कोरोना काल में ईद का त्योहार और हमारी ज़िम्मेदारियाँ

(समाज वीकली)- मुल्क के बहुत सारे हिस्सों में आज ईद मनाई जा रही है। केरल के दोस्त और अहबाब ‘ईद मुबारक’ की ‘ग्रीटिंग’ भेज रहे हैं और मैं भी उनको ‘हैप्पी ईद’ कह रहा हूँ। उत्तर भारत समेत बाक़ी इलाक़ों में ईद कल मनाई जाएगी। जिनकी ईद आज है और जिनकी कल है, सबको मेरी तरफ़ से ढेर सारी बधाईयाँ।

ईद का मतलब “ख़ुशी” होता है। एक महीने तक अक़ीदतमंद रोज़ा रखते हैं, गुनाहों से तौबा करते हैं, अपने मालिक को याद करते हैं, उसके बाद उनको ईद का तोहफा मिलता है। इसलिए ईद की अहमियत काफ़ी बढ़ जाती है।

दीन-ए-इस्लाम के बारे में मेरी जानकारी बड़ी महदूद है। फिर भी कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ। इस्लाम धर्म में इबादत के साथ-साथ, बराबरी और इंसाफ़ करने, नेकी बरतने, दूसरों से भलाई करने, दौलत को जनता की सेवा में ख़र्च करने पर भी काफ़ी जोर दिया जाता है।

दूसरी तरफ़, दौलत जमा करना, लाचार और ज़रुरतमंदों से मुंह फेर लेना, ख़ुद को बड़ा समझना, किसी को सताना, जैसे कामों को बड़ा बुरा कहा गया है।

मगर बड़े अफ़सोस की बात है कि कई मौकों पर इस्लाम की इन अच्छी बातों पर अमल नहीं किया जाता है। मुनाफा कमाने और खुद को अमीर और मशहूर बनाने के लिए कुछ लोग कुछ भी कर गुज़रने से नहीं रुकते। यही वजह है कि समाज में आज भी ग़ुरबत और बदहाली बढ़ रही है, जबकि कुदरत ने देने में कोई कमी नहीं की है।

कोरोना के दौर में लोगों की परेशानी कई मर्तबा और बढ़ गई है। पिछले साल भी कोरोना ने खौफ़ और तबाही मचाई थी, मगर इस बार उसका क़हर और भी बढ़ गया है।

पिछले साल कुछ दोस्त मेरे कमरे पर आये थे और हमने कुछ लज़ीज़ पकाया भी था। मगर इस बार कुछ भी करने की हिम्मत नहीं हो रही है।
मगर कल रात एक दोस्त ने फ़ोन कर पूछा, “इस बार हमारी दावत ईद पर तय है न?”

सच पूछिये दोस्तों, मैं आपसे ज़्यादा मिलने को बेताब हूँ। साथ में खाना-पीना बहुत अच्छी चीज़ है, जो कितने दिनों के ‘स्ट्रेस’ को अचानक से दूर कर देता है। मगर
अभी मुझे उनको बुलाने की हिम्मत नहीं हो पा रही है।

कोरोना वबा की मार लोगों की जेब पर भी पड़ी है। बहुत सारे लोग बेरोजगार हो गए हैं, और जो नौकरी की तलाश में थे वह ख़ाली बैठे हैं। मैं भी तो कितने दिनों से घर पर ही बेरोजगारी के साथ क़ैद हूँ।

मगर जिनकी ज़िम्मेदारी बड़ी है और जिनके पास छोटे बच्चे हैं, उनकी हालत और भी नाज़ुक है। दुनिया में क्या चल रहा है, यह इन मासूम बच्चों को क्या ही मालूम? वे तो आपस में इस बात पर लड़ते हैं कि उनके अब्बू कल किसके लिए ज्यादा खुबसूरत और रंगीन लिबास खरीद कर लाएंगे। जबकि अब्बू उनकी बातें सुनकर अपनी जेब टटोलते रहते हैं और खुद को कोसते भी रहते हैं।

दूसरों की बात मैं क्या बताऊँ, खुद मेरे साथ पढ़े-लिखे बहुत सारे दोस्त ऐसी हालत से गुज़र रहे हैं। देश की अर्थव्यवस्था पहले से ही ख़राब चल रही थी, ऊपर से कोरोना ने उसे वेंटिलेटर पर ला दिया है। देश के हुक्मरां ‘लोगों की’ मदद करने के बजाय, अपनी ‘इमेज’ बेहतर करने में मसरूफ़ हैं। जहाँ दूसरे देशों ने कोरोना से लड़ने के लिए अस्पताल बनवाया, वहीं अपने देश के नाम-निहाद पालिसी-मेकर पार्लियामेंट की एक नई ईमारत बनाए जाने को तरजीह दे रहे हैं। कहा जा रहा है कि इस ईमारत का पैसा अगर अस्पताल बनाने पर लगा दिया जाए, तो दर्जनों अस्पताल खड़े हो जाएंगे।

जब सरकार ने लोगों से मुंह मोड़ लिया है तो जनता की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ गयी है। हमें आज अपने कमियों से तौबा करके एक अच्छा इन्सान बनना होगा। जब रियासत अवाम के कल्याण का काम छोड़ दे तो ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ की ज़िम्मेदारी आपको और हमको उठानी होगी।

बहुत दिन बाद कल मैंने अपने एक दोस्त को फ़ोनकर खैरियत पूछी और कहा कि, “ईद का इन्तेजाम हो गया है?” उनका जवाब दिल के दो टुकड़े कर देने वाला था, “ईद की तैयारी की आप बात कर रहे हैं, मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि मैं अपने नन्हे बच्चे के लिए एक पेंट भी खरीद पाउँगा या नहीं। कितने वक़्त से फटे पेंट में वक़्त गुज़र रहा है।“

सच मानिये दोस्त की बातों ने बहुत ग़मज़दा किया। 21वीं सदी में जब देश के लीडर और उनके चमचे बुलेट ट्रेन का सब्ज़ बाग़ दिखा रहे हैं, उसी मुल्क में एक ऐसा भी बाप है जो ईद से एक रोज़ क़ब्ल अपने बच्चों को एक नया पेंट देने के लिए भी पैसा नहीं रखता है। चाहे इकोनॉमिस्ट जो भी कहें, मुझे लगता है कि दुनिया में तरक्की नहीं हो रही है, बल्कि दुनिया मज़ीद बदहाली की तरफ जा रही है।

आज से अस्सी-नब्बे साल पहले, मशहूर कहानीकार प्रेमचंद ने हामिद बच्चे को मरकज़ में रख कर ‘ईदगाह’ कहानी लिखी थी। यतीम बच्चा हामिद ईद के मेले में गया, मगर उसके पास मिठाई खाने या खिलौना खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। उसकी बेवा दादी ने उसे सिर्फ तीन आना दिया था, जिससे वह अपनी दादी के लिए लोहे का चिमटा लाया ताकि रोटी बनाते वक़्त उसकी दादी का हाथ न जले।

उस वक़्त की गरीबी के लिए अंग्रेजों को क़ुसूरवार ठहराया गया। आज देश में ‘तथाकथित अपनों’ की हुकूमत है। मगर हामिद की कहानी वैसी की वैसी ही है। आज अगर प्रेमचंद हमारे बीच होते तो उनकी ‘ईदगाह’ कहानी शायद और दर्दनाक होती।

अज़ीज़ दोस्तों, ईद ज़रूर मनाईये; मगर ईद मनाते वक़्त यह भी याद रखें कि कोई हामिद आपके आस-पास बिना मिठाई और सेंवाई, फटेहाल में अपना त्यौहार ना मनाएं। आपको इस बात पर भी ग़ौर करना है कि कोई गरीब बाप अपने बेटे को एक नया पेंट और कमीज़ खरीदने के लिए अपनी जेब तो नहीं टटोल रहा है?

या फिर कोई माँ इस परेशानी में तो नहीं है कि अगर उसका बेटा सोवई मांग दे तो वह क्या जवाब देगी?

मुझे पूरा यक़ीन है कि सच्चा अक़ीदतमंद इन बातों को कभी नहीं भूलेगा।

इस बार सबकी ईदी अच्छे सेहत सहित आप सभी को मुबारक हो. कोरोना जाए, हम सब गले मिलकर मुबारकबाद फिर से अदा कर सकें. और हर एक घर में दस्तरखान कई तरह के पकवानों से सबको नसीब हो.

अभय कुमार
जेएनयू
13 मई 2021

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