आदिवासी क्षेत्रो पर कॉर्पोरेट ‘पर्यावरणविदो’ और टाइगर लॉबी का ‘कानूनी’ हमला
- विद्या भूषण रावत
फ़रवरी १३ को जस्टिस अरुण मिश्र और दो अन्य जजों की एक पीठ ने विभिन्न राज्यों की सरकारों को ये आदेश दे दिया के वे अपने वनों से अनिधिकृत लोगो या समुदायों को १२ जुलाय को बाहर निकाले. न्यायलय का आदेश दरअसल एक पुरानी याचिका पर था जिस पर मार्च २०१८ में एक दूसरी बेंच के आदेश से सम्बंधित था और राज्यों के मुख्य सचिव उनपर आधिकारिक जवाब दे रहे थे. कोर्ट के आदेश से देशभर में मानवाधिकारों और आदिवासी अधिकारों के लिए कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं और संघठनो ने गहन निराशा और गुस्से की अभिव्यक्ति की. अगर यह आदेश लागू हो गया तो देशभर के वनों से २० लाख से अधिक आदिवासी और वनों पर आधारित अन्य समूह विस्थापित होंगे जो देश में पुनः हम एक बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक संकट को जन्म दे सकता है. इस पूरे प्रश्न पर हमें बहुत संजीदगी से विचार करने की जरुरत है के क्यों आज का पूंजीवादी ‘वन संरक्षण’ आदिवासियों को वनों का दुश्मन बना रहा है और क्यों सरकार और न्यायालय इस सन्दर्भ में नकारात्मक हुए है.
पहले इस पूरे प्रश्न के पृष्ठभूमि जानना जरुरी है. क्यों ये आदेश आया, इसके पीछे कौन लोग है और क्या आदिवासियों को भूमिहीन करने की साजिश में सरकार भी शामिल है ?
यू तो हम सभी जानते है के वन अधिकार अधिनियम २००६ जन संगठनो के संघर्षो का लगातार दवाब के परिणामस्वरूप बना जिसमे आदिवासी और वन संपदा निर्भर समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय का जिक्र भी है लेकिन शुरू से ही वाइल्ड लाइफ और वन संरक्षण वाली लॉबी इस कानून के विरुद्ध रही है और उन्होंने इस कानून के लागु होने में तरह तरह के रोड़े अटकाए लेकिन फिर भी राजनैतिक इच्छा शक्ति के आगे उनकी नहीं चली तो उन्होंने इस कानून के खिलाफ न्यायलय में याचिका दायर करके किया. हालाँकि इस वाबत २०१६ में सुप्रीम कोर्ट ने आदेशपारित किया लेकिन देरी के चलते मार्च २०१८ में पुनः यह याचिका जस्टिस मदन लोकुर की तीन सदस्यीय पीठ के सामने आई और फिर कोर्ट ने कुछ आदेश पारित किये जो बेहद महत्वपूर्ण थे. कोर्ट के सामने जो सवाल खड़े किये गए थे वो निम्न थे
१. अनिधकृत लोगो को वनों से तुरंत बाहर किया जाए. कोर्ट का मानना था के जो क्लेम रिजेक्ट किये गए है उन्हें तुरंत हटाया जाया.
२. वनाधिकार कानून २००६ भारतीय वन अधिनियम और वाइल्ड लाइफ एक्ट और पर्यावरण सम्बन्धी और कई कानूनों का उलंघन करता है अतः इसे ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए क्योंकि ये असंवैधानिक है.
३. तीसरे महत्वपूर्ण बात के ग्राम सभा को विशेषज्ञ समिति और अधिकारियों के निर्णयों को अस्वीकार करने की शक्ति गलत है क्योंकि इस संदर्भ में उन्हें कुछ पता नहीं है.
इस पर कोर्ट की जो प्रक्रिया और आदेश था वो निम्न है :
१. वन अधिकार अधिनियम २००६ के तहत कुल अनुसूचित जनजाति और अन्य वर्गों के कितने लोगो ने आवेदन किये.
२. अनुसूचित जनजाति और अन्य लोगो के कितने दावे स्वीकार किये गए उनकी जानकारी अलग अलग दी जाए.
३. दोनों ही केटेगरी में कितने दावे ख़ारिज किये गए उनकी पूर्ण जानकारी.
४. जिस भूमि पर दावा प्रस्तुत किया गया और जिन्हें निरस्त किया गया उसकी पूरा क्षेत्रफल
५. जिन आवेदनकर्ताओ के दावे ख़ारिज किये गए उन पर की गयी कार्यवाही का ब्यौरा
६. अतिक्रमण हटाने से खाली की गयी जमीन का पूरा क्षेत्रफल
७. अभी तक जिनका अतिक्रमण हटाना है और नहीं हटा है उस जमीन का ब्यौरा, क्षेत्रफल
८. इन सूचनाओं के लिए कट ऑफ डेट ३१.१२.२०१७ है.
मतलब ये के जिन लोगो के दावा फार्म अस्वीकृत किये गए है, याचिकाकर्ताओ और कोर्ट के इस आदेश से वे अपने आप ही ‘एनक्रोचर’ हो गए हों और जैसे उनके सभी अधिकार समाप्त हो गए है. क्योंकि ज्यादातर अस्वीकृत किये गए दावो में गाँव सभा की सहमती नहीं ली गयी और वन विभाग और उनके अधिकारियों ने पूरे प्रयास किये के ये अधिनियम पूर्णतः नाकाम जो जाए और इसके लिए क्रोनी कॉर्पोरेट और उसके द्वारा पोषित मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका रही है. अगर याचिकाकर्ताओ को देखे तो इनमे से अधिकतर संस्थाए महाराष्ट्र से हैं जो वाइल्ड लाइफ पर काम करते है और शायद फंड्स की भी कोई कमी उनके पास न हो, वन विभाग के कुछ रिटायर्ड अधिकारी, कुछ तथाकथित पुर्वजमींदार जिनकी सम्पति या बेनामी सम्पति में वन भी हो, ने वन अधिकार कानून २००६ को असंवैधानिक घोषित करवाने के लिए पूरा जोर लगा दिया है जिसमे वाइल्ड लाइफ पर काम करने वाले बहुत सारे अन्तराष्ट्रीय संघटन भी है.
केंद्र सरकार की रहस्यमयी चुप्पी
लेकिन जब इस प्रकार की जन हित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आती है तो उसमे केंद्र सरकार एक पक्ष जरुर होती क्योंकि वन अधिकार अधिनियम कैसे लागू हो रहा है इसकी जानकारी उसे होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जब कोर्ट में इस याचिका के सुनवाई हुए तो इस से प्रभावित होने वाले समूहों विशेषकर आदिवासियों और वन आधारित अन्य समूहों जैसे घुमंतू जातियों, पशुपालको और अन्य समुदायों और उनसे सम्बंधित विभागों को भी नोटिस दिया जाना चाहिए था ताकि वे इस सन्दर्भ में अपनी बात रख सके लेकिन ऐसा नहीं हुआ. क्या इसे संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ नहीं कहा जाएगा जब न्यायलय बिना किसी जांच पड़ताल के और लोगो को बिना किसी अवसर के दिए इस नतीजे पर पहुँच जाती है के जिन लोगो के दावा फार्म निरस्त किये गए है वे सभी ‘बाहरी’ है और उन्हें वनों से खदेड़ दिया जाना चाहिए. क्या कोर्ट ने इस निर्णय के बाद जो सुनामी आने वाली है उस पर विचार किया या नहीं. ऐसा लगता है के सम्बंधित मंत्रालयों को आमंत्रित न कर या नोटिस न भेजकर न्याय प्रक्रिया में गलती हुई है. यदि कोर्ट ने इन मंत्रालयों को नोटिस भेजा और ये सुनवाई के दौरान मौजूद नहीं थे तो उनके विरुद्ध मानहानि का मुक़दमा बनता है. ये बात अब न्यायालय को साफ़ करनी चाहिए के क्या ये भूल थी या उन्होंने ऐसा फैसला सब जानके लिया था.
अब ये जानना भी जरुरी है के आदिवासियों को ‘वनवासी’ बनाने वाली सरकार क्या कर रही है. हम सभी जानते है के भारत ने आदिवासियों के अन्तराष्ट्रीय घोषणापत्र २००७ पर हस्ताक्षर किये है लेकिन सरकार अभी भी आधिकारिक तौर पर यह मानने को तैयार नहीं के आदिवासी देश के मूलनिवासी है क्योंकि इससे संघ परिवार और उसके इतिहास लेखको को आर्यों के भारत पर आक्रमण के सिद्धांत को स्वीकार करना पड़ेगा जो उनके भारत का मूल-नागरिक कहलाने और फिर ईसाई-मुसलमानों को विदेशी कहकर धमकाने के प्रोजेक्ट को बंद करना पड़ेगा. आदिवासियों को वनवासी कहकर उनके प्रति इस समाज के क्रूर और ऐतिहासिक अन्याय को झुठलाने की साजिश भी है. यदि हम ये भी मान ले के पुरानी गलतियों और अन्याय की जिम्मेवारी को आज की पीढ़ी पर क्यों लादे तो भी ये सवाल तो पूछना पड़ेगा के आखिर इस समय की सरकार ने इस प्रश्न को गंभीरता से क्यों नहीं लिया. क्या सरकार जान समझकर कौर्ट में नहीं गयी ताकि उसके कॉर्पोरेट चेले इस पूरे कानून को कोर्ट के जरिये खारिज करवा दे या सरकार कोई गेम खेल रही थी ताकि आदिवासियों को पुर्णतः कमजोर कर दिल्ली मुंबई के बनियों के स्थाई गुलाम बना कर रखे.
अभी सरकार के आदिवासी मंत्रालय ने कहा के सरकार को इस विषय में जानकारी है और वह इस कानून को बचाने के लिए पुर्णतः कृतसंकल्प है. इस विषय में हम केवल इतना कहना चाहते है के एक वर्ष से अधिक हो गया था इस पूरी कानूनी प्रक्रिया को तब ये मंत्रालय कहा थे और दुसरे यह के इस कानून के ईमानदार निष्पादन के लिए सरकार ने क्या क्या किया.
अब यदि कौर्ट के आदेश के संभावित परिणामो पे जाएँ तो ये पक्का है के इसके लागु होने पर बीस लाख से अधिक आदिवासी और वनों पर आधारित अन्य समुदाय सीधे तौर पर प्रभावित होंगे लेकिन मेरी दृष्टि में मामला इससे ज्यादा गंभीर हो सकता है.
अपनी ही जमीन पर अतिक्रमंणकारी घोषित
१३ फ़रवरी को सुप्रीम कोर्ट के आदेश में राज्य सरकारों को १२ जुलाय तक अपने हलफनामे दाखिल करने को कहे गए है के जिन लोगो के आवेदन निरश्त किये गए क्या उन पर कार्यवाही हुए है या नहीं. इस सन्दर्भ में कोर्ट ने सैटेलाईट इमेजेज भी मांगी है ताकि पता चल सके के लोगो कहा पर केन्द्रित है. इस तिथि पर भी केंद्र सरकार वहा नहीं थी. कौर्ट में विभिन्न राज्य सरकारों ने अपने शपथ पत्र दिए और १२ जुलाय तक की गयी कार्यवाही की बात कही.
अब आदिवासी मामलो से सम्बंधित मंत्रालय ने ३१ मार्च २०१७ तक सूचनाये इकठा की है उसके अनुसार कुल ४१,६९,९८२ दावे आये जिसमे ४०,३१,५५७ व्यक्तिगत और १,३८,४२५ सामुदायिक थे और उसमे से १७,२८,८१७ व्यक्तिगत और ६२,८८९ सामुदायिक दावो को दावा प्रमाणपत्र दे दिया गया. इसका मतलब यह भी के आधे से अधिक दावे निरस्त किये गए. खैर, सरकार कहती है के उसने ३६,३८,२३४ दावो का निस्तारिकरण कर दिया जो के लगभग ८७.२५% है.
अंग्रेजी के अख़बार द बिज़नस स्टैण्डर्ड की एक खबर के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद विस्थापित होने वाले आदिवासी और वन समुदायों की संख्या १८ लाख ९० हज़ार तक होगी जबकि द वायर नामक न्यूज़ पोर्टल का कहना है के ये संख्या २० लाख तक हो सकती है.
दरअसल, आदिवासियों को वनों से विस्थापित करने की यह प्रक्रिया अन्य और प्रक्रियाओं को मजबूत करेगी और बड़े बांधो, अभयारण्यो, टाइगरजोन, संरक्षित क्षेत्रो, राजस्व वनों और वन विभाग के अंतर्गत आने वाले राजस्व ग्रामो के मध्य विवाद आदि से भी आदिवासियों पर गहरा असर पडा है और ऐसे अधिकारियों के हौसले बुलंद होंगे जो उनका हर कदम पर शोषण करते है.
पत्रिका डाउन टू अर्थ बताती है के आदिवासी मामलो के मंत्रालय की नवम्बर २०१८ तक की रिपोर्ट कहते है के १८.९४ लाख लोगो को कानूनी पट्टे दिए जा चुके है जबकि १९.३९ लाख लोगो के दावे ख़ारिज हो चुके है . मतलब ये के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इन १९.३९ लाख लोगो के पास अपनी बात को पुनः रखने और अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध लड़ने के शायद हर रास्ते बंद हो चुके है क्योंकि कोर्ट के एक आदेश में ही उसे अतिक्रमणकारी घोषित किया जा चुका है.
कौन कर रहे है वनों का दोहन
इन सबमे महत्वपूर्ण बात यह है के केंद्र सरकार का पर्यावरण और वन मंत्रालय की खतरनाक चुप्पी. ये बात किसी से छुपी नहीं है के मंत्रालय ने प्राइवेट कंपनियों को वन क्षेत्रो में माइनिंग और ईको टूरिज्म के लिए जमीने लीज पर देने के लिए इस कानून को ‘हल्का’ कर दिया ताकि ये सभी आसानी से हो सके.
वन२ अधिकार अधिनियम २००६ की धारा १२ किसी भी प्रोजेक्ट के लिए भू अधिग्रहण या माइनिंग अथवा अन्य उपयोग के लिए ग्राम सभा की सहमति या मंजूरी को अनिवार्य कहता है और येही ‘सहमति’ आज हमारे संगठनों और कंपनियों की आँखों की किरकिरी बना है. सुप्रीम कोर्ट में वकीलों की फौज ने अधिनियम की इस सेक्शन का विरोध किया बिलकुल वैसे ही जैसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम में अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की मंजूरी को अनिवार्य करने के विरुद्ध खुद वर्तमान केंद्रीय सरकार रही है.
दिसंबर २०१८ में सरकार ने संसद को बताया के २०१५-२११८ के बीच २०,३१४.१२ हेक्टेयर वन भूमि को गैर वानिकी उद्देश्यों के लिए सरकार ने विभिन्न कम्पनियों को सौंप दिया है. मंत्रालय के पास ४५५२ प्रपोजल आये और १२८० को अप्रूवल भी दे दिया गया. तेलंगाना, ओड़िशा और मध्य प्रदेश इस प्रक्रिया में और राज्यों से बहुत आगे है और इन तीनो राज्यों ने कुल ६२% प्रोजेक्ट प्राइवेट कंपनियों को गैर वानिकी कार्यो के लिए सौंप दिए.
वन सरक्षण अधिनियम १९८० के अंतर्गत सरकार ने गत चालीस वर्षो में २७,१४४ प्रोजेक्टों को साढ़े दस लाख हेक्टेयर वन भूमि का आवंटन किया है. इस समय भारत में ६१७ संरक्षित क्षेत्र है जिसमे ५० टाइगर प्रोजेक्ट क्षेत्र है. अभी तक की इन्वेस्टमेंट का ७०% पैसा बाघों के संरक्षण के नाम पर खर्च हो रहा है बाकि ५६७ क्षेत्रो के लिए मात्र ३०% फंड्स बचे है. इससे अनुमान लगाया जा सकता है के देश विदेश में बाघों के संरक्षण के लिए पैसा देने वालो की कमी नहीं है क्योंकि वो दुनिया भर में ‘ईको टूरिज्म’ के जरिये आमदनी का बहुत बड़ा जरिया है. इन संरक्षित क्षेत्रो में बड़े बड़े ‘टाइगर-प्रेमियों’ के बड़े बड़े रिसोर्ट और होटल्स है. लेकिन इसके विरुद्ध न तो कोई पर्यावरणविद न्यायालय गया और न ही कोई जीवजन्तु प्रेमी. आज तक किसी ने ये प्रश्न खड़े नहीं किये के अभयारण्यो के कारण क्यों आदिवासी जीवन को बर्बाद किया जा रहा है.
आदिवासियों की आज के स्थिति पर श्वेत पत्र की जरुरत
ऐसा अनुमान है के १९५० से १९९० तक ‘विकास’ की विभिन्न परियोजनाओ, बांधो के नाम पर लगभग एक करोड़ आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हुए और उन्हें दोबारा से कही नहीं बसाया जा सका. ये आंकड़े अलग परियोजनाओं के तहत विस्थापित लोगो के आधार पर जुटाए गए है. ये कम ज्यादा भी हो सकते है. लेकिन ये भी हकीकत है के १९९० के बाद से विस्थापन के आंकड़े जरुर इससे कही ज्यादा होंगे क्योंकि वैश्वीकरण के दौर में तो आदिवासी क्षेत्रो के विकास की याद सभी को आई चाहे विकास में उनकी भागीदारी हो या नहीं. अभयारण्यो, संरक्षित क्षेत्रो, बाघ परियोजनाओं, खदानों, माइनिंग, बांध परियोजनाओं के चलते आदिवासियों के क्षेत्र पर दुश्मन की ललचाई नज़र थी और वे कामयाब हो रहे है क्योंकि सत्ताधारियो और पूंजपतियो के गठबंधन ने उनके पवित्र क्षेत्रो में सेंधमारी शुरू कर दी है और क़ानूनी प्रक्रिया अब देश के मूलनिवासियो के विरुद्ध जा रही है. उनका भोलापन अब उनके शोषण का हथियार बन गया है. जब और जहा उन्होंने विरोध किया तो उनके नाम के आगे माओवादी होने का ठप्पा लगा दिया गया और फिर प्रसासन और पुलिस को हथियार लेकर कुछ भी करने की छूट मिल गयी. आदिवासी इलाको में ‘विकास’ के नाम पर जबरन सैन्यीकरण की प्रक्रिया बढ़ी और अपनी ही जमीन पर उन्हें उसके मल्कियत के सबूत देने पड रहे है. ऐतिहासिक अन्याय को ख़त्म करने के बजाये और बढाया जा रहा है.
सयुंक्त राष्ट्र के आदिवासी घोषणापत्र के मुताबिक सरकारे आदिवासी स्वायत्तता का सम्मान करेंगी और उन्हें उनके भूमि से अतिक्रमित नहीं करेंगी. फोरेस्ट राईट एक्ट २००६ के मुताबिक भी बिना क़ानूनी सुनवाई के आदिवासियों और वन समुदायों को उनके स्थानों से विस्थापित नहीं किया जा सकता है.
आज सरकार को चाहिए के आदिवासियों की स्थिति को लेकर एक श्वेत पात्र लाये और ये बताये के उनकी क्तिनी आबादी को न्यनतम सुविधाए मुहैय्या है. उनके पास कितनी जमीन है और कितने लोगो का विस्थापन हुआ है विभिन्न योजनायो में तथा सरकार ने कितने लोगो को ससम्मान पुनर्वास किया है. आदिवासियों क्षेत्रो में तथाकथित विकास के नाम पर चल रही परियोजनाओं की क्रमबद्ध जानकारी दे और ये बताये के उससे आदिवासियों का कितना लाभ हुआ और कितना पर्यावरण संरक्षित हुआ. श्वेत पत्र में आदिवासियों की सत्ता में भागीदारी के प्रश्नों को भी बताया जाए और ये भी के अपने अधिकारों के लड़ रहे आदिवासियों में कितने लोग जेल की सलाखों के पीछे है और उन पर कबसे और किन धाराओं में मुक़दमे चल रहे है. क्या सरकार उन मुकदमो को फ़ास्ट ट्रैक करवाने के लिए कुछ करेगी या सब ऐसे ही चलता रहेगा. भारत सरकार और राज्य सरकारों को इन परियोजनाओ के कारण उजड़े आदिवासियों के घरो और उनके आज की हालत की जानकारी भी देनी चाहिए तथा वर्तमान में सरकारी नौकरियों में आदिवासियों का क्या प्रतिशत ये भी बताये.
न्याय के लिए न्याय प्रक्रिया में भागीदारी की आवश्यकता
सवाल ये है के यदि ये देश आदिवासियों को उनकी भूमि का अधिकार नहीं देना चाहता या उनके लिए सत्ता में भागीदारी के सारे रस्ते बंद कर देना चाहता है तो वो क्या करे ? अभी हम सब जानते है के दलित आदिवासियों का आरक्षण भी खतरे में है. विश्वविद्यालयो और शैक्षणिक संस्थानों में सरकार ने ये प्रबंध कर दिया के इन समुदायों के लोग बड़े पदों पर न पहुँच सके और जो वहा पहले से मौजूद है उनके रस्ते और कठिन कर दिए जाए. देश की ८.५% आबादी के लिए ७% आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन आदिवासियों और दलितों के लिए राजनैतिक आरक्षण भी पूना पैक्ट का शिकार है और अपने सिद्धांतो पर अडिग व्यक्ति के लिए इस व्यवस्था में चुन के आना बहुत मुश्किल है. सरकारी नौकरियों में आदिवासियों का प्रतिशत आज भी ७% नहीं है. ऐसा नहीं है के वे उपलब्ध नहीं है लेकिन उनको सत्ता में हिस्सेदारी से हम सभी के पूर्वाग्रह साफ नज़र आते है. न ही सत्ताधारियो ने ऐसा प्रयास किया के नहीं पीढ़ी को खड़ा किया जाए और उन्हें जीवन के सभी क्षेत्रो में आगे बढ़ने के मौके मिले. वो अपनी जमीन और जंगल में ख़ुशी की जिंदगी जीना चाहते है और हम उन्हें ऐसा भी नहीं करने देना चाहते.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अधिकारियो और टाइगर लॉबी के हौसले बुलंद है लेकिन ये आदिवासी क्षेत्रो में गहन असंतोष को बढ़ा सकती है जो देश के लिए बहुत ही भयावह हो सकता है. वनों और वन्य जीवो के सबसे बडे संरक्षक आदिवासी ही हो सकते है क्योंकि वो उन्ही के साथ जीवन व्यतीत करते है. वो पर्यावरण को बचाने वाले हमारे सबसे बड़े साथी है इसलिए विकास के मोडल में उनकी भूमिका को सुनिश्चित किया जाए और आदिवासी ग्राम पंचायतो के अधिकारों को और मजबूत किया जाए.
पिछले कुछ वर्षो में सत्ता के सभी तंत्रों ने बहुत निराश किया और इसने हमारी उसी बात को मजबूत किया है के सत्ता तंत्रों में जब तक देश के विविध समुदायों की भूमिका और भागीदारी नहीं होगी, तो उनके साथ न्याय नहीं हो पायेगा और उनके प्रश्नों के प्रति संवेदनशीलता मामूली ही होगी . जिस प्रकार से कॉर्पोरेट लॉबी ने कानून के बड़े हाथो का इस्तेमाल आदिवासियों के विरुद्ध किया है और जैसे सत्ता के बड़े लोगो ने उनके क्षेत्रो को पूंजीपतियों के लिए खोल दिया है, वो येही साबित करता है के न्याय पालिका में दलित आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित किये बिना न्याय की उम्मीद करना बेईमानी होगा. फिलहाल तो हम यही उम्मीद करते है के आदिवासियों के नाम पर बने मंत्रालय और आयोग इस मामले में ईमानदार दखल दे और सुप्रीम कोर्ट एक सामाजिक न्याय बेंच स्थापित करे जिसमे वे लोग हो जिनकी इन प्रश्नों पर समझ और पकड़ रही हो. यदि न्यायपालिका का रुख नहीं बदलता तो सरकार इस पूरे क़ानून को संविधान की नौवी अनुसूची में डाल दे ताकि इस कानून के वैधता को न्यायलय में चुनौती नहीं दे जा सके. ये कानून बहुत संघर्षो के बाद बना है और इसलिए इसको अवैध घोषित करने के प्रयास करने वाली सभी पूंजीवादी सामंती और सामाजिक न्याय की विरोधी शंक्तियो के मंसूबो को नाकाम बनाने के लिए हमें हर एक प्रयास करना होगा ताकि न केवल हमारे वन बच सके अपितु उनके सरंक्षण वाला आदिवासी समाज भी ख़ुशी और सम्मान से अपनी जिंदगी बसर कर सके.