्टियों की राजनीति के केंद्र मे पिछड़ा वर्ग और उसकी ताकतवर जातिया रही है। ब्रह्मणवाद विरोध के नाम पर राजनीति से तमिलनाडु के सभी दलों के दलित विरोधी चरित्र को भी समझना पड़ेगा। अगर राजनीति मे उसका असर देखे तो तमिलनाडु मे दलित आंदोलन के लिए सबसे मजबूत काम वी सी के नामक पार्टी कर रही है हालांकि उनके भी दो सांसद जीत के नहीं आते यदि डी एम के के साथ उनका समझौता नहीं होता। आज डी एम के किसी भी तरीके से अपने आप को ‘सवर्ण विरोधी’ या ‘हिन्दू विरोधी’ के तौर पर नहीं प्रस्तुत करना चाहती है और वो अपने काम पर फोकस कर रही है। सत्ता मे रहते हुए पार्टियों को ध्यान रखना चाहिए के वे क्या बोले क्योंकि ए राजा के बयान से डी एम के को कोई लाभ नहीं होने वाला। आज एम के स्टालिन की छवि एक काम करने वाले व्यक्ति की है जिसे अपना द्रविड मोडेल प्रचारित करने के लिए किसी भी समुदाय को गाली देने की जरूरत नहीं है। एक प्रश्न और भी है, 1960 के बाद से ही तमिल राजनीति और समाज पर पेरियार के आंदोलनकारियों की पकड़ है, वे सत्ता मे हैं और विपक्ष मे भी तो फिर ए राजा के बयान के क्या मतलब निकाले। क्या तमिलनाडु मे आज भी दलितों पर अत्याचार ब्राह्मणों के द्वारा हो रहे हैं ? यदि हाँ तो डी एम के और ए आई डी एम के की सरकारों को इसके जवाब देने पड़ेंगे। खाली लफ्फाजी करने के लिए कुछ भी कह कर ताली पिटवाना एक बात है और तथ्यों के साथ बात रखना दूसरी बात।
अभी तेनकासी नामक स्थान पर दलितों के आर्थिक बहिष्कार की खबरे आई। दुकानदार बच्चों को कोई भी आइटम देने से इनकार कर रहे थे। ये बायकाट पिछले दो महीने से चल रहा था। सामाजिक संगठनों ने पिछले पाँच साल मे दलितों की हत्याओ के 300 मामले चिन्हित किये जिसमे 13 मामलों मे ही आरोपी लोगों को सजा हुई है। 28 मामलों की जांच चल रही है और 229 मामले पेंडिंग हैं। एससी एसटी कमीशन की एक रिपोर्ट कहती है कि कुल लोगों ने दलित पर अत्याचार के 1100 मामले पुलिस को दिए जिसमे 900 दलितों से संबंधित और 200 आदिवासियों से संबंधित हैं लेकिन 90% मामलों मे पुलिस ने कोई केस ही फाइल नहीं किया। 583 मामलों मे कोई रिपोर्ट ही पुलिस को नहीं मिली।
ये आरोप भी अक्सर लगते है के तमिलनाडु मे भूमि सुधारों के कार्यक्रम ईमानदारी से नहीं लागू किये गए. तमिलनाडू मे दलितों की आबादी 21% है लेकिन उनकी स्थिति बेहद गंभीर बनी हुई है। उनकी जमीनो पर उन लोगों का कब्जा है जो गैर ब्राह्मणी आंदोलन के अगुआ जातिया रही है। 1892 से 1933 के मध्य मद्रास प्रेज़िडन्सी मे लगभग 12 लाख ऐकर जमीन दलितों को पट्टा की गई लेकिन आज मात्र 10% जमीनो का कब्जा ही दलितों के पास है। दरअसल ब्राह्मण नॉन ब्राह्मण की पूरी बहस मे दलित हसिए पर है। क्या ये बहस दलित वर्सेस नॉन दलित नहीं होनी चाहिए और उस परिपेक्ष्य के अनुसार दलितों की स्थिति का आँकलन किया जाना चाहिए।
तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम मे 19 फरवरी 1981 को पलार ( दलित) समुदाय के 180 लोगों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया और आज भी वे लोग बेहद स्वाभिमान के साथ जिंदगी जी रहे हैं। पूरे क्षेत्र मे मारावर समुदाय, जो थेवर जाति से ही निकली हुए है ( जो वहा की सबसे ताकतवर कृषक जाति) का दबदबा था और उनके अत्याचारों से प्रताड़ित होकर दलितवर्ग ने इस्लाम धर्म कुबूल कर लिया। ये ठेवर जाति ही डी एम के और ए ऐ डी एम के का मुख्य हथियार है। ये सभी जातिया पिछड़े वर्ग के नाम पर तमिलनाडु मे गैर ब्राह्मणवादी आंदोलन की अगुआ भी रही है लेकिन अपने अंदर से कट्टर ब्रह्मणवाद को नहीं मिटा पाई।
आज भी तमिलनाडु मे स्थानीय निकायों और गाँव पंचायतों/जिला पंचायतों मे जीते हुए दलित प्रतिनिधि स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस पर वे तिरंगा तक नहीं फहरा पाते और उन्हे उसका विरोध झेलना पड़ता है। तमिलनाडु के 24 जिलों के एक सर्वे के मुताबिक कुल 386 दलित पंचायत अध्यक्षों मे से आज भी 22 को अपने कार्यालयों मे बैठने के लिए कुर्सी तक नसीब नहीं है। दलित पंचायत प्रतिनिधियों के विरुद्ध आज भी 17 किस्म की छुआछूत तमिलनाडु मे होती है जिसमे राष्ट्रीय अवसर पर राष्ट्रध्वज न फहरा देने का सवाल, स्थानीय निकायों के बोर्डों पर दलित प्रतिनिधियों का नाम न लिखने का प्रश्न, पंचायत अध्यक्षों के लिए निर्धारित कुर्सी या स्थान पर दलित प्रतिनिधि को न बैठने देने का सवाल, पंचायत ऑफिस मे ही उन्हे न बैठने देने का सवाल, गाँव साहब की बैठक मे गैर दलितों द्वारा बहिष्कार जब दलित प्रमुख उसकी अध्यक्षता करते हैं, पंचायतों को उपप्रमुखो द्वारा दलित प्रमुख के चलते अपने लिए अलग कार्यालय की मांग, दलित प्रमुखो को पंचायत के डाक्यमेन्ट न देखने देना, गैर दलित उप प्रमुखो का असहयोगी रवैया, दलित पंचायत प्रमुखों को धमकी देना, दलित महिला सरपंचों के साथ दुर्व्यवयहार और भेदभाव, दलित पंचायत प्रमुखों को मुख्य डाक्यमेन्ट नया देना, दलित पंचायत प्रमुखों को उनके कार्य मे सहयोग न देना आदि शामिल है। यह सर्वे तमिलनाडू छुआछूत उन्मूलन फ्रन्ट ने किया है। सवाल ये है के कौन है ये लोग जो ऐसा कर रहे हैं ? क्या तमिलनाडु मे द्रविड आंदोलन से ये सवाल नहीं किए जाने चाहिए के आखिर दलितों के साथ उनका व्यवहार कैसा रहा है। 70 वर्षों मे गैर ब्राह्मणों की सरकारों को क्या ये हिसाब नहीं देना चाहिए कि उन्होंने दलितों के लिए आखिर किया क्या ? तमिलनाडू देश का सबसे बड़ा अर्बन राज्य है लेकिन तब भी दलितों की 80% से अधिक आबादी गांवों मे है और गहरे भेदभाव का शिकार है। दलितों के पास कुल जमीन 8% से भी कम है और ये उस हकीकत को बयान करता है कि भूमि सुधार का प्रश्न द्रवीडियन पार्टियों के अजेंडे मे नहीं था और अंग्रेजों ने मद्रास प्रेज़िडन्सी के समय जो भूमि आवंटन दलितों को किया था उसका अधिकांश हिस्सा इन्ही ताकतवर खेती की जातियों के पास है जिसे हटाने की संकल्प शक्ति सरकार के पास नहीं है।
2004 के अंत मे तमिलनाडु मे भयानक सुनामी आई थी और मुझे वहा जाने का अवसर मिला था। मैंने चेन्नई से लेकर नागपट्टनम, कदलूर, तेनकासी, चिदंबरम, नगोर, वेलंकिनी और पॉन्डिचेरी का दौरा किया। दलितों के साथ भेदभाव को लेकर मैंने एक फिल्म बनाई जिसका नाम था द साइलन्स ऑफ सुनामी यानि सुनामी की चुप्पी। पूरी यात्रा मे मैंने ये देखा के किस प्रकार से आपदा मे दलितों को कोई सहायता न पहुँच पाए ऐसे प्रयास किए गए। जब भी किसी गाँव मे मै लोगों से दलित बस्तियों मे जाने की बात कहता तो लोग मुझे कहते हमसे बात क्यों नहीं कर रहे हो, वहा क्यों जाना चाहते हो ? एक गाँव मे जहा धार्मिक लंगर चल रहे थे, दलितों की उपस्थिति से मछुआरे समाज के लोग नाराज हो गए लिहाजा आयोजकों ने दलितों के लिए अलग से लंगर लगा दिया। शवों को लाने और उठाने के लिए भी अरुंधतियार समाज जिसे हम उत्तर भारत मे वाल्मीकि समाज या स्वच्छकार समाज के नाम से जानते हैं, को अलग अलग स्थानों से बुलाया जा रहा था। सुनामी ने सब कुछ तबाह कर दिया था लेकिन वो वर्ण व्यवस्था को खत्म नहीं कर पाई। सब कुछ लुटा देने के बाद भी लोग अपनी जातियों और भगवानों से चिपके रहे। ये दुखद था कम से कम उस राज्य मे जहा पेरियार ने क्रांति की।
हकीकत ये कि दलितों के प्रश्न पर द्रविड आंदोलन असहज हो जाता है। ब्रह्मवाद के विरोध के नाम पर वो सबसे अधिक मुखर होता है लेकिन ब्राह्मणों को हटा कर कोई सद्भाववादी या बराबरी का समाज बन गया हो ऐसे तो तमिलनाडु मे नहीं हुआ। जातियों की ताकत आज भी बनी हुई है और दलित हासिए पर हैं। ये एक कटु सच्चाई है के दलितों के सबसे बड़े क्रांतिकारी नेता, तमिलनाडु मे अंबेडकरवाद के प्रमुख स्तम्भ इमैनुयाल सेकरण की 11 सितंबर 1957 को हत्या कर दी गई। हत्यारे थेवर जाति से थे और उनकी हत्या इसलिए की गई क्योंकि उन्होंने ठेवरों के बड़े नेता मूथुरामलिंग थेवर के सम्मान मे खड़े होने से इनकार कर दिया था क्योंकि उन्हे लगता था के दलित पर अत्याचारों के मामले मे थेवर सबसे आगे हैं। जुलाई से सितंबर 1957 के बीच मे रामनाथपुरम मे जो दंगे हुए उसमे 42 दलितों की हत्या हुई थी। इस मामले मे जो भी आरोपी थे उन पर अन्नादुर्राई की सरकार कुछ नहीं कर पाई और सभी रिहा हो गए।
आज भी तेनकासी की घटना को सरकार भले ही हल्के मे ले रही हो लेकिन ये सच आ चुका है के गाँव मे 80 परिवार पिछड़ी जातियों के और 50 परिवार दलितों के हैं। गाँव की पंचायत ने अन्य जातियों को दलित बच्चों के साथ खेलने कूदने पर रोक लगा दी और दुकानदारों ने उन्हे समान देने से इनकार कर दिया हालांकि मंत्री कह रहे है के छुआछूत की खबर गलत है। सवाल इस बात का है के 70 वर्षों के स्वाभिमान आंदोलन मे क्या छुआछूत का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है या द्रविड आंदोलन ये मानता है के छुआछूत खत्म करने की लड़ाई केवल सवर्णों और दलितों का प्रश्न है और पिछड़ी जातियों का इससे लेना देना नहीं है ?
मानवमल, सीवर मे घुसकर मरने वालों मे तमिलनाडु भारत के ‘अग्रणी’ राज्यों मे है। सफाई कर्मचारी आंदोलन के अनुसार पिछले तीन वर्षों मे तमिलनाडु मे सीवर मे घुसकर मरने वालों की संख्या 55 है। 3000 से अधिक लोगों ने सरकार को लिख के दिया था कि वे मानवमाल ढोने के काम मे लिप्त है लेकिन वर्ष 2008-19 मे सरकार ने मात्र 264 लोगों के इस काम मे लिप्त होने की बात कही।
आज भी तमिलनाडु उन राज्यों मे है जहा अन्तर्जातीय विवाहों को लेकर बेहद तनातनी हो जाती है और जाति की सर्वोच्चता के सिद्धांतों का पालन करते हुए अपने बच्चों तक कि हत्या कर देते हैं। तमिलनाडू की एक संस्था एविडन्स की एक रिपोर्ट ये बताती है कि 2014-2019 तक 195 मामले ऑनेर किलिंग के सामने आए हैं लेकिन एक भी मामले मे न्याय नहीं मिल पाया है। आखिर जिन प्रश्नों के लिए पेरियार ने अपनी जिंदगी लगा दी वे सवाल ही अभी वैसे ही खड़े दिखाई दे रहे हैं। ब्रह्मणवाद निसन्देह इनमे से बहुतों के लिए जिम्मेवार है लेकिन 70 वर्षों से द्रविड अस्मिता के नाम पर पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाली सरकारों को भी तो हिसाब देना होगा कि उनकी ‘क्रांतिकारी’ धरती पर दलित अभी भी उत्पीड़ित और हसिए पर क्यों है ?