सावित्रीबाई फुले भारतीय सामाजिक व शैक्षिक क्रांति की अग्रदूत : एक पुनर्मूल्यांकन

जन्म दिन पर विशेष लेख सावित्री बाई फुले (3 जनवरी 1831)
सावित्रीबाई फुले भारतीय सामाजिक व शैक्षिक क्रांति की अग्रदूत : एक पुनर्मूल्यांकन

डॉ. रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा)
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(समाज वीकली)- सावित्री बाई फुले (3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897) 19वीं शताब्दी की प्रथम महिला शिक्षक,मराठी भाषा की प्रथम आदिकवि और प्रथम महिला समाज सुधारक थी. सावित्रीबाई फुले का मुख्य उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना करना था जो अज्ञानता, कट्टरता, अशिक्षा, अभाव और भूख से मुक्त हो और महिलाएं व वंचित वर्ग मानवीय, गरिमापूर्ण, बंधन मुक्त, व स्वतंत्रत जीवन व्यतीत कर सके.

सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को पुणे से 50 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के नायगांव पिता खन्दोजी नैवेसे और माता लक्ष्मीबाई के माली परिवार में हुआ. माली जाति (अब सैनी जाति)को महाराष्ट्र में मूल निवासी माना जाता है.कुछ विद्वानों सावित्री बाई फुले को महार जाति में भी संबंधित मानतें हैं. (इस समय महाराष्ट्र में माली जाति ओबीसी की श्रेणी में वर्गीकृत की गई है.) यही कारण है कि आज माली (सैनी जाति) व महार जाति (उत्तर भारत में विशेष रूप से चमार जाति)– दोनों ही सावित्रीबाई फुले को अपने-अपनी जातियों से जोड़ने का प्रयास करते हैं. सैनी जाति के द्वारा ज्योतिबा फुले को’ “राष्ट्रपिता” और सावित्रीबाई फुले को’राष्ट्रमाता’ के नाम से संबोधित किया जाता है. हमारा यह मानना है कि चाहे व्यक्ति किसी भी जाति में पैदा हुआ हो वह समाज सुधारक के रूप में केवल अपनी जाति के लिए नहीं अपितु समस्त समाज के लिए कार्य में संलग्न होता है .प्रत्येक समाज सुधारक लघु संर्कीणताओं — जाति, धर्म, क्षेत्र, इत्यादि से ऊपर होता है. सावित्रीबाई फुले कोई अपवाद नहीं है.

प्रारंभिक जीवन, विवाह और शिक्षा

सावित्री बाई फुले की शादी सन् 1841 में लगभग 10 वर्ष की आयु में ज्योतिराव फुले से हो गई थी. ज्योतिराव फुले उस समय 11 वर्ष के थे. प्रचलित प्रथा के अनुसार यह एक बाल विवाह था जबकि कलांतर मे उन्होंने सारी जिंदगी बाल विवाह का विरोध किया. शादी के समय सावित्री बाई फूले बिल्कुल निरक्षर व अनपढ़ थी. उस समय लड़कियों को पढ़ाना गलत व ‘पाप’ माना जाता था. महिलाओं के पिछड़ेपन का यह मुख्य कारण था. ज्योतिबा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले और अपनी बहन सगुना बाई के साथ घर में ही स्वयं शिक्षित करना प्रारंभ किया. घर पर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात ज्योतिबा फुले के मित्रों -सुखराम यशवंत राय परांजपे व केशव शिवराम भावलकर से शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात सावित्री बाई फूले अमेरिकी मिशनरी स्कूल (अहमदनगर) में शिक्षक प्रशिक्षण ग्रहण किया व नॉर्मल स्कूल( पुणे) से कोर्स किया.

शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात ज्योतिबा फुले के प्रोत्साहन के कारण सावित्रीबाई फुलेऔर ज्योतिबा फुले की चचेरी बहन सगुनाबाई ने पुणे में लड़कियों को पढ़ाना प्रारंभ किया. तत्कालीन समाज में यह एक आश्चर्यजनक कदम था जो कालान्तर में मील का पत्थर सिद्ध हुआ. यद्धपि फुले शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘फूल’ है परन्तु फुले दम्पति के मार्ग में ‘फूल कम और कांटे ज्यादा’ थे. उस समय लड़कियों को पढ़ाना एक पाप समझा जाता था. यही कारण है कि इन दोनों को ज्योतिबा फुले के पिता जी जो एक रूढ़िवादी संकीर्ण मानष्किता से ग्रस्त थे फुले दंपति अपने घर से निकाल दिया. फुले दंपति घर से बेघर हो गए. मुस्लिम मित्र उस्मान शेख के घर में शरण लेनी पड़ी.

हिंदू -मुस्लिम सद्भाव का एक अनूठा उदाहरण

सावित्रीबाई फुले ने जाति, धर्म और क्षेत्र की भावनाओं से ऊपर उठकर विभिन्न धर्मो व जातियों की महिलाओं के शिक्षित करके अतुल्नीय काम किया है. यदि हिंदू धर्म से संबंधित सावित्रीबाई फुले को भारत की प्रथम महिला शिक्षक माना जाता है तो उसकी सहयोगिनी बेगम फातिमा शेख को उसके समतुल्य मानते हुए भारत के प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षक के रूप में सम्मान के रूप में देखा जाता है. परंतु अफसोस की बात यह है कि जिस तरीके से धार्मिक कट्टरवाद में वृद्धि हो रही है बेगम फातिमा शेख -प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षक के रूप में आम आदमी को ही नहीं अपितु हमारे अधिकांश शिक्षकों भी ज्ञात नहीं है. पिता के द्वारा घर से निष्कासित करने के पश्चात यदि ज्योतिराव फुले के दोस्त उस्मान शेख फुले दम्पति को अपने घर में शरण नही देते तो ‘उनकी डगर और अधिक कांटों भरी होती’. उस्मान शेख व उसकी बहन फातिमा शेख के सहयोग से उन्हीं के घर से स्कूल प्रारंभ किया. वास्तव में यह हिंदू -मुस्लिम सद्भाव का एक अनूठा उदाहरण है जो कि वर्तमान अत्यधिक प्रासंगिक नजर आता है.

समकालीन परिस्थितियों का प्रभाव

प्रत्येक साधारण व्यक्ति, साहित्यकार, लेखक, कवि और फिलॉस्फर पर समकालीन परिस्थितियों का गहरा प्रभाव पड़ता है.सावित्रीबाई फुले अपवाद नहीं थी. आम तौर पर यह प्रचारित किया जाता है कि मुस्लिम शासनकाल में मुस्लिम धर्म से प्रभावित होकर भारत में बहु -पत्नी परिवार का प्रचलन हो गया.मुस्लिम शासकों की का अनुसरण करते हुए हिंदू शासक भी एक से अधिक पत्नियाँ रखने लगे. परंतु यह ऐतिहासिक तत्वों पर आधारित नहीं है. इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उत्तर वैदिक काल में संपन्नता हीन वर्ग में एक पत्नी व संपन्न वर्ग में बहु-पत्नी प्रथा प्रचलित थी. उच्च शिक्षित वर्ग अर्थात ऋषियों में भी बहु -पत्नी परिवार होते थे.उदाहरण के तौर पर ऋषिका मैत्रेयी उत्तर वैदिक काल की एक प्रसिद्ध महिला थीं और वह याज्ञवल्क्य की पत्नियों में से एक थीं. ऐतरेय ब्राह्मण में पुरुषों के लिए ‘बहुपत्नी प्रथा ‘और महिलाओं के लिए ‘एक पति प्रथा’ का भी वर्णन है. इसमें आगे लिखा है कि ‘एक महिला के लिए एक पति’ ही पर्याप्त है.

(https://samajweekly.com/dr-bhimrao-ambedkars-vision-towards-women-empowerment/)

शतपथ ब्राह्मण के कई श्लोकों में वर्णित है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा अधिक प्रबल थी. अथर्ववेद के अनुसार लड़की के भ्रूण को लड़के के भ्रूण में बदला जा सकता है. यह स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय समाज ‘सन स्ट्रोक’ (Son Stroke) से पीड़ित था और उस समय भी कन्या संतान ‘अवांछित’ थी. यह एक बड़ा विरोधाभास है और अभी भी जारी है.

प्राचीन भारत में महिलाओं को लेकर एक और विरोधाभास पाया गया है. एक ओर बहु-विवाह और दूसरी ओर बहु-पति प्रथा के उदाहरण हैं.रामायण काल में एक पत्नी और बहु-पत्नी परिवार थे. महाभारत काल में बहु-पति, एकल- पति एवं बहु-पत्नी परिवारों का वर्णन मिलता है. (https://samajweekly.com/dr-bhimrao-ambedkars-vision-towards-women-empowerment/)

मध्यकालीन युग में महिलाओं की स्थिति में भारी गिरावट आई. यह वास्तव में दयनीय और निंदनीय था क्योंकि संपत्ति का अधिकार अब महिलाओं को प्राप्त नहीं था.इस अवधि के दौरान महिलाओं पर थोपी गई प्रमुख परंपराओं में जौहर और सती प्रथा जैसी प्रथाओं का विकास हुआ जो मानवीय दृष्टिकोण से अत्यधिक क्रूर, भयानक और डरावनी है. इनके अतिरिक्त पर्दा प्रथा, बाल- विवाह, देवदासी प्रथा जैसी प्रथाएं थीं. इन प्रथाओं के कारण महिलाओं का जीवन केवल घर की चारदीवारी तक ही सीमित होकर रह गया. परिणामस्वरूप भ्रूण हत्या व बालिकाओं हत्या,महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और महिला हत्याएँ बढ़ीं. अंततः “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः“ का सिद्धांत केवल किताब के पन्नों तक सीमित हो गया. सावित्रीबाई फुले ने इस संबंध में लिखा कि महिलाओं को देवी बनाने की अपेक्षा उनको पुरुषों के समान अधिकार और सम्मान दिया जाए.

(https://samajweekly.com/dr-bhimrao-ambedkars-vision-towards-women-empowerment/)

19वीं शताब्दी में भी यह प्रथाएं – पर्दा प्रथा, बाल- विवाह, देवदासी प्रथा, सती प्रथा,बाल विवाह,विधवा विवाह न होना, बालिका भ्रूण हत्या व बालिकाओं हत्या,महिलाओं की हत्या, महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा जारी रही. सावित्रीबाई फुले के चिंतन पर इन समकालीन परिस्थितियों का प्रभाव पड़ना अनिवार्य था. सावित्रीबाई फुले तत्कालीन समाज के संकीर्ण मानसिकता और उसके अपने ससुराल में जो व्यवहार किया गया वह उसके चिंतन पर दृष्टिगोचर होता है.

सावित्रीबाई के चिंतन के स्रोत:

सावित्रीबाई समाज सुधारक और शिक्षिका होने के साथ-साथ एक महान कवित्री भी थी. सावित्रीबाई फुले को मराठी भाषा की प्रथम ‘आदि कवित्री’ के नाम से जाना जाता है. सन् 1854 में सावित्रीबाई फुले की भाषा में मराठी में लिखित प्रथम काव्या पुस्तक”काव्या फुले” (कविता के फूल ) प्रकाशित हुई.

समाज में आम धारणा यह है कि प्रत्येक पुरुष की कामयाबी में पत्नी का हाथ होता है.परंतु सावित्रीबाई फुले की सफलता के पीछे उसके पति ज्योतिबा फुले का निरंतर समर्पित सहयोग रहा है. वास्तव में महात्मा ज्योतिबा फुले सावित्रीबाई फुले के ‘संरक्षक, गुरु और समर्थक’ थे. यही कारण है कि सावित्रीबाई फुले अपने पति ज्योतिबा फुले को ‘सत्य का अवतार’, ‘भगवान’ और ‘देवता’ मानती थी जैसा कि पत्राचार से जाहिर होता है .सावित्रीबाई फुले ने ज्योतिबा फुले को जो पत्र लिखें उनका संग्रह ब्रज रंजन मणि और पामेला सरदार (संपादित), ए फॉरगॉटन लिबरेटर, द लाइफ एंड स्ट्रगल ऑफ सावित्राबाई फुले’’ (Braj Ranjan Mani and Pamela Sardar (Edited), A Forgotten Liberator, The Life and Struggle of Savitrabai Phule), प्रकाशित किया है. इनमें से तीन पत्र (प्रथम18 अक्टूबर 1856, द्वितीय,28 अगस्त1868 व तीसरा पत्र 20 अप्रैल 1877) बहुत महत्वपूर्ण हैं. सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिबा फुले को जो पत्र लिखें वे प्रेम पत्र नहीं हैं अपितु इन पत्रों में तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों और अपने अनुभव को वर्णित किया गया है. इन तीन पत्रों में ब्राह्मणवाद का एकाधिकार एवं विशेषाधिकार ,उत्पीड़न,शोषण, अपनी बीमारी , बेगम फातिमा शेख,अपने भाई का व्यवहार व बातचीत का वर्णन है .इनके अतिरिक्त इन पत्रों में तत्कालीन समाज में फैली कुरीतियों-जैसे छुआछूत,बालिकाओं और दलित को शिक्षा प्रदान करने के विरुद्ध सामाजिक मानसिकता,अकाल व प्लेग के कारण जनता की दुर्दशा एवं त्रासदी, साहूकारों के द्वारा जनता का शोषण, किसानों की दुर्दशा, सामाजिक वर्जना इत्यादि का वर्णन किया है.सावित्रीबाई फुले ने अपने ‘भगवान’ ज्योतिराव फुले को एक पत्र ((18 अक्टूबर 1856)में अपने भाई के व्यवहार का उल्लेख करते हुए लिखा :

“तुम्हें और तुम्हारे पति को उचित रूप से बहिष्कृत किया गया है क्योंकि तुम दोनों अछूतों महारों और मंगो (Mangs) की सेवा करते हो.अछूत पतित लोग हैं और उनकी सहायता करके तुम हमारे कुल का नाम बदनाम कर रहे हो. इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं कि तुम हमारी जाति के रीति-रिवाजों के अनुसार आचरण करो और ब्राह्मणों की आज्ञा का पालन करो …भाई, तुम्हारा मन संकीर्ण है, और ब्राह्मणों की शिक्षा ने इसे और भी बदतर बना दिया है। बकरी और गाय जैसे जानवर आपके लिए अछूत नहीं हैं, आप उन्हें प्यार से छूएं. सर्प-उत्सव के दिन तुम जहरीले साँपों को पकड़ो और उन्हें दूध पिलाओ. लेकिन आप महारों और मगों को, जो आपके और मेरे जैसे ही इंसान हैं, अछूत मानते हैं. क्या आप मुझे इसका कोई कारण बता सकते हैं? जब ब्राह्मण अपने पवित्र वस्त्र पहनकर अपने धार्मिक कर्तव्य निभाते हैं, तो वे आपको भी अपवित्र और अछूत मानते हैं, उन्हें डर होता है कि आपके स्पर्श से वे प्रदूषित हो जायेंगे। वे आपके साथ महारों से अलग व्यवहार नहीं करते हैं…जब मेरे भाई ने यह सुना, तो उसका चेहरा लाल हो गया, लेकिन फिर उसने मुझसे पूछा, “आप उन महारों (Mahars)और मगों Mangs) को क्यों पढ़ाते हैं? लोग आपको गालियाँ देते हैं क्योंकि आप अछूतों को शिक्षा देते हैं. जब लोग ऐसा करने पर आपके लिए दुर्व्यवहार करते हैं और परेशानी खड़ी करते हैं तो मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैं इस तरह का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकता”.

”https://scroll.in/article/801848/to-jyotiba-from-savitribai-phule-these-arent-love-letters-but-tell-you-what-love-is-all-about)

सावित्रीबाई फुले ने ज्योतिबा फुले को एक पत्र(29अगस्त 1868 ) में सामाजिक वर्जना का वर्णन करते हुए लिखा है कि किस तरीके से अंतरजातीय विवाह-अर्थात गणेश(ब्राह्मण)तथा शारजा(महार- अछूत)लड़की का प्रेम प्रसंग चल रहा था और वह छह महीन गर्भवती हो चुकी थी. दलित गर्भवती लड़की को गांव में घुमाया गया और उन दोनों को जान से मारने की धमकी दी गई.सावित्रीबाई ने हस्तक्षेप कर के दोनों की जान बचाने के लिए दोनों पक्षों((ब्राह्मण व महार) को समझाया और लड़के और लड़की को गांव छोड़ने के लिए तैयार करके उनकी जान बचाई. सन् 1868 में प्रेम प्रसंग के मामले को’ कलंक’ माना जाता था और अंतरजातीय विवाह का विरोध भी होता था.आज156 वर्ष के पश्चात भी जब सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं अंतरजातीय प्रेम -विवाहों की पारिवारिक,जातिय अथवा धार्मिक आधार पर आलोचना की जाती है.परिणाम स्वरूप ‘पारिवारिक सम्मान’ दुहाई दे कर ‘ऑनर किलिंग’(”योजनाबद्ध हत्या”- हॉरर किलिंग) की सुर्खियां समाचार पत्रों व सोशल मीडिया पर प्रकाशित होती रहती हैं. अन्य शब्दों में मोहब्बत के बदले मौत मिलती है.

‘ऑनर किलिंग’ भारतीय संविधान में नागरिकों को प्रदत्त समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14 और 15) के विरुद्ध है इन अनुच्छेदों के अनुसार धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता .संविधान के अनुच्छेद 19 में स्वतंत्रता का अधिकार है, जबकि अनुच्छेद 21 जीवन का अधिकार देता है. ‘ऑनर किलिंग’ जीवन के अधिकार का उल्लंघन है. यह व्यक्ति के जीवन साथी चुनने के अधिकार का भी उल्लंघन करता है, चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का हो.

भारत में ’ऑनर किलिंग’ के बहुत अधिक मामले पुलिस थानों में पंजीकृत नहीं होते. भारत सरकार के गृह मंत्रालय की शाखा राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार सन् 2020 की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में “ऑनर किलिंग” के 25 मामले सामने पुलिस थानों में पंजीकृत हुए थे. एक गैर सरकारी संगठन एविडेंस रिपोर्ट (नवंबर 2019) के अनुसार पांच वर्षों में अकेले तमिलनाडु से ऑनर किलिंग के 195 मामले सामने आए थे.

(https://www.outlookindia.com/national/rising-honour-killings-in-india-a-look-at-5-brutal-murders-in-recent-past-news-296381)

हमारा अभिमत है कि अनेक संवैधानिक उपबंधों, अधिकारों, कानूनों के पश्चात ऑनर किलिंग आज भी जारी है क्योंकि समाज की मानसिकता स्त्री विरोधी है. जब तक यह मानसिकता नहीं बदलेगी कोई भी कानून महिलाओं का उद्धार नहीं कर सकता और महिला सशक्तिकरण के सभी दावे खोखले नजर आते हैं.

Narender Arora founder of the Anti corruption foundation of India and Dr Ramjilal

सावित्रीबाई फुले : प्रथम महिला शिक्षक क्यों कहा जाता है?

प्राचीन काल से लेकर वर्तमान सदी तक भारतीय महिलाओं के जीवन के सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलूओं असंख्य उतार- चढ़ाव आए हैं भारतीय प्राचीन ग्रंथो के अनुसार महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त थे. वैदिक संस्कृति के अनुसार पुत्री को पुत्र के समान संपत्ति का अधिकार था. महिलाओं को आत्मनिर्भर और सम्मानित जीवन जीने के लिए शैक्षणिक अधिकार भी प्राप्त था तथा सह- शिक्षा की व्यवस्था भी थी. प्रसिद्ध विद्वान अल्टेकर के अनुसार उच्च शिक्षा प्राप्त करने के कारण महिलाएँ शैक्षणिक रूप से मजबूत होती थीं। उनकी बौद्धिक एवं शैक्षणिक स्थिति बहुत ऊँची थी। उनके अनुसार, ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना 378 ऋषियों (ऋषियों) और 29 महिला ऋषियों (महिला विद्वानों) द्वारा की गई थी। ऋग्वेद प्राचीन भारत का सबसे महत्वपूर्ण पाठ है। यह तत्कालीन समाज के सामाजिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक मुद्दों से संबंधित है। ऋग्वैदिक काल में महिलाओं को ऋषि का दर्जा प्राप्त था। महिला ऋषियों को ऋषिका (ऋषि या कवित्री) कहा जाता था।

महिला ऋषिकाओं को पुरुष ऋषियों के साथ विभिन्न विषयों-सांस्कृतिक, अकादमिक और शैक्षणिक विषयों पर बहस में खुले तौर पर भाग लेने की अनुमति थी। इन ऋषि नारियों में विश्वरा, लोपामुद्रा, अपाला, उर्वशी, घोषा, सुलभा, लीलावती, मैत्रेयी, शाश्वती, कशाना, गार्गी, सिकता, वाक् के नाम विस्तृत विचारणीय हैं। मैत्रेयी अपने पति याज्ञवल्क्य के साथ दार्शनिक विषयों पर बहस में भाग लेती थीं; गार्गी भी ऋषियों के साथ दार्शनिक तर्क-वितर्क में संलग्न रहती थी और लीलावती एक प्रसिद्ध गणितज्ञ थी। इन महिलाओं को ‘ब्रह्मवादी’ कहा जाता था क्योंकि उन्होंने उच्चतम स्तर का बौद्धिक और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया था। इतिहासकार अल्टेकर का कहना है कि यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वैदिक समाज में बाल विवाह की कोई प्रथा नहीं थी। संक्षेप में वैदिक युग में स्त्रियाँ शिक्षित एवं ब्रह्मवादिनी होती थीं। परिणामस्वरूप, ये महिलाएँ साधु, उपदेशक, दार्शनिक, कवि और संन्यासी की श्रेणी में आ गईं। समाज में उनका सम्मान पुरुष साधुओं के बराबर था क्योंकि वे उच्च शिक्षित और बुद्धिजीवी थीं. यद्यपि भारतीय प्राचीन संस्कृति के इतिहास से यह ज्ञात होता हैकि सावित्रीबाई फुले से पहले भी महिलाएं शिक्षक हुआ करती थी. यह एक यक्ष प्रश्न है कि इन ऐतिहासिक तत्वों के बावजूद भी सावित्री बाई फुले को प्रथम महिला शिक्षक क्यों कहा जाता है? इस संदर्भ में हमें सावित्री बाई फूले की पृष्ठभूमि में जाना होगा.

पारिवारिक पृष्ठभूमि व शिक्षा

सावित्री बाई फूले की शादी लगभग 9 वर्ष की आयु में हो गई थी.उसे समय वह बिल्कुल अनपढ़ थी. उसे समय लड़कियों को पढ़ाना गलत माना जाता था और कारण महिलाओं के पिछड़ेपन का यही मुख्य कारण था. ज्योतिबा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले और अपनी बहन सगुना बाई के साथ घर में ही स्वयं शिक्षित करना प्रारंभ किया. घर पर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात ज्योतिबा फुले के मित्रों -सुखराम यशवंत राय परांजपे व केशव शिवराम भावलकर से शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात सावित्री बाई फूले अमेरिकी मिशनरी स्कूल (अहमदनगर) में शिक्षक प्रशिक्षण ग्रहण किया व पुणे के नॉर्मल स्कूल( पुणे) से कोर्स किया.

मार्ग में फूल कम और कांटे ज्यादा

शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात ज्योतिबा फुले के प्रोत्साहन के कारण सावित्रीबाई फुलेऔर ज्योतिबा फुले की चचेरी बहन सगुनाबाई ने पुणे में लड़कियों को पढ़ाना प्रारंभ किया.यद्धपि तत्कालीन समाज में यह एक आश्चर्यजनक कदम था जो कालान्तर में मील का पत्थर सिद्ध हुआ. यद्धपि फुले शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘फूल’ है परन्तु फुले दम्पति के मार्ग में ‘फूल कम और कांटे ज्यादा’ थे. उस समय लड़कियों को पढ़ाना एक ‘पाप’ समझा जाता था. यही कारण है कि इन दोनों को ज्योतिबा फुले के पिता जी जो एक रूढ़िवादी संकीर्ण मानष्किता से ग्रस्त थे’ अपने से निकाल दिया. फुले दंपति घर से बेघर हो गए. मुस्लिम मित्र उस्मान शेख के घर में शरण लेनी पड़ी. पिता के द्वारा घर से निष्कासित करने के पश्चात यदि ज्योतिराव फुले के दोस्त उस्मान शेख फुले दम्पति को अपने घर में शरण नही देते तो उनकी ‘डगर और अधिक कांटों भरी’ होती. उस्मान शेख व उसकी बहन फातिमा शेख के सहयोग से उन्हीं के घर से स्कूल प्रारंभ किया. वास्तव में यह हिंदू -मुस्लिम सद्भाव का एक अनूठा उदाहरण है, जो कि वर्तमान समय में अत्यधिक प्रासंगिक नजर आता है.

तत्कालीन समाज में महिलाओं पर संख्या बंधन थे. उस समय लड़कियों का पढ़ाना पापऔर अभिशाप समझा जाता था इस प्रकार के वातावरण में फुले दंपति ने आज से 175 वर्ष पूर्व 3 जनवरी 1848 (सावित्री बाई का जन्म दिवस) भिडे वाडा (पुणे )मेंबालिका विद्यालय की स्थापना की. इसमें केवल 9 छात्राओं ने प्रवेश ग्रहण किया था. इस भवन की जर्जर स्थिति के कारण यह पिछले 16 साल से बंद है. महाराष्ट्र सरकार को इस स्कूल की बिल्डिंग का जीर्णोद्धार करके इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया जाना चाहिए.

सावित्रीबाई फुले ने ज्योतिबा फुले व फातिमा बेगम शेख के सहयोग से लड़कियों के लिए पांच स्कूल पूना मे खोले. इन स्कूलों का पाठ्यक्रम ब्राह्मणों के द्वारा घर पढ़ाए गए स्कूलों से अलग था. इन स्कूलों के पाठ्यक्रम में वेदों और शास्त्रों (ब्राह्मण ग्रंथों) के बजाय गणित, विज्ञान और सामाजिक अध्ययन शामिल थे. इतिहास के जानकारों का मानना है कि इन स्कूलों में शिक्षा और पढ़ाने का तरीका परंपरागत स्कूलों की अपेक्षा थे कहीं अधिक अच्छे थे (. https://www.hindustantimes.com/cities/pune-news/monday-musings-india-s-first-school-for-girls-slowly-collapses-as-restoration-plans-stay-put-101672666638568.html)

अंतर-जातीय एवं अंतर- धार्मिक सद्भावना

सावित्रीबाई फुले दम्पति ने प्रथम दलित स्कूल और प्रथम किसान स्कूल की स्थापना की. सावित्री बाई को देवनागरी,अंग्रेजीऔर मोडीकी लिपियों का ज्ञान था.वे स्कूलों में गणित, मराठी, संस्कृत, भूगोल और इतिहास बालिकाओं को पढ़ती थी तथा उन्होंने हिंदी में रचनाएं लिख कर योगदान दिया है. सावित्रीबाई द्वारा स्थापित स्कूलों में ब्राह्मण लड़कियों, विधवाओं तथा के साथ-साथ मांग, महार कुर्मी, मराठा, तेली, तंबोली, ब्राह्मण, हिंदू, मुस्लिम और जैन धर्म के लड़कियों को भी शिक्षा दी जाती थी. यही कारण है कि सावित्रीबाई फुले को प्रथम महिला शिक्षक माना जाता है. संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सावित्रीबाई फुले के स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा अंतर-जातीय एवं अंतर- धार्मिक सद्भावना का प्रतीक थी.

सावित्रीबाई फुले का यह कदम ज्योति क्रांति व मील का पत्थर सिद्ध हुआ। एक ओर संकीर्ण,रूढ़िवादी व बालिका शिक्षा विरोधी लोगों के द्वारा उन्हें गालियां देकर , गोबर और कीचड़ फेंक कर और पत्थर मारकर निरंतर अपमानित किया जाता रहा और दूसरी ओर इस अभूतपूर्व कार्य के लिए तत्कालीन सरकार के द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया.

(https://navbharattimes.indiatimes.com/education/gk-update/savitribai-phule-biography-education-and-history/articleshow/86455801.cms)

समाज सुधारक

समाज सुधारक के रूप में 28 जनवरी 1853 को बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की .उन्होंने विधवा पुनर्विवाह सभा का आयोजन किया,.विधवा महिलाओं, निराश्रित महिलाओं,परिवार द्वारा छोडी गयी महिलाओं के लिए सन् 1854 में लिए एक आश्रम की स्थापना की, जो सन् 1864 विशाल भवन हो गया. फुले दंपति ने दलित विधवा के बेटे को गोद लेकर एक सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया. यह गांव मेंजब दलितों को सार्वजनिक कुएं से पानी नहीं भरने दिया गया और सामाजिक तनाव पैदा हो गया तो फुले दम्पति ने दलितों के लिएअलग कुआं खुदवाया. सन् 1890 में ज्योतिबा फुले की मृत्यु हो गई फुले दंपति के दत्तक पुत्र यशवंत को अपने पिता ज्योतिबा फुले को मुखाग्नि देने का विरोध ब्राह्मण पंड़ो के द्वारा किया गया.सावित्रीबाई फुले ने अपने पति की चिता को स्वयं मुखाग्नि देकर समाज की प्रथा को चुनौती देकर साहसिक कार्य किया. उनके पति मृत्यु के पश्चात सत्य शोधक समाज (24 सितंबर1873) के माध्यम से सामाजिक सेवा जारी रखी. सावित्रीबाई फुले समाज सुधारक के रूप में सावित्रीबाई फुले ने बाल विवाह,दहेज प्रथा.सती प्रथा, बालिका भ्रूण हत्या छुआछूत इत्यादि कुप्रथाओं का विरोध कियाऔर विधवा पुनर्विवाह, और बालिका शिक्षा पर बल दिया. प्लेग के मरीजों की देखभाल करने के दौरान सावित्रीबाई की मृत्यु 10 मार्च 1897 को हुई. परंतु उनके द्वारा जलाई गई ज्योति की क्रांति निरंतर रूप से प्रकाश देकर लोगों का मार्गदर्शन कर रही है.

एक अनपढ़ बालिका से लेकर सावित्रीबाई भारत की पहली महिला शिक्षक बनी. इसके बिलकुल विपरीत वर्तमान में शिक्षक समाज सुधार के रास्ते से भटकते जा रहे हैं.केवल यह नहीं एचडी की डिग्री और एमफिल की डिग्री पैसे देकर लिखवाते हैं. अन्य शब्दों में पढ़े लिखे होने के बावजूद भी अनपढ़ होते जा रहे हैं. यह एक बहुत बड़ी विडंबना है. हमारे विश्वविद्यालय एचडी की डिग्री के कारखाने बन चुके हैं .यदि हम भारत को वास्तविक रूप में विश्व गुरु बनाना चाहते हैं तो हमें सावित्रीबाई के सिद्धांतों को अपनाना होगा. शिक्षक का मुख्य उद्देश्य वैज्ञानिक चिंतन का प्रचार करना है. वर्तमान संदर्भ में वैज्ञानिक चिंतन के द्वारा धार्मिक पाखंडवाद , संप्रदायवाद,अंधविश्वास,समाज में फैली कुरीतियों के विरूद्ध भावी पीढ़ी को तैयार करना है ताकि समतावादी व धर्म निर्पेक्ष समाज की स्थापना हो सके.

संक्षेप में सावित्रीबाई फुले निर्भीक और स्वतंत्र प्रथम महिला शिक्षक, विदुषी, समाज सुधारक, आदि कावित्री, समतावादी चिंतक, महिला शक्तिकरण की परोपकार व अग्रदूत के विचार आज भी प्रसंगिक हैं.

(नोट: एंटी करप्शन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की ओर से 3 जनवरी 2024 को करनाल में सावित्री बाई फुले के जन्म दिन पर दिए गए भाषण का सार. मैं एंटी करप्शन फाउंडेशन ऑफ इंडिया के संस्थापक श्री नरेंद्र अरोडा व इसके सदस्यों के प्रति आभार प्रकट करता हूं)

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