#समाज वीकली
…..एक समय…भगवान ……सम्यक सम्बुद्ध ने अनाथपिण्डिक से कहा~
गृहपति…अन्नदान रूखा-सूखा हो या उत्तम, जब वह अन्नदान श्रद्धा पुर्ण चित्त से, सत्कारपूर्वक, प्रसन्न मन से, शुद्ध चित्त से, अपने हाथ से दिया जाने पर, “यह पुनः लौटेगा” ऐसा सोचकर दिया जाने पर, उस दान का बहुत अच्छा फल प्राप्त होता है ।*
उस दान के परिणामस्वरूप दाता को लंबे समय तक, अनेक जन्मों तक अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, अच्छा यान उपलब्ध होते हैं । अधिक से अधिक पञ्चकामभोग उपलब्ध होते हैं । उसके स्त्री, पुत्र, पौत्र, परिवार जन, नौकर भी धर्म श्रवण में मन लगाते हैं । धर्म को जानने, समझने का प्रयास करते हैं । वह किस लिये ? वह इसलिए कि, श्रद्धा पुर्ण चित्त से, सत्कारपूर्वक, प्रसन्न मन से, शुद्ध चित्त से, अपने हाथ से दिये दान का यही फल होता हैं ।
लेकिन अगर वह अन्नदान अश्रद्धा पुर्ण चित्त से, असत्कारपूर्वक, अप्रसन्न मन से, अशुद्ध चित्त से दिया जाने पर, अपने हाथ से न दिया जानेपर, फेंक कर दिया जाने पर, “यह पुनः लौटकर नहीं आयेगा” ऐसा सोचकर दिया जाने पर, उस दान का बहुत अच्छा फल नहीं प्राप्त होता है ।
*उस दान के परिणामस्वरूप न दाता को अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, अच्छा यान उपलब्ध होते हैं । न उसके स्त्री, पुत्र, पौत्र, परिवार जन, नौकर धर्म श्रवण में मन लगाते हैं । न धर्म को जानने, समझने का प्रयास करते हैं । वह किस लिए, वह इसलिए कि, अश्रद्धा पुर्ण चित्त से, असत्कारपूर्वक, अप्रसन्न मन से, अशुद्ध चित्त से दिये दान का यही फल होता है ।
पहले कभी कोई वेलाम नामक ब्राह्मण हुआ था उसने ऐसा महादान किया था : चौरासी हजार कन्या दान, चांदी से भरी हुई चौरासी हजार सोने की थालीयाँ, सोने से भरी हुई चौरासी हजार चांदी की थालीयाँ, सोने से भरी हुई चौरासी हजार कांस्य की थालीयाँ, विविध स्वर्णालंकारों से मण्डित, सुवर्ण ध्वजा युक्त तथा सुवर्ण जाल निर्मित लवादा से आच्छादित चौरासी हजार हाथी, सिंहचर्म, व्याघ्रचर्म तथा द्वीपचर्म से आवृत्त, विविध
स्वर्णालंकारों से मण्डित, सुवर्ण ध्वजा युक्त तथा सुवर्ण जाल निर्मित लवादा से आच्छादित चौरासी हजार रथ, चौरासी हजार गौएं, चौरासी हजार महल (सभी मुल्यवान सामग्री से संपन्न) दान दिया ।
खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य आदि खाने पीने के पदार्थों की तो कोई कमी ही नहीं थी । मानो उनकी नदीयाँ बह रही हो । इतना बड़ा महा दान किया था ।
गृहपति, वह वेलाम नामक ब्राह्मण कोई और नहीं, बल्कि मैं ही वह वेलाम नामक ब्राह्मण था । मैने ही वह महा दान किया था । उस समय दान से कोई भी वंचित नहीं रह गया था ।
गृहपति, वेलाम ब्राह्मण के उस महा दान से भी अधिक फलप्रद है- किसी सम्यक दृष्टि संपन्न (श्रोतापन्न) एक भिक्षु को श्रद्धा पुर्ण चित्त से एक बार का दिया हुआ भोजन दान ।
100 श्रोतापन्न को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है एक सकृदागामी को एक समय का भोजन दान ।
100 सकृदागामी को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है एक अनागामी को एक समय का भोजन दान ।
100 अनागामी को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है एक अरहंत को एक समय का भोजन दान ।
100 अरहंत को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है एक पच्चेकबुद्ध को एक समय का भोजन दान ।
100 पच्चेक बुद्धों को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है एक सम्यक सम्बुद्ध
को एक समय का भोजन दान ।
सम्यक संबुद्ध को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को भोजन दान ।
बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को दिए भोजन दान से भी 100 गुना अधिक फलप्रद है, सभी दिशाओं के भिक्षु संघ के लिए बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को दिया हुआ विहार का दान ।
बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को दिए विहार दान से भी अधिक फलप्रद है- पांच शीलोंका का दृढ़ता से पालन करते हुए सदा के लिए बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति समर्पित होना ।
उससे भी अधिक फलप्रद है गंधमात्र भी मंगल मैत्री की भावना करना ।
उस से भी अधिक फलप्रद है चुटकी बजाने जितने समय के लिए भी या पलक झपके इतने समय के लिए भी अनित्य-संज्ञा की भावना करें तो । (अनित्यबोध हो तो ।)
वेलाम सुत-नवं निपात -अंगुत्तर निकाय
विपुल दान बल से आयुष्य-आरोग्य की प्राप्ति~
एक समय दो व्यक्ति – जो जरा-जीर्ण थे, बूढ़े थे, जिनकी आयु बहुत थी, जो वयः-प्राप्त थे, जो एक सौ बीस वर्ष के थे- भगवान के पास गये । जाकर भगवान को प्रणाम कर एक ओर बैठे। उन वृद्धो ने भगवान को यह कहा -~
“हे गौतम! हम वृद्ध हैं, बूढ़े हैं, जरा-जीर्ण हैं, हमारी आयु बहुत है, हम वयः-प्राप्त हैं, हम एक सौ बीस वर्ष के हैं। तो भी हमने शुभ-कर्म नहीं किये हैं। कुशल-कर्म नहीं किये हैं जो हम भयभीतों की शरण हो । आप गौतम हमें उपदेश दें। आप गौतम हमारा अनुशासन करें जो दीर्घकाल तक हमारे हित और सुख के लिए हो ।
”हे उपासकों ! तुम सचमुच जरा-जीर्ण हो, वृद्ध हो, बूढ़े हो, तुम्हारी आयु बहुत है, तुम वयः-प्राप्त हो, तुम एक सौ बीस वर्ष के हो। तो भी तुमने शुभ-कर्म नहीं किये हैं। कुशल-कर्म नहीं किये हैं जो हम भयभीतों की शरण हो।
हे उपासकों ! यह संसार जरा, व्याधि, मरण से जल रहा है। इस प्रकार जरा, व्याधि तथा मरण से आदीप्त (जलते) संसार में जो यह शरीर, वाणी, तथा मन का संयम है वही उस परलोक-प्राप्त व्यक्ति का त्राण है, वही आश्रय-स्थान है, वही द्वीप है, वही शरण-स्थान है, वही सहारा है।”
“आदित्तस्मिं अगारस्मिं, यं नीहरति भाजनं ।
तं तस्स होति अत्थाय, नो च यं तत्थ डय्हति ॥
“एवं आदित्तो खो लोको, जराय मरणेन च।
नीहरेथेव दानेन, दिन्नं होति सुनीहतं ॥”
अर्थात~घर में आग लगी हो तो जो सामान उस आग में से बचा लिया जाता है, वही काम आता है। जो सामान आग में जल जाता है, वह काम नहीं आता। इसी प्रकार यह संसार जरा तथा मरण से जल रहा है। इसमें से दान देकर जो निकाला जा सके, निकाल ले। जो दिया उतना ही अच्छी तरह बचाया गया है।
“योध कायेन संयमो, वाचाय उद चेतसा।
तं तस्स पेतस्स सुखाय होति.
यं जीवमानो पकरोति पुञ्ञ”न्ति॥”
अर्थात~ जो यहां शरीर, वाणी तथा मन का संयम है, तथा जीते-जी वह जो पुण्य कर्म करता है वह उस व्यक्ति के लिए परलोक प्राप्त होने पर सुख का कारण होता है।”
सब का मँगल हो