जातिगत भेदभाव को लेकर कब ख़त्म होगा भारतीयों का दोहरापन – सुभाष गाताडे

(समाज वीकली)

‘जाति समस्या- सैद्धांतिक और व्यावहारिक तौर पर एक विकराल मामला है. व्यावहारिक तौर पर देखें तो वह एक ऐसी संस्था है जो प्रचंड परिणामों का संकेत देती है. वह एक स्थानीय समस्या है, लेकिन एक ऐसी समस्या जो बड़ी क्षति को जन्म दे सकती है. जब तक भारत में जाति अस्तित्व में है, हिंदुओं के लिए यह संभव नहीं होगा कि वह अंतरजातीय विवाह करें या बाहरी लोगों के साथ सामाजिक अंतर्क्रिया बढ़ाएं. और अगर हिंदू पृथ्वी के दूसरे हिस्सों में पहुंचते हैं, तो फिर भारतीय जाति विश्व समस्या बनेगी.’

– डॉ. बीआर आंबेडकर (1916)

भारतीयों के मन में व्याप्त दोहरापन यही है कि वह ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर होने वाली ज़्यादतियों से उद्वेलित दिखते हैं, पर अपने यहां के संस्थानों में आए दिन दलित-आदिवासी या अल्पसंख्यक छात्रों के साथ होने वाली ज़्यादतियों को सहजबोध का हिस्सा मानकर चलते हैं.

वर्ष 1916 के मई महीने में कोलंबिया विश्वविद्यालय में मानव वंशशास्त्र विभाग में सेमिनार में डॉ. आंबेडकर ने ‘भारत में जाति- उनकी प्रणाली, उनका उद्गम और विकास’ (Castes In India- Their Mechanism, Genesis and Development) पर अपना पेपर पढ़ा था.

पेपर पढ़ते हुए उन्होंने इस बात की भविष्यवाणी की थी कि किस तरह एक दिन जाति विश्व समस्या भी बनेगी, उनके बोल थे, ‘अगर हिंदू दुनिया के दूसरे हिस्सों में पहुंचते हैं, तो फिर भारतीय जाति विश्व समस्या बनेगी.’

उनके इस वक्तव्य के 104 साल बाद उसी अमेरिका के कैलिफोर्निया से आई यह खबर इसी बात की ताईद करती है.

ध्यान रहे कैलीफोर्निया राज्य सरकार की तरफ से वहां की एक अग्रणी बहुदेशीय कंपनी सिस्को सिस्टम्स के खिलाफ दायर एक मुकदमे के बहाने यही बात नए सिरे से उजागर हुई है, जिसका फोकस वहां कार्यरत एक दलित इंजीनियर के साथ वहां तैनात दो कथित ऊंची जाति के इंजीनियर द्वारा जातिगत भेदभाव की घटना से है.

ध्यान रहे जब पीड़ित दलित इंजीनियर ने कंपनी से इस बात की शिकायत की तो कंपनी ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की, इसलिए उस दलित इंजीनियर को राज्य सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ फेयर एम्प्लॉयमेंट की शरण लेनी पड़ी.

मालूम हो कि कैलिफोर्निया के डिपार्टमेंट ऑफ फेयर एम्प्लॉयमेंट एंड हाउसिंग की तरफ से जारी प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है कि किस तरह सेंट जोस स्थित सिस्को कंपनी के मुख्यालय में, जहां दक्षिण एशिया के लोग बहुलता में तैनात हैं, वहां उपरोक्त दलित इंजीनियर को प्रताड़ित किया गया तथा उसके खिलाफ बदले की कार्रवाई की गई क्योंकि वह दलित तबके से संबंधित है.

सिस्को सिस्टम्स – जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ख्यातिप्राप्त कंपनी है- ऐसी कंपनी में जातिभेद के मामले की उपस्थिति के इस प्रसंग से कई ऐसी बातें सामने आती हैं जिन पर आम तौर पर चर्चा नहीं होती.

यह वह बातें हैं जिसकी तरफ आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर- जो अमेरिका में बसे दलितों का एक फोरम है- ने कैलिफोर्निया के उपरोक्त डिपार्टमेंट को लिखे खत में संकेत किया था, जब यह लिखा कि यह घटना दरअसल ‘एक व्यापक परिघटना को प्रतिबिंबित करती है.’

कहने का तात्पर्य  है कि ऐसी घटनाएं दक्षिण एशियाई बहुल संस्थानों में काफी प्रचलित हैं. एक मोटे अनुमान के हिसाब से अमेरिका में दक्षिण एशियाई मूल के लोग एक प्रमुख एथनिक समूह के तौर पर मौजूद हैं, जिनकी तादाद 43 लाख के करीब है.

भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांगलादेश, श्रीलंका और भूटान से आने वाले या वहां के मूल निवासी यह लोग मुख्यतः कैलिफोर्निया, न्यूयॉर्क, न्यूजर्सी, टेक्सास, एलिनॉइस और कॅरोलिनास में बसे हैं.

अगर एक पुराने अध्ययन को देखें- जिसे पेनिसिल्वानिया विश्वविद्यालय ने 2003 में किया था- तो वहां बसे 25 लाख भारतीयों में 90 फीसदी ऊंची जाति से संबंधित हैं और लगभग डेढ़ फीसदी लोग दलित या अन्य पिछड़ी जातियों से हैं.

अगर हम ‘इक्वॉलिटी लैब्ज’ द्वारा अंजाम दिए गए एक सर्वेक्षण को देखें, जिसमें अमेरिका में बसे दक्षिण एशियाई मूल के 1,500 लोगों से संपर्क किया गया था, उसमें इस बात की पुष्टि की गई थी कि दक्षिण एशियाई बहुल अमेरिकी संस्थानों में दलितों को विभिन्न किस्म के जातिभेद का सामना करना पड़ता है.

यह भेदभाव अपमानजनक जोक्स से लेकर भद्दी टिप्पणियों, शारीरिक हिंसा और यौनिक हमले तक फैला हुआ है.

वर्ष 2016 के उपरोक्त सर्वेक्षण को दो साल पहले प्रकाशित किया गया जिसका शीर्षक था ‘कास्ट इन द यूनाईटेड स्टेटस: ए सर्वे ऑफ कास्ट अमंग साउथ एशियन अमेरिकंस.’

फिलवक्त यह नहीं बताया जा सकता कि सिस्को में जातिभेद के इस प्रसंग का परिणाम क्या होगा, लेकिन इस प्रसंग के बहाने फॉर्च्युन 500 कंपनियों में- जो दक्षिण एशिया से खासकर भारत से कार्यबल नियुक्त करने पर जोर देती हैं-  लंबे समय से चली आ रही इस परिपाटी की तरफ लोगों का ध्यान गया है, जिसमें खुले या प्रच्छन्न रूप से जातिभेद की घटनाएं सामने आती रहती हैैंं.

सिस्को के बहाने इंडियन एक्सप्रेस का संपादकीय एक मार्के की बात रेखांकित करता है. उसके मुताबिक, ‘भारत के लोग जब विदेशों में जाते हैं तो वह अपनी कुशलताओं, अपनी तमन्नाओं या बॉलीवुड के स्टार्स को लेकर अपनी दीवानगी के साथ साथ गैर-बराबरी के उस समूचे ढांचे को भी साथ ले जाते हैं, जिसमें जाति एक अहम कारक होता है.’

वे सभी जिन्होंने विदेशों में बसे भारतीयों की मूल्य मान्यताओं पर गौर किया है, उनका समाजशास्त्रीय अध्ययन किया है वह बता सकते हैं कि यह मामला कितना व्यापक है.

एक दशक पुरानी हो चुकी ब्रिटिश सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि किस तरह वहां रोजगार और सेवाओं को प्रदान करने के मामले में दक्षिण एशिया से आने वाले लोग जातिगत भेदभाव का शिकार होते हैं.

ब्रिटिश सरकार के ‘समता विभाग’ की तरफ से किए गए इस सर्वेक्षण में यही पाया गया था कि किस तरह वहां रह रहे लगभग पांच लाख एशियाई लोगों में यह स्थिति नज़र आती है, जिसके लिए विशेष कदम उठाने की जरूरत है.

सरकार द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण में चंद केस स्टडीज भी पेश किए गए थे, जिसमें दलित तबके से संबद्ध लोगों ने बताया था कि किस तरह उन्हें उनके वरिष्ठ- जो ऊंची कही जाने वाली जाति से ताल्लुक रखते थे- के हाथों प्रताड़ना झेलनी पड़ी.

ब्रिटेन जैसे मुल्क में- जहां दक्षिण एशियाई लोगों की काफी तादाद है- मामला इस कदर आगे बढ़ा था कि सरकार ने वहां रह रहे दलितों को झेलने पड़ रहे इस भेदभाव को लेकर कदम उठाने का ऐलान भी किया और फिर उन्होंने दबाव में आकर इस फैसले को दो साल तक मुल्तवी कर दिया.

दबाव डालनेवाले वे हिंदू संगठन थे, जो साधनों के मामले में अधिक संपन्न थे और जिनमें वर्चस्वशाली कही जाने वाली जातियों के लोगों का नेतृत्व था और जिन्हें यह बात हजम नहीं हो रही थी कि दलितों ने ‘व्यापक हिंदू एकता’ के उनके गढंत (Construct) को चुनौती दी थी.

विडंबना ही है कि एक तरफ जाति की उपस्थिति और उसका निरंतर महिमामंडन, उसके अनुरूप आचरण, मगर दूसरी तरफ उच्च-नीच अनुक्रम पर टिकी इस सच्चाई को स्वीकारने से इनकार, इस पाखंडपूर्ण आचरण के चलते कई बार भारतीय लोग विदेशों में भी हंसी का पात्र बनते दिखते हैं.

मिसाल के तौर पर हम मलेशिया को देखें, जहां आबादी का 7 फीसदी भारतीय मूल के लोग हैं, जिनका बहुलांश दक्षिणी राज्यों से- खासकर तमिलनाडु से है.

वहां भारतीयों का ‘हिंड्राफ’ (Hindraf) नामक एक बड़ा संगठन है. कुछ साल पहले खबर आई थी कि उपरोक्त संगठन के कार्यकर्ता इस बात से नाराज थे कि मलेशिया के स्कूलों में बच्चों के अध्ययन के लिए जो उपन्यास लगाया गया था, वह कथित तौर पर भारत की ‘छवि खराब’ कर रहा था.

आखिर उपरोक्त उपन्यास में ऐसी क्या बात लिखी गई थी, जिससे वहां स्थित भारतवंशी मूल के लोग अपनी ‘मातृभूमि’ की बदनामी के बारे में चिंतित हो उठे थे.

अगर हम बारीकी से देखें तो इस उपन्यास में एक ऐसे शख्स की कहानी थी, जो तमिलनाडु से मलेशिया में किस्मत आजमाने आया है और वह यह देखकर हैरान होता है कि अपनी मातृभूमि पर उसका जिन जातीय अत्याचारों से साबका पड़ता था, उसका नामोनिशान यहां नहीं है.

हिंड्राफ की आपत्ति के बाद वहां के अख़बारों में इस बात को उजागर करते हुए लेख भी छपे तथा यह बताया गया कि अपने यहां जिसे परंपरा के नाम पर महिमामंडित करने में भारतीय लोग संकोच नहीं करते हैं, उच्च-नीचअनुक्रम पर टिकी इस प्रणाली को मिली दैवी स्वीकृति की बात करते हैं, आज भी आबादी के बड़े हिस्से के साथ (जानकारों के मुताबिक) 164 अलग-अलग ढंग से छुआछूत बरतते हैं, वही बात अगर सरहद पार की किताब में उपन्यास में ही लिखी गई तो वह उन्हें अपमान क्यों मालूम पड़ती है.

गौरतलब है कि अपने यहां की विशिष्ट गैर-बराबरी का बाहर जिक्र होते देख आगबबूला होते देख मलेशिया में स्थित भारतवंशी अनोखे नहीं थे.

अमेरिका की सिलिकान वैली- सेन फ्रांसिस्को बे एरिया के दक्षिणी हिस्से में स्थित इस इलाके में दुनिया के सर्वाधिक बड़े टेक्नोलोजी कॉरर्पोरेशंस के दफ्तर हैं-  में तो कई भारतवंशियों ने अपनी मेधा से काफी नाम कमाया है.

मगर जब कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में पाठयक्रमों की पुनर्रचना होने लगी- वही कैलीफोर्निया जो सिस्को के चलते चर्चा में है- तब हिंदू धर्म के बारे में एक ऐसी आदर्शीकृत छवि किताबों में पेश की गई, जिसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं था.

अगर इन किताबों को पढ़कर कोई भारत आता तो उसके लिए न जाति-अत्याचार कोई मायने रखता था, न स्त्रियों के साथ दोयम व्यवहार कोई मायने रखता था.

जाहिर है हिंदू धर्म की ऐसी आदर्शीकृत छवि पेश करने में रूढ़िवादी किस्म की मानसिकता के लोगों का हाथ था, जिन्हें इसके वर्णन मात्र से भारत की बदनामी होने का डर सता रहा था. साफ था इनमें से अधिकतर ऊंची कही जाने वाली जातियों में जनमे थे.

इस समूचे मसले को लेकर दलित ट्रांसमीडिया आर्टिस्ट और एक्टिविस्ट थानमोजी सौंदरराजन का एक आलेख काफी प्रासंगिक है.

अमेरिका में रह रही दलित मूल की लेखक ने इसमें बताया था कि वहां आप्रवासी भारतीयों के एक हिस्से में सक्रिय ‘धर्मा सिविलाइज़ेशन फाउंडेशन’ जैसे समूहों की तरफ से यह दलील दी जा रही है कि हिंदुओं में जाति और पुरुषसत्ता का चित्रण किया जाएगा तो वह ‘हिंदू बच्चों को हीनभावना’ से ग्रसित कर देगा और उनकी ‘प्रताड़ना’ का सबब बनेगा, लिहाजा उस उल्लेख को टाला जाए.

और वह बताती हैं कि ऊपरी तौर पर आकर्षक लगने वाली यह दलील दरअसल सच्चाई पर परदा डालने जैसी है क्योंकि वही तर्क फिर नस्लवाद के संदर्भ में भी इस्तेमाल किया जा सकता है और किताबों से उसकी चर्चा को गायब किया जा सकता है.

कोई कह सकता है कि यह कोई प्रातिनिधिक घटनाएं नहीं हैं और ऐसे उदाहरणों को भी ढूंढा जा सकता है, जहां भारतीयों की अलग छवि सामने आती हो.

खैर, मलेशिया, अमेरिका और ब्रिटेन तीनों स्थानों पर जमे हिंदुस्तानियों का यह व्यवहार निश्चित ही हमें सोचने के लिए मजबूर करता है. विदेशों में बसे भारतीयों में भी अगर जाति की इतनी जकड़ दिखाई देती है, तो हम भारत के अंदर की कल्पना ही कर सकते हैं.

जी. अलॉयसियस अपनी किताब ‘द ब्राह्मनिकल इंस्क्राइब्ड इन बॉडी पॉलिटिक’ में आधुनिक प्रत्ययों में आज भी किए जा रहे जाति के गुणगान का जिक्र करते हैं,

‘ऐसे लेखकों की कमी नहीं है जो ‘जाति’ को महिमामंडित करते हैं, यहां तक कि ब्राह्मणवाद की भाषा में ही उसे अंजाम देते है, जिनका तर्क यह होता है वर्ण-व्यवस्था एक तरह से ‘बहुसंस्कृतिवाद का ही सूक्ष्म रूप’ है, ‘पर्यावरणीय प्रबंधन का शिखर’, ‘अनियंत्रित व्यक्तिवाद का स्वास्थ्य प्रतिकारक’ आदि…

दूसरे, एक अन्य समूह भी है जो संभवतः ‘दंभी किस्म के उत्तर आधुनिकतावाद’ से प्रेरित हैं या ‘हिंदू धर्म के अंदर से अध्ययन करने का दावा करता है, वह जब भी भेदभाव की स्थितियां चुनौतीपूर्ण स्तर तक पहुंच जाती है, अर्थात जब ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का सवाल आता है, तब ‘भिन्नता’ (डिफरेंस) की बात पर जोर देने लगता है…

एक तीसरी धारा अधिक व्यापक है … जो रक्तसंबंध/नातेदारी संस्था या अंतर्विवाही समूह के तौर पर जाति के वैभव के बारे में: ‘सुख सुविधा के तौर पर जाति, नागरिकता हासिल करने के साधन के तौर पर जाति, और अंततः ‘पहचान के तौर पर जाति’ की बात करती है.’ (G. Aloysious, Page 29, The Brahminical inscribed in Body Politic)

जाहिर है भारतीयों के मानस में व्याप्त यह दोहरापन ही है कि जहां वह ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर होने वाली ज्यादतियों से उद्वेलित दिखते हैं, पर अपने यहां के शिक्षा संस्थानों में आए दिन दलित-आदिवासी या अल्पसंख्यक तबके के छात्रों के साथ होने वाली ज्यादतियों को सहजबोध का हिस्सा मानकर चलते रहते हैं.

पिछले दिनों एक फिल्म आई थी कलर ऑफ डार्कनेस,’ गुजरात के गिरीश मकवाना द्वारा निर्देशित यह फिल्म गुजराती और अंग्रेजी में थी, जिसने इस मसले के सामान्यीकरण को प्रश्नांकित किया था.

Previous articleਮਿੱਟੀ ਨੂੰ ਸੋਨਾ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਹੋਏ ‘ਬਾਈਪਾਸ’
Next articlePortfolios allocated in MP, Scindia loyalists get good share