वंचित अनुसूचित जातियों के संदर्भ में डॉ भीमराव अंबेडकर का दर्शन: एक पुनर्विचार व वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता

Dr. B. R.Ambedkar

डॉ भीमराव रामजी अंबेडकर (14 अप्रैल 1891– 6 दिसंबर 1956)

 

– डॉ. रामजीलाल, (पूर्वप्राचार्य, दयालसिंहकॉलेज, करनाल -हरियाणा भारत)
Email—drramjilal1947@gmail.com

डॉ भीमराव रामजी अंबेडकर (14 अप्रैल 1891– 6 दिसंबर 1956) भारतीय संविधान के पितामह, निर्माता, शिल्पीकार एवं वास्तुकार, संविधान की ड्राफ्ट समिति के अध्यक्ष, प्रसिद्ध अधिवक्ता, स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री, भारतीय गणराज्य के निर्माता, भाषाविद्, स्वतंत्र एवं निर्भीक पत्रकार, पुस्तक कीट, राजनेता, सांसद, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, सामाजिक क्रांतिकारी, पथ प्रदर्शक, जाति उन्मूलन के समर्थक, अन्याय पर आधारित सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था के धुरंधर विरोधी, अस्पृश्यता के उन्मूलन के पक्षधर, दार्शनिक एवं चिंतक, महिलाओं, किसानों और श्रमिकों के हमदर्द, अछूत तथा वंचित वर्ग के पैरोकार एवं मसीहा, विषमता और असमानता पर आधारित समाज के विरुद्ध एक महान आंदोलनकारी एवं संघर्षशील चिंतक, सामाजिक क्रांतिकारी, पथ प्रदर्शक और उच्च कोटि के संघर्षशील एवं आंदोलनकारी थे.

एक समाज सुधारक के रूप में वह मनुवाद- ब्राह्मणवाद पर आधारित जाति प्रथा के उन्मूलन के मुख्य पैरोकार थे. वे स्वयं इस बात को स्वीकार करते थे कि महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण के बिना किसी भी समाज का सुधार और विकास नहीं हो सकता. इस दृष्टि से वह महिला सशक्तिकरण केअग्रदूत थे. उनको समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुता का पैरोकार माना जाता है.

भारत में जातिवाद का इतिहस हजारों साल पुराना है. ऋग्वेद के अनुसार भारत में चार वर्ण -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र हैं. शुद्र वर्ण का अर्थ नौकर अथवा अछूत है. शुद्र वर्ण की तुलना व्यक्ति के शरीर के पैरों से की गई है. हजारों वर्ष पुरानी व्यवस्था धीरे-धीरे विभिन्न जातियों, उप -जातियों, गोत्रों, धर्मों, मतमतांरों बदलती चली गई. इस समय अनुसूचित जातियों की संख्या 1108, अनुसूचित जनजातियों की संख्या 730 (जनगणना सन् 2011) तथा पिछड़े वर्गों की संख्या 5013 है. (दैनिक ट्रिब्यून् (चंडीगढ़). 27 फरवरी 2021. पृ. 8) है. इसी प्रकार ’शुद्र’ शब्दावली में भी परिवर्तन होता चला गया है.

पिछली शताब्दी में ’शुद्र’ वर्ग को सन 1935 से पूर्व ‘डिप्रेस्ड क्लासेज’ के नाम से पुकारा जाता था.
डॉ. अंबेडकर के विचारों से विश्व के वंचित वर्ग के लोग प्रेरणा ग्रहण करते हैं और करते रहेंगे. डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपने जीवन काल में 64 विषयों पर विस्तार पूर्वक लिखा है डॉ. भीमराव अंबेडकर में सभी ‘डिप्रेस्ड क्लासेज ‘को ‘दलित वर्ग’ के रूप में परिभाषित किया. महात्मा गांधी के द्वारा अस्पृश्यता का विरोध करते हुए दलितों को ’हरिजन’ शब्द से संबोधित किया. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात नेशनल शेड्यूल्ड कास्ट कमीशन ने दलित शब्द को असंवैधानिक माना और सभी शेड्यूल्ड कास्ट जातियों के लिए नौकरियों तथा राजनीतिक क्षेत्र में प्रतिनिधित्व दिया गया. प्रोविजन ऑफ रिजर्वेशन फार शेड्यूल्ड कास्ट्स एक्ट में शेड्यूल्ड कास्ट्स तथा शेड्यूल्ड ट्राइब का प्रवेश किया गया एक ओर बीसवीं शताब्दी में के नौवें दशक में अंग्रेजी पत्रिका में दलित की जगह ‘डाउनट्रोड्डेन’ शब्दावली का प्रयोग किया. उधर दूसरी ओर महाराष्ट्र में साहित्यकारों के द्वारा दलित साहित्य की रचना करके साहित्य के इतिहास में एक नया आयाम ही नहीं जोड़ा बल्कि एक दिशा तथा पथ प्रदर्शक का काम भी किया. सन् 1989 में भारत सरकार ने अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के शीर्षक में ‘अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों ‘ का प्रयोग किया. सन् 2018 में मुंबई हाई कोर्ट के द्वारा दलित के स्थान पर ‘अनुसूचित जाति’ शब्द का प्रयोग करने के लिए केंद्रीय सरकार को एडवाइजरी जारी करने का आदेश दिया.

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपने जीवन काल में 64 विषयों पर विस्तार पूर्वक लिखा है. इस लेख में हम दलित मुद्दों और महिलाओं संबंधी अंबेडकर के विचारों की प्रासंगिकता का अपने सुधी पाठकों के लिए वर्णन करेंगे. डॉ. अंबेडकर एक समाज सुधारक तथा महिला सशक्तिकरण के अग्रदूत थे. डॉ. अंबेडकर की जातिवाद और वर्ण व्यवस्था से संबंधित विश्व प्रसिद्ध पुस्तक “जाति का उच्छेद” (एनीहिलेशन ऑफ कास्ट, 1937) है. जातिवाद और वर्ण व्यवस्था के संबंध में उनकी अन्य पुस्तकें ‘भारत में जातियां और उनका मशीनीकरण (1916)’, ‘श्री गांधी एवं अछूतों की विमुक्ति’ (1942), ‘कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया’? (1945), ’अछूत कौन और कैसे?’ (1948)मुख्य हैं. डा.अंबेडकर के अनुसार ‘छुआछूत गुलामी से भी बदतर है’. जातिवाद और वर्ण व्यवस्था के कारण उत्पन्न अस्पृश्यता को संकुचित, अमानवीय, अवैज्ञानिक, अनैतिक, विभाजक तथा संकीर्ण माना है.

इन चारों वर्णों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ स्थान पर तथा शूद्र को सबसे निम्न स्थान पर रखा गया है. डॉ. अंबेडकर ने मूकनायक के प्रवेशांक सम्पादकीय (31 जनवरी 1920) में ‘हिंदू समाज” के संबंध में बड़ा स्पष्ट लिखा:
‘हिंदू समाज एक मीनार है और एक-एक जाति इस मीनार का एक-एक तल (जाति) है. ध्यान देने की बात यह है कि इस मीनार में सीढ़ियां नहीं हैं, एक तल (जाति) से दूसरे तल (जाति) में आने-जाने का कोई मार्ग नहीं है. जो जिस तल (जाति) में जन्म लेता है, वह उसी तल (जाति) में मरता है. नीचे के तल (जाति) का मनुष्य कितना ही लायक हो, ऊपर के तल (जाति) में उसका प्रवेश संभव नहीं है, और ऊपर के तल (जाति) का मनुष्य कितना ही नालायक हो, उसे नीचे के तल (जाति) में धकेल देने की हिम्मत किसी में नहीं है.”

डॉ. अंबेडकर इस चतुर्वर्ण प्रणाली को सर्वनाशक, हिंसक, शोषणकारी और अत्याधिक खतरनाक मानते थे. उनका कहना था कि इस व्यवस्था से रूढ़िवाद, अंधविश्वास और ऐसी परंपराएं विकसित की गई जिनके परिणाम स्वरूप श्रमिक वर्ग का शोषण हुआ है. इस प्रणाली के रक्षक लोगों ने आम आदमी विशेष तौर से दलित वर्ग के लोगों का शोषण करके इंसानियत को समाप्त किया है और लोगों को गुलाम बनाया. गुलाम लोग अपने ही शस्त्रों से अपना सर कटवाते रहे तथा गुलामी करते रहे और हल चला कर फसल पैदा करते रहे और खुद भूखे मरते रहे. इस व्यवस्था ने कभी भी हल के फालों को तलवार में बदलने का समय नहीं दिया. उनके पास कोई हथियार अथवा संगठन ने नहीं थे. इस प्रणाली ने दलित और कमजोर लोगों को मू्र्दा बना कर रख दिया और उनमें क्रांति करने की ताकत समाप्त कर दी. परिणाम स्वरूप भारत में कभी भी ऐसी सामाजिक क्रांति नहीं हुई जैसे कि यूरोपियन देशों में हुई है.

डॉ. अंबेडकर के चिंतन के अनुसार सामाजिक क्रांति के बिना दलित वर्ग के स्थिति में सुधार नहीं हो सकता. उनका मानना था कि जब तक भारत में सामाजिक क्रांति नहीं होगी तब तक अनेक कानूनों एवं संविधान के उपबंधो के बावजूद भी शोषण समाप्त नहीं होगा और दलित और श्रमिक वर्ग (सर्वहारा वर्ग) शोषित होता चला जाएगा. यद्यपि दलित वर्ग की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है. परंतु दलित वर्ग का दमन व शोषण अभी भी जारी है. हमारा अभिमत है कि दलित व महिलाओं, श्रमिकों और शोषित वर्ग का दमन, शोषण, उत्पीड़न, उनके विरूद्ध अत्याचार, हिंसा और भेदभाव, जारी है.

समाज सुधारक के रूप में डॉ. अंबेडकर चतुर्वर्ण व्यवस्था पर आधारित जातिवाद को राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय एकीकरण, राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय विकास के मार्ग में हानिकारक मानते थे. वर्ण व्यवस्था पर आधारित जातिवाद भारतीय समाज के एकीकरण में बहुत बड़ी बाधा है. राष्ट्रीय एकता और अखंडता, समाज की एकता और अखंडता पर निर्भर करती है. जब समाज विभिन्न जातियों में पदसोपान के आधार पर बंटा हुआ हो तो उस समाज में कभी भी एकता स्थापित नहीं हो सकती. जातिवाद भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास में एक बहुत बड़ी बाधा है. जब समाज ऊंच-नीच के आधार पर विभाजित है तो ऐसी स्थिति में ‘सबका विकास, सबका विश्वास, सबका साथ’ अथवा “व्यक्ति की आत्म निर्भरता” एक कल्पना है. डॉ. अंबेडकर ने जातिवाद और चतुवर्ण व्यवस्था का विरोध करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि इस व्यवस्था ने किसी को ‘ श्रेष्ठ नहीं बनाया और ना ही बना सकने में सक्षम है. जात पात से आर्थिक योग्यता नहीं आती .जात पात ने एक काम अवश्य किया हैं कि इसने हिंदुओं में फूट डाल दी और उन्हें भ्रष्ट कर दिया है’.

डॉ. अंबेडकर ने केवल जातिवाद का केवल विरोध ही नहीं किया अपितु इसका उन्मूलन करने के लिए सकारात्मक सुझाव सुझाव भी दिए. उनका यह मानना था कि अंतर्जातीय विवाहों तथा इंटर डाइनिंग द्वारा जातिवाद को कमजोर किया जा सकता है. इन दोनों सुझावों का विरोध तत्कालीन समय में प्रतिक्रियावादी शक्तियों के द्वारा किया गया. यहां तक कि “जात पात तोड़क मंडल” के सदस्य भी अंतरजातीय विवाहों और डॉ. अंबेडकर के विचारों का विरोध करते रहे. अंतरजातीय विवाह भारतीय राष्ट्रीय एकीकरण को सुदृढ़ करने के लिए महत्वपूर्ण सुझाव है. परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के 76 वर्ष के बावजूद भी लगभग 5% लोगों ने अंतरजातीय विवाह किया है. भारतीय समाज में आज भी अंतर्जातीय विवाह का विरोध केवल अशिक्षित लोगों के द्वारा ही नहीं अपितु समाज के उच्च वर्गों के प्रतिष्ठित, शिक्षित और संपन्न लोगों के द्वारा भी किया जाता है. यही कारण है कि अंतरजातीय विवाह अथवा प्रेम विवाह के विरुद्ध समाज में अचानक विरोध हो जाता है. लड़का अथवा लड़की को तथाकथित इज्जत के नाम पर कत्ल (“ऑनर किलिंग”) करने की घटनाएं अखबारों की सुर्खियां होती हैं. आज भी अंतर्जातीय विवाह, अंतर धार्मिक विवाह (लव जिहाद), प्रेम विवाह तथा मोहब्बत के बदले मौत मिलती है. संक्षेप में वर्ण व्यवस्था एवं जातिवाद सामाजिक एकता, राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय एकीकरण, राजनीतिक आधुनिकीकरण, राजनीतिक एवं आर्थिक विकास में अवरोघक है.

डॉ. अंबेडकर ने समस्त आयु जातिवाद के कारण अपमान को झेला तथा दलित वर्ग के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित किया .उन्होंने‘जातिवाद के उन्मूलन’ पर बल दिया. अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने अनुयायियों, दलित और शोषित वर्ग के लोगों को ‘शिक्षित बनो .संघर्ष करो, संगठित रहो ‘का मूल मंत्र दिया. यह मूल मंत्र आज भी प्रासंगिक है और कल भी प्रासंगिक रहेगा इसका प्रयोग बहुसंख्यक समुदाय के द्वारा किये जाने वाले तानाशाही रवैये विरूद्ध भी किया जा सकता है.

डॉ. भीमराव ने भारत के संविधान की प्रस्तावना में समानता, स्वतंत्रता और बंधुता को अपनाया. इन तीनों को लोकतंत्र का आधारभूत मानते थे. सफल लोकतंत्र की स्थापना के लिए सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है. डॉ.अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा की अंतिम बैठक के समापन में ऐतिहासिक भाषण में समाज के कटु सत्य को बताते हुए कहा:

‘राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक की उसके मूल में सामाजिक लोकतंत्र अर्थात जीवन के सिद्धांतों में समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुता ना हो. समानता के बिना स्वतंत्रता बहुसंख्यक वर्ग पर मुट्ठी भर लोगों का प्रभुत्व स्थापित कर देगी. बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता स्वाभाविक सी बातें नहीं लगेगी. भेदभाव और असमानता दूर करनी चाहिए. यदि ऐसा नहीं किया गया तो वह लोग जो भेदभाव का शिकार होंगे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे जो इस संविधान सभा ने तैयार किया है.’

ब्रिटिश शासन काल में नौकरशाही के संबंध में उनके विचार बड़े महत्वपूर्ण और स्टीक हैं. उनका मानना था कि नौकरशाही का व्यवहार आम आदमी विशेष तौर से दलित वर्ग के प्रति करुर और अमानवीय है. अंबेडकर के अनुसार वास्तव में भारतीय नौकरशाही पर स्वर्ण जाति के लोगों का कब्जा है और यह यथास्थिति का समर्थन करती है तथा दलित लोगों को दबाने का एक यंत्र है. भारतीय नौकरशाही रूढ़िवाद का शिकार है और यह घोर प्रतिक्रियावादी, विकास विरोधी और मानव विरोधी है. यही कारण है कि डॉ. अंबेडकर ने नौकरशाही के स्थान पर ‘लोकशाही’ को महत्व दिया. अमेरिकन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के अनुसार लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन है’. लोकतंत्र की इस परिभाषा से डॉ. अंबेडकर पूर्णरूप से सहमत थे.

वर्तमान समय में भारत में लोकतंत्र है. परंतु इसके बावजूद भी नौकरशाही तथा पुलिस का दृष्टिकोण आम आदमी, दलित, अल्पसंख्यक वर्ग और महिलाओं के विरुद्ध है. भारत की नौकरशाही भ्रष्टाचार से परिपूर्ण है. यही कारण है कि नौकरशाही का भ्रष्टाचार प्रतिदिन समाचार पत्रों के सुर्खियां होती हैं. अफसोस की बात यह है कि दलित वर्ग के विधायक, सांसद, मंत्री और यहां तक कि राष्ट्रपति होते हुए भी नौकरशाही दलित वर्ग के विरुद्ध है. नौकरशाही तथा पुलिस के रवैए में कोई परिवर्तन नहीं है और उसी ढर्रे पर चल रही है जो अंग्रेजी राज में था. इसका मूल कारण यह है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था नौकरशाही, पुलिस, राजनीतिक अपराधियों तथा माफिया के गठबंधन की गिरफ्त में आ चुकी है.

न्याय मित्र और वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया ने एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स की जुलाई 2022 की रिपोर्ट का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. रिपोर्ट के अनुसार भारत में 44% लोकसभा सदस्य और 31% राज्यसभा के सदस्यों के खिलाफ अपराधिक मामले न्यायालय में लंबित हैं. केवल यही नहीं अपितु समस्त भारत में दर 43% विधायकों के खिलाफ भी अपराधिक मामले लंबित हैं. रिपोर्ट के अनुसार सांसदों व विधायकों के खिलाफ 5097 मामले लंबित थे. इनमें से 40% से अधिक अर्थात 2122 मामले 5 वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं. पंजाब में सांसदों व विधायकों के खिलाफ 100 मामले थे इनमें से बीच में आरोप तैयार किए गए जबकि 11 मामलों में कार्रवाई पर रोक लगा दी गई अन्य मामलों पर अभी तक आरोप भी तय नहीं किए गए. हरियाणा जिसे शांतिप्रिय राज्य समझा जाता है यहां भी रिपोर्ट के अनुसार सांसदों और विधायकों के खिलाफ 49 मामले लंबित थे इनमें से 7 मामलों में आरोप तय किए गए जबकि 10 मामलों में कार्यवाही पर रोक लगा दी गई और बाकी पर आज तक आरोप तैयार नहीं किए गए. केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ में सांसदों व विधायकों के विरुद्ध 9 मामले लंबित थे . (दैनिक ट्रिब्यून, चंदीगढ़, 26 जुलाई.2023,पृ.1)

एडीआर और नेशनल इलेक्शन वॉच के द्वारा भारत के 28 राज्यों व दो संघीय शासित क्षेत्रों के कुल 4033 विधायकों में से 4001 के शपथ पत्रों का विश्लेषण करके बताया गया कि लगभग 40 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलें पुलिस, थानों में दर्जहैं. इनमेंसे 28 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े गंभीर अपराधों के आरोप हैं. देशभर के 14 विधायकों ने महिलाओं से दुष्कर्म (आईपीसी की धारा–376)से जुड़े मामलों के बारे में शपथ पत्रों में लिखा है.

भारतीय संविधान की प्रस्तावना, अधिकारों, राज्य नीति के निर्देशन के सिद्धांतों, संविधान में दलित वर्गों के लिए अनेक अनुच्छेदों, विभिन्न कानूनों {अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 तथा सर्वोच्च न्यायालय के बावजूद भी यत्र, तत्र, सर्वत्र दलित वर्गों के विरुद्ध अत्याचारों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है.

भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत में सभी के लिए सामाजिक आर्थिक और न्यायिक राजनीतिक न्याय की बात की गई है. यह तीनों लोकतंत्र के आधार हैं. भारतीय संविधान के अंतर्गत लोकतंत्र की स्थापना के लिए डॉ. भीमराव का मुख्य उद्घोष – एक व्यक्ति, एक मत तथा एक मूल्य है.’ भारत में 18 वर्ष की न्यूनतम आयु पर मताधिकार प्राप्त है. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए पंचायत से संसद तक सीटें आरक्षित हैं. भारत में मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, राज्यपाल और अन्य पदों पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित व्यक्ति विद्यमान हैं. परंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सर्वोच्च पद पर अनुसूचित जातियों से संबंधित राष्ट्रपति श्री के. आर नारायणन, श्री रामनाथ कोविंद थे तथा वर्तमान राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू अनुसूचित जनजाति से संबंधित है.

किसी भी लोकतंत्र की स्थापना के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता होना बड़ा जरूरी है भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 ने अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त कर दिया और इसे दंडनीय अपराध बना दिया और भारत के संविधान के अनुच्छेद 35 में मूल अधिकारों को लागू करने के लिए संसद को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है. इसी शक्ति के आधार पर संसद में अनेक कानून बनाए हैं जिनमें अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 नागरिक स्वतंत्रता संरक्षण अधिनियम1955), अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2015 में दंड का प्रावधान है. उस व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह को इन अधिनियमों के आधार पर दंडित किया जा सकता है जो किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को पूजा स्थल में प्रवेश करने अथवा किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता को बढ़ावा देता है अथवा व्यवहार में अमल करता है.दूसरे शब्दों में अस्पृश्यता संविधान के उपबंधों एवं कानूनों के द्वारा समाप्त कर दी गई है. परंतु यह केवल कानूनी और सैद्धांतिक पक्ष दृष्टिगोचर होता है.

संवैधानिक एवं कानूनी उपबंधों के बावजूद भी दलितों के विरुद्ध अत्याचारों की संख्या में यत्र, तत्र, सर्वत्र निरंतर वृद्धि हो रही है व अमानवीय व्यवहार किया जाता है. आम नागरिक की बात तो छोड़िए स्थिति यहां तक पहुंच गई कि भारत के पूर्व श्री राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद को मंदिर में प्रवेश करने से पुजारियों के द्वारा रोका जाना या इसी महीने (जुलाई 2023)भारत के राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को दिल्ली में पुजारी ने मंदिर में प्रवेश करने से रोकना यह स्पष्ट करता है कि मंदिरों पर एक विशेष जाति का कब्जा होने के कारण अथवा सदियों से अघोषित आरक्षण के कारण दलित वर्ग अथवा अनुसूचित जनजातियों को मंदिरों में प्रवेश करने से रोका जाता है. राष्ट्रपति को मंदिर में प्रवेश करने से रोकने पर एक विशेष धर्म के अनुयायियों की के द्वारा मंदिरों के पुजारियों की कोई आलोचना नहीं की गई जबकि उनका यह कृत्य संविधान विरोधी, राष्ट्र विरोधी, धर्मनिरपेक्षता विरोधी और मानवता विरोधी है. बीसवीं शताब्दी (सन्1984) में भी भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया था. सन् 1925 में महात्मा गांधी को कन्याकुमारी के भगवती अम्मान मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई क्योंकि वह इंग्लैंड होकर आए थे.

भारत में दलित वर्ग के खिलाफ ‘जातिगत भेदभाव’ अथवा ‘छिपा हुआ रंगभेद’ (हिडन अपरथाइड) विद्यमान है दलित वर्ग के विरुद्ध यह छिपा हुआ रंगभेद जाति, वंश और काम के आधार पर है. दलित जाति से संबंधित व्यक्ति के बारे में जब जानकारी मिलती है उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति से लेकर आम व्यक्ति तक तथाकथित उच्च जातियों के लोगों की भवें चढ़ जाती हैं. एक दम घृणा व नफरत की भावना उत्पन्न हो जाती है. इसी मानसिक भावना के कारण दलितों के विरुद्ध अत्याचार शोषण दमन की कहानियां दिन प्रतिदिन घटती है दलितों के विरुद्ध अत्याचार दमन शोषण हिंसा और दलित महिलाओं के बलात्कार के संबंध में भारतीय समाज के समुद्र में हम कुछ महत्वपूर्ण ‘आइस बर्ग’ हैं.

दलितों को नाना प्रकार की अस्पृश्यता को झेलना पड़ रहा है अस्पृश्यता की दुर्भाग्यपूर्ण एवं कुचर्चित एवं कलकिंत करने वाली घटनाओं का वर्णन कर रहे हैं. इनमें घातक हमले, हत्याएं (रणवीर सेना, 1995 और 1999 तक बिहार में 400 से अधिक दलित ग्रामीणों की हत्या, जनवरी और फरवरी 1999 में तीन सप्ताह की अवधि के दौरान, रणवीर सेना ने 34 दलित ग्रामीणों की हत्या) सार्वजनिक, सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार, अखाद्य अथवा जानलेवा घातक पदार्थों को खाने अथवा पीने के लिए मजबूर करना (पंजाब में जगमेल हत्या व पेशाब कांड़ (सितंबर2020), मध्य प्रदेश मूत्र कांड- जुलाई 2023), सार्वजनिक तौर पर अपमानित करना, मुंह काला करना, नंगा करके गांव में घुमाना, दलितों के घर को जलाना(घर जलाने की असंख्य घटनाएं–हरियाणा में गोहाना दलित बस्ती को जलाना, (2005), मिर्चपुर हरियाणा भारत (11अप्रैल2010), झारखंड में मोदीनगर (फरवरी 2017), बिहार में माधोपुरा (अप्रैल 2017), उत्तर प्रदेश में सहारनपुर के शब्बीपुर गांव में राजपूत बनाम दलित विवाद में 25 घरों को जलाना (5 मई 2017), बरेली के महेश्वर गांव में होली के दिन दलितों के घरों को जलाना(2017), तमिलनाडु धर्मपुरी जिला के एक गांव में 268 घरों को जलाना (दिसंबर 2012), इत्यादि चर्चित मामले रहे हैं), स्त्रियों और बालिकाओं का अपहरण, चीरहरण बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, हत्या करना, आत्महत्या करने पर मजबूर होना (रोहित वेमुला आत्महत्या कांड हैदराबाद विश्वविद्यालय (17 जनवरी 2016) तथा डॉ. पायल तडवी (आदिवासी) आत्महत्या कांड मुंबई -महाराष्ट्र (22मई 2019), वीडियो बनाकर वायरल करना, मुंडन व निवस्त्र करके गांव में घुमाना (मेवात हरियाणा), बेकार के लिए बाध्य करना, सार्वजनिक स्थानों, बरात घरों, तालाबों, पानी के घाटों, मंदिरों में प्रवेश व अभिषेक करने से रोकना, वाल्मीकि व रविदास इत्यादि गुरूओं के मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ना, डॉ.भीमराव अंबेडकर की मूर्तियों को तोड़ना, ब्रांडेड जूते व कपड़े पहनने अथवा घड़ी व ऱगींन चश्मा पहनने पर पीटना अथवा जान से मारना, जींस पहनने, मूंछ और दाढ़ी रखने पर पीटना अथवा मारना, मंदिर में प्रसाद देने से मना करना, मंदिर में शादी के समय दूल्हे के द्वारा अथवा विवाहित जोड़े के द्वारा प्रवेश करने पर मना करना, विवाह- शादी में घोड़ी से दूल्हे को उतारना (राजस्थान में 38 लोगों को सन 2021 में घोड़ी से उतारा गया (राजस्थान पत्रिका.कॉम, 23अक्टूबर, 2021,) घोड़ी पर बैठकर बरात का जुलूस निकालने पर रोकना, विवाह-शादी के अवसरों पर डीजे बजाने के कारण दलित को पीटना, गुजरात के एक गांव में एक दलित ने अपनी शादी के निमंत्रण पत्र पर अपने नाम के साथ ‘सिंह’ लिखने पर गुंडों के द्वारा धमकाना, मोटरसाइकिल पर सवार होकर गलियों से गुजरने, गायों की खाल उतारने पर पीटना या जान से मारना (गुजरात में उन्ना तथा हरियाणा में झज्जर जिले में मरी हुई गायों के की खाल को उतारने पर 5 दलितों को मौत के घाट उतारना), स्कूलों में दलित बच्चों को अन्य से अलग पढाना अथवा उनको सामान्य घड़े से पीने के लिए मना करना व पीटना व महिलाओं को नंगा व मुंडन करके गांव में घुमाना (मणिपुर में महिला को निर्वस्त्र घुमाना नवीनतम 2023), पंचायत में भरी सभा में महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार करना, भूतपूर्व राष्ट्रपति श्रीरामनाथ कोविंद के परिवार को तथा वर्तमान राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को मंदिर जाने से रोकना तथा कर्नाटक में एक दलित एमपी को परम्परा की दुहाई दे कर गांव प्रवेश करने से रोकना, कुर्सी पर बैठकर खाना खाने के कारण दलित को पीटना (www.livehindustan 5 अगस्त 2019), दलितों के कुओं में जहर घोलना wwwjansatta.com (6 सितंबर 2021), दलित छात्रों की अलग पहचान के लिए हाथों पर पट्टी बांधना (www.aajtak,com, 19अगस्त 2019), स्कूल में घड़े से पानी पीने पर बच्चों को पीटना (www.aajtak,com अगस्त 2019– राजस्थान के सुराणा गांव स्कूल में पीने के पानी की मटकी छूने के कारण टीचर ने तीसरी कक्षा के नौ साल दलित छात्र इंदर मेघवाल को बुरी तरह पीटा (जुलाई 2023) और बाद उसकी मृत्यु हो गई (अगस्त 2023), दलित वर्ग की महिला के द्वारा बनाए गए मिड डे मील को सामान्य वर्ग के बच्चों के द्वारा खाने से विरोध करना, कार्य स्थलों पर जातिसूचक गालियां इत्यादि सामान्य बात है. केवल यही नहीं बल्कि उच्च शिक्षण संस्थाओं, विश्वविद्यालयों इत्यादि में भी दलित वर्ग के विद्यार्थियों, रिसर्च स्कॉलर तथा प्रोफेसरों से घृणा की जाती है. तमिलनाडु में दलितों को 45 तरह की अस्पृश्यता को झेलना पड़ता है. केवल यही नहीं अपितु धर्म परिवर्तन (ईसाई धर्म) करने के बाद भी दलितों के श्मशान घाट अन्य ईसाइयों से अलग है. यह स्थिति भारत के असंख्य गांवों में है. स्पष्ट है कि जातिवाद के कारण ‘मां के गर्भ’ से लेकर ‘श्मशान घाट’ (मृत्यु की गोद) तक दलित वर्ग को प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है. इस समय बार-बार निरंतर यूनिफॉर्म सिविल कोड का डंका बज रहा है. क्या यूनिफॉर्म सिविल कोड इस भयंकर कलंक को समाप्त कर सकता है ? यह एक यक्ष प्रश्न है.

स्कूल में घड़े से पानी पीने पर बच्चों को पीटने की घटना के संदर्भ में डॉ भीमराव अंबेडकर जब विद्यार्थी थे वह दृष्टांत सामने आ जाता है. भीमराव अंबेडकर ने लिखा है जब वे स्कूल के विद्यार्थी थे तो उनको पानी घड़े को छूने की आज्ञा नहीं थी और स्कूल का चपरासी उनको ऊंचाई से पानी पिलाता था. यदि चपरासी छुट्टी पर होता था तो अंबेडकर को स्कूल में कोई पानी नहीं पीने देता था और वह घर जाकर पानी पीते थे. उन्होंने स्पष्ट लिखा कि ’चपरासी नहीं, पानी नहीं’ (No Peon, No Water).

सन् 1976 में दलितों विरुद्ध 3986 अत्याचार और अपराध 3986 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत हुए. सन् 1989 में यह मामले बढ़कर 14269 हो गए. सन् 1989 में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम सन् 1989 लागू होने के पश्चात दलित अत्याचारों में कमी की अपेक्षा वृद्धि हुई है. भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2000 में दलितों के खिलाफ 25,455 अपराध हुए; यानी हर घंटे दो दलितों पर हमला, हर दिन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार, दो दलितों की हत्या, और दो दलितों के घर जला दिए गए. सन् 2006 से सन् 2016 तक 10 वर्ष के अंतराल में दलितों के विरुद्ध अत्याचारों के 4,22,799 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत किए गए.

केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने सन् 2021 में प्रकाशित राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट का हवाला देते हुए संसद को बताया कि सन् 2018 से सन् 2021 के बीच दलितों के खिलाफ अपराध के 1,89,945 मामले दर्ज किए गए. औसत रूप में प्रतिवर्ष लगभग 47,500 मुकदमे पुलिस थानों में पंजीकृत किए गए. एनसीआरबी रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों के अनुसार, अनुसूचित जाति के खिलाफ अत्याचार/अपराध में 2020 (50,291 मामले) की तुलना में 2021 में 1.2% (50,900) की वृद्धि हुई है।

केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने लोकसभा को बताया कि इन्हीं 4 वर्षों के दौरान 27,754 लोगों को मामलों में दोषी ठहराया गया. 2019 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में केवल 1 साल में 32,033 दलित महिलाओं दलित बच्चियों के साथ कथित उच्च जातियों के गुँडों ने बलात्कार किए. अन्य शब्दों में प्रतिदिन 88 बलात्कार अर्थात हर 20 मिनट में एक बलात्कार पुलिस थाना में पंजीकृत होता है और असंख्य बलात्कार पुलिस थानों में रिपोर्ट पंजीकृत नहीं होते.

यदि बीसवीं शताब्दी में भी अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचारों की खबरें समाचार पत्रों में प्रकाशित होती थी और उनमें अनेक मामले घोर अत्याचार से संबंधित हैं. परंतु वर्तमान शताब्दी में जहां हम सोच रहे हैं कि भारत शक्तिशाली देशों की सूची में महत्वपूर्ण स्थान रखता है .वही सामाजिक व्यवस्था अत्यंत खोखली होती जा रही है. दलितों के विरुद्ध अत्याचारों में कई गुना वृद्धि हुई है .संवैधानिक उपबंधों ,कानूनों और न्यायिक निर्णय के पश्चात धीरे-धीरे दलितों को सुरक्षा तो मिली है परंतु इसके बावजूद भी छोटी-छोटी बातों पर हिंसा, अत्याचार, दमन और शोषण जारी है.

आरक्षण के परिणाम स्वरूप दलित वर्ग के बच्चे पढ़ लिख कर सरकारी नौकरियों में प्रवेश कर गए और उनके रहन-सहन, पोशाक तथा अन्य सुविधाओं में परिवर्तन आया. उनके पास तथाकथित कुछ वर्गों की भांति मोटरसाइकिलें, कारें, बढ़िया मकान, बेहतरीन पोशाक इत्यादिके कारण समाज में सम्मान बढ़ने लगा. परंतु यह तथाकथित उच्च वर्गों को सहन नहीं होता, यही कारण है कि वे छोटी-छोटी बातों पर कुंठित भावना और मानसिक रुग्णता के कारण दलितों पर जानलेवा हमला कर देते हैं तथा उनकी महिलाओं और बच्चियों के साथ मानवीय व्यवहार करते हैं. जातिवादी वर्ण व्यवस्था, दलित विरोधी आपराधिक रुग्ण मानसिकता, नौकरशाही व पुलिस का दलितों व दलित महिलाओं, सामान्य महिलाओं एवं अल्पसंख्यकों के विरुद्ध बढ़ता निरंतर दृष्टिकोण, वर्तमान में मुसलमानों और दलितों के विरुद्ध नफरती के भाषणों में वृद्धि, समाचार पत्रों व राष्ट्रीय मुख्य धारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा दलितों पर होने वाले अत्याचारों को प्रकाशित न करना अथवा अवहेलना करना और उधर दूसरी ओर ‘हेट स्पीच’ देने वाले लोगों के द्वारा मास मीडिया के साधनों का प्रयोग करके नफरत को बढ़ाना, पुलिस के द्वारा केस पंजीकरण करने में आनाकानी करना, शोषक की बजाए पीड़ितों को सताना और शोषण कर्ताओं के विरुद्ध कार्यवाही न करने के कारण दलित विरोधियों का हौसला बढ़ाना, दलित के विरुद्ध अत्याचार अथवा घिनौनी बात करता करने वाले को सजातिय लोगों के द्वारा उसका समर्थन करना, उदाहरण के तौर पर एक ब्राह्मण व्यक्ति के द्वारा अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति के मुंह पर जिला सीधी (मध्य प्रदेश) पेशाब कर दिया. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने पीड़ित को अपने घर बुलाकर उसके पैर धोए और उसके साथ खाना खाने का वीडियो वायरल कर दिया. दूसरे शब्दों में क्या इससे सारे पाप धुल गए और अनुसूचित जनजाति के पीड़ित व्यक्ति को न्याय मिल गया? .यह एक यक्ष प्रश्न है.सभी सुधि पाठकों को यह बताना जरूरी है कि मध्यप्रदेश में आदिवासियों की संख्या 21% है. यहां हर पांचवा थानेदार, हर पांचवा कलेक्टर, हर पांचवा एसपी, हर पांचवा जज ,हर पांचवा विधायक, हर पांचवा सांसद आदिवासी है. इसके बावजूद भी राजनीतिक दलों के द्वारा आदिवासियों को अपमानित करने का सिलसला निरंतर जारी है.

अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज मध्य प्रदेश के अध्यक्ष पुष्पेंद्र मिश्र के द्वारा पेशाब कांड की आलोचना की गई. परंतु 6 जुलाई 2023 अखिल भारतीय ब्राह्मणसमाज मध्य प्रदेश ने एक प्रेस विज्ञप्ति के द्वारा सजातीय ब्राह्मणों से प्रार्थना की गई कि वे पीडित ब्राह्मण परिवार की 51,000रू. देकर सहायता करें. स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि जातिवाद के आधार पर अपराधी सजातिय व्यक्ति की किस तरीके से सहायता की जाती है अथवा केस में बरी होने के बाद या जेल से छूटने के बाद सजातीय व्यक्ति की आलोचना की बजाए उसकी प्रशंसा के पुल बांधे जाते हैं. केवल यही नहीं अपितु राजनीतिक दलों के नेता अथवा समर्थक दलितों के विरुद्ध अत्याचार में फंसते हैं तो शीर्थ नेता चुपी साध लेते हैं और उनको सांप सुंघ जाता है.

सन् 2001 में एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि दलित महिलाओं पर बड़ी संख्या में यौन हमले हुए. परंतु लगभग 5% हमले ही दर्ज किए गए और पुलिस अधिकारी अक्सर कम से कम 30% बलात्कार की शिकायतों को झूठा बताकर खारिज कर दिया. इस रिपोर्ट के अनुसार पुलिस अधिकारी अक्सर रिश्वत की मांगते हैं, पीड़िता के पति की पिटाई करते हैं और गवाहों को सूचित करते हैं, ऊंची जाति के लोगों द्वारा दलितों पर किए गए बलात्कार के इन अपराधों के लिए अक्सर सजा नहीं मिल पाती है.

वैश्विक भूख सूचकांक सन् 2021 के अनुसार 116 देशों की सूची में भारत का 101 वां स्थान है. भारत सरकार के अनुसार 80 करोड से अधिक लोगों को सरकार के द्वारा राशन दिया जाता है. इन सभी को भारत सरकार के द्वारा बीपीएल श्रेणी में सम्मलित गया है. यदि इस दृष्टि से देखा जाए भारत में गरीबी में वृद्धि हुई है. सन 2021 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 33 लाख से अधिक बच्चे कुपोषित हैं. भूख, कुपोषण, बीमारियों स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव, गरीबी के कारण एक सामान्य वर्ग की महिला की अपेक्षा दलित महिला की आयु 15 वर्ष कम है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाओं के विशेष तौर से दलित महिलाओं के अच्छे दिन न थे, न है और न ही निकट भविष्य में आने की संभावना है. खेतों में कृषि कार्य करते हुए महिलाओं के नसों में अकड़न पैदा हो जाती है और उनको अनेक बीमारियां लग जाती है. धान की रोपाई करते समय पैरों में पानी और सिर पर धूप के परिणाम स्वरूप कितनी महिलाओं का गर्भपात होता है इसका अनुमान आज तक नहीं लगाया जा सका. बात यहीं तक सीमित नहीं है अपितु सफाई कर्मी अनेक बीमारियों जैसे से ग्रस्त होते हैं .यही कारण है कि सफाई कर्मचारियों की औसतन आयु लगभग 60 वर्ष है.

गरीब भारत के अमीर विधायक : गरीब और अमीर के मध्य खाई
राज्य विधान सभाओं में प्रति विधायक की औसत संपत्ति 13 .63 करोड है सबसे अमीर विधायक कर्नाटक में हैं. कर्नाटक के 223 विधायकों की प्रति विधायक औसत संपत्ति 64.39 करोड रूपये, आंध्र प्रदेश के 174 विधायकों की करोडऔसत संपत्ति 28.24 करोडरूपये और महाराष्ट्र के 284 विधायकों कीऔसत संपत्ति 23 .51 करोड रूपये हैं. (अमर उजाला 15 जुलाई 2023) गरीब भारत के इन अमीर विधायकों से आम जनता की भूखभरी, गरीबी, शोषण और अत्याचार को समाप्त करने की उम्मीद कम दृष्टिगोचर होती है. यही कारण है कि भारत में गरीब और अमीर के मध्य निरन्तर खाई बढ़ती जा रही है. सन्2022 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 10% अमीर लोगों के पास देश की संपत्ति का 57% है जबकि 50 % आबादी केवल 13% संपत्ति में गुजारा करती है. उधर दूसरी ओर आर.बी आई के अनुसार सन् 2012-13 से लेकर जून 2023 तक सरकारी बैंकों ने अमीरों का 15,31,453 करोड़ रूपए का लोन माफ ( रिटनआफ) किया..जिसे हम बैंकों का मुंडन संस्कार कहते हैं. भारत में बेरोजगारी की स्थिति निरंतर गंभीर होती जा रही है .दिसंबर 2021 तक 53 मिलियन (5 .3 करोड़) बेरोजगार हैं. इनमें 35 मिलियन (3.5 करोड) लोगों को रोजगार की तुरतं आवश्यकता है. इनमें 8 मिलियन महिलाओं की संख्या है. यदि भारतवर्ष एंप्लॉयमेंट रेट स्टैंडर्ड तक पहुंचना चाहता है तो 187.5 मिलियन लोगों को रोजगार देना होगा. तभी लोगों के अच्छे दिन आ सकते हैं. परंतु यह केवल एक ख्वाब नजर आता है.

भारतवर्ष में सामान्य वर्ग की 14 % महिलाओं का भूमि पर मालिकाना हक है जबकि 86% महिलाएं भूमि रहित हैं. दलित वर्ग की महिलाओं की भूमि पर मालिकाना की स्थिति और भी अधिक गंभीर है. केवल 2% दलित महिलाओं का भूमि पर मालिकाना हक है जबकि 98% महिलाएं भूमि रहित हैं. भारत में महिलाओं के लिए भूमि नहीं (No land for women) है. वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2021 के अनुसार भारत में महिलाओं की स्थिति चिंताजनकहै. विश्व रैंकिंग में 156 देशों की सूची में भारत का 140 स्थान है. यदि इसी रफ्तार से महिला सशक्तिकरण होता रहा तो भारत में महिलाओं के अच्छे दिन आने में 135 साल लगेंगे.

भारतीय न्यायपालिका में लंबित केसों की संख्या निरंतर बढ़ जा रही है. फरवरी 2020 में भारत की निचली अदालतों में जजों की संख्या में कमी के कारण 2,91,63,220 मुकदमें लंबित थे. इस समय यह संख्या बढ़कर लगभग 4 करोड़ 12 लाख हो गई है. भारतीय सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों में भी लंबित मुकदमों की संख्या निरंतर बढ़ रही है .फरवरी 2020 में सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में 44, 58,700 मुकदमें लंबित थे. इस समय यह संख्या बढ़कर लगभग 58,88,940 हो गई है. न्यायपालिका प्रणाली में अभूतपूर्व सुधारों के आवश्यकता है.

भारतीय न्याय व्यवस्था में संतुलन स्थापित करने के लिए अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यकों का समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए ताकि लोगों को बिना देरी के न्याय प्राप्त हो सके. संसद के वर्तमान सत्र (जुलाई 2023) में कानून और न्याय मंत्रालय ने संसद में बताया कि पिछले 5 वर्षों सन् 2018 से जुलाई 2023 तक उच्च न्यायालय में 604 न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई इनमें से 458 सामान्य वर्ग, 18 अनुसूचित जाति (S.C), 09 अनुसूचित जनजाति (ST) और 72 अन्यपिछड़े वर्गों (OBC) और 34 न्यायाधीश अल्पसंख्यक वर्गों से हैं. 13 न्यायाधीशों के बारे में वर्गीय जानकारी नहीं है. हमारा अभिमत है कि भारत के उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीशों और न्यायाधीशों की नियुक्ति ‘सामाजिक विविधता’ को ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिए (जनसत्ता ,22 जुलाई, 2023)
संक्षेप में हमारा अभिमत है कि वंचित अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जातियों के संदर्भ में डॉ भीमराव अंबेडकर का दर्शन वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिक है

(नोट – हरियाणा की समस्त वंचित अनुसूचित जातियां एवं वाल्मीकि अंबेडकर एंप्लाइज एसोसिएशन, हरियाणा (रजि). के संयुक्त तत्वाधान में 8 जुलाई 2023 को आयोजित एक दिवसीय शिविर कैडर कैंप (कुरुक्षेत्र) में दिए गए भाषण का संशोधित और नवीनतम आंकड़ो सार)

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