(समाज वीकली)
विशेष लेख
– डॉ. रामजीलाल
शिक्षा विद्वता राजनीति
अनुसूचित जातियों के समाज में अनेक समाज सुधारक, विद्वान तथा राजनेता पैदा हुए हैं. प्राचीन समय में महर्षि वाल्मीकि, मध्य युग में संत रविदास,संत कबीर तथा आधुनिक युग में महात्मा अय्यनकाली, पेरियार, गाडगे बाबा, जगजीवन राम, के.आर. नारायणन (भारत के 10वें तथा अनुसूचित जाति से संबंधित प्रथम राष्ट्रपति), रामनाथ कोविंद (14वें राष्ट्रपति), कांशीराम, मायावती तथा डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर के नाम उल्लेखनीय हैं.
डॉ भीमराव रामजी अंबेडकर (14 अप्रैल 1891– 6 दिसंबर 1956 ) भारतीय संविधान के पितामह, निर्माता, शिल्पीकार एवं वास्तुकार, संविधान की ड्राफ्ट समिति के अध्यक्ष, प्रसिद्ध अधिवक्ता, स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री, भारतीय गणराज्य के निर्माता, भाषाविद्, स्वतंत्र एवं निर्भीक पत्रकार, पुस्तक कीट, राजनेता, सांसद, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, सामाजिक क्रांतिकारी, पथ प्रदर्शक, जाति उन्मूलन के समर्थक, अन्याय पर आधारित सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था के धुरंधर विरोधी, अस्पृश्यता के उन्मूलन के पक्षधर, दार्शनिक एवं चिंतक, महिलाओं, किसानों और श्रमिकों के हमदर्द, अछूत तथा वंचित वर्ग के पैरोकार एवं मसीहा, विषमता और असमानता पर आधारित समाज के विरुद्ध एक महान आंदोलनकारी एवं संघर्षशील चिंतक, सामाजिक क्रांतिकारी, पथ प्रदर्शक और उच्च कोटि के संघर्षशील एवं आंदोलनकारी थे.
एक समाज सुधारक के रूप में वह मनुवाद- ब्राह्मणवाद पर आधारित जाति प्रथा के उन्मूलन के मुख्य पैरोकार थे. वे स्वयं इस बात को स्वीकार करते थे कि महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण के बिना किसी भी समाज का सुधार और विकास नहीं हो सकता. इस दृष्टि से वह महिला सशक्तिकरण केअग्रदूत थे. उनको समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुता का पैरोकार माना जाता है. डॉ. अंबेडकर के विचारों से विश्व के वंचित वर्ग के लोग प्रेरणा ग्रहण करते हैं और करते रहेंगे. यही कारण है कि विश्व के लगभग 100 देशों में उनका जन्मदिन प्रतिवर्ष मनाया जाता है.
भारत माता के इस महान सपूत भारत रत्न बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर (बचपन के नाम भिवा, भीम एवं भीमराव) का जन्म 14 अप्रैल 1891 को हिंदू महार जाति (अछूत- निम्न जाति) के एक सैनिक परिवार (सूबेदार रामजी मोलाजी सकपाल पिता तथा भीमाबाई माता) में हुआ. इन की जन्म स्थली महू छावनी मध्य प्रदेश है. यह एक संयोग की बात है कि उनका जन्म 14 अप्रैल को हुआ और वह अपने माता-पिता की 14वीं एवं अंतिम संतान थे. स्वयं मजाक करते हुए डॉ भीमराव अपने आप को”चौदहवां रत्न” कहते थे. उस समय कोई भी व्यक्ति यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि आने वाले समय में यह “चौदहवां रत्न” भारत के राष्ट्रपति के द्वारा ‘भारत रत्न’ (सन्1990)- भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया जाएगा तथा विश्व के गिने चुने उन विद्वानों की श्रेणी में सम्मिलित होगा जिन्होंने समाज को नई दिशा, नई रोशनी तथा नया पथ प्रदर्शन प्रदान किया.
अंबेडकर का पैतृक गांव आंबडवे महाराष्ट्र (रत्नागिरी जिला) में है. इनके गांव के लोग अपने नाम के साथ आंबडवेकर उपनाम जोड़ते थे. 7 नवम्बर 1900 को इनके पिता जी ने सतारा के गवर्नमेंट हाई स्कूल (अब प्रतापसिंह हाईस्कूल) में भीमराव का नाम ‘भिवा रामजी आंबडवेकर” लिखवाया.
7 नवंबर 1900 को उन्होंने सतारा में गवर्नमेंट हाईस्कूल(अब प्रतापसिंह हाईस्कूल) में पहली कक्षा में दाखिला लिया.यही कारण है कि महाराष्ट्र में 7 नवंबर विद्यार्थी दिवस रूप में मनाया जाता हैं.भीमराव ने प्रथम श्रेणी से ही अंग्रेजी भाषा में दाखिला लिया था. अंग्रेजी भाषा में चौथी क्लास उत्तीर्ण की. एक सार्वजनिक समारोह आयोजित किया गया क्योंकि उस समय अनुसूचित जाति के विद्यार्थी के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी. इस सार्वजनिक समारोह में उन्हें दादा केलुस्कर द्वारा लिखित पुस्तक ‘बुद्ध की जीवनी’ भेंट की गयी। इस पुस्तक से उन्हें बौद्ध धर्म के बारे में ज्ञान प्राप्त हुआ और अंततः बौद्ध धर्म अपनाया.
सन् 1907 में भीमराव में मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की. इस समय यह विशेष उपलब्धि नहीं मानी जाती. परंतु कल्पना कीजिए लगभग 115 वर्ष पूर्व जहां हर जगह छुआछूत विद्यमान हो तथा हर स्थान पर अपमान होता हो ऐसे वातावरण में भीमराव की उपलब्धि अतुलनीय थी. भीमराव को सम्मानित करने के लिए एक समारोह का आयोजन किया गया और एक समाज सुधारक अध्यापक के द्वारा अंबेडकर की मुलाकात महाराजा बडौदा से कराई गई. महाराजा बडौदा ने अंबेडकर को ₹25 महीना की छात्रवृत्ति प्रदान की. गरीब एवं शोषित समाज से संबंधित होनहार विद्यार्थी के जीवन में यह क्रांतिकारी मोड़ था.
सन् 1913 में 22 वर्ष की आयु में अंबेडकर के जीवन में एक और क्रांतिकारी मोड़ आया जब उनको “गायकवाड विद्वान” के रूप में चुना गया. महाराजा बड़ौदा ने उऩको 11.30 डालर प्रतिमाह की छात्रवृत्ति तीन वर्ष के लिए प्रदान की. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोलंबिया विश्वविद्यालय (संयुक्त राज्य अमेरिका) में प्रवेश ग्रहण किया. विश्व के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री आर.ए. सेलिगमैन के मार्गदर्शन में सन् 1916 में “नेशनल डिविडेंड इन इंडिया: हिस्टोरिकल एंड एनालिटिकल स्टडी“ नामक विषय पर शोध कार्य किया. इसके पश्चात डॉ. अंबेडकर ने लंदन में सन् 1916 में “इवोल्युशन आफॅ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया “ के लिए अर्थशास्त्र में पीएचडी प्राप्त की. परंतु शोध कार्य प्रकाशित होने के पश्चात सन् 1927 में उनको पीएचडी की डिग्री प्रदान गई. अक्टूबर 1916 में उन्होंने ग्रेज़ इन (लंदन) में विधि अध्ययन (बैरिस्टरकोर्स) के साथ -साथ लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस में भी प्रवेश लिया जहां उन्होंने अर्थशास्त्र में पीएचडी थीसिस पर काम करना शुरू किया.
परंतु सन् 1917 में वह भारत वापस आना पड़ा और महाराजा बड़ौदा की सेना में सचिव के रूप में नौकरी करने लगे. उत्कृष्ट शिक्षा प्राप्त करनेके पश्चात भी छुआछूत का कलंक यहां भी उनका पीछा करता रहा और दुखी होकर उन्होंने महाराजा की नौकरी छोड़ दी. इसके पश्चात वह मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक- अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के पद पर कार्य करने लगे. यहां के “बुद्धिजीवी” वर्ग के व्यवहार से तंग आकर उन्होंने प्रोफेसर की नौकरी छोड़ दी. सन् 1920 में शाहू महाराज (कोल्हापुर), अपने पारसी मित्र (₹5000) और निजी बचत से फिर से इंग्लैंड में वकालत की पढ़ाई पूरी करने के लिए चले गए. सन् 1923 में, उन्होंने अर्थशास्त्र में डॉक्टर ऑफ साईंस (डी॰एससी॰) की उपाधि ग्रहण की. बैरिस्टर का कोर्स उत्तीर्ण करने के पश्चात भारत वापस आए और सन् 1923 में मुंबई हाई कोर्ट में वकालत करने प्रारंभ कर दी. परंतु वकीलों के व्यवहार से तंग आकर ब्राह्मणवादी तथा मनुवादी अवधारणाओं को चुनौती देने का फैसला कर लिया. यह उनका अंतिम फैसला था. उन्होंने अनुसूचित जाति के लोगों को संगठित करना प्रारंभ किया. समाज से छुआछूत और जाति व्यवस्था को समूल नष्ट करने की शपथ ग्रहण की. उनकी धारणा थी कि अनुसूचित जाति के लोगों को संगठित किए बिना सुधार की कोई संभावना नहीं है. यदि वह अनुसूचित जाति के लोगों को संगठित नहीं करते उनका अपना जीवन निरर्थक उदेश्य हीन एवं भटकवाद का शिकार रहेगा.
वह यह जानते थे कि समाज के एक वर्ग को दीन हीन मानकर उसका तिरस्कार करते हैं. इसका प्रभाव समाज के दूसरी जातियों के लोगों पर भी पड़ता है और समाज कमजोर होता है. डॉ. भीमराव एक उच्च शिक्षित विद्वान तथा बैरिस्टर थे. जब उनके साथ छुआछूत के कारण ऐसा अमानवीय व्यवहार होता था तो दलित वर्ग से संबंधित आम आदमी के साथ कैसा व्यवहार होता होगा. यह कल्पना करते ही दिल दहलाने लगता है. वास्तव में दलित वर्ग का जीवन एक‘गुलामी एवं नारकीय जीवन’ था.
19वीं सदी के उत्तरार्ध में महाराष्ट्र में दलित वर्ग से संबंधित आम आदमी उच्च जातियों के लोगों के आगे से गुजर जाता था तो स्वर्ण जाति- उच्च जातियों के लोग दलित जाति के व्यक्ति का तलवार से सिर काट कर उसे गेंद तथा तलवार को बैट बना कर उछालते थे.महाराष्ट्र में पेशवाओं के राज्य में उच्च जाति के लोग दलित वर्ग के लोगों की परछाई से भी दूर रहते थे.दलित वर्ग की महिलाओं को गले में अथवा कलई में अलग पहचन रखने के लिए काला डोरा बांधना पङता था. दलित वर्ग के पुरुषों को उच्च जातियों की गलियों से गुजरने के लिए अपनी कमर के पीछे झाड़ू बांधना पड़ता था ताकि उनके के कदमों के निशान मिटते चले जाए. केवल यही नहीं अपितु दलित वर्ग के लोगों को अपनी गर्दन में हंड्डी लटकानी पडती थी ताकि वे उसमें थूक सकें और सडक पर थूक न गिरे और “स्वर्ण हिंदू” की पवित्रता बनी रहे. पेशवा की राजधानी पूना में यह नियम दलित वर्ग के लिए लागू थे.
उधर ट्रावनकोर कोचीन (केरल) में निम्न जातियों की महिलाओं के साथ अत्याधिक बुरा एवं अमानवीय व्यवहार किया जाता था. दलित स्त्रियों को अपना शरीर ढकने की आज्ञा नहीं थी तथा उनको बाजार में अर्धनग्न जाना पड़ता था. उनको अपने कंधे तथा स्तनों को नंगा रखना पड़ता था. ऐसा ना करने उन्हें स्तन कर (BREAST TAX) देना पडता था. केरल में एक कहानी प्रचलित है कि एक बार एक दलित महिला सत्न ढक कर महारानी से मिलने के लिए कर चली गई. प्रचलित प्रथा का विरोध करने के कारण महारानी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ गया. क्रोध मे चकनाचूर महारानी ने स्वयं महिला होते हुए उस दलित महिला के स्तनों को उसी समय काटने का आदेश दे दिया. यह व्यवस्था कितनी करूर थी. दलित महिलाओं को सड़क पर भी सम्मान पू्वर्क चलने का अधिकार नहीं था. ऐसी स्थिति में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई.
डॉ. भीमराव अंबेडकर एक महान उत्कृष्ट भाषाविद् थे. उनको 11 भाषाओं — मराठी (मातृभाषा), हिंदी, अंग्रेजी, पाली, संस्कृत, गुजराती, जर्मन, फारसी, फ्रेंच, कन्नड़ तथा बंगाली का ज्ञान था तथा उन्होंने 32 पुस्तकें तथा मोनोग्राफ लिखें. इनके अतिरिक्त उन्होंने 10 ज्ञापन, साक्ष्य एवं वक्तव्य , 10 अनुसंधान दस्तावेजों, लेखों, पुस्तकों की समीक्षा तथा 10 प्रस्तावनाए एवं भविष्यवाणियां लिखी. वह एक महान अध्येता तथा पुस्तक कीट थे. डॉ. भीमराव अंबेडकर के पास 32 डिग्रियां थी तथा दुनिया में सर्वाधिक गाने एवं पुस्तकें उनके नाम पर ही लिखी गई हैं. डॉ. भीमरावअंबेडकर की प्रसिद्ध पुस्तक “वेटिंग फॉर ए विजा” कोलंबिया विश्वविद्यालय (यूएसए) के पाठ्यक्रम का भाग है. उनकी निजी लाइब्रेरी (राजगृह) में 50,000 से अधिक पुस्तकें थी. उनको 64 विषयों में महारत हासिल थी. एक प्रतिभाशाली लेखक के रूप में संसार में प्रसिद्ध हैं.
डॉ. अंबेडकर का राजनीतिक सफर सन् 1926 में प्रारंभ हुआ. सन् 1926 से सन् 1936 तक मुंबई विधान परिषद के सदस्य रहे. सन् 1937 से सन् 1942 तक मुंबई विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. डॉ .अंबेडकर की योग्यता के आधार पर उनको ब्रिटिश सरकार के द्वारा भारतवर्ष के गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का सदस्य मनोनीत किया गया तथा वे जुलाई 1940 से सन् 1946 तक कार्यकारिणी के सदस्य रहे. 3 अप्रैल 1952 से 6 दिसंबर 1956 उन्होंने भारत की राज्यसभा में बम्बे राज्य का प्रतिनिधित्व किया.वह संविधान सभा में बंगाल से चुने गए.महात्मा गांधी की सिफारिश के आधार पर डॉ.अंबेडकर को भारत केसंविधान की ड्राफ्ट समिति अध्यक्ष नियुक्त किया गया. 19 अगस्त 1947 से 24 जनवरी 1950 तक ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष पद पर कार्य किया और उनको संविधान का वास्तुकार, शिल्पकार और संविधान का पिता माना जाता है. भारतवर्ष की आजादी के पश्चात जवाहरलाल नेहरु के मंत्रिमंडल में 15 अगस्त 1947से सन् 1951 भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री के पद पर रहे. परंतु हिंदू कोड बिल के विरोध के कारण उन्होंने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया और मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया है . यह एक अनुपम, अद्भुत एवं अतुलनीय उदाहरण है . वर्तमान में इस प्रकार के नेताओं का मिलना दुर्लभ है.
किसी भी आंदोलन का संचालन करने तथा जनता को लामबंद करने के लिए संगठन की आवश्यकता पड़ती है. डॉ. अंबेडकर बेहतरीन संगठन निर्माता भी थे. उन्होंने राजनीतिक दलों, सामाजिक, धार्मिक और शैक्षणिक संगठनों का निर्माण किया. उन्होंने तीन राजनीतिक दलों– शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन, स्वतंत्र लेबर पार्टी, भारतीय रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना की. उनके सामाजिक संगठनों में बहिष्कृत हितकारिणी सभा और समता सैनिकदल मुख्य हैं . डॉ. अंबेडकर शिक्षा को सबसे बड़ा शक्तिशाली शस्त्र मानते थे. उन्होंने दलित वर्ग के उद्धार के लिए शैक्षिक संगठनों- डिप्रेस्ड क्लासेस एजुकेशन सोसायटी, द बॉबे शेड्यूल्ड कास्ट इंप्रूवमेंट ट्रस्ट और पीपल्स एजुकेशन सोसायटी की स्थापना की.
13 अक्टूबर 1935 को डॉ आंबेडकर ने कहा था “मैं हिंदू के रूप में पैदा हुआ हूं, लेकिन हिंदू के रूप में मरूंगा नही, कम से कम यह तो मेरे वश में है”. 14 अक्टूबर1956 को हिंदू धर्म का परित्याग करने के पश्चात उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया. बौद्ध धर्म का प्रचार और प्रसार करने के लिए उन्होंने भारतीय बौद्ध महासभा की स्थापना भी की थी.
संविधान निर्माता, निर्भीक एवं स्वतंत्र पत्रकार
डॉ. भीमराव अंबेडकर के संबंध में विश्व के प्रसिद्ध विद्वानों का यह मानना है कि वह अपने तत्कालीन विश्व के नेताओं में सर्वाधिक शिक्षित एवं विद्वान व्यक्ति थे. यही कारण है कि महात्मा गांधी के परामर्श के आधार पर उनको संविधान की ड्राफ्ट समिति के अध्यक्ष के रूप में स्वीकार किया गया. डॉ. अंबेडकर भारतीय संविधान के निर्माता, शिल्पीकार एवं वास्तुकार थे. उन्होंने लगभग 60 देशों के संविधानों का अध्ययन किया था. डॉ. अंबेडकर को संविधान निर्माता के रूप में अथवा संविधान के पितामह के रूप में विश्व में जाना जाता है.
डॉ. अम्बेडकर ने फ्रेंच रिवोल्यूशन (5 मई 1789—9 नवंबर 1799 ) से तीन शब्द —लिबर्टी, इक्वलिटी और फैटर्निटी लिए। इन तीन शब्दों- (लिबर्टी, इक्वलिटी और फैटर्निटी) ने उनके राजनीतिक, सामाजिक जीवन दर्शन, संविधान की प्रस्तावना और संविधान के मूल अधिकारों (तीसरे अध्याय) को प्रभावित किया है। इसीलिए संविधान के मूल अधिकारों में समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18 ), स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22), शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 और 24), धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28) , शिक्षा और संस्कृति का अधिकार (अनुच्छेद29 और 30) तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार अनुच्छेद(32) हैं. वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता को निर्बाध नहीं मानते थे. अनुच्छेद 19 (2) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को नुकसान नहीं होना चाहिए. संक्षेप में उन्होंने सार्वजनिक सुरक्षा के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता को निर्बाध नहीं माना तथा निवारक निरोध उपबंधों का समर्थन किया है. मौलिक अधिकारों में सर्वाधिक महत्व संविधानिक उपचारों के अधिकार (अनुच्छेद 32) को देते थे. संविधान सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 32 भारत के संविधान की’हृदय और आत्मा है”. यह व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा परित्राण है.
संविधान की प्रस्तावना तथा मौलिक अधिकारों के अतिरिक्त राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (चौथा अध्याय) ,भारतीय संघ के विशिष्ट रूप, भारत में कार्यपालिका, निर्वाचन, संसदीय प्रणाली, भारत के राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के बीच संबंध, भारत की न्यायपालिका की स्वतंत्रता इत्यादि पर डॉ अंबेडकर के विचारों का गहरा प्रभाव है. उनके चिंतन का सर्वाधिक प्रभाव उन अनुच्छेदों पर नजर आता है जिनका संबंध अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जातियों ,बच्चों तथा महिलाओं के विकास से है. उनके प्रयासों से भारत के संविधान में बेगार , मानव का क्रय- विक्रय, 14 वर्ष तक के बच्चों तथा महिलाओं को जोखिम भरे कार्यों में लगाने को असंवैधानिक एवं गैर कानूनी घोषित किया गया . धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत, भारत के सार्वभौमिकता,संसदीय प्रणाली ,न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सर्वोच्चता, समाजवादी सिद्धांत, भाषा के आधार पर राज्यों का निर्माण तथा संघात्मक व्यवस्था इत्यादि पर उनके विचारों की गहरी छाप है. संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में संविधान के प्रारूप के प्रस्ताव के पक्ष में अपने भाषणों, विचारों और तर्कों से संविधान के अनुच्छेदों को अंतिम रूप प्रदान करने का श्रेय डा.अंबेडकर जाता है.संविधान सभा के सदस्यों के द्वारा किए गए प्रश्नों अथवा सुझावों के संबंध में जिस तरीके से डॉ. अंबेडकर अपने तर्कों के द्वारा सदस्यों को समझाने का प्रयास करते थे .इससे सिद्ध होता है कि वह एक उच्च कोटि के वक्ता, संविधान वेत्ता, विधि निर्माता और विधि वेत्ता भी थे.वह प्रस्तावों के संबंध में अपने तर्कों को अद्भुत क्षमता, विद्वत्ता और सामर्थ्य के आधार पर रक्षित करते थे. संविधान सभा में अनेक मुद्दों पर उच्च कोटि के अधिवक्ता के रूप में तर्क देकर सदस्यों को समझाते थे.सदस्यों के विरोध के बावजूद भी डॉ. अंबेडकर का दृष्टिकोण अंतिम माना जाता था .संविधान सभा में विद्यार्थियों की भांति सदस्यों को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार था .परंतु एक अध्यापक की भांति उनके विचार अंतिम, निर्णायक एवं आदेशात्मक थे.
डॉ. भीमराव अंबेडकर को भारतीय संविधान का पितामह (Father of the Indian Constitution) माना जाता है. इसके कुछ स्पष्ट आधार हैं. प्रारंभ मेंभारतीय संविधान सभा के 389 सदस्य थे.विभाजन के कारण सदस्यों की संख्या 299 रहगई.संविधान सभा की 22 समितियों में सर्वाधिक महत्वपूर्णसंविधान की प्रारूप समिति थी .इस समिति के अध्यक्ष डॉ.अंबेडकर थे. इस संबंध में संविधान की प्रारूप समिति के सदस्य टी॰ टी॰ कृष्णामाचारी ने कहा:
“अध्यक्ष महोदय, सदन में उन लोगों में से एक हूं, जिन्होंने डॉ॰ आंबेडकर की बात को बहुत ध्यान से सुना है. मैं इस संविधान की ड्राफ्टिंग के काम में जुटे काम और उत्साह के बारे में जानता हूं. उसी समय, मुझे यह महसूस होता है कि इस समय हमारे लिए जितना महत्वपूर्ण संविधान तैयार करने के उद्देश्य से ध्यान देना आवश्यक था,वह ड्राफ्टिंग कमेटी द्वारा नहीं दिया गया. सदन को शायद सात सदस्यों की जानकारी है. आपके द्वारा नामित, एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया था और उसे बदल दिया गया था. एक की मृत्यु हो गई थी और उसकी जगह कोई नहीं लिया गया था. एक अमेरिका में था और उसका स्थान नहीं भरा गया और एक अन्य व्यक्ति राज्य के मामलों में व्यस्त था और उस सीमा तक एक शून्य था. एक या दो लोग दिल्ली से बहुत दूर थे और शायद स्वास्थ्य के कारणों ने उन्हें भाग लेने की अनुमति नहीं दी. इसलिए अंततः यह हुआ कि इस संविधान का मसौदा तैयार करने का सारा भार डॉ॰ आंबेडकर पर पड़ा और मुझे कोई संदेह नहीं है कि हम उनके लिए आभारी हैं. इस कार्य को प्राप्त करने के बाद मैं ऐसा मानता हूँ कि यह निस्संदेह सराहनीय है.”
भारत में कम लोगों को इस बात का ज्ञान हैकि डॉ. भीमराव एक पत्रकार भी थे. डॉ. अंबेडकर के अनुसार अखबार पुराने पूर्वाग्रहों से प्रभावित होने के कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में दलित और शोषित वर्ग के विरुद्ध थे. जबकि समाचार पत्रों का मुख्य उद्देश्य रिपोर्ट करते समय प्रचारित पूर्व ग्रहों से मुक्ति होनी चाहिए . अखबार किसी व्यक्ति की पसंद अथवा नापसंद के आधार की अपेक्षा वस्तु निष्ठ होने चाहिए. डॉ. अंबेडकर का मानना था कि दलित वर्ग के पास न नौकरी है नहीं कोई व्यवसाय है, नहीं जमीन है और समाज में बहिष्कृत होने के कारण वह एक मूकनायक के समान है . ऐसी स्थिति में उनके पास अपनी आवाज को बुलंद करने के लिए एकमात्र सहारा समाचार पत्र का होता है. जबकि तत्कालीन समाचार पत्रों की मुख्य एजेंसी ”एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडिया” पर दक्षिण भारत के ब्राह्मणों नियंत्रण था . डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में लिखा:
“अछूतों का कोई प्रेस नहीं है। कांग्रेस प्रेस उनके लिए बंद है और स्पष्ट कारणों के लिए उन्हें थोड़ा सा प्रचार नहीं देने के लिए दृढ़ संकल्पित है . यह निराशाजनक है कि हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं. हमारे पास पैसा नहीं है; हमारे पास अखबार नहीं हैं; पूरे भारत में, हर दिन हमारे लोग बिना किसी विचार और भेदभाव के सत्तावाद के अधीन हैं; उन अखबारों में शामिल नहीं हैं. एक सोची-समझी साजिश के द्वारा अखबार सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं पर हमारे विचारों को शांत करने में पूर्ण रूप से शामिल हैं.”
इन सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए डॉ.अंबेडकर ने पत्रकारिता के जगत में पदार्पण किया .अपने जीवन काल में उन्होंने पांच पत्रिकाओं का संपादन किया.एक सदी पूर्व 31 जनवरी1920 को प्रथम साप्ताहिक ‘मूकनायक’ मराठी पत्रिका का प्रकाशन किया है.उस समयडॉ. अंबेडकर आयु 29 वर्ष कीथी . इस पत्रिका के प्रकाशन के लिए साहू महाराज के द्वारा 2500 रुपए की धनराशि दी गई थी.सन् 1920 से सन् 1956 तक 36 साल पत्रकारिता करते रहे.इन 36 वर्षों में’ मूकनायक’( 31 जनवरी 1920) के अतिरिक्त चार अन्य पत्रिकाओं-‘ बहिष्कृत भारत’ (3अप्रैल 1924), ‘ समता’(29 जून 1928 ) ,’जनता'(24 फरवरी 1930) और अंतिम समाचार पत्र ‘प्रबुद्ध भारत ‘(4 फरवरी 1956) का संपादन किया. ‘प्रबुद्ध भारत’ बंद हो चुका था .परंतु डॉ .अंबेडकर के पौत्र प्रकाश अंबेडकर ने 10 मई 2017 को’ प्रबुद्ध भारत’ का पाक्षिक के रूप में पहला अंक( प्रवेशांक) प्रकाशित किया.
इन समाचार पत्रिकाओं के माध्यम से डॉ.अंबेडकर ने अनुसूचित जातियों और समाज के हाशिए पर रहने वाली अन्य जातियों में जागरूकता पैदा की .उन्होंने दलित वर्ग की समस्याओं के संबंध में निरंतर लेख लिखे.’ बहिष्कृत भारत’ का संपादकीय पृष्ठ वे स्वयं लिखते थे . ‘ बहिष्कृत भारत’ के एक संपादकीय में उन्होंने लिखा कि यदि बाल गंगाधर तिलक दलित वर्ग में पैदा होते तो “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” के उद्घोष की अपेक्षा” छुआछूत का उन्मूलन मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है” का नारा लगाते.
डॉ. अंबेडकर ने पत्रकारिता और पत्रकारों के संबंध में उचित मानकों का वर्णन करते हुए कहा था कि पत्रकारिता और पत्रकार को प्रचलित पूर्व ग्रहो से स्वतंत्र होना चाहिए. वास्तव में पत्रकारिता एक मिशन के रूप में होनी चाहिए और वह पत्रकारिता के व्यवसायीकरण के बिल्कुल विरुद्ध थे .पत्रकारों के संबंध में उन्होंने कहा कि पत्रकार निर्भीक, निष्पक्ष,संवेदनशील होना चाहिए तथा उनको समाज के हितों की वकालत करनी चाहिए. समाज को भड़काने का प्रयास नहीं करना चाहिए .पत्रकारिता में नायक पूजा का नहीं होनी चाहिए.
यदि इस दृष्टि से देखा जाए तो बाबासाहेब के विचार वर्तमान संदर्भ में बिल्कुल तर्कसंगत और अति महत्वपूर्ण है. भारत में पूंजीपति वर्ग का प्रिंट मीडिया व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पूरा नियंत्रण है.परिणाम स्वरूप पत्रकारिता और पत्रकार दोनों ही अपना कार्य समाज के हित में नहीं कर रहे हैं. वर्तमान शताब्दी में प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दलितों ,आदिवासियों तथा माइनिरोटिज विरूद्ध है. इसके बावजूद भी स्वतंत्र विचार रखने वाले मीडिया कर्मियों के साथ राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों एवं पुलिस के द्वारा अमानवीय व्यवहार किया जाता है. वास्तव में यह स्वतंत्र विचारों पर कुठाराघात है .हम भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं. लोकतंत्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकेतक प्रेस की स्वतंत्रता है. प्रेस की स्वतंत्रता के दृष्टिकोण से वर्ल्ड प्रेस इंडेक्स रिपोर्ट(2021) के अनुसार 180 देशों की सूची में भारत का 142 स्थान है.यह भारतीय लोकतंत्र का यह भारतीय लोकतंत्र का कृष्ण पक्ष है.
वर्तमान समय में राष्ट्रीय मीडिया में दलित वर्ग की भागीदारी 1% से भी कम है और यह दलित वर्ग की समस्याओं को नहीं उठाता. डॉ.अंबेडकर के चिंतन से प्रभावित होकर वर्तमान समय में दलित वर्ग के प्रबुद्ध लोगों ने दलित वर्ग की आवाज को उठाने के लिए वैकल्पिक प्रिंट मीडिया व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया — समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं चैनलों का संचालन किया. इस समय लगभग 150 प्रिंट और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म हैं,–यूट्यूब चैनल — दलित दस्तक, नेशनल दस्तक, राउंड टेबल इंडिया, फ़ॉरवर्ड प्रेस, जस्टिस न्यूज़, वेलिवडा, दलित कैमरा, दलित न्यूज़ नेटवर्क (डीएनएन) शामिल हैं. अनुसूचित जाति और समाज के हाशिए पर रहने वाले अन्य समूहों से संबंधित मुद्दों पर विस्तृत चर्चा करते हैं.वैकल्पिक प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया“आवाज रहित वर्ग” की आवाज को सरकार तक पहुंचाते हैं और दलित वर्ग में चेतना उत्पन्न कर रहे हैं.
मनुवादी -ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था के अडिग विरोधी
डॉ.अंबेडकरमनुवादी एवं ब्राह्मणवादी भारतीय सामाजिक व्यवस्था के धुरंधर विरोधी थे. चतुर्वर्णीय प्रणाली के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र चार वर्ण हैं. इन चारों वर्णों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ स्थान पर तथा शूद्र को सबसे निम्न स्थान पर रखा गया है .डॉ.अंबेडकर ने मूकनायक के प्रवेशांक सम्पादकीय(31 जनवरी 1920 ) में ‘हिंदू समाज” के संबंध में बड़ा स्पष्ट लिखा:
‘हिंदू समाज एक मीनार है और एक-एक जाति इस मीनार का एक-एक तल(जाति) है. ध्यान देने की बात यह है कि इस मीनार में सीढ़ियां नहीं हैं, एक तल (जाति) से दूसरे तल (जाति )में आने-जाने का कोई मार्ग नहीं है.जो जिस तल (जाति) में जन्म लेता है, वह उसी तल (जाति) में मरता है. नीचे के तल(जाति) का मनुष्य कितना ही लायक हो, ऊपर के तल (जाति) में उसका प्रवेश संभव नहीं है, और ऊपर के तल (जाति)का मनुष्य कितना ही नालायक हो, उसे नीचे के तल (जाति) में धकेल देने की हिम्मत किसी में नहीं है.”
डॉ. अंबेडकर इस चतुर्वर्ण प्रणाली को सर्वनाशक, हिंसक ,शोषणकारी और अत्याधिक खतरनाक मानते थे. उनका कहना था कि इस व्यवस्था से रूढ़िवाद, अंधविश्वास और ऐसी परंपराएं विकसित की गई जिनके परिणाम स्वरूप श्रमिक वर्ग का शोषण हुआ है. इस प्रणाली के रक्षक लोगों ने आम आदमी विशेष तौर से दलित वर्ग के लोगों का शोषण करके इंसानियत को समाप्त किया है और लोगों को गुलाम बनाया. गुलाम लोग अपने ही शस्त्रों से अपना सर कटवाते रहे तथा गुलामी करते रहे और हल चला कर फसल पैदा करते रहे और खुद भूखे मरते रहे. इस व्यवस्था ने कभी भी हल के फालों को तलवार में बदलने का समय नहीं दिया. उनके पास कोई हथियार अथवा संगठन ने नहीं थे. इस प्रणाली ने दलित और कमजोर लोगों को मू्र्दा बना कर रख दिया और उनमें क्रांति करने की ताकत समाप्त कर दी. परिणाम स्वरूप भारत में कभी भी ऐसी सामाजिक क्रांति नहीं हुई जैसे कि यूरोपियन देशों में हुई है. डॉ. अंबेडकर का मानना था कि जब तक भारत में सामाजिक क्रांति नहीं होगी तब तक अनेक कानूनों एवं संविधान के उपबंधो के बावजूद भी शोषण समाप्त नहीं होगा और दलित और श्रमिक वर्ग ( सर्वहारा वर्ग) शोषित होता चला जाएगा. संक्षेप में दलित और शोषित वर्ग का अर्थात श्रमिक वर्ग का शोषण होता था, होता है और होता रहेगा .
दलित और शोषित वर्ग का अर्थात श्रमिक वर्ग के साथ अमानवीय व्यवहार का ताजा उदाहरण में कोरोना काल में दृष्टिगोचर होता है . भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च 2020 को कोरोना वैश्विक महामारी को रोकने के लिए पूरे देश में लॉकडाउन का आदेश जारी किया और कर्फ्यू जैसे हालात पैदा हुए. भारत विभाजन (सन्1947)के पश्चात भारत के इतिहास में कोरोना काल में मजदूरों का पलायन सबसे बड़ी राष्ट्रीय त्रासदी थी. मजदूर वर्ग के साथ जो अमानवीय व्यवहार समृद्ध वर्गों , पुलिस, केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के द्वारा किया गया. उसे सिद्ध होता है कि डॉ. अंबेडकर का चिंतन एवं दर्शनशास्त्र बिल्कुल प्रासंगिक हैं क्योंकि उनका यह मानना था कि वर्ण व्यवस्था के कारण इंसानियत मर चुकी है और इंसानियत का जनाजा उस समय निकल गया जब शहरों से मजदूरों ने पलायन किया और अपने घर की ओर रवाना हुए. केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों ने उनके घर तक पहुंचाने का अरेंजमेंट करना तो दूर की बात है तपती और चिलचिलाती धूप में भोजन, पेयजल ,चिकित्सा इत्यादि की मूलभूत सुविधाओं से वंचित के नंगे पांव सपरिवार सफर करना पड़ा. सरकार के द्वारा लॉकडाउन में यातायात पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. रास्ते में चलते हुए काफी लोग भूखे और प्यासे मर गए. यही नहीं प्रत्येक राज्य के द्वारा उनको अपने राज्य में प्रवेश करने पर रोक लगाई . पुलिस का प्रयोग किया गया.एक ओर पुलिस श्रमिक वर्ग के लोगों पर लाठियां बरसा रही थी और दूसरी ओर सुविधा भोगी लोग पुलिस के ऊपर फूल बरसा रहे थे तथा पुलिस के खाने-पीने का प्रबंध कर रहे थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि श्रमिक वर्ग के लोग अपने ही देश में बेगाने हैं और उनको प्रवासी श्रमिक कहा जाने लगा.क्या कोई व्यक्ति अपने ही देश में प्रवासी हो सकता है?श्रमिक वर्ग की दुर्दशा का दोषारोपण भारत के प्रधानमंत्री राज्य सरकारों -महाराष्ट्र व दिल्ली पर लगाते रहे. जबकि राज्य सरकारें केंद्र को दोषी ठहराती रही और श्रमिक वर्ग अमानवीय व्यवहार का शिकार होता रहा .यदि इस आधार पर देखा जाए तो डॉ. अंबेडकर के विचार बिल्कुल प्रासंगिक दृष्टिगोचर होते हैं.
डॉ. भीमराव अंबेडकर की जातिवाद और वर्ण व्यवस्था से संबंधित विश्व प्रसिद्ध पुस्तक “जाति का उच्छेद”( एनीहिलेशन ऑफ कास्ट,1937) है. जातिवाद और वर्ण व्यवस्था के संबंध में उनकी अन्य पुस्तकें ‘भारत में जातियां और उनका मशीनीकरण (1916)’, ‘श्री गांधी एवं अछूतों की विमुक्ति’ (1942), ‘कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया’? (1945), ’अछूत कौन और कैसे?’(1948)मुख्य हैं. डा.अंबेडकर के अनुसार ‘छुआछूत गुलामी से भी बदतर है’. जातिवाद और वर्ण व्यवस्था के कारण उत्पन्न अस्पृश्यता को संकुचित, अमानवीय , अवैज्ञानिक, अनैतिक, विभाजक तथा संकीर्ण माना है. डॉ. अंबेडकर चतुर्वर्ण व्यवस्था पर आधारित जातिवाद को राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय एकीकरण, राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय विकास के मार्ग में हानिकारक मानते थे. वर्ण व्यवस्था पर आधारित जातिवाद भारतीय समाज के एकीकरण में बहुत बड़ी बाधा है. राष्ट्रीय एकता और अखंडता समाज की एकता और अखंडता पर निर्भर करती है. जब समाज विभिन्न जातियों में पदसोपान के आधार पर बंटा हुआ हो तो उस समाज में कभी भी एकता नहीं स्थापित नहीं हो सकती. जातिवाद को भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास में एक बहुत बड़ी बाधा माना है. जब समाज ऊंच-नीच के आधार पर विभाजित है तो ऐसी स्थिति में ‘सबका विकास, सबका विश्वास, सबका साथ’ अथवा “व्यक्ति की आत्म निर्भरता ”एक कल्पना है. डॉ. अंबेडकर ने जातिवाद और चतुवर्ण व्यवस्था का विरोध करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि इस व्यवस्था ने किसी को ‘.श्रेष्ठ नहीं बनाया और ना ही बना सकने में सक्षम है .जात पात से आर्थिक योग्यता नहीं आती. जात पात ने एक काम अवश्य किया हैं कि इसने हिंदुओं में फूट डाल दी और उन्हें भ्रष्ट कर दिया है’.
डॉ. अंबेडकर ने केवल जातिवाद का केवल विरोध ही नहीं किया अपितु इसका उन्मूलन करने के लिए सकारात्मक सुझाव सुझाव भी दिए.उनका यह मानना था कि अंतर्जातीय विवाहों तथा इंटरडाइनिग द्वारा जातिवाद को कमजोर किया जा सकता है.इन दोनों सुझावों का विरोध तत्कालीन समय में प्रतिक्रियावादी शक्तियों के द्वारा किया गया. यहां तक कि “जात पात तोड़ मंडल” के सदस्य भी अंतरजातीय विवाहों और डॉ.अंबेडकर के विचारों का विरोध करते रहे .अंतरजातीय विवाह भारतीय राष्ट्रीय एकीकरण को सुदृढ़ करने के लिए महत्वपूर्ण सुझाव है.परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष के बावजूद भी लगभग 5% लोगों ने अंतरजातीय किया है. भारतीय समाज में आज भी अंतर्जातीय विवाह का विरोध केवल अशिक्षित लोगों के द्वारा ही नहीं अपितु समाज के उच्च वर्गों के प्रतिष्ठित, शिक्षित और संपन्न लोगों के द्वारा भी किया जाता है. यही कारण है कि अंतरजातीय विवाह अथवा प्रेम विवाह के विरुद्ध समाज में अचानक विरोध हो जाता है .लड़का अथवा लड़की को तथाकथित इज्जत के नाम पर कत्ल (“ऑनर किलिंग”) करने की घटनाएं अखबारों की सुर्खियां होती हैं. आज भी अंतर्जातीय विवाह , अंतर धार्मिक विवाह (लव जिहाद), प्रेम विवाह तथा मोहब्बत के बदले मौत मिलती है .संक्षेप में वर्ण व्यवस्था एवं जातिवाद सामाजिक एकता, राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय एकीकरण, राजनीतिक एवं आर्थिक विकास में अवरोघक है. डॉ.अंबेडकर ने समस्त आयु जातिवाद के कारण अपमान को झेला तथा दलित वर्ग के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित किया .उन्होंने‘जातिवाद के उन्मूलन’ पर बल दिया. अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने अनुयायियों तथा दलित और शोषित वर्ग के लोगों को ’शिक्षित बनो, संगठित करने और संघर्ष करने‘का मूल मंत्र दिया.यह मूल मंत्र बहुसंख्यक समुदाय के द्वारा किये जाने वाले तानाशाही रवैये विरूद्ध भी प्रयोग किया जा सकता है.
लोकतंत्र के प्रहरी, प्रबुद्ध अर्थशास्त्री
डॉ. भीमराव अंबेडकर के प्रजातंत्र संबंधी विचारों पर अमेरिका के प्रसिद् , दार्शनिक ,मनोवैज्ञानिक और समाज सुधारक जॉन डेवी (20 अक्टूबर 1859 –1जून1952) के विचारों का बहुत गहरा प्रभाव था . इसके अतिरिक्त वह अमेरिका के संविधान, इंग्लैंड की संसदीय प्रणाली और फ्रांस की क्रांति से भी प्रभावित थे. फ्रांस की क्रांति से प्रभावित होकर डॉ.भीमराव ने भारत के संविधान की प्रस्तावना में समानता, स्वतंत्रता और बंधुता को अपनाया.इन तीनों को लोकतंत्र का आधारभूत मानते थे . सफल लोकतंत्र की स्थापना के लिए सामाजिक लोकतंत्र करने की आवश्यकता है. 25 नवंबर 1947 को संविधान सभा में बोलते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा:
‘राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक की उसके मूल में सामाजिक लोकतंत्र अर्थात जीवन के सिद्धांतों में समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुता ना हो.समानता के बिना स्वतंत्रता बहुसंख्यक वर्ग पर मुट्ठी भर लोगों का प्रभुत्व स्थापित कर देगी .बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता स्वाभाविक सी बातें नहीं लगेगी. भेदभाव और असमानता दूर करनी चाहिए. यदि ऐसा नहीं किया गया तो वह लोग जो भेदभाव का शिकार होंगे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे जो इस संविधान सभा ने तैयार किया है.’
डॉ.भीमराव अंबेडकर विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थे.वह भारत के पहले विद्यार्थी हैं जिन्होंने विदेश में जाकर अर्थशास्त्र में पीएचडी ग्रहण की है. नोबेल प्राइज विजेता डॉ अमृत्य सेन के अनुसार डॉ अंबेडकर ‘अर्थशास्त्र के जनक’ हैं . वह पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों विचारधाराओं के विरुद्ध थे. वे फ्रांसीसी फिजियोक्रेट्स(सन् 1756 से सन्1778तक) के द्वारा प्रतिपादित राज्य के अहस्तक्षेप –‘हमें अकेला छोड दो’ (लाईसेज़ फेयर)के सिद्धातं तथा कार्ल मार्क्स (5 मई 1818- 14 मार्च 1883)के वैज्ञानिक समाजवाद (साइंटिफिक सोशलिज्म) दोनों के विरुद्ध थे .एक अर्थशास्त्री के रूप में उनका मानना था कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था असमानता और शोषण को बढ़ावा देती है . इस में गरीब अधिक गरीब और अमीर अधिक अमीर हो जाता है. यह व्यवस्था शोषण, महंगाई ,कालाबाजारी ,जमाखोरी, मिलावट और भुखमरी को जन्म देती है . यही कारण है कि उन्होंने सरकारी समाजवाद ,उद्योगों के राष्ट्रीयकरण एवं भूमि पर राज्य के स्वामित्व पर बल दिया. यद्यपि वह मार्क्सवादी नहीं थे इसके बावजूद भी भूतपूर्व सोवियत संघ की कृषि प्रणाली से प्रभावित होने के पश्चात कृषि के समूहीकरण का समर्थन किया ताकि ग्रामीण क्षेत्र में आर्थिक भेदभाव को समाप्त किया जा सके. कृषि के संबंध में उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक‘भारत में लघु कृषि और उनके उपचार’ (1917) है.
स्त्री अधिकारों तथा सशक्तिकरण के अग्रदूत
डॉ. भीमराव के स्त्री अधिकारों तथा स्त्री सशक्तिकरण के विचारों पर फ्रांस की क्रांति के तीन सिद्धांत – स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के प्रभाव के अतिरिक्त इंग्लैंड और अमेरिका के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक वातावरण तथा यूरोप में महिला मुक्ति आंदोलनों का प्रभाव था. उनका मानना था कि किसी भी समाज के विकास का पैमाना इस बात से नापा जा सकता है कि समाज में महिलाओं का विकास कितना है. यदि महिलाओं का विकास नहीं हो रहा है तथा खेत- खलियान में काम करने वाली महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं तो महिला सशक्तिकरण के सभी नारे खोखले तथा जुमले साबित होंगे. स्त्री और पुरुष को बिना किसी भेदभाव के समान अवसर, पुरुष समान अधिकार , समान स्वतंत्रता तथा स्वतंत्रता की सभी शर्तें दोनों के लिए बराबर होनी चाहिए.
डॉ. अंबेडकर ने सार्वजनिक मंचों, मुंबई विधान परिषद , भारत के गवर्नर जनरल की lकार्यकारिणी, संविधान सभा की प्रारूप समिति , तथा भारतीय संसद में महिलाओं के सशक्तिकरण तथा सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक और शैक्षिक सुधारों के लिए जोर दिया .डॉ भीमराव ने सबसे क्रूर एवं अमानवीय देवदासी प्रथा का विरोध किया. वह भारतीय समाज में प्रचलित ब्राह्मणवाद तथा मनुवादी व्यवस्था के विरुद्ध थे.उनका मानना था कि मनुस्मृति में अनुसूचित जातियों तथा महिलाओं के विरुद्ध अपमानजनक बातें लिखी हुई है तथा इनका प्रचार और प्रसार होता है. महिलाओं का अपने शरीर पर पूर्ण अधिकार हैतथा उन्हें प्रजनन का अधिकार भी है. राज्य को चाहिए कि वह गर्भ विरोधी उपायों का स्त्रियों के कल्याण के लिए प्रयास करें.
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ. भारतीय संविधान में स्त्रियों और पुरुषों को बराबर के अधिकार हैं. भारत एक प्रजातांत्रिक राज्य है . प्रजातांत्रिक राज्य में सबसे महत्वपूर्ण अधिकार मताधिकार होता है.इस समय 18 वर्ष की आयु के वयस्क को मताधिकार प्राप्त है. डॉ.अंबेडकर के सिद्धांत “एक व्यक्ति, एक मत, एक मूल्य” के आधार पर मताधिकार प्राप्त है . अन्य शब्दों में भारत के राष्ट्रपति से लेकर दूर-दराज गांव में रहने वाले नागरिकों – स्त्री- पुरुष, गरीब और अमीर, शिक्षित और अशिक्षित को बराबर का मताधिकार है.
भारत के संविधान की प्रस्तावना के अतिरिक्त ,मूल अधिकारों (तीसरे अध्याय ),राज्य के नीति निर्देशक के सिद्धांतों (चौथे अध्याय) में महिला अधिकारों के संबंध में अनुच्छेद 14,15, 15(3), 16 ,42 ,51(a)(c) तथा भारत के संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम1992 के द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 40 केअनुसार स्थापित स्वशासन (पंचायती राज) को अधिक सक्षम एवं व्यवहारिक बनाया गया है. संविधान के अनुच्छेद 243(D)(3), 243T(3) ,243T(4)) के द्वारा पंचायती राज (पीआरएस) के सभी तीन स्तरों पर महिलाओं के लिए सीटों के एक- तिहाई आरक्षण का प्रावधान किया गया है.परंतु इस समय भारत के 20 राज्यों में महिलाओं के लिए पंचायती राज संस्थाओं में तीनों स्तर पर 50% आरक्षण की व्यवस्था है. भारत के संविधान के 74 वें संशोधन अधिनियम (1992)के अनुसार संविधान के (भाग 9 क) के अंतर्गत महिलाओं के लिए नगरपालिकाओं में एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था की गई. भारतवर्ष के10 राज्यों में नगरपालिकाओं में 50% आरक्षण की व्यवस्था की गई है. पंचायती राज संस्थाओं और नगरपालिकाओं में 50% आरक्षण में कानून द्वारा किया गया है. परिणाम स्वरूप भारतीय लोकतंत्र की प्राथमिक पाठशालाओं (पंचायती राज संस्थाओं तथा नगरपालिकाओं) में आरक्षण द्वारा महिलाओं की राजनीतिक ट्रेनिंग, जागरूकता , सशक्तिकरण तथा राजनीतिक सहभागिता में वृद्धि हुई है.
महिला सशक्तिकरण के लिएडॉ. अंबेडकर ने 11 अप्रैल 1947 को संविधान सभा में हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया. कट्टरपंथियों के विरोध के कारण इस दिन को 9 अप्रैल 1948 को सिलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया. परंतु बाद में सन् 1951 में डॉ.अंबेडकर द्वारा भारत की संसद में हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया.बिल में महिलाओं के लिए पुरुषों के बराबर अधिकारों का वर्णन था. महिलाओं को पुरुषों के बराबर विवाह -विच्छेद का अधिकार, पैतृक संपत्ति में बेटी को बराबर का अधिकार तथा विधवा महिला को पति की संपत्ति में अधिकार वर्णन था . परंतु कांग्रेस पार्टी के प्रतिक्रियावादी तथा सामंतवादी विचारधारा से प्रभावित महत्वपूर्ण नेताओं तथा भारतीय जन संघ (भारतीय जनता पार्टी की प्रेडिसेसर) ने संसद और संसद के बाहर इस बिल का घोर विरोध किया. साम्यवादी पार्टी ने हिंदू कोड बिल का समर्थन किया. इस बिल के विरोधियों का मानना था कि यह भारत की पितृप्रधान परंपरा को चुनौती देगा और समाज में तनाव का वातावरण पैदा होगा. भारतीय संस्कृति के तथाकथित पुजारी यह बात कहते हुए नहीं थकते “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता”. यह नारा खोखला सिद्ध हुआ. भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जिनके साथ सन् 1951 के चुनाव के बाद पूर्ण बहुमत था तथा भारत वर्ष के सबसे शक्तिशाली और लोकप्रिय प्रधानमंत्री थे. परंतु पार्टी के अंदर और पार्टी के बाहर हिंदू कोड बिल का जो विरोध हुआ. जवाहरलाल नेहरू अपने पार्टी के विरोधी सदस्यों तथा विपक्ष के सांसदों की भावनाओं को देखते हुए हिंदू कोड बिल को वापस ले लिया. जवाहरलाल नेहरू प्रजातांत्रिक राज नेता थे . परंतु हिंदू कोड बिल को वापस लेना प्रतिक्रियावादी और महिला विरोधी कदम था . जवाहरलाल नेहरू के इस बिल के वापस लेने के निर्णय पर भीमराव अंबेडकर को बहुत बड़ा आघात पहुंचा.क्योंकि वे महिला मुक्ति के लिए काफी लंबे समय से संघर्ष कर रहे थे. उन्होंने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. इस घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए डा. अंबेडकर ने कहा कि कांग्रेस के नेतृत्व में दृढ़ निश्चय तथा इच्छा शक्ति का अभाव है. यही कारण है कि हिंदू कोड बिल पास ना हो सका और सैद्धांतिक आधार पर चलते हुए भारत के विधि मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया . आधुनिक नेताओं को डॉ. भीमराव से सीखना चाहिए. परंतु अफसोस वर्तमान समय में ऐसे नेताओं को ढूंढते रह जाओगे. परंतु जिस धीमी गति से महिलाओं के विकास और उत्थान की योजनाओं को लागू किया जा रहा है ऐसी स्थिति में महिलाओं के अच्छे दिन आने में 135 वर्ष लगेंगे . इस दृष्टि से भी डॉ. भीमराव अंबेडकर का चिंतन प्रासंगिक है
डॉ. भीमराव अंबेडकर एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे. वह केवल संविधानविद् ही नहीं अपितु आंदोलनकारी भी थे भोजन, वस्त्र और आवास दलित और शोषित लोगों का जन्मदिन सिद्ध अधिकार है. उनका यह मानना था कि दलित वर्ग को सम्मान का जीवन जीने के लिए आत्मविश्वास पर भरोसा करना चाहिए तथा उनको तीन सूत्रों –शिक्षा,संगठन और संघर्ष को ग्रहण करना चाहिए. डॉ. अंबेडकर का उद्घोष था “सम्मान पूर्वक जीवन व्यतीत करना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है”.आंदोलन के दर्शन को प्रस्तुत करते हुए अंबेडकर ने अपने अनुयायियों को शिक्षित होने, संगठित होने तथा संघर्षशील होने पर बल दिया है. उनका मानना था कि प्रत्येक संघर्ष और आंदोलन की कामयाबी का सबसे बड़ा आधार एकता है. एकता से साहस पैदा होता है और साहस से आंदोलन छेड़े जाते हैं. डॉ. अंबेडकर का मानना था कि शिक्षा, संगठन और संघर्ष दलित वर्ग की गुलामी और दासता को तोड़ने का सबसे सर्वाधिक शक्तिशाली साधन है . अपमानित होकर जीवन जीना निक्कमापन है और गुलामी के शिकंजे को मजबूत करता है. उन्होंने इस बात पर बल दिया किअपनी शक्ति का प्रयोग निर्माणात्मक एवं रचनात्मक रूप में होना चाहिए ताकि अपने उद्देश्य की प्राप्ति हो सके .अपने जीवन काल में डॉ. अंबेडकर ने अनेक आंदोलनो को लामबंद किया तथा उनका नेतृत्व किया. महाड के चोदार तालाब से अछूतों को पानी भरने के लिए आंदोलन( मार्च 1927 ), मनुस्मृति के प्रतिलिपयों को जलाने के संबंध में महाड में आंदोलन (दिसंबर 1927), बेगार के विरुद्ध आंदोलन (मार्च 1928), काला मंदिर नासिक में प्रवेश के लिए आंदोलन (मार्च 1930) इत्यादि महत्वपूर्ण आंदोलन हैं. उनका मानना था कि शिक्षित वर्ग मूक दर्शक वर्ग को जिसकी संख्या बहुत ज्यादा है प्रेरणा का स्रोत हो सकता है . इसलिए मराठी भाषा में पांच समाचार पत्रों- साप्ताहिक ‘मूकनायक’, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘ समता’ , ‘जनता’ व ‘प्रबुद्ध भारत’ का प्रकाशन किया .
ब्रिटिश शासन काल में नौकरशाही के संबंध में उनके विचार बड़े महत्वपूर्ण और स्टीक हैं.उनका मानना था कि नौकरशाही का व्यवहार आम आदमी विशेष तौर से दलित वर्ग के प्रति करुर और अमानवीय है.अंबेडकर के अनुसार वास्तव में भारतीय नौकरशाही पर स्वर्ण जाति के लोगों का कब्जा है और यह यथास्थिति का समर्थन करती है तथा दलित लोगों को दबाने का एक यंत्र है .भारतीय नौकरशाही रूढ़िवाद का शिकार है और यह घोर प्रतिक्रियावादी ,विकास विरोधी और मानव विरोधी है.यही कारण है कि डॉ. अंबेडकर ने नौकरशाही के स्थान पर लोकशाही को महत्व दिया.अमेरिकन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के अनुसार लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन है.लोकतंत्र की इस परिभाषा से डॉ.अंबेडकर पूर्णरूप से सहमत थे. वर्तमान समय में भारत में लोकतंत्र है . परंतु इसके बावजूद भी नौकरशाही तथा पुलिस का दृष्टिकोण आम आदमी, दलित, अल्पसंख्यक वर्ग और महिलाओं के विरुद्ध है . भारत की नौकरशाही भ्रष्टाचार से परिपूर्ण है .यही कारण है कि नौकरशाही का भ्रष्टाचार प्रतिदिन समाचार पत्रों के सुर्खियां होती हैं.अफसोस की बात यह है कि दलित वर्ग के विधायक, सांसद, मंत्री और यहां तक कि राष्ट्रपति होते हुए भी नौकरशाही दलित वर्ग के विरुद्ध है. नौकरशाही तथा पुलिस के रवैए में कोई परिवर्तन नहीं है और उसी ढर्रे पर चल रही है जो अंग्रेजी राज में था. इसका मूल कारण यह है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था नौकरशाही, पुलिस, राजनीतिक अपराधियों तथा माफिया के गठबंधन की गिरफ्त में आ चुकी है (एन एन वोहरा समिति की रिपोर्ट, अक्टूबर1993) .
डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों के संबंध में प्रथम गोलमेज सम्मेलन,लंदन,(8अगस्त1930) तथा द्वितीय गोलमेज सम्मेलन,लंदन( 1931) में अछूतों की आवाज उठाना व पृथक चुनाव प्रणाली अपनाने की वकालत करना, महात्मा गांधी तथा डा. अंबेडकर के मध्य पूना पैक्ट (24 सितंबर 1932), मुस्लिम लीग के लाहौर प्रस्ताव (1940 ) तथा सांप्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन करके पाकिस्तान के स्थापना का विरोध (डॉ. भीमराव अंबेडकर ,थॉट्स ऑन पाकिस्तान, 1940), जम्मू-कश्मीर के संबंध में धारा 370 का विरोध तथा ड्राफ्ट बनाने से इंकार करना, समान नागरिक संहिता (परिवार, विवाह, संपत्ति और मूलभूत नागरिक अधिकारों के बारे में समानता) का समर्थन, सामाजिक आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए शिक्षण संस्थाओं और सार्वजनिक नौकरियों में सकारात्मक आरक्षण की व्यवस्था का समर्थन इत्यादि अन्य महत्वपूर्ण तथ्य हैं.
वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता
सन्2011 की आर्थिक एवं जाति जनगणना के अनुसार भारत के कुल परिवारों में 4.42 करोड़ परिवार अनुसूचित जाति (दलित) से सम्बन्ध रखते हैं. इन परिवारों में से केवल 23% अच्छे मकानों में, 2% रहने योग्य मकानों में और 12% जीर्ण शीर्ण मकानों में रहते हैं.इन परिवारों में से 24% परिवार के पास घास-फूस, पॉलीथीन और मिट्टी के मकान हैं.शहरों तथा महानगरों की मलिन बस्तियों तथा झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वाले अधिकतर दलित एवं आदिवासी हैं.
सन 2011 की आर्थिक एवं जाति जनगणना के अनुसार केवल 3.95% दलित परिवारों के पास सरकारी नौकरी है.केवल 0.93% के पास राजकीय क्षेत्र तथा केवल 2.47% के पास निजी क्षेत्र का रोज़गार है.इससे स्पष्ट है कि दलित परिवार बेरोज़गारी का सबसे बड़ा शिकार हैं. वास्तव में आरक्षण के 70 साल लागू रहने पर भी सरकारी नौकरियों में दलित परिवारों का प्रतिनिधित्व केवल 3.95% है. नव उदारवादी नीतियों के कारण जिस तरीके से सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का निजीकरण होता जा रहा है इसके परिणाम स्वरूप नौकरियों में आरक्षण पर बुरा प्रभाव पड़ेगा.
सन 2011 की आर्थिक एवं जाति जनगणना के अनुसार दलित परिवारों में से केवल 83.55% परिवारों की मासिक आय 5,000 से कम है. 11.74% परिवारों की मासिक आय 5,000 से 10,000 के बीच है और केवल 4.67% परिवारों की आय 10,000 से अधिक है. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि गरीबी की रेखा के नीचे दलितों का प्रतिशत बहुत अधिक है जिस कारण दलित ही कुपोषण का सबसे अधिक शिकार हैं.
सन् 2011 की जनगणना के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में 56% परिवार भूमिहीन हैं. इनमें भूमिहीन दलितों का प्रतिशत 70 से 80% से भी अधिक है.दलित परिवारों में से केवल 18.45% के पास असिंचित, 17.41% के पास सिंचित तथा 6.98% के पास अन्य भूमि है. लगभग 91% दलित की भूमिहीन हैं.केवल 30% परिवारों को ही कृषि में रोज़गार मिल पाता है.
भारतवर्ष में सामान्य वर्ग की 14 %महिलाओं का भूमि पर मालिकाना हक है जबकि 86% महिलाएं भूमि रहित हैं. दलित वर्ग की महिलाओं की भूमि पर मालिकाना की स्थिति और भी अधिक गंभीर है.केवल 2% दलित महिलाओं का भूमि पर मालिकाना हक है जबकि 98% महिलाएं भूमि रहित हैं. भारत में महिलाओं के लिए भूमि नहीं(No land for women) है. वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2021 के अनुसार भारत में महिलाओं की स्थिति चिंताजनकहै.विश्व रैंकिंग में 156 देशों की सूची में भारत का 140 स्थान है. यदि इसी रफ्तार से महिला सशक्तिकरण होता रहा तो भारत में महिलाओं के अच्छे दिन आने में 135 साल लगेंगे.
वैश्विक भूख सूचकांक सन् 2021 के अनुसार116 देशों की सूची में भारत का 101 वां स्थान है. भारत सरकार के अनुसार 80 करोड से अधिक लोगों को सरकार के द्वारा राशन दिया जाता है. इन सभी को भारत सरकार के द्वारा बीपीएल श्रेणी में सम्मलित गया है. यदि इस दृष्टि से देखा जाए भारत में गरीबी में वृद्धि हुई है. सन 2021 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 33 लाख से अधिक बच्चे कुपोषित हैं. गरीब और अमीर के मध्य निरन्तर खाई बढ़ती जा रही है . सन्2022 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 10% अमीर लोगों के पास देश की संपत्ति का 57% है जबकि 50 % आबादी केवल 13% संपत्ति में गुजारा करती है. भारत में बेरोजगारी की स्थिति निरंतर गंभीर होती जा रही है .दिसंबर 2021 तक 53 मिलियन (5 .3 करोड़) बेरोजगार हैं.इनमें 35 मिलियन (3.5 करोड) लोगों को रोजगार की तुरतं आवश्यकता है.इनमें 8 मिलियन महिलाओं की संख्या है. यदि भारतवर्ष एंप्लॉयमेंट रेट स्टैंडर्ड तक पहुंचना चाहता है तो 187.5 मिलियन लोगों को रोजगार देना होगा. तभी लोगों के अच्छे दिन आ सकते हैं. परंतु यह केवल एक ख्वाब नजर आता है
भारतीय न्यायपालिका में लंबित केसों की संख्या निरंतर बढ़ जा रही है. फरवरी 2020 में भारत की निचली अदालतों में जजों की संख्या में कमी के कारण 2,91,63,220 मुकदमें लंबित थे.इस समय यह संख्या बढ़कर लगभग 4 करोड़ 12 लाख हो गई है. भारतीय सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों में भी लंबित मुकदमों की संख्या निरंतर बढ़ रही है .फरवरी 2020 में सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में 44, 58,700 मुकदमेंलंबित थे. इस समय यह संख्या बढ़कर लगभग 58,88,940 हो गई है. न्यायपालिका प्रणाली में अभूतपूर्व सुधारों के आवश्यकता है.ताकि लोगों को बिना देरी के न्याय प्राप्त हो सके.
संक्षेप में प्रस्तुत आंकड़े बोलकर नहीं अपितु चिल्ला- चिल्ला कर कह रहे हैं कि जब तक भारत में गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, श्रमिक वर्ग का शोषण, दलित वर्ग के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार, अल्पसंख्यक वर्ग व दलित वर्ग के विरुद्ध निरंतर बढ़ते अपराध, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की निरंतर बढ़ती हुई वारदातें जारी रहेंगी तब तक डॉ. भीमराव अंबेडकर का चिंतन (अंबेडकरवाद) प्रासंगिक रहेगा.
लेखक दयाल सिंह कॉलेज, करनाल, के (पूर्व प्राचार्य हैं.
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