सबके लिए थे मुलायम – मुलायम सिंह यादव

मौत उस की है करे जिस का ज़माना अफ़सोस,
यूं तो दुनिया में सभी आए हैं मरने के लिए।

-जैद अहमद फारुकी

समाजवादी पार्टी के संस्थापक और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का 10 अक्टूबर 2022 को निधन हो गया है. वे पिछले कई दिनों से बीमार थे और गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में भर्ती थे. उनकी जीवन यात्रा पर ये विशेष लेख.

(समाज वीकली)- उनके विरोधी और उनके चाहने वाले दोनों उनके लिए आंसू बहा रहे हैं मुलायम सिंह यादव में कुछ खास बातें थी उन्होंने बालेश्वर यादव से लेकर लीलावती कुशवाहा तक को उत्तर प्रदेश के उच्च सदन में भेजा जो कभी चुनाव जीत के सदन का सदस्य नहीं बन सकते थे

कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव की जवानी के दिनों में अगर उनका हाथ अपने प्रतिद्वंदी की कमर तक पहुँच जाता था, तो चाहे वो कितना ही लंबा या तगड़ा हो, उसकी मजाल नहीं थी कि वो अपने-आप को उनकी गिरफ़्त से छुड़ा ले.

आज भी उनके गाँव के लोग उनके ‘चर्खा दाँव’ को नहीं भूले हैं, जब वो बिना अपने हाथों का इस्तेमाल किए हुए पहलवान को चारों ख़ाने चित कर देते थे.

मुलायम सिंह यादव

अध्यापक बनने के बाद मुलायम ने पहलवानी करनी पूरी तरह से छोड़ दी थी. लेकिन अपने जीवन के आख़िरी समय तक वो अपने गाँव सैफई में दंगलों का आयोजन कराते रहे.
उत्तर प्रदेश पर नज़र रखने वाले कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कुश्ती के इस गुर की वजह से ही मुलायम राजनीति के अखाड़े में भी उतने ही सफल रहे, जबकि उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी.

मुलायम सिंह की प्रतिभा को सबसे पहले पहचाना था प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक नेता नाथू सिंह ने, जिन्होंने 1967 के चुनाव में जसवंतनगर विधानसभा सीट का उन्हें टिकट दिलवाया था.

उस समय मुलायम की उम्र सिर्फ़ 28 साल थी और वो प्रदेश के इतिहास में सबसे कम उम्र के विधायक बने थे. उन्होंने विधायक बनने के बाद अपनी एमए की पढ़ाई पूरी की थी.

जब 1977 में उत्तर प्रदेश में रामनरेश यादव के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी, तो मुलायम सिंह को सहकारिता मंत्री बनाया गया. उस समय उनकी उम्र थी सिर्फ़ 38 साल.

मुलायम सिंह यादव
मुख्यमंत्री की दौड़ में अजीत सिंह को हराया
चौधरी चरण सिंह मुलायम सिंह को अपना राजनीतिक वारिस और अपने बेटे अजीत सिंह को अपना क़ानूनी वारिस कहा करते थे.

लेकिन जब अपने पिता के गंभीर रूप से बीमार होने के बाद अजीत सिंह अमरीका से वापस भारत लौटे, तो उनके समर्थकों ने उन पर ज़ोर डाला कि वो पार्टी के अध्यक्ष बन जाएँ.

इसके बाद मुलायम सिंह और अजीत सिंह में प्रतिद्वंद्विता बढ़ी. लेकिन उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का मौक़ा मुलायम सिंह को मिला.

5 दिसंबर, 1989 को उन्हें लखनऊ के केडी सिंह बाबू स्टेडियम में मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई और मुलायम ने रुँधे हुए गले से कहा था, “लोहिया का ग़रीब के बेटे को मुख्यमंत्री बनाने का पुराना सपना साकार हो गया है.”
मुख्यमंत्री बनते ही मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में तेज़ी से उभर रही भारतीय जनता पार्टी का मज़बूती से सामना करने का फ़ैसला किया.
उस ज़माने में उनके कहे गए एक वाक्य “बाबरी मस्जिद पर एक परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा” ने उन्हें मुसलमानों के बहुत क़रीब ला दिया. और उस दिन मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री से अंतरराष्ट्रीय नेता बन गए
यही नहीं, जब 2 नवंबर, 1990 को कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद की तरफ़ बढ़ने की कोशिश की, तो उन पर पहले लाठीचार्ज फिर गोलियाँ चली, जिसमें एक दर्जन से अधिक कार सेवक मारे गए. इस घटना के बाद से ही बीजेपी के समर्थक मुलायम सिंह यादव को ‘मौलाना मुलायम’ कह कर पुकारने लगे.

4 अक्तूबर, 1992 को उन्होंने समाजवादी पार्टी की स्थापना की. उन्हें लगा कि वो अकेले भारतीय जनता पार्टी के बढ़ते हुए ग्राफ़ को नहीं रोक पाएँगे.

इसलिए उन्होंने कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया. कांशीराम से उनकी मुलाक़ात दिल्ली के अशोक होटल में उद्योगपति जयंत मल्होत्रा ने करवाई थी.

1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को 260 में से 109 और बहुजन समाज पार्टी को 163 में से 67 सीटें मिलीं थीं. भारतीय जनता पार्टी को 177 सीटों से संतोष करना पड़ा था और मुलायम सिंह ने कांग्रेस और बीएसपी के समर्थन से राज्य में दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी.

मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफ़र

1967 में पहली बार उत्तर प्रदेश के जसवंतनगर से विधायक बने
1996 तक मुलायम सिंह यादव जसवंतनगर से विधायक रहे
पहली बार वे 1989 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने
1993 में वे दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने
1996 में पहली बार मुलायम सिंह यादव ने मैनपुरी से लोकसभा चुनाव लड़ा.
1996 से 1998 तक वे यूनाइटेड फ़्रंट की सरकार में रक्षा मंत्री रहे
उसके बाद मुलायम सिंह यादव ने संभल और कन्नौज से भी लोकसभा का चुनाव जीता
2003 में एक बार फिर मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने
मुलायम सिंह यादव 2007 तक यूपी के सीएम बने रहे
इस बीच 2004 में उन्होंने लोकसभा चुनाव भी जीता, लेकिन बाद में त्यागपत्र दे दिया
2009 में उन्होंने मैनपुरी से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीते भी
2014 में मुलायम सिंह यादव ने आज़मगढ़ और मैनपुरी दोनों जगह से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीते भी.
बाद में उन्होंने मैनपुरी सीट छोड़ दी.
2019 में उन्होंने एक बार फिर मैनपुरी से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीते
कांशीराम
जब कांशीराम ने मुलायम को चार घंटे तक इंतज़ार करवाया
लेकिन यह गठबंधन बहुत दिनों तक नहीं चला, क्योंकि बहुजन समाज पार्टी ने अपने गठबंधन सहयोगी के सामने बहुत सारी माँगें रख दीं.

मायावती मुलायम के काम पर बारीक नज़र रखतीं और जब भी उन्हें मौक़ा मिलता, उन्हें सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने से नहीं चूकतीं. कुछ दिनों बाद कांशीराम ने भी मुलायम सिंह यादव की अवहेलना करनी शुरू कर दी.

उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव रहे टीएस आर सुब्रमण्यम अपनी किताब ‘जरनीज़ थ्रू बाबूडम एंड नेतालैंड’ में लिखते हैं, “एक बार कांशीराम लखनऊ आए और सर्किट हाउस में ठहरे. उनसे पहले से समय लेकर मुलायम सिंह उनसे मिलने पहुँचे. उस समय कांशीराम अपने राजनीतिक सहयोगियों के साथ मंत्रणा कर रहे थे. उनके स्टाफ़ ने मुलायम से कहा कि वो बग़ल के कमरे में बैठ कर कांशीराम के काम से ख़ाली होने का इंतज़ार करें.”

“कांशीराम की बैठक दो घंटे तक चली. जब कांशीराम के सहयोगी बाहर निकले तो मुलायम ने समझा कि अब उन्हें अंदर बुलाया जाएगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. एक घंटे बाद जब मुलायम ने पूछा कि अंदर क्या हो रहा है तो उन्हें बताया गया कि कांशीराम दाढ़ी बना रहे हैं और इसके बाद वो स्नान करेंगे. मुलायम बाहर इंतज़ार करते रहे. इस बीच कांशीराम थोड़ा सो भी लिए. चार घंटे बाद वो मुलायम सिंह से मिलने बाहर आए.”

“वहाँ मौजूद मेरे जानने वालों का कहना है कि इस बात का तो पता नहीं कि उस बैठक में क्या हुआ लेकिन ये साफ़ था कि जब मुलायम कमरे से बाहर निकले तो उनका चेहरा लाल था. कांशीराम ने ये भी मुनासिब नहीं समझा कि वो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को बाहर उनकी कार तक छोड़ने आते.”

उसी शाम कांशीराम ने बीजेपी नेता लालजी टंडन से संपर्क किया और कुछ दिनों बाद बहुजन समाज पार्टी ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया.

इससे पहले दो जून 1995 को जब मायवती लखनऊ आईं, तो मुलायम के समर्थकों ने राज्य गेस्ट हाउस में मायवती पर हमला किया और उन्हें अपमानित करने की कोशिश की.
इसके बाद इन दोनों के बीच जो खाई पैदा हुई, उसे दो दशकों से भी अधिक समय तक पाटा नहीं जा सका.
वो गेस्ट हाउस कांड, जिसने माया-मुलायम को दुश्मन बना दिया था
24 साल बाद 2019 के लोक सभाआम चुनाव मे एक मंच पर मुलायम सिंह यादव और मायावती नजर आये

एक बार बेनी प्रसाद वर्मा ने कहा था, “मैं मुलायम सिंह को बहुत पसंद करता था. एक बार रामनरेश यादव के हटाए जाने के बाद मैंने चरण सिंह से मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री बनाए जाने की सिफ़ारिश की थी. लेकिन चरण सिंह मेरी सलाह पर हंसते हुए बोले थे इतने छोटे क़द के शख़्स को कौन अपना नेता मानेगा. तब मैंने उनसे कहा था, नेपोलियन और लाल बहादुर शास्त्री भी तो छोटे क़द के थे. जब वो नेता बन सकते हैं तो मुलायम क्यों नहीं. चरण सिंह ने मेरा तर्क स्वीकार नहीं किया था.
प्रधानमंत्री पद से चूके
मुलायम सिंह यादव 1996 में यूनाइटेड फ़्रंट की सरकार में रक्षा मंत्री बने. प्रधानमंत्री के पद से देवेगौड़ा के इस्तीफ़ा देने के बाद वो भारत के प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए.
शेखर गुप्ता ने इंडियन एक्सप्रेस के 22 सितंबर, 2012 के अंक में’मुलायम इज़ द मोस्ट पॉलिटिकल’ लेख में लिखा, “नेतृत्व के लिए हुए आंतरिक मतदान में मुलायम सिंह यादव ने जीके मूपनार को 120-20 के अंतर से हरा दिया था.”
“लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वी दो यादवों लालू और शरद ने उनकी राह में रोड़े अटकाए और इसमें चंद्रबाबू नायडू ने भी उनका साथ दिया, जिसकी वजह से मुलायम को प्रधानमंत्री का पद नहीं मिल सका. अगर उन्हें वो पद मिला होता तो वो गुजराल से कहीं अधिक समय तक गठबंधन को बचाए रखते.”
वर्ष 2002 में जब एनडीए ने राष्ट्रपति पद के लिए एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे किया, तो वामपंथी दलों ने उसका विरोध करते हुए कैप्टेन लक्ष्मी सहगल को उनके ख़िलाफ़ उतारा.

मुलायम ने आख़िरी समय पर वामपंथियों का समर्थन छोड़ते हुए कलाम की उम्मीदवारी पर अपनी मोहर लगा दी.

वर्ष 2008 में भी जब परमाणु समझौते के मुद्दे पर लेफ़्ट ने सरकार से समर्थन वापस लिया, तो मुलायम ने उनका साथ न देते हुए सरकार के समर्थन का फ़ैसला किया जिसकी वजह से मनमोहन सिंह की सरकार बच गई

2019 के आम चुनाव में भी उन्होंने कई राजनीतिक विश्लेषकों को आश्चर्यचकित कर दिया, जब उन्होंने कहा कि वो चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनें.
मुलायम सिंह यादव की खूबियों में सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह अपने राजनीतिक विरोधियों को अपना निजी विरोधी नहीं मानते थे और उनके संकट के समय में काम आते थे

मुलायम सिंह यादव की राजनीति में सबसे लंबा साथ मोहम्मद आजम खान का रहा हैआज़म के लिए ये किसी नेता नहीं बल्कि “सबसे क़रीबी दोस्त” की मौत है। मुलायम सिंह जी की मौत पर ऐसे बिलक कर रोने वाला कोई दूसरा नेता अभी तक नज़र नहीं आया. इस से इन दो नेताओं के बीच की नज़दीकियों का अंदाज़ा बेहद आसानी से लगाया जा सकता है।

दो शादियाँ की थीं मुलायम सिंह यादव ने
1957 में मुलायम सिंह यादव का विवाह मालती देवी से हुआ. 2003 में उनके देहावसान के बाद मुलायम सिंह यादव ने साधना गुप्ता से दूसरी शादी की. इस संबंध को बहुत दिनों तक छिपा कर रखा गया और शादी में भी बहुत नज़दीकी लोग ही सम्मिलित हुए.

इस शादी के बारे में लोगों को पहली बार तब पता चला जब मुलायम सिंह यादव ने आय से अधिक धन मामले में सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा देकर कहा कि उनकी एक पत्नी और हैं.

जब मुलायम ने 2003 में साधना गुप्ता से शादी की तो पहली पत्नी से उनके पुत्र अखिलेश यादव की न सिर्फ़ शादी हो चुकी थी बल्कि उनको एक बच्चा भी हो चुका था.
परिवारवाद बढ़ाने के आरोप
मुलायम सिंह यादव पर परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोप भी लगे. 2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में कुल पाँच सीटें मिली और ये पाँचों सांसद यादव परिवार के सदस्य थे.

2012 का विधानसभा जीतने के बाद उन्होंने अपने बेटे अखिलेश यादव को अपना उत्तराधिकारी बनाया. लेकिन मुलायम द्वारा सरकार को ‘रिमोट कंट्रोल’ से चलाने के आरोपों के बीच अखिलेश 2017 का विधानसभा चुनाव हार गए.
समाजवादी पार्टी के लिए सामाजिक आधार का विस्तार करना अखिलेश यादव के लिए संस्थापक मुलायम सिंह यादव की अनुपस्थिति में बहुत मुश्किल काम होने जा रहा है। मुलायम सिंह यादव का इटावा के सफाई गांव के पहलवान से तीन बार मुख्यमंत्री और केंद्रीय रक्षा मंत्री बनने का उदय कड़ी मेहनत और उनके राजनीतिक कौशल के कारण हुआ जो उन्होंने इस अवधि में विकसित किया। था
अब देखना यह है कि शिवपाल यादव अपने बड़े भाई की गैरमौजूदगी में कैसा व्यवहार करते हैं, क्या वह समाजवादी पार्टी को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं या अपने भतीजे से सुलह कर लेते हैं. मुलायम सिंह यादव की अनुपस्थिति निश्चित रूप से समाजवादी पार्टी को बड़े पैमाने पर प्रभावित करेगी। अब देखना होगा कि अखिलेश यादव किस तरह से व्यवहार करते हैं और अपने पिता के संघर्षों से सीखते हैं.

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