चौथे दलित साहित्य महोत्सव के पहले दिन का शुभारंभ,
दलित साहित्य और सशक्तिकरण को समर्पित
समाज वीकली-
नई दिल्ली, 28 फरवरी 2025 – चौथे दलित साहित्य महोत्सव (DLF) का आज आर्यभट्ट कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय (साउथ कैंपस) में भव्य उद्घाटन हुआ। दो दिवसीय इस महोत्सव का उद्देश्य दलित साहित्य, इतिहास, संस्कृति और सामाजिक न्याय की सतत प्रक्रिया पर विमर्श करना और इसकी उत्सवधर्मिता रहा । इस कार्यक्रम में विभिन्न राज्यों से आए 500 से अधिक प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया। यह महोत्सव अंबेडकरवादी लेखक संघ (ALS) द्वारा आर्यभट्ट कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय और दलित आदिवासी शक्ति अधिकार मंच (DASAM) सहित अन्य संगठनों के सहयोग से आयोजित किया जा रहा है। इस वर्ष का महोत्सव दलितों, महिलाओं, आदिवासियों और LGBTQIA+ समुदाय की आवाज़ों को एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान करता है, जो शांति, समानता और सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने वाले विचार-विमर्श और क्रियान्वयन को सशक्त बनाता है। उद्घाटन समारोह की शुरुआत संगीत समूह “देशराज” द्वारा प्रस्तुत “भीम गीत” (अंबेडकर एंथम) से हुई, जिसने डॉ. बी. आर. अंबेडकर की विरासत को सम्मानित करते हुए प्रतिरोध और सशक्तिकरण के संदेश को सबल किया। इसके बाद, दिवंगत दलित लेखकों को श्रद्धांजलि स्वरूप दो मिनट का मौन रखा गया, जिनका योगदान आज भी न्याय और समानता की लड़ाई को प्रेरित कर रहा हैं। इस अवसर पर संविधान की प्रस्तावना का पाठ महोत्सव टीम की सदस्य मोहसिना अख्तर ने किया। कार्यक्रम का संचालन प्रो. अनुज कुशवाहा और प्रो. अशोक कुमार ने किया। अपने उद्घाटन भाषण में डॉ. सूरज बडत्या,दलित साहित्य महोत्सव के संस्थापक, ने इस महोत्सव के महत्व पर प्रकाश डालते हुए इसे एक “पुनर्जागरण का मंच” करार दिया, जहां दलित पहचान, संस्कृति और इतिहास को निर्बाध रूप से मनाने और संरक्षित करने का अवसर मिलता है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह महोत्सव बाहरी हस्तक्षेप और स्पोस्सर्शिप से मुक्त एक ऐसा स्थान है, जहां दलित आवाजों को सुना और उनके योगदान को स्वीकार किया जाता है।
महोत्सव के सह-संस्थापक संजीव डांडा ने इस महोत्सव के इतिहास को संक्षेप में प्रस्तुत किया, यह बताते हुए कि 2017-18 में इसकी अवधारणा बनी और 2019 में इसे मूर्त रूप दिया गया। उन्होंने यह भी बताया कि यह महोत्सव पूरी तरह से स्वैच्छिक प्रयासों से संचालित होता है, जिसमें दलित साहित्य की परिवर्तनवादी चेतना में विश्वास करने वाले लोगों का योगदान शामिल है।
पहले दिन की प्रमुख चर्चाएँ और विषय-वस्तु
महोत्सव के पहले दिन सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर कई महत्वपूर्ण पैनल चर्चाएँ आयोजित की गईं। इनमें भारतीय संविधान की प्रासंगिकता, विशेष रूप से स्त्री और दलित अधिकारों और सशक्तिकरण से जुड़े विषयों पर चर्चा की गई।
- दलित महिलाओं के सशक्तिकरण पर विशेष सत्र में प्रप्रसिद्ध लेखक जयप्रकाश कर्दम ने बात रखते हुए डॉ. अंबेडकर के समानता और न्याय के आदर्शों को आगे बढ़ाने में दलित महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया।
- प्रो. विनोद सोनकर ने संविधान को दलित समुदाय के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करने का एक सशक्त माध्यम बताया।
- वक्ताओं ने यह भी चर्चा की कि अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों को समाप्त करना क्यों आवश्यक है, क्योंकि यह आज भी समाज को विभाजित कर रही है।
- उन्होंने यह भी बताया कि सवर्ण जातियों ने ऐतिहासिक रूप से दलितों को हाशिए पर रखा, जिससे उनकी सामाजिक और आर्थिक प्रगति बाधित हुई।
दलित सिनेमा पर विशेष सत्र
महोत्सव के सबसे महत्वपूर्ण पैनल सत्रों में से एक दलित सिनेमा पर केंद्रित था, जिसमें यह विश्लेषण किया गया कि फिल्म उद्योग में दलितों को किस प्रकार चित्रित किया जाता है।
- प्रो. अशोक कुमार ने मुख्यधारा के सिनेमा में दलितों के रूढ़िगत चित्रण पर चर्चा की और बताया कि फिल्मों में अक्सर दलितों को नकारात्मक और संकीर्ण दृष्टिकोण से दिखाया जाता है, जिससे समाज में उनके प्रति बनी पूर्वधारणाएँ और मजबूत होती हैं।
- उन्होंने बताया कि मुख्यधारा की फिल्मों में ऊंची जातियों को गोरी त्वचा और दलित पात्रों को गहरे रंग में चित्रित करने की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
- महोत्सव के संयोजक प्रो. बलराज सिमिहार ने इस विषय पर चर्चा करते हुए बताया कि दलितों द्वारा या उनके बारे में बनाई गई फिल्मों की संख्या बहुत कम है, जबकि सवर्णों के दृष्टिकोण से प्रस्तुत की गई कहानियाँ वैश्विक स्तर पर अधिक प्रभावी होती हैं।
- डॉ. सीमा माथुर ने दलित महिलाओं के चित्रण पर बात करते हुए फिल्म “प्रेम रोग” का उदाहरण दिया, जिसमें विधवाओं को समाज से अलग-थलग कर दिया जाता है और यौन हिंसा का शिकार बनाया जाता है। उन्होंने कहा कि यह दिखाता है कि दलित महिलाएँ आज भी समाज में किस प्रकार वस्तुकरण और असमानता का सामना कर रही हैं।
संस्कृति और कलात्मक अभिव्यक्ति का उत्सव दिन का समापन सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के साथ हुआ, जिसमें दलित संस्कृति और कलात्मकता को केंद्र में रखकर संगीतमय कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए। यह महोत्सव सिर्फ साहित्य तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह दलितों और अन्य वंचित समुदायों के सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों को वैश्विक स्तर पर विमर्श के केंद्र में लाने का भी प्रयास कर रहा है।
इस वर्ष के महोत्सव की थीम “दलित साहित्य के माध्यम से विश्व शांति संभव है” पूरे कार्यक्रम में गूँजती रही, जिसमें यह संदेश दिया गया कि दलित साहित्य सामाजिक परिवर्तन का एक प्रभावी माध्यम बन सकता है। पैनल चर्चाओं के अलावा सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ और पुस्तक स्टॉल भी इस आयोजन का हिस्सा रहे, जहाँ जाति-भेदभाव, लैंगिक असमानता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबंधित साहित्य, कला और संगीत को प्रदर्शित किया गया।
चार वर्षों में एक आंदोलन बना दलित साहित्य महोत्सव गत वर्षों में दलित साहित्य महोत्सव केवल एक साहित्यिक आयोजन न रहकर, बल्कि एक व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन बन चुका है। यह मंच दलित और वंचित समुदायों की चुनौतियों पर खुलकर चर्चा करने, बौद्धिक और कलात्मक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने तथा सामाजिक न्याय, शांति और समानता की दिशा में कार्य करने का एक प्रभावी साधन बना हुआ है। महोत्सव दूसरे दिन 1 मार्च को भी जारी रहेगा, जिसमें अतिरिक्त पैनल चर्चाएँ, सांस्कृतिक कार्यक्रम और अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर संवाद होंगे, जो साहित्य को सामाजिक न्याय और शांति पर केंद्रित होंगे।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें: 8491052270 | 99599295017 |77503655071
आयोजक:
अंबेडकरवादी लेखक संघ, आर्यभट्ट कॉलेज—दिल्ली विश्वविद्यालय (साउथ कैंपस), दलित आदिवासी शक्ति अधिकार मंच (DASAM), रिदम पत्रिका, PMARC