नक्सलवादी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका: लोकतंत्र में हिंसा व गन तंत्र का कोई स्थान नहीं — पुनर्मूल्यांकन
डॉ. रामजीलाल,
सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा-भारत)
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भारतीय इतिहास के रिकॉर्ड को देखने से ज्ञात होता है कि आदिवासी गरीब किसानों और श्रमिकों के द्वारा जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए समस्त भारत के आदिवासी क्षेत्रों में अनेक आंदोलन चलाए गए. परंतु इन आंदोलनों में सर्वाधिक चर्चित आदिवासी किसानों व श्रमिकों का हिंसात्मक सशस्त्र नक्सलवादी आंदोलन है. यह आंदोलन पश्चिम बंगाल के नक्सलबाडी क्षेत्र (दार्जिलिंग क्षेत्र) के एक छोटे से प्रसादु ज्योत (प्रसादुजोत) गांव से मई 1967 शुरू हुआ और आज तक भी जारी है.
इस आंदोलन के मुख्य सिद्धांतकार एवं प्रमुख नेता चारू मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल थे. चारू मजूमदार माओवादी विचारधारा से प्रभावित थे और वह चीनी क्रांति (1949) की भांति भारत में क्रांति लाना चाहते थे और उन्होंने इसे ‘जनक्रांति’ का नाम भी दिया. इस सशस्त्र विद्रोह में सन् 1996 से सन2022 तक लगभग 14500 व्यक्ति मारे गए. इनमें लगभग 8000 असैनिक(साधारण नागरिक), 3400सैनिक बल तथा 4000 विद्रोही सम्मिलत हैं.
इस आंदोलन का मुख्य कारण आदिवासी किसानों की जमीनों पर जमींदारों और साहूकारों का अवैध कब्जा है. एक युवा किसान के पास न्यायपालिका का आदेश था कि वह अवैध रूप से जमींदार द्वारा कब्जा की गई अपनी जमीन को जोत सकता है. परंतु जमीदार के गुंडों ने 2 मार्च 1967 को युवा किसान की बेरहमी से पिटाई की.. परिणाम स्वरूप पूरे क्षेत्र में जमीदारों के विरुद्ध रोष, असंतोष तथा आक्रोश चरम सीमा पर पहुंच गया. 3 मार्च 1967 को 150 आदिवासी किसानों ने धनुष – बाणों और भालों से लैस होकर आंदोलन का बिगुल बजा दिया है. 3 मार्च 1967 से 18 मार्च 1967 तक 15 दिन के अंतराल में किसानों और जमींदारों के मध्य अनेक बार हिंसक झड़पें हुई. पश्चिमी बंगाल की संयुक्त मोर्चा की सरकार ने आंदोलन का दमन करने के लिए पुलिस तथा अर्द्धसैनिक बलों का प्रयोग करके आग में घी का काम किया.
24 मई 1967 को प्रसादू ज्योति(प्रसादुजोत) गांव के किसानों ने जमींदारों तथा सरकार के विरुद्ध धरना प्रदर्शन किया.किसानों के धरने को तोड़ने के लिए पुलिस गांव में घुस गई तथा पुलिस और किसानों के बीच झड़प में एक किसान के तीर के लगने से झारू गांव के पुलिस इंस्पेक्टर की मृत्यु हो गई.
25 मई 1967 को महिलाओं ने गांव के स्कूल के पास आंदोलन प्रारंभ कर दिया और उनका नारा था “लैंड टू टीलर्स”( जोतने वालों की भूमि). महिलाओं के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस के द्वारा इंस्पेक्टर की हत्या का बदला लेने व किसानों सबक को सिखाने हेतु की गयी फायरिंग में मरने वालों में 8 महिलाएं, एक पुरूष व दो बच्चे हैं. अतः 25 मई 1967 को पुलिस की दमनकारी नीति के परिणाम स्वरुप नक्सलवादी आंदोलन का स्वरूप अत्याधिक उग्र और हिंसात्मक हो गया और धीरे -धीरे समस्त भारत में फैलता चला गया. पुलिस की पूर्व निर्धारित गलत कार्रवाई दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुई जिसका खमियाजा आज तक भुगत रहे हैं.
नक्सलवादी आंदोलन में महिलाएं और युवतियां क्यों शामिल होती हैं?
यह एक यक्ष प्रश्न है. नक्सलवादी प्रभावित ग्रामीण क्षेत्रों में व्यावसायिक परियोजनाओं के कारण आदिवासी जंगल, जल और जमीन के अधिकार से वंचित होना, विस्थापित लोगों का समुचित पुनर्विस्थापन न होना, गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी इत्यादि समस्याओं का समाधान न होना, स्वास्थ्य, शिक्षा व अन्य सुविधाओं का अभाव, महिलाएं और युवतियां जब जंगल अथवा खेतों में कार्य हेतु जाती हैं तो उनको सुरक्षाबलों व स्थानीय पुलिस के अत्याचारों, ,शारीरिक शोषण, लैंगिक हिंसा और बलात्कार इत्यादि के भय से बचने के लिए , परिवार के पुरुषों – पिता, भाई, चाचा, दादा व रिश्तेदार इत्यादि को नक्सलवादी घोषित करके अथवा मुठभेड़ दिखाकर मार देना, विधवाओं में पतियों की झूठी मुठभेड़ में हत्याओं के कारण प्रतिशोध की भावना, अथवा पुलिस कस्टडी में थर्ड डिग्री सजा देना अथवा जान से मार देना, मातृसत्तात्मक परिवारों के द्वारा युवतियों को आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित करना, नक्सलवादियों के द्वारा सुरक्षा व प्रलोभन देना इत्यादि मुख्य कारण हैं.
किसी भी आंदोलन में विचारधारा का महत्वपूर्ण एवं अद्वितीय योगदान होता है.विचारधारा आत्मविश्वास , आत्म अनुशासन ,दृढ़ निश्चय ,त्याग और बलिदान की भावना का प्रेरणा स्त्रोत है. य़ह विभिन्न लोगों के मध्य एकता और विश्वास की भावना पैदा करती है . परिणाम स्वरूप विचारधारा से प्रेरित होकर व्यक्ति किसी भी कुर्बानी के लिए हर वक्त तैयार रहता है. माओवादियों के द्वारा युवा वर्ग को विशेष तौर से युवतियों को यह आश्वासन और हसीन स्वपन दिखाया जाता है कि उनकी गरीबी, बेरोजगारी, सुरक्षा और अन्य समस्याओं का समाधान केवल माओवाद के द्वारा किया जा सकता है. इस हसीन सपने का शिकार युवा वर्ग हो जाता है और माओवादी संगठनों का सदस्य बन जाता है. विचारधारा कारण भी नक्सलवादी आंदोलन में महिलाएं और युवतियां शामिल होती हैं.
नक्सलवादी आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी
महिला नक्सलवादियों ने सामरिक मोर्चे पर विद्रोही हमलों का सामूहिक सामना और सामूहिक सुरक्षा भी करती हैं. महिलाओं की भागीदारी कई क्षेत्रों में लगभग पुरुषों के समान है. अनेक महिलाओं को संगठित पुलिस के शोषण अथवा राज्य के दमन के विरुद्ध हथियार उठाने के लिए भी मजबूर किया जाता है. प्रतिभा सिंह के अनुसार ‘’नक्सलबाड़ी आंदोलन के शुरुआती दौर में कई महिलाएं, खासकर मध्यम वर्ग की महिलाएं अपने पुरुष समकक्षों (भाइयों, पतियों, दोस्तों और रिश्तेदारों) के प्रभाव में आकर आंदोलन में शामिल हुईं. यह आंदोलन कई महिलाओं को “रोज़मर्रा” जीवन से “वीर” जीवन में आत्म-उत्कृष्टता के लिए आशा की एक नई किरण लाया’. महिलाएं कोरियर सेवाओं के साथ-साथ शस्त्रों की ट्रेनिंग ,गोरिल्ला वार फाइटिंग, शस्त्रों को संभालना और पुरुष माओवादियों के साथ मिलकर पुलिस और सुरक्षा बलों का सामना करना, हिंसा व,पुलिस थानों पर हमला करना इत्यादि कार्यों में भाग लेती हैं .परंतु इसके बावजूद भी माओवादी विचारधारा पितृसत्तात्मक विचारधारा से स्वतंत्र नहीं हुई .यही कारण है की माओवादी महिलाओं के द्वारा रसोई का काम भी जंगलों में संभाला जाता है.
मल्लरिका सिन्हा रॉय के अनुसार नक्सलवादी आंदोलन में आदिवासी गरीब किसान महिलाओं की भूमिका केवल पृष्ठभूमि और छवि की नहीं रही है. अपितु उन्होंने इस आंदोलन में सक्रिय भाग लिया है .नक्सलवादी महिला दस्तों के द्वारा हिंसक कृत्यों में भी भाग रही हैं. महिलाओं की भागीदारी में ‘गोरिल्ला युद्ध’ की रणनीति व शैली का व्यावहारिक ज्ञान , क्रांतिकारी साथियों को अपने घरों में आश्रय देना,उनको भोजन और आराम देना, घर के बाहर सुरक्षा का पहरा देना, गांव दर –गांव जाकर महिलाओं और पुरुषों को नक्सलवादी आंदोलन का पैगाम देना, संगठित करना, आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित करना, हथियारों की सप्लाई करना, गोरिल्ला युद्ध की शैली समझाना, ट्रेनिंग देना और रणनीति की व्याख्या करना, पुलिस व अर्धसैनिक बलों के साथ मुकाबला करते हुए सुरक्षा करना, नक्सलवादी युवकों के साथ जंगलों में रहकर कैंपों में ट्रेनिंग लेना व अभ्यास करना और पुलिस अथवा अर्धसैनिक बलों के विरुद्ध पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सुरक्षा करना इत्यादि मुख्य कार्य हैं. पुलिस अथवा अर्धसैनिक बलों के द्वारा गिरफ्तार किए जाने के पश्चात पुलिस कस्टडी में नक्सलवादी महिलाओं के साथ अभूतपूर्व टॉर्चर व अमानवीय व्यवहार भी किया जाता है . पुलिस कस्टडी में अमानवीय व्यवहार का वर्णन लतिका गुहा ने अपने संस्मरण ‘लेट हेल बी रिवील्ड :ट्वेंटी सेवन डेज इन लाल बाजार टॉर्चर सेल’ में किया है. नक्सलवादी महिलाओं की एनकाउंटर की असत्य और सत्य दोनों प्रकार की घटनाएं समाचार पत्रों की सुर्खियां भी होती हैं. पुलिस के द्वारा पकड़े जाने पर नक्सलवादी महिलाओं को सार्वजनिक रूप में गांवों में घुमाया जाता है ताकि लोगों का और आंदोलन में शामिल होने वाली युवतियों का मनोबल टूट जाए.
इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका का कम आंकलन करके अथवा छाया के रूप में प्रदर्शित करने की चेष्टा की गई. महिला नक्सलवादियों ने इस दृष्टिकोण की भरपूर आलोचना की है क्योंकि नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत 25 मई 1967 प्रसादु जोतगांव से हुई थी.इस दिन इस गांव में 8 महिलाओं सहित एक पुरुष और दो बच्चे मारे गए थे.
पुलिस फायरिंग के दौरान मारे गए लोगों के नाम पर एक स्मारक स्तंभ बनाया गया है. पुलिस फायरिंग में मरने वाली महिलाओं में प्रथम महिला धनेश्वरी देवी थी. धनेश्वरी देवी के अतिरिक्त अन्य महिलाओं –सिमस्वरी मुल्लिक ,नयनेश्वरी मलिक, सुरूबाला बर्मन, सोनामती सिंह, फूलमती देवी, संसारी सैबानी, गौदराऊ सैबानी के नाम स्मारक स्तंभ पर लिखे हुए हैं. स्मारक स्तंभ पर खरसिंह मलिक और “दो बच्चों’ के नाम भी अंकित हैं. रबी बनर्जी के अनुसार 1960 के दशक में नक्सलवादी आंदोलन के एकमात्र जीवित महिला नक्सलवादी शांति मुंडा ने तीर कमान से अनेक पुलिसकर्मियों की हत्या की थी .इस क्षेत्र के नक्सलवादियों का यह मानना है कि कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा क्षेत्र के उत्थान के लिए कोई विशेष काम नहीं किया. अभी भी वहां झोपड़िया है. शांति मुंडा नक्सलवादी महिला का मानना है कि कांग्रेस पार्टी एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का बंगाल में गठजोड़ गलत है क्योंकि वह आज भी कांग्रेस पार्टी को ‘वर्ग शत्रु’ मानती हैं.
महिलाएं तीन श्रेणियों में विभाजित
महिलाएंअग्रिम पंक्ति में थी. लेकिन कालांतर में महिलाओं को तीन श्रेणियों में विभाजित कर दिया गया. प्रथम, ग्रामीण महिलाएं अथवा सामान्य महिलाएं, द्वितीय, मध्यवर्गीय शहरी महिलाएं और तृतीय, नेतृत्व करने वाले पुरुषों की पत्नियां. नगरीय महिलाएं ग्रामीण महिलाओं की अपेक्षा शिक्षित थी. इसलिए उनको सामान्य अथवा ग्रामीण महिलाओं की ‘रक्षक श्रेणी’ में रखा गया. जबकि ग्रामीण नक्सलवादी महिलाओं के धरातल पर कार्रवाई तथा संघर्ष के संबंध में शहरी मध्यवर्गीय शिक्षित महिलाओं के व्यावहारिक ज्ञान में अंतर है. यदि हम अधिकारिक ऐतिहासिक रिकॉर्ड की छानबीन करें तो ज्ञात होगा कि प्रारंभ में महिलाओं को अग्रिम पंक्ति में होने के बावजूद भी कालांतर में हाशिए पर हैं. ” अप्रैल 2021 के आंकड़ों के अनुसार माओवादी आंदोलन में लगभग 70 प्रतिशत महिला का कॉडर है .इसके बावजूद भी महिलाएं युद्धविराम जैसे निर्णय निर्णयों तथा सरकार के अधिकारियों से बातचीत इत्यादि विषयों के संबंध में नगण्य भूमिका रखती हैं.
नक्सलवादी आंदोलन की युवतियों और महिलाओं की कहानियां : मौखिक इतिहास
पूर्व महिला नक्सलियों की कहानियां पढ़कर ज्ञात होता है कि नक्सल जीवन अत्यंत कठिन और कठोर होता है. महिलाओं कों पुरुषों के साथ दैनिक अभ्यास करना पड़ताहै. जिसके परिणाम स्वरूप महिलाओं को शारीरिक और मानसिक रूप से आंदोलन के लिए तैयार किया जाता है. पूर्व नक्सलवादी महिलाओं के अनुसार दौड़ना, कूदना, रेंगना, जोगिंग करना, लक्ष्य पर फायर करना इत्यादि सिखाया जाता है. लक्ष्मी जो 9 साल की आयु में दलम में शामिल हुई थी उसका कहना है कि आंदोलन में प्रवेश करने के पश्चात महिलाओं को भी पुरुषों के समान अंधेरे जंगलों में हथियारबंद होकर कटीली झाड़ियों और कीचड़ से गुजरना पड़ता है .महिलाएं कोरियर व संदेशवाहक के रूप में काम भी करती हैं. हर समय महिलाओं को पुरुषों की भांति पुलिस व अर्धसैनिक बलों के हमलों से सतर्क और सावधान रहना पड़ता है .क्योंकि किसी भी समय हमला और आक्रमण का सामना करना पड़ सकता है. महिलाओं को गोरिल्ला वर्दी और एक किट हर समय साथ रखना पड़ता है. इस किट में गोरिल्ला वर्दी, बर्तन, हथियार, गोला बारूद इत्यादि होते हैं .लक्ष्मी के अनुसार महिलाएं एके-47 तथा अन्य अधिकार चलाने में बिल्कुल सक्षम होती हैं. सुनीता की कहानी के अनुसार “जब मैं दलम में थी, मैंने एके-47 राइफल, कार्बाइन, 303 जैसे हथियार आसानी से संभाल लिए थे. ’नक्सली जीवन व मुख्यधारा का वर्तमान और भविष्य के जीवन के बीच में सुनीता के मन में कशम कश है. यद्यपि जंगल का जीवन अत्यंत कठिन और कठोर है. इसके बावजूद भी सुनीता मानती है कि “मैं अकेली हूं जिंदगी की इस जंग में. कभी-कभी मुझे दलम में फिर से शामिल होने का मन करता है लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाती.मुख्यधारा का जीवन जंगल के जीवन से भी अधिक कठिन है’
नक्सलवादी आंदोलन: युवतियों और महिलाओं का यौन शोषण
नक्सलवादी आंदोलन में युक्तियां अथवा महिलाएं इसलिए शामिल होती थी ताकि उनको सैन्य बलों, पुलिस और सलवा जुडूम के द्वारा किए जाने वाले लैंगिक शोषण से मुक्ति प्राप्त हो. उस समय उनको माओवादियों के द्वारा सुरक्षा और सम्मान का आश्वासन दिया जाता है . यह कहा जाता है कि उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त होंगे .परंतु वास्तव में आंतरिक स्तिथि महिला विरोधी दिखाई देती है .शोभा मांडी (उर्फ उमा व शिखा–लगभग 30 सशस्त्र विद्रोहों की कमांडर )सात वर्ष तक नक्सलबाड़ी आंदोलन में रही और सन् 2010 में उसने यह हिंसा का मार्ग छोड़ दिया. उसकी पुस्तक ‘एक माओवादी की डायरी’ इस बात का स्पष्टीकरण किया गया है कि सात बरस की अवधि में उसके साथी कमांडरों के द्वारा बार-बार उसके साथ बलात्कार, शोषण, हिंसा और अत्याचार किए गए. उसने लिखा कि उग्रवादी माओवादी आंदोलन में ‘पत्नी की अदला बदली, व्यभिचार, बलात्कार शारीरिक शोषण व हिंसा सामान्य बात मानी जाती है.’ केवल यही नहीं अपितु वरिष्ठ पुरुष उग्रवादियों के द्वारा नई रंगरूट युवतियों और महिलाओं का भी शारीरिक शोषण किया जाता है. वरिष्ठ माओवादी महिलाओं के भी अनेक युवा साथियों के साथ शारीरिक शोषण का वर्णन शोभा मांडी ने किया है. शोभा मांडी ने लिखा यदि कोई युवति अथवा महिला गर्भवती हो जाती थी उसको गर्भपात के सिवाय कोई वैकल्पिक नहीं था क्योंकि बच्चे को’ गोरिल्ला आजीविका’ में बाधा माना जाता है. नक्सलवादी आंदोलन में युवतियों और महिलाओं का यौन शोषण – ‘पत्नी की अदला-बदली, व्यभिचार, बलात्कार’ नक्सलवादी आंदोलन का अमानवीय, स्त्री विरोधी और घिनौना स्वरूप है.
परंतु इसके विपरीत नक्सलवादी आंदोलन की पूर्व सदस्य लक्ष्मी यह कहती हैं कि दलम में भर्ती होने पर यह शपथ दिलवाई जाती है कि सदस्यता के दौरान परिवारिक जीवन में प्रवेश नहीं कर सकेंगे. पुरुष व महिलाएं एक ही शिविर में इकट्ठे रहते हैं. लक्ष्मी ने स्पष्ट किया ‘कोई दुर्व्यवहार या शोषण नहीं है’. यदि कोई सदस्य जोड़े के रूप में रहना चाहते हैं तो वह शादी कर सकते हैं. परंतु बच्चे पैदा करने पर सख्त प्रतिबंध है. शादी के पश्चात वैवाहिक जोड़ों को पार्टनर के रूप में समय बिताने का 6 महीने का समय दिया जाता है. यदि वह आगे आंदोलन में रहना चाहते हैं तो पुरुषों को नसबंदी करवाने होगी.अन्य शब्दों में नसबंदी नक्सलवादी आंदोलन का मूल स्तम्भ है.
नक्सलवादी आंदोलन से प्रभावित क्षेत्र: लाल गलियारा—(रेड कॉरिडोर)
भारत सरकार की अधिकारिक रिपोर्ट (सन्2007) के अनुसार नक्सलवादी “भारत के 29 (अब 28 राज्य तथा 8 केंद्रीय प्रशासित क्षेत्र )राज्यों में से आधे” राज्यों में सक्रिय थे, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा है, जिसे ” रेड कॉरिडोर ” के रूप में जाना जाता है.एक अनुमान के अनुसार उनका प्रभाव 92,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक भौगोलिक क्षेत्र में था. सन् 2009 में, भारत के दस राज्यों के लगभग 180 जिलों में नक्सलवादी सक्रिय थे . अप्रैल 2023 की रिपोर्ट के अनुसार आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा और तेलंगाना के लगभग 40 जिले माओवाद के प्रभाव से ग्रसित हैं. नक्सलवादी आंदोलन में यह अभूतपूर्व निम्न स्तरीय स्थिति है और भविष्य में यह आंदोलन मूल रूप से समाप्त होने की संभावना है जो भारतीय लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है.
सन् 1980 और सन् 2015 के अंतराल में, नक्सलवादी आंदोलन के कारण 20,012 लोग हताहत हुए; इन में से 4,761 नक्सलवादी, 3,105 सुरक्षा बलों के सदस्य और 12,146 नागरिक हैं। भारत सरकार के गृह मंत्रालय की अधिकारिक रिपोर्ट (सन्2019 )के अनुसार सन् 2013 से सन् 2018 तक पांच वर्षों के अंतराल में माओवादियों से संबंधित हिंसक घटनाओं में 26.7% की कमी आई है.
केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने 14 मार्च 2023 को लोकसभा में कहा कि वामपंथी उग्रवाद से संबंधित मौतों की संख्या 2010 में 1005 से घटकर 2022 में 98 हो गई. अन्य शब्दों में 12वर्षों (2010 से 2022)के अंतराल में नक्सली हिंसा में 77% की कमी कमी आई है
समस्या का समाधान
जब गरीब व्यक्ति रोजी, रोजगार तथा सुविधाओं की मांग करते हैं अथवा नौकरी की मांग करते हैं तो वर्तमान प्रजातांत्रिक व्यवस्था में भी पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों का दृष्टिकोण ‘उपनिवेशिक’ एवं ‘अर्ध सामंती’ होने के कारण पुलिस व प्रशासन का मानना है कि नौकरी प्रदान करने से इस समस्या का समाधान संभव नहीं है. यही दृष्टिकोण नक्सलवादी हिंसा को अधिक बढ़ावा देता है. नक्सलवाद को रोकने के लिए, पुलिस, प्रशासन और नौकरशाही को यह सामंती व नव -उदारवादी (Feudal and Neo- liberal) दृष्टिकोण बदलना चाहिए ताकि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास के कार्यों के द्वारा गरीबी का उन्मूलन किया जा सके.
नक्सलवाद की समस्या का समाधान करने के लिए आदिवासी क्षेत्रों के लिए समग्र दृष्टिकोण पर आधारित नीति की आवश्यकता है. भारत सरकार व राज्य सरकारों की नीतियों और कार्यक्रमों को नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्रों में हर गांव में पहुंचाया जाए. राजधानियों बैठे हुए राजनेताओं तथा नौकरशाहों को यह समझना चाहिए कि “आदिवासी भी भारतीय हैं” तथा ‘उनका ‘जीवन भी महत्व रखता’ है. यदि आदिवासियों का विकास नहीं होगा तो भारत का संपूर्ण विकास होना असंभव है.आदिवासियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाकर उनका दिल जीत कर ही राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाया जा सकता है. पुलिस तथा सुरक्षा बलों के द्वारा आंदोलनकारियों का दमन तो किया जा सकता है परंतु समस्या का स्थाय़ी समाधान असंभव है. आदिवासियों की समस्या का समाधान करने के लिए जल, जंगल और जमीन पर उनके परंपरागत पुश्तैनी अधिकार को बरकरार रखने की जरूरत है. आधुनिक शोषणकारी कारपोरेट के द्वारा उनकी जमीनों, जंगलों व खदानों पर अवैध कब्जे बंद होने चाहिए. आधुनिकीकरण के कारण पारिस्थितिकी पतन हो रहा है. यह एक संवेदनशील मुद्दा है. व्यावसायिक वानिकी और गहन कृषि दोनों ही आदिवासी क्षेत्रों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुए हैं. क्योंकि जल, जंगल और जमीन आदिवासियों के लिए जीवन यापन का सदियों से मुख्य स्त्रोत रहा है और वास्तव में यह उनकी जीवन रेखा है .
नक्सलवादियों, माओवादियों और गोरिल्ला माओवादियों को यह समझना अत्यंत जरूरी है कि भारतवर्ष में लोकतंत्रात्मक व्यवस्था है. लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन मतदान के द्वारा होता है और ऐसी स्थिति में सरकार को शांतिपूर्ण तरीके से बदला जा सकता है. माओ का यह सिद्धांत कि ‘सत्ता बंदूक की नली से उत्पन्न’ होती है .यह असामयिक हो चुका है. लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में जनता शांतिपूर्ण तरीके से बदलाव कर सकती है तो फिर हथियार उठाने की कोई जरूरत नहीं है और साधारण जनता -युवकों, युवतियों व महिलाओं को हिंसा की ज्वाला में झोंकना बिल्कुल अनुचित, अमानवीय व जघन्य नरसंहार है. संक्षेप में यदि एक ओर आदिवासी क्षेत्रों में समग्र विकास की जरूरत है तो दूसरी ओर माओवादियों को समझना चाहिए कि लोकतंत्र में हिंसा व गन तंत्र का कोई स्थान नहीं है.
वेंकट लक्ष्मी (निर्मलक्का–निर्मल- आंध्र प्रदेश )
नक्सलवादी आंदोलन में वैसे तो युवतियों और महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है. परंतु नक्सलवादी युवतियों और महिलाओं में अधिक चर्चित नाम कुन्निक्कल अजीता. (केरल), मोतीबाई (आंध्र प्रदेश -तेलंगाना की प्रथम महिला नक्सलवादी), होसागड्डे प्रभा (मोस्ट वांटेड महिला नक्सली- कर्नाटक ), नर्मदा अक्का (आंध्र प्रदेश) वेंकट लक्ष्मी(निर्मलक्का) इत्यादि हैं. परंतु इस लेख में हम सर्वाधिक चर्चित वेंकट लक्ष्मी (निर्मलक्का – आंध्र प्रदेश) का वर्णन कर रहे हैं.
नक्सलवादी आंदोलन की सबसे अधिक चर्चित और लोकप्रिय चेहरा वेंकट लक्ष्मी (निर्मलक्का)का है. सन् 1989 में निर्मलक्का ने 22 साल की आयु में पीपुल्ज वार ग्रुप में शामिल होने के पश्चात अपना घर छोड़ दिया और सन् 1994 में छत्तीसगढ़ के माओवादी आंदोलन के शीर्ष नेताओं से संबंध स्थापित किए .निर्मलक्का को अपनी मातृभाषा तमिल के अतिरिक्त कन्नड़, मराठी, हिंदी, गोंडी और हल्बी भाषाओं में महारत हासिल थी. दक्षिण बस्तर का लाल गलियारा उसका कार्य क्षेत्र था. उसका स्थानीय लोगों से बहुत अधिक संपर्क था क्योंकि वह गोंडी और हल्बी दोनों भाषाओं में स्थानीय लोगों से बातचीत कर सकती थी. सन् 1998 में वह नक्सलवादी आंदोलन का एरिया कमांडर बनी और उसमें दृढ़ निश्चय व आत्मविश्वास की प्रकाष्ठा विद्यमान थी. नक्सलवादी आंदोलन में रहते हुए उसने सालवा जुडूम, पुलिस व अर्द्ध सैन्य बलों का डटकर मुकाबला किया. निर्मलक्का को 5 जुलाई 2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया गया.लोगों का मनोबल तोड़ने के लिए उसे उन गांवों में भी घुमाया गया जहां उसकी लोकप्रियता थी. विचित्र किंतु सत्य छत्तीसगढ़ की सरकार ने निर्मला पर 159में चलाएं. परंतु पुलिस के पास तीन अदालतों में वारंट प्रस्तुत करने के अतिरिक्त कोई दस्तावेज नहीं था. परिणाम स्वरूप 12 वर्ष जगदलपुर जेल में रहने पश्चात सन् 2019 में निर्मलक्का को सभी 159 मुकदमों में निर्दोष पाया गया और जेल से रिहा किया गया. यह पुलिस की कार्य शैली पर एक प्रश्न चिह्न है.