शहीदी दिवस पर विशेष लेख
23 मार्च 2024
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह :अन्य तत्कालीन ऱाजनेताओं, क्रांतिकारियों व साम्यवादियों से अलग कैसे हैं? : एक पुनर्मूल्यांकन
डॉ. रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा-भारत)
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भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में शहीदे -आजम भगत सिंह का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा है. प्रत्येक भारतवासी को उन पर गौरव था, है और सदैव रहेगा. वह एक गंभीर अध्येता, पत्रकार, मौलिक चिंतक, दार्शनिक, दूरदर्शी, युगदृष्टा क्रांतिकारी, युगपुरुष, तर्कशील यथार्थवादी, सामाजिक वैज्ञानिक एवं उत्कृष्ट श्रेणी के राष्ट्रभक्त होने के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीयवाद एवं मानवता के प्रेमी थे. उनके चिंतन में त्याग, बलिदान, दृढ़ निश्चय, जवाहरलाल नेहरू की भांति धर्मनिरपेक्षता, ईश्वर में अनास्था इत्यादि मूल्यों का महत्वपूर्ण स्थान है. वह हिंदू -मुस्लिम एकता के समर्थक व संप्रदायिकता के विरूद्ध थे. डॉ बी आर अंबेडकर की भांति छुआछूत व जातिवाद के उन्मूलन के समर्थक थे. उन्होंने दलित वर्ग के लिए’सर्वहारा’ शब्द का प्रयोग किया. उनके चिंतन में किसानों और मजदूरों के संबंध में श्रृंखलाबद्ध विवरण मिलता है. कार्ल मार्क्स, एंजेल व लेनिन की भांति उनका मूल उद्देश्य भारत में पूंजीवाद -विदेशी अथवा भारतीय का समूल उन्मूलन करके ऐसी व्यवस्था तथा समाजवादी सरकार की स्थापना करना था जिस पर किसानों और मजदूरों का नियंत्रण हो ताकि उनको शोषण से मुक्ति प्राप्त हो.
परंतु विद्वानों, शोधकर्ताओं एवं सर्व साधारण जनता का अधिकांश भाग यह नहीं जानता कि लाहौर षड्यंत्र अभियोग में गिरफ्तारी से फांसी लगने (सन 1929 -23 मार्च 1931) से पूर्व भगत सिंह के व्यक्तिक शौर्यवाद, अराजकतावाद, आतंकवाद तथा मध्यवर्गीय दुस्साहसवाद का परित्याग कर दिया था और वह कार्ल मार्क्स ,एंजेल तथा लेनिन के चिंतन से प्रभावित होकर समाजवादी क्रांतिकारी चिंतकों की श्रेणी के में अग्रणीय हो गए थे.
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ तथा उनका शहीदी दिवस 23 मार्च 1931 है .23 मार्च 1931 को भगत सिंह की आयु 23 वर्ष 5 महीने, 27 दिन थी. इस अल्पायु में भगत सिंह 716 दिन जेल में रहे तथा उन्होंने 64 दिन निरंतर भूख हड़ताल की. भगत सिंह ने जेल में रहते हुए जो अध्ययन किया उसका चित्रण उसके द्वारा लिखी गई जेल डायरी, जेल से लिखे पत्रों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भगत सिंह गंभीर अध्येता, मौलिक चिंतक, दार्शनिक, अर्थशास्त्री दूरदर्शी, विवेकशील, तर्कशील, यथार्थवादी, बुद्धिवादी, और सामाजिक वैज्ञानिक थे. भगत सिंह की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था यदि एक ओर बहुत भगत सिंह सौंदर्य, कला, मानवता, संगीत और फिल्म प्रेमी व शौकीन थे तो दूसरी ओर वह समाजवादी क्रांतिकारी ऐसे दार्शनिक थे जिनको भारत की जनता एवं विश्व को गर्व है क्योंकि ऐसे व्यक्ति विरले ही पैदा होते हैं.
अल्लामा इक़बाल के अनुसार:
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा
वास्तव में भगतसिंह एक “ध्रुव तारे” अथवा ‘उल्कापिंड’ की भांति आकाश में चमकते रहते हैं. भगत सिंह युवा वर्ग के ‘हृदय सम्राट’ और ‘शहीदों के राजकुमार’ है.
लाहौर षड़यंत्र केस :केंद्रीय जेल में फांसी — 23 मार्च 1931
10 जुलाई 1929 को जेपी सांडर्स की हत्या (लाहौर षड़यंत्र केस) का मुकदमा शुरू हुआ. 7 अक्टूबर 1930 को ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को मौत की सजा सुनाई. उन्हें 24 मार्च 1931 को फाँसी दी जानी थी, परंतु जन आक्रोश को देखते हुए एक दिन पूर्व 23 मार्च 1931शाम को 7.30 पर लाहौर की जेल की पिछे से दीवार तोड़ कर केंद्रीय जेल में फांसी दे गई .तीनों महान क्रांतिकारियों -भगत सिंह ((जन्म -28 सितंबर 1907-शहीदी दिवस – 23 मार्च 1931– गांव बंगा-अब पाकिस्तान,),सुखदेव (पूरा नाम- सुखदेव थापर जन्म 15 मई 1907- शहीदी दिवस – 23 मार्च 1931– लुधियाना, पंजाब )और राजगुरु (जन्म 24 अगस्त 1908- शहीदी दिवस 23 मार्च 1931 -पूरा नाम– शिवराज हरि राजगुरु -जन्म स्थान खेड़ा गांव, महाराष्ट्र—- मराठी) के शवों को जेल से बाहर निकाला गया . इसी रात ही फिरोजपुर के निकट हुसैनीवाला बॉर्डर -सतलुज नदी के तट पर तीनों शवों को ले जाकर सामूहिक चिता बनाई गई और मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया है. इन तीनों शहीदों के अधजले शवों को सतलज नदी( Sutlej River) में फेंक दिया गया .परंतु सुबह होने से पूर्व ही गांव वालों ने अधजले शवों को नदी से बाहर निकाल कर अंतिम संस्कार किया . द ट्रिब्यून (लाहौर) में 24 मार्च 1931 प्रथम पृष्ठ पर इस घटना को प्रकाशित किया. परिणाम स्वरूप जन आक्रोश चरम सीमा पर पहुंच गया है. मुंबई, मद्रास, बंगाल ,पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में जनसैलाब आंदोलित हो गया ,जनता एवं पुलिस के मध्य सन् 1857 के पश्चात पहली बार इतनी भयंकर मुठभेड़े हुई. इस संघर्ष में 141 भारतीय शहीद हो गए , 586 व्यक्ति घायल हुए एवं 341 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया.
असीम आत्मविश्वास और विचार विर्मश की क्षमता :निरंतर वृद्धि
सन् 1923 मेंभगत सिंह ने पढ़ाई और परिवार छोड़ दियाऔर उसकी भेंट शचिंद्रनाथ शन्याल से हुई .कानपुर में योगेश चंद्र चटर्जी के साथ रहने लगे और सुरेश भट्टाचार्य, विजय कुमार सिन्हा ,बीके दत्त ,अजय घोष इत्यादि क्रांतिकारियों सम्पर्क से हुआ.उस समय भगतसिंह छद्म उपनाम बलवंत नाम से पुकारे जाते थे. यद्यपि भगत सिंह एक होनहार क्रांतिकारी थे . परंतु उनके विचारों में ‘अनिश्चितता और अस्पष्टता विद्यमान थी’. अजय घोष के अनुसार’,1923 में मैं पहली बार भगत सिंह से मिला .मैं उस समय 15 वर्ष का था और मेरी उम्र के नौजवान का परिचय बीके दत्त के द्वारा कराया गया. वह एक लंबा व पतला चुपचाप ग्रामीण लड़का था जिसमें चुस्ती तथा आत्मविश्वास का अभाव था’.
कानपुर के पश्चात भगत सिंह पंजाब में आ गए. सन्1923 सन् 1925 -दो वर्षों के अंतराल में पंजाब में क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर कार्य करते हुए उनका चिंतन वैज्ञानिक होता चला गया. वह एक प्रभावशाली नौजवान बनता चला गया. उसके विचारों में असीम आत्मविश्वास और विचार विर्मश की क्षमता विद्यमान थी. सन् 1925 में उनकी मुलाकात पुन: अजय घोष से हुई. अजय घोष ने लिखा ‘एक दिन 1925 में जब एक नौजवान मेरे कमरे में आया और मुझे मिला तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ.वह नौजवान भगतसिह था. वह परंतु वह भगत सिह नहीं जिससे मेरी भेंट दो वर्ष पूर्व हुई थी. वह एक बदला हुआ था.ज्यों ही वह बोला मैंने यह अनुभव किया कि बड़ा हो चुका है’.अजय घोष ने आगे लिखा कि ‘भगत सिंह में परंपरागत आतंकवादी नेता का एक भी लक्षण नहीं दिखाई देता था… और पहले के आतंकवादियों के धार्मिक विश्वासों का उन पर तनिक भी प्रभाव नहीं था’.
अहिंसा एवं अहिंसात्मक तरीकों की ओर बढ़ते कदम
भगत सिंह और उसके साथियों के द्वारा अपनाए गए अहिंसा एवं अहिंसात्मक तरीकों में सत्याग्रह, भूख हड़ताल, नारेबाजी ,न्यायपालिका में ब्यान , पोस्टर बाजी, समाचार पत्रों में लेखों का प्रकाशन,पत्र लिखना ,जनता में प्रचार ,महत्वपूर्ण दिवस –मई दिवस, लेनिन दिवस मनाना इत्यादि, अन्य देशों क्रांतिकारियों के साथ संपर्क स्थापित करना, उदेश्य प्राप्ति के लिए वार्ता एवं समझौता तथा जनता को लामबंद करने के साथ-साथ आत्मिक और भौतिक बल का प्रयोग मुख्य स्थान रखते हैं .क्रांति के लिए दोनों तरीकों का प्रयोग किया जा सकता है
तत्कालीन नेताओं तथा क्रांतिकारियों से भगत सिंह अलग कैसे हैं?
यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जो प्रत्येक भारतीय के दिमाग में आता है कि देश के लिए त्याग और बलिदान करने वाले हजारों व्यक्ति थे. राष्ट्रीय आंदोलन में अपुष्ट आंकड़ों के अनुसार लगभग 2626 देशभक्तों को लाइफ इंप्रिजनमेंट हुई इनमें से2147सिक्ख थे. 13 अप्रैल 1919 (वैशाखी पर्व)को जलियांवाला बाग सुनियोजित नरसंहार में अमृतसर के सिविल सर्जन डॉ.स्मिथ के अनुसार लगभग1800 भारतीय स्त्री ,पुरूष व बच्चे शहीद हुए. स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण121देश भक्तों को फांसी चढ़ाया गया.इनमें से 93 सिक्ख थे.
परन्तु भगत सिंह अलग कैसे हैं?
इस प्रश्न का उत्तर भगत सिंह के पूर्ववर्ती व तत्कालीन नेताओं तथा क्रांतिकारियों के लक्ष्यों का क्रमबद्ध वर्णन करना अनिवार्य है.
सर्वप्रथम, राष्ट्रीय मेन स्ट्रीम नेताओं -उदार वादियों और कांग्रेस के नेताओं के विचारों को देखें तो उनका प्रारंभिक लक्ष्य साम्राज्यवादी सरकार से वैधानिक सुधारों के द्वारा सुविधाएं प्राप्त करना और अंततः राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना था. कांग्रेस के नेताओं के द्वारा आंदोलन चलाए गए ,जनता को लामबंद किया गया तथा जेल की यात्राएं की, कष्ट भी सहन किए परंतु जीवन न्योछावर करने के लिए तैयार नहीं थे .उनका उद्देश्य केवल राजनीतिक सुधारों और अपने- अपने संप्रदायों के लिए विधानपालिकाओं में सीटें प्राप्त करना था तथा समझौता करने के लिए तैयार रहते थे.
द्वितीय, यद्यपि साम्यवादी और समाजवादी नेता भी भूमिगत तथा खुले तौर पर संघर्ष करते चले गए व जेल में यातनाएं भी सही परंतु जीवन बलिदान करने के लिए तैयार नहीं थे.
तृतीय, भगत सिंह अपने पूर्ववर्ती तथा तत्कालीन क्रांतिकारियों से काफी प्रभावित थे और उनके प्रशंसक भी थे .वे उनके अदम्य शौर्य व साहस, संघर्ष, जीवन की कुर्बानियों, अत्याचार को सहन करने की क्षमता एवं बुलंद हौसलों के समर्थक थे. यद्दपि भगत सिंह के पूर्व क्रांतिकारी समाजवाद और सामाजिक क्रांति का समर्थन तो करते थे परंतु वह धर्म तथा ईश्वरवाद में जकड़े रहे. मन्मथनाथ गुप्त के अनुसार भगत सिंह के पूर्व क्रांतिकारी समाजवाद का समर्थन तो करते थे.परंतु ईश्वरवादी व धार्मिक थे. उदाहरण के तौर पर क्रांतिकारी शचिंद्रनाथ सान्याल समाजवाद और रूस के समर्थक होने के बावजूद भी अनेश्वरवादी नहीं थे.हमारा अभिप्राय यह है कि वे क्रांतिकारी तो थे परंतु साम्यवादी व अनेश्वरवादी नहीं थे.
भगत सिंह ने अपने समकालीन काकोरी के शहीदों के बारे में लिखा कि काकोरी के चार सुप्रसिद्ध शहीद– रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी व अशफाकउल्लाह खान ने अपने जीवन की अंतिम घड़ियां प्रार्थना में बितायी.रामप्रसाद पक्के आर्य समाजी थे. राजेंद्र नाथ लाहिड़ी समाजवाद और साम्यवाद के गहन अध्येता होते हुए भी उपनिषद् और गीता में विश्वास करते थे.
चतुर्थ, इन सब के विपरीत भगत सिंह ने ‘मैं नास्तिक क्यों?’, नामक लेख में लिखा कि वे आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म इत्यादि में विश्वास नहीं करते . उनका यह मानना था कि “क्रांतिकारी के लिए आलोचना और स्वतंत्र चिंतन अपरिहार्य गुण है’. इसी स्वतंत्र चिंतन और स्वतंत्र भारत में वर्ग रहित व शोषण रहित ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जहां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं पर किसानों और मजदूरों की हकूमत स्थापित हो. ऐसी व्यवस्था जहां न तो कोई भीख मांगने वाला हो और ना ही भीख देने वाला. दूसरे शब्दों में मानव द्वारा मानव का शोषण करने वाली साम्राज्यवादी, पूंजीवादी और सामंतवादी व्यवस्थाओं का अंत हो. इन सभी विचारों के कारण भगत सिंह गांधीवादियों, उदारवादियों, समाजवादियों, साम्यवादियों और तत्कालीन क्रांतिकारियों से एकदम अलग थे.
भगत सिंह के साथी शिव वर्मा के अनुसार:‘भगत सिंह पहले के क्रांतिकारियों का उद्देश्य था केवल मात्र देश की आजादी, लेकिन इस आजादी से हमारा अभिप्राय क्या है? इस पर उससे पहले दिमाग साफ न थे. क्या अंग्रेज वायसराय को हटाकर उसके स्थान पर किसी भारतीय को रख देने से आजादी की समस्या का समाधान हो जाएगा?. क्या समाज में आर्थिक समानता और उस पर आधारित मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण के बरकरार रहते हम सही अर्थों में आजादी का उपयोग कर सकेंगे ?आजादी के बाद की सरकार किसकी होगी और भावी समाज की रूपरेखा क्या होगी इत्यादि प्रश्नों पर क्रांतिकारियों में काफी अस्पष्टता थी .भगत सिंह ने सबसे पहले क्रांतिकारियों के बीच इन प्रश्नों को उठाया और समाजवाद को दल के ध्येय के रूप में सामने लाकर रखा. उनका कहना था कि देश की आजादी की लड़ाई लक्ष्य की ओर केवल पहला कदम है और अगर हम वहीं पर जाकर रुक गए तो हमारा अभिनव पूरा अधूरा ही रह जाएगा .सामाजिक एवं आर्थिक आजादी के अभाव में राजनीतिक आजादी दरअसल थोड़े से व्यक्तियों द्वारा बहुमत को चूसने की ही आजादी होगी. शोषण और असमानता के उन्मूलन के सिद्धांत पर गठित समाजवादी समाज और समाजवादी राजसत्ता ही सही अर्थों में राष्ट्र का चौमुखी विकास कर सकेगी. ‘समाजवाद उस समय युग की आवाज थी. क्रांतिकारियों में भगत सिंह ने सबसे पहले उस आवाज को सुना और पहचाना. यहीं पर वह अपने दूसरे साथियों से बड़ा था’.
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भगत सिंह : फांसी का कोई भय नहीं— बेताबी से इंतजार
भगत सिंह अदम्य साहस, स्वतंत्र चिंतन तथा वैज्ञानिक सोच के कारण कुर्बानी देने में संकोच नहीं करते थे. केंद्रीय विधानसभा में बम फेंकने के पश्चात वहीं डटे रहे यद्यपि उन्हें आभास था कि आजीवन करावास होगी अथवा फांसी की सजा भी हो सकती है. जेपी सांडर्स हत्याकांड में उनका ब्यान ,जेल से लिखे पत्र यह सिद्ध करते हैं कि वह कुर्बानी देने वाला उतावला युवक था .केंद्रीय जेल लाहौर में कैदियों के साथ अच्छा व्यवहार हो इसके लिए उन्होंने लंबी हड़ताल करके कुर्बानी की भावना का एहसास कराया .भगत सिंह ने 20 मार्च 1931 को पंजाब के गवर्नर को पत्र लिखा कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ युद्ध जारी है .उसने युद्ध के विभिन्न रूपों का वर्णन किया है और साथ-साथ इस बात का वर्णन भी किया है कि यह साम्राज्यवादऔर पूंजीवाद के विरुद्ध अंतिम युद्ध है. उनके साथ युद्ध बंदी जैसा सलूक किया जाए तथा उनको फांसी की जगह गोली से उड़ा दिया जाए. इस पत्र में उन्होंने बिल्कुल स्पष्ट लिखा है कि ‘आपकी अदालत के निर्णय के अनुसार हम युद्ध प्रवृत्त रहे हैं और इसीलिए युद्ध बंदी हैं .इसी से हम चाहते हैं कि हमारे साथ वैसा ही व्यवहार किया जाए,अथार्त हमारा दावा यह है कि हमें फांसी ने देकर गोली से उड़ा देना चाहिए. … हम बड़ी उत्सुकता से आपसे निवेदन करते हैं कि आप कृपा करके सेना विभाग को आदेश देंगे कि हमें प्राण दंड देने के लिए वह एक सैनिक दस्ता या गोली मारने वालों की एक टुकड़ी भेजें .आशा है कि आप हमारी यह बात स्वीकार करेंगे जिसके लिए हम आपको पहले से ही धन्यवाद दे देना चाहते हैं.’
22 मार्च 1931को क्रांतिकारी साथियों को पत्र लिखा ‘जीने की इच्छा मुझ में भी है यह मैं छिपाना नहीं चाहता. मेरे दिल में फांसी से बचने का लालच कभी भी नहीं आया. मुझे बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है’.
केवल यही नहीं अपितु जब भगत सिंह के पिता जी ने भगत सिंह और उसके साथियों के लिए विशेष न्यायाधिकरण को स्पष्टीकरण करने के लिए पत्र लिखा तो भगत सिंह ने अपने पिताजी की आलोचना करते हुए जेल से पत्र लिखा कि वे असूल की लड़ाई लड़ रहे हैं और उनका उसूल जिंदगी से कहीं अधिक कीमती है भगत सिंह ने लिखा ‘’मेरी जिंदगी उतनी कीमती नहीं जितनी आप समझते हैं .कम से कम मेरे लिए इतनी कीमती नहीं कि इसे बचाने के लिए उसूलों की कुर्बानी दी जाए.मेरे और भी साथी हैं जिनके मुकदमें मेरे बराबर संगीन है. हमने एक साझी नीति अपनाई हैऔर इस नीति पर हम आखिरी समय तक डटे रहेगें. मैं इस बात से कोई परवाह नहीं करता कि व्यक्तिगत तौर पर कितनी कीमत इस बात के लिए हमें अदा करनी है.’’ भगत सिंह ने आगे स्पष्ट लिखा कि ‘मैं सीधे लफ्जों में अपनी बात कहूंगा यदि कोई और मेरे साथ ऐसा व्यवहार करता तो मैं इसे गद्दारी समझता. लेकिन आपके लिए इतना ही कहूंगा कि यह एक कमजोरी है और इससे बुरी कमजोरी कोई नहीं है.’
भगत सिंह के मन में फांसी का कोई भय नहीं था. नवंबर 1930 में फांसी की सजा सुनाये जाने के बाद उसने अपने साथी बटुकेश्वर दत्त(सैलम -मद्रास जेल में थे) को पत्र लिखा. इस पत्र में उसने लिखा ‘मुझे दंड सुना दिया गया है और फांसी का आदेश हुआ है .इन कोठरियों में मेरे अतिरिक्त फांसी की प्रतीक्षा करने वाले बहुत से अपराधी है. ये लोग यही प्रार्थना कर रहे हैं किसी तरह फांसी से बच जाए .परंतु उनके बीच शायद मैं ही एक ऐसा आदमी हूं जो बड़ी बेताबी से उस दिन के लिए प्रतीक्षा कर रहा है जब मुझे अपने आदर्श के लिए फांसी के फंदे पर झूलने का सौभाग्य प्राप्त होगा .मैं इस खुशी के साथ फांसी के तख्ते पर चढ़कर दुनिया को दिखा दूंगा कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों लिए कितनी वीरता के साथ बलिदान कर सकते हैं.’
भगत सिंह के अदम्य साहस का सर्वाधिक प्रभाव: उधम सिंह के चिंतन व कुर्बानी पर
भगत सिंह की क्रांतिकारी ज्वाला, राष्ट्र और सिद्धांतों के लिए कुर्बानी की भावना, मृत्यु दंड का डर न होना, इस अदम्य साहस का प्रभाव सर्वाधिक उधम सिंह के चिंतन पर पड़ा क्योंकि वह भगत सिंह को अपना परम मित्र मानते थे.जिसका यहां संक्षिप्त वर्णन करना अपने सुधी पाठकों के लिए जरूरी है.
सर माइकल ओ डायर(जलियांवाला बाग हत्याकांड के योजनाकार) को 13 मार्च 1940 को मौत के घाट उतारने के कारण उन पर मुकदमा चलाया गया.मुकदमे के दौरान उनके वकील वी.के. कृष्ण मैनन ने कोर्ट में कहा उधम सिंह का कत्ल करने का कोई इरादा नहीं था. वकील को धमकाते हुए उधम सिंह ने कहा :“ मेरा वकील मेरी जान बचाने के लिए झूठ बोल रहा है….. जान बचाने के लिए बहाने बनाना क्रांतिकारियों की परंपरा नहीं है. मैं अपने बलिदान से इंकलाब की ज्योति प्रज्वलित करना चाहता हूं.’’
उधम सिंह ने स्वयं अदालती बयान ने कहा, ‘मैंने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के नीचे लोगों को तड़प -तड़प कर मरते देखा है .मैंने जो कुछ भी किया विरोध के तौर पर किया है .ऐसा मेरा धर्म था, कर्तव्य था .विशेषकर मेरे प्यारे देश के लिए मुझे इस बात की तनिक भी चिंता तथा परवाह नहीं है. इस संबंध में मुझे कितना दंड़ मिलेगा 10, 20 अथवा 60 वर्ष का कारावास या फिर फांसी का तख्ता .मैं किसी भी निर्दोष व्यक्ति को मारना नहीं चाहता था. केवल विरोध करना चाहता था’ .उसने 30 मार्च 1940 को अपने मित्र सिंह को लिखा,’ मुझे मौत का डर नहीं है. मुझे हर हाल में भरना है और उसके लिए मैं हर समय तैयार हूं .मौत से नहीं डरता. मैं शीघ्र मौत से शादी करने वाला हूं .मुझे जरा भी अफसोस नहीं है’.
भगत सिंह : युवा वर्ग के ‘हृदय सम्राट’
भगत सिंह का युवा वर्ग में सम्मान व आदर का मूल कारण उसका वैज्ञानिक चिंतन, संघर्ष, संपूर्ण धर्मनिरपेक्षता, कुर्बानी की उत्कृष्ट भावना, हिंदू ,मुसलमान व सिक्ख धर्मों के अनुयायियों को आज भी पसंद है. इसके अतिरिक्त भगत सिंह का संबंध ग्रामीण क्षेत्र से था जबकि अधिकांश राष्ट्रीय नेता गांधीवादी अथवा उदारवादी उनका संबंध शहरी वर्ग से था. ऐसी स्थिति में आज भी युवाओं का आदर्श है और यही कारण उसकी लोकप्रियता का हैं .अन्य शब्दों में भगत सिंह युवा वर्ग में अपने वैज्ञानिक विचारों, कुर्बानी ,भविष्य की योजना इत्यादि के कारण युवाओं में हमेशा लोकप्रिय रहेगें और इंकलाब जिंदाबाद का नारा हमेशा भगत सिंह की लोकप्रियता जिंदा रखेगा. भगत सिंह की जन्मस्थली,कर्मस्थलीऔर फांसी पर न्योछावर होने की स्थली पाकिस्तान रही है. यही कारण है कि भगत सिंह एक मात्र ऐसा शहीद है जो पाकिस्तान के युवाओं में भी उतना ही लोकप्रिय है जितना कि भारत के युवाओं में है . यह एक गौरव की बात है कि पाकिस्तान के उच्च न्यायालय लाहौर में आज भी एक याचिका दायर है. इस याचिका में भगत सिंह के मुकदमें के संबंध में कानूनी कमियों को उजागर किया गया है.
मनजीत सिंह बादल के अनुसार भगत सिंह के द्वारा विद्यार्थियों का लामबंद करने के लिए चलाए गए आंदोलन, सामूहिक रसोई संचालन , विचार विमर्श, नौजवान सभा की स्थापना, धर्मनिरपेक्ष मूल्य, विवेक शीलता ,अनुशासन व कर्म का महत्व इत्यादि के कारण मध्यवर्गीय व गरीब युवा वर्ग में यह भावना उजागर हुई कि वह भी राष्ट्रीय संघर्ष में जाति ,वर्ग और धर्म से ऊपर उठकर योगदान दे सकते हैं.
भगत सिंह व लेनिन :जीवन का अंतिम क्षण
भगत सिंह की साम्यवादी चिंतन में रुचि इस बात से भी प्रकट होती है कि उनके वकील प्राणनाथ मेहता ने उन्हें ‘लेनिन का जीवन चरित्र’ नामक पुस्तक भेंट की थी. 23 मार्च 1931 को जब फांसी के तख्ते तक ले जाने के लिए पुलिस कर्मी आए तो भगत सिंह महान क्रांतिकारी लेनिन के जीवन संबंधित इस पुस्तक का अध्ययन कर रहे थे. पुलिस कर्मियों के पुकारने पर भगत सिंह ने कहा “एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है”.अतः स्पष्ट है कि भारतवर्ष के आंदोलनकारियों एवं क्रांतिकारी युवाओं के लिए विशेषतया भगत सिंह के लिए “लेनिन एक नई प्रेरणा और आदर्श व्यक्तित्व’’ थे
अंतत: हमारा अभिमत है कि जब तक भारत में आर्थिक विषमता और असमानता, बेरोजगारी , भूखमरी, कुपोषण, बच्चों में विकार तथा लैंगिक असमानता विद्यमान हैं तब तक संघर्ष जारी रहेगा और भगत सिंहं का वैज्ञानिक समाजवादी चिंतन भी प्रासंगिक रहेगा. भगत सिंह के अनुसार इन सभी समस्याओं का केवल एक ही समाधान है और वह यह है कि भारतीय जनता- श्रमिकों और किसानों का राष्ट्रीय संसाधनों व सरकार पर नियंत्रण होना चाहिए और पूंजीपति वर्ग तथा कारपोरेट का एकाधिकार समाप्त होना चाहिए. शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और उसके साथियों को उनकी विचारधारा और कुर्बानी के लिए भारत रत्न से सम्मानित किया जाए.
अंततः भगत सिंह और उसके साथियों को सच्ची श्रद्धांजलि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में इस प्रकार है:
जला अस्थियां बारी-बारी,
चटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल.