क्या खोए फौजी का भी कोई मानवाधिकार है?

(समाज वीकली)

– पुष्कर राज

जब हम अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस का जश्न मना रहे हैं, यह पूछना लाजिमी है कि देश के किसी खोए फौजी का भी कोई अधिकार है, जिसे हम धड़ल्ले से कह सकें।

यह सवाल उस देश में शर्मिंदगी का सबब हो सकता है, जो अपने फौजियों की जिंदगी और मौत की कसमें खाता रहता है। यह सही भी है क्योंकि कोई फौजी समाज में सबसे होनहार और देश का गौरव होता है। वह देश की रक्षा में गोलियां झेलता है, ‘और मारो कहता है’ और खेत रहता है इसलिए वह पूजे जाने का हकदार है, न कि उन बुनियादी अधिकारों से वंचित होने का, जिसका जश्न हम मनाते हैं।

इससे कौन इनकार करेगा?

लेकिन कोई फौजी अगर विश्व मानवाधिकार घोषणापत्र की धारा पांच और छह में वर्णित पहचान और गरिमा के बुनियादी अधिकार से न सिर्फ वंचित रह जाता है, बल्कि अपने ही देश में उसकी धारा नौ में प्रदत्त अधिकारों के उल्लंघन से पीडि़त होता है तो यह सिर्फ भारी शर्मिंदगी का ही नहीं, गहरी चिंता का विषय है।

कैप्टन संजीत भट्टाचार्जी की कोई पहचान, गरिमा नहीं
फिलहाल कैप्टन संजीत भट्टाचार्जी, एसएस35271डब्लू, 7/8, (जो आज ब्रिगेडियर होते) पाकिस्तान की किसी बदनाम जेल के तंग तहखाने में बंद हैं। उन्हें ‘मेंटल’, ‘बंगाली’, ‘सलीम’ कहकर दुत्कारा जाता है, मगर ‘तानाजी’ कहकर कोई नहीं पुकारता, जैसा कि उन्हें अपनी यूनिट में प्यार से बुलाया जाता रहा है।

कैप्टन संजीत भट्टाचार्जी 19-20 अप्रैल 1997 की दरम्यानी रात कच्छ के रन में पाकिस्तान से लगी सीमा पर अपनी प्लाटून के साथ गश्त पर निकले थे। अगले दिन कैप्टन और लांस नायक राम बहादुर थापा के अलावा प्लाटून के 15 फौजी लौट आए।

अब तक वे नहीं लौटे हैं।

कैप्टन संजीत के पिता अपने सबसे छोटे और लाडले बेटे का 23 साल तक इंतजार करते 28 नवंबर 2020 को दम तोड़ गए।
कैप्टन संजीत की मां 81 साल की उम्र में आज भी बेटे का इंतजार कर रही हैं।

लांस नायक थापा के परिवार के बारे में कोई जानकारी नहीं है।

सेना की प्रतिक्रिया
सेना के 24 अप्रैल-28 अप्रैल 1997 के दर्ज रिकॉर्ड से पता चलता है कि कैप्टन संजीत को पाकिस्तानी मछुआरों ने उस पार सीमा चौकी 1162 और 1165 के बीच पाकिस्तानी फौज के मेजर कियानी को सौंपा। उमरकोट चौकी के कैप्टन उमर 28 अप्रैल को मिले क्योंकि ‘‘भारतीय सेना के दो खोए फौजी हैदराबाद के बाहरी इलाके में पूछताछ केंद्र में ले जाए गए हैं।’’

सेना ने बीमार पिता को उनकी तलाश के लिए किए गए प्रयासों की जानकारी नहीं दी, जो उनका सबसे होनहार बेटा था (वे कराटे में ब्लैक बेल्ट और बाधा दौड़ में अव्वल होने का खिताब जीत चुके हैं) और आज दुश्मन देश की हिरासत में है।

सेना ने आज तक परिवार से कोई जांच रपट साझा नहीं की है, यह कहकर कि ‘‘यह महज कार्रवाई का ब्यौरा है।’’

हालांकि फरवरी 2005 में पिता को तत्कालीन रक्षा मंत्री से ‘‘उनके बेटे की असमय मृत्यु’’ पर शोक जताते हुए एक चिट्ठी मिली थी, ‘‘जिसे पहले खोया हुआ घोषित किया गया था!’’

मई 2010 में राष्ट्रपति सचिवालय ने माता कमला भट्टाचार्जी को चिट्ठी लिखकर जानकारी दी कि उनके बेटे का नाम ‘‘खोए 54’’ की तरह युद्धबंदियों की मौजूदा सूची में शामिल किया गया है, और उनके मामले को 1997 के बाद से पाकिस्तानी अधिकारियों के सामने उच्च स्तर पर उठाया गया है, ‘‘जुलाई 2001 में आगरा शिखर वार्ता’’ के दौरान भी उनका मामला उठाया गया।

यह चिट्ठी उन दर्जनों अर्जियों और पत्रों का जवाब थी, जो सेना की दक्षिणी कमान, रक्षा मंत्रालय, और तीन प्रधानमंत्रियों को भेजी गई थीं। यह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना के सर्वोच्च कमांडर से बड़ा निराशाजनक जवाब था। इससे परिवार पूरी तरह टूट गया।

कैप्टन संजीत भट्टाचार्जी युद्धबंदी नहीं
विडंबना देखिए कि कैप्टन युद्धबंदी नहीं हैं, जैसा उन्हें बताया गया है।
उस रात भारत का पाकिस्तान से कोई युद्ध नहीं था, जब अचानक आए ज्वार में वे लांस नायक राम बहादुर थापा के साथ फंस गए थे।
अचानक ज्वार के दौरान रन बेहद रौद्र रूप धारण कर लेता है और आला नक्शानवीस भी धोखा खा बैठता है, वह बहकर या डूबकर दूसरे किनारे पर पहुंच जाता है, जहां पाकिस्तान मछुआरे उसे बचाकर फौजियों को सौंप देते हैं। वहां अदलती-बदलती सीमा में दोनों देशों के मछुआरों की यह सामान्य प्रक्रिया है।

कैप्टन संजीत भट्टाचार्जी के हालात भी अपने काम पर गए किसी मछुआरे से अलग नहीं थे, जब वे शांतिकाल में गश्त के लिए निकले थे। फर्क बस यह था कि उनके पास मछली मारने के जाल की जगह हथियार थे, जिसका उन्होंने किसी पर इस्तेमाल नहीं किया था।

भारत अप्रैल 1997 के बाद से पाकिस्तान के साथ अपने अनेक नागरिकों की अदला-बदली कर चुका है क्योंकि यह कोई राजनैतिक नहीं, मानवीय मसला है।

तो, क्या यह फिल्म वीर जारा के नायक जैसा दुर्भाग्य, लाचारगी, दुख-दर्द और शायद मृत्यु वरण करने की दर्दनाक दास्तान नहीं है? वीर जारा के नायक की तो व्यक्तिगत परेशानियां थीं, जबकि कैप्टन संजीत भट्टाचार्जी तो देशसेवा में झेल रहे हैं।

कैप्टन संजीत भट्टाचार्जी फिल्मी नहीं, असली नायक हैं इसलिए तमाम दूसरे क्षेत्रों के सितारों से अधिक गरिमा के हकदार हैं।

यह भी गौरतलब है कि कैप्टन संजीत भट्टाचार्जी अभी मरे नहीं हैं क्योंकि ऐसा कोई सबूत नहीं है, सिर्फ किसी असंवेदनशील अफसर का एक कागज पर उड़ेली स्याही ही है, जिसका कोई खास मायने नहीं होता।

कैप्टन संजीत खोए हुए हैं, भुलाए नहीं गए हैं, कम से कम उनकी मां के लिए कतई नहीं, जिन्हें जानने का हक है कि अगर वे जिंदा हैं तो कहां हैं? अगर वे मर गए हैं तो उनकी कब्र कहां है!

सरकार का जवाब और आगे की राह
बिना नाम लिए यह कहना कुछ कमतर होगा कि अधिकारियों का जवाब, उनकी भूमिका और रवैया निराशाजनक है।

सरकार की दलील यह है कि पाकिस्तान लगातार किसी युद्धबंदी के होने से इनकार करता रहा है, इसलिए वह उनकी मौजूदगी की जानकारी होते हुए भी कुछ नहीं कर सकती। उसने गुजरात हाइकोर्ट के 2011 के निर्देश के बावजूद अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में इस मामले को ले जाने और जेनेवा संधि (जिसका वह सदस्य है) का इस्तेमाल करने से इनकार करने की वजह साझा नहीं की है।

मौजूदा खोए सैनिकों के प्रति सरकार का रवैया हमारे बहादुर जवानों को अपना मानने से इनकार करने जैसा है। यह संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र की धारा नौ का सरासर उल्लंघन है, जो कहती है कि ‘‘किसी को निरंकुश ढंग से गिरफ्तार, पकड़ा या देशनिकाला नहीं दिया जाएगा।’’

बहरहाल, भारत सिर्फ नेताओं और अफसरशाहों का ही नहीं है, जो सरकार चलाते हैं। कैप्टन संजीत और लांस नायक राम बहादुर थापा देश के 12 लाख परिवारों से जुड़े हैं, जो अपने खोए सदस्यों को कभी नहीं भुलाता। एक बात तो तय है कि देश के 1.2 अरब लोग अपने जवानों के बलिदान को याद करते हैं और अपनी मातृभूमि के रखवालों को उचित स्थान पर बैठाते हैं, जो किसी दुश्मन देश की जेल तो नहीं हो सकती।

कोई जवान चाहे खो जाए, किसी वृक्ष की तरह दो टुकड़े कर दिया जाए, तिल-तिलकर मौत को वरण करने पर मजबूर हो, उसे भुलाया तो नहीं जा सकता।

और कुछ नहीं तो वे याद किए जाने के हकदार तो हैं ही!
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(संजीत भट्टाचार्जी एसएस-54 आफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी (तब) मद्रास में मेलबोर्न स्थित लेखक के बैच मेट और साथी रहे हैं। लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के शिक्षक और पीपुल्स युनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के राष्ट्रीय महासचिव रह चुके हैं)

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