(समाज वीकली)
हर रोज़ मोबाइल खोलने से पहले दिल तो घबरा जाता है। मौत की ख़बर सुनकर और देखकर बहुत डर लगने लगा है। फिर भी मोबाइल पर सोशल मीडिया साइट्स खोला। बहुत सारे लोगों के लिए सोशल मीडिया घर की खिड़की है, जहां से दुनिया देखती है। कम से कम यह पढ़े-लिखे या नीम पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवानों की बड़ी फौज सोशल मीडिया पर हर वक़्त ‘एक्टिव’ रहती है। इन में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सोशल मीडिया प्लेटफार्म का इस्तेमाल कर कुछ करना चाहते हैं। कोई नेता बनना चाहता है, कोई ‘इंटेलेक्चुअल’ तो ‘कोई हॉट सेलिब्रेटरी’।
दोपहर का वक़त था, जब मैं नींद से जागा और मोबाइल खोला। सोशल मीडिया पर आज मंज़र कुछ अलग था। आज ऑक्सीजन की कमी वाली पोस्ट कम दिखी। ‘अस्पताल-में-बेड-चाहिए’ जैसे पोस्ट भी कम तैरते दिखे। ‘मरीजों-को- दवाई-चाहिए’ जैसे पोस्ट लगभग नदारद थे। एक मिनट के लिए ऐसा लगा गोया कोरोना से हम जंग जीत चुके हों और इंसानियत जीत गई हो। आज जनता किसी और जीत-हार के खेल में मशरूफ नज़र आई। दिलचस्प बात यह है कि इसका संबंध सीधे तौर पर कोरोना से नहीं है।
आज जिस बात की चर्चा हर तरफ हैं, वह चुनावी नतीजे हैं। देश के बहुत सारे राज्यों में हाल के दिनों में इलेक्शन हुए हैं। जब कोरोना के मामले बड़ी तेजी से बढ़ रहे थे, तब भी इंतेखाबी रैली जमा हो रही थी। दवा और दारू का इंतेजाम करने और कोरोना के खिलाफ मंसूबा बनाने के के बजाए, देश के हाकिम बड़ी बड़ी रैली कर रहे थे। जिनको करोड़ों लोगों ने देश की जिम्मेदारी दी थी, उनको चुनाव जीतने का भूत सवार था। एक पल के लिए भी उन्होंने अगर सोच लिया होता कि भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में किसी महामारी से मुकाबला करना दुनिया का सबसे कठिन काम है, तो शायद इनती तबाही नहीं होती।
भारत में सालों से ‘पब्लिक हेल्थ’ की रीढ़ की हड्डी तोड़ी जा रही है। पैसे के लालच और निजी कंपनियों के ख़ज़ाने को भरने के लिए, सरकारी अस्पताल को तबाह किया जा रहा है। शासक वर्ग देश को दुनिया की अज़ीम ताकत बनाने के लिए बैचेन हैं, मगर उसने कभी यह नहीं सोचा कि कह देने से और प्रचार कर देने से चीज़ें नहीं बदल जाती। आखिर भारत को क्या हक है दुनिया का लीडर बनने का? जो ‘रूलिंग क्लास’ खुद अपने मुल्क की जनता की जान नहीं बचा सकता, वह कैसे दुनिया के लोगों की हिफाज़त करेगा? क्या यह सच नहीं है कि स्वस्थ और अन्य क्षेत्रों में भारत के बहुत सारे पड़ोसी देश भारत से ज्यादा बेहतर काम कर रहे हैं?
मगर अफ़सोस की ऐसे सवाल कभी चुनाव का ‘इशूज़’ नहीं बनते। भारत जैसे देश में चुनाव धीरे धीरे एक ‘पीआर गेम’ में बदलने लगा है। चुनावी रैलियों में भीड़ कैसे जमा किया जाये, यह सवाल नेताओं के सर पर सबसे ज्यादा अहम् है। खुद देश का सबसे बड़ा नेता लोगों की भीड़ को देख कर ऐसा झूम जाता है, गोया उसने कुबेर का खज़ाना पा लिया हो।
कोरोना गाइडलाइन्स अगर बने हैं, तो उसको पालन करने की ज़िम्मेदारी गरीब जनता पर है। अगर कोई गरीब सब्जीफरोश कर्फ्यू आवर के बाद सब्जी बेचते हुए पाया जाता है तो उसकी सब्जी पुलिस सड़क पर उलट देती है। क्या यह पुलिस उसी तरह नेताओं की रैली को उलटने की हिम्मत रखती है? हरगिज़ नहीं। पुलिस के कानून तो कमज़ोर लोगों के लिए होते हैं। क्या देश के बड़े नेताओं की यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह सब से पहले कोरोना नियमों का पालन करें और लोगों के लिए मिसाल बनें? मगर उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया। चुनावी रैलियों में मास्क पहनने के बजाय, मंत्रियों ने कांफ्रेंस रूम में मास्क पहनने का नाटक किया। इन कांफ्रेंस रूम में वे अक्सर अकेले होते थे, जहाँ से वे वीडियो कांफ्रेंस करते थे।
तभी तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कोरोना का संक्रमण इन रैलियों से जरूर पसरा होगा। अगर दो आदमी के करीब आने और मास्क न लगाने की सूरत में कोरोना फैल सकता है, तो हजारों और लाखों की भीड़ जमा होने पर बीमारी ज़रूर ही फैली होगी। याद रखिये की इन रैलियों में बहुत सारे लोग मास्क के बगैर नज़र आयें। क्या इससे ज्यादा बेहिस किसी देश के हुक्मरां हो सकते हैं?
इनता ही नहीं चुनाव जीतने और हिन्दुओं की “भावना” का “आदर” करते हुए, कुंभ महामेला की अनुमति दी गई। सत्ता और विपक्ष में बैठे लोग खुद को हिंदू और हिंदू धर्म का “हितैषी” साबित करेंगे, के लिए मुकाबला करते नज़र आयें। महाकुंभ में जमा हुए लाखों लोगों को “श्रद्धालु”, कहा गया। वहीँ पिछले साल जब मजबूरी में कुछ सौ लोग तबलीगी जमात के दिल्ली आफिस में रुक गए, तो मुसलमानों पर कोरोना फैलाने का सारा दोष थोप दिया गया था।
कुम्भ के लिए सरकारी पैसे को पानी की तरह बहाया गया। खूब इश्तेहार लगाया गया। करोड़ों का विज्ञापन बड़े बड़े अख़बारों के दिया गया। मंत्री और नेता खुद स्नान करने के लिए हजारों की भीड़ में गए। उन्होंने मास्क लगाना तक जरूरी नहीं समझा। कुछ नेताओं ने तो हद कर दी और कहा कि कुंभ में भगवान के आशीर्वाद से कोरोना नहीं फैलेगा। मगर कोरोना फैलता गया। मूर्ख अपनी आंखों पर पट्टी बांधे रहें। वे शुतुरमुर्ग की तरह सच का इंकार करते रहे। मक्कार नेताओं को लगा कि पहले की तरह वे इस बार भी हर चीज को पालतू मीडिया की मदद से मैनेज कर लेंगें। माल बनाने वाले इन सियासतदां की नज़र में राजनीति सिर्फ ‘परसेप्शन मैनेजमेंट’ है। मतलब यह कि प्रोपेगेंडा करना काम करने से ज्यादा अहम् है। पैसे और प्रचार के जोर पर सच को झूठ और झूठ के सच साबित किया जा सकता है। खुद के काम को सबसे बेहतर दिखाओ, चाहे उस का कितना भी नुकसान जनता को क्यूँ न हो। दूसरी तरफ, अपने विरोधिओं को हमेशा ‘विलेन’ बना का पेश करो।
भारत का लोकतंत्र आज बड़े संकट में है। यहां के नेता चुनाव पर करोड़ों का खर्च करते हैं। भारत में बड़ी पार्टियां जितना इलेक्शन पर खर्च करती हैं, उतना पैसा तो अमीर देश की बहुत सारी पार्टी नहीं कर पाती है। देश का लीडर अपनी इमेज को चमकाने के लिए इतना बेचैन हैं कि वह अपनी तस्वीर हर जगह छपवा देना चाहता है। उसकी चले तो उसकी तस्वीर हर घर के ईंट पत्थर पर भी होनी। बर्तन और चम्मच पर भी उसकी तस्वीर होनी। कंडोम से ले कर कफ़न तक उसका ही नाम लिखा होना चाहिए।
तजाद देखिये की मूर्ति, स्टेच्यू, पार्लियामेंट की नई इमारत पर हजारों करोड़ रुपया बहाया जा सकता हैं, मगर ऑक्सीजन का एक प्लांट, जिससे सैकड़ों और हजारों लोगों की जान बचाई जा सकती है, पर कुछ करोड़ निकालने के लिए सरकार तैयार न थी। कभी-कभी मैं सोचने लगता हूँ कि हमारे देश के नेता वाकई में इंसान हैं? अगर इन्सान होते तो इन्सान का दर्द क्यूँ नहीं समझते? क्या अस्पताल में मरने वाले मरीजों की आह शासक वर्ग के महलों तक नहीं पहुंची होगी? जब सिकंदर-ए-आज़म की मौत हुई और हिटलर ने ख़ुदकुशी की तो इनको अपनी मौत से डर नहीं लगता? उनके संग दिल और बेहिस जिस्म की देख कर लगता है कि देश का शासक वर्ग एक रॉबर्ट बन चुका है, जिसका रिमोट कंट्रोल शैतान के हाथ में हैं। अगर मैं गलत होता तो अब तक उनका दिल पिघल गया होता और ऑक्सीजन के बग़ैर लोगों की जान नहीं जाती?
शासक वर्ग समझता है कि हथियार जमा कर वह भारत को महाशक्ति बना देगा और और खुद को इस दौर का सिकंदरे आजम। मगर उनकी आँखों में पानी होता तो यह देख पाते की रेत के ढेर पर ईमारत नहीं टिकती। जो देश खुद को सुपरपावर बनने का सपना देख रहा है वह आज दुनिया को कुछ दे नहीं रहा है बल्कि दुनिया से ले रहा है। ऑक्सीजन और दवाई की मदद उसको की जा रही है। आज भारत अपना दामन फैलाए हुए है। क्या राष्ट्र के लिए, जिसकी सियासत हमारे हुक्मरान करते हैं, इस से शर्मनाक बात और कुछ हो सकती है?
कोरोना के समय सरकार की बड़ी विफलता का कुछ असर आज के चुनावी नतीजे में भी दिख रहा है। मगर यह सोच लेना की आज का ‘रिजल्ट’ रात को दिन कर देगा यह भी ठीक नहीं है। मैं पॉलिटिकल साइंस पढ़ा भी हूं और पढ़ाता भी हूं, मगर चुनाव को मैं चुनाव से ज्यादा अहमियत नहीं देता। इलेक्शन कौन जीतेगा और कौन हारेगा पर अपनी तवानाई ज्यादा खत्म नहीं करता। याद रखिये चुनाव जीतना आज एक ‘इंडस्ट्री’ हो गई है। अगर आपके पास पैसा है और संस्थाओं पर कब्जा है तो आप कुछ भी साबित कर सकते हैं। पैसा खिलाकर पत्रकार, मीडिया और तथाकथित स्कॉलर से कुछ भी लिखवाया और कहलवाया जा सकता है। ये लोग एक एक नंबर के करियर बाज हैं।
दोस्तो, मैं आपको चुनाव के नतीजों का विश्लेषण और तबसरा करने से नहीं रोक रहा हूं। अभिव्यक्ति की आज़ादी ज़रूरी है। सामप्रदायिक शक्ति की हार राहत देती है। मगर चुनाव की अपनी सीमाएं होती हैं। हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल समाज में व्याप्त सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी को दूर करना होना चाहिए। तभी तो कोरोना जैसी बड़ी महामारी के तार भी बहुत हद तक इसी सोशल और इकोनॉमिकल विषमता से जुड़े हुए हैं। तभी तो हमें ‘इलेक्शन रिजल्ट्स’ के शोर में खोकर, बड़े सवालों को ‘इग्नोर’ नहीं करना चाहिए।
– अभय कुमार
जेएनयू
2 मई, 2021