दयाल सिंह मजीठिया -एक युग पुरुष, युगदूत एवं युगदृता : एक समीक्षा

दयाल सिंह मजीठिया -एक युग पुरुष, युगदूत एवं युगदृता : एक समीक्षा

#समाज वीकली यूके

डॉ. रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिकपूर्व प्राचार्यदयाल सिंह कॉलेजकरनाल (हरियाणा-भारत)
ईमेल. [email protected]

सरदार दयाल सिंह मजीठिया (सन्1848-सन्1898) पंजाब के मजीठा गांव का महान सपूत दयाल सिंह एक महान दानवीर, राष्ट्र नायक तथा समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, उदारवाद और मानवता के प्रेमी, संपादक, पत्रकार, शिक्षाविद्, अर्थशास्त्री, दानवीर, प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता, लेखक, ब्रह्मो समाजी,तर्कशील्, ओजस्वी वक्ता, धर्मनिरपेक्ष उदारवादी राष्ट्रवादी नेता व एक आदर्श व्यक्तित्व के धनी थे. वास्तव में वे एक प्रतिभावान युग पुरुष, युगदूत एवं युगदृता, महान दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाज सेवी थे. चुंबकीय व्यक्तित्व और महान गुणों के कारण उनका नाम तत्कालीन समय में और आज भी लाहौर (अब पाकिस्तान) से लेकर कलकत्ता (अब कोलकाता– पश्चिम बंगाल) तक बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है.  दयाल सिंह अपने पीछे ऐसी विरासत छोड़ गए हैं जिस  के बारे में हर व्यक्ति को गर्व होता है. वह ‘राजा कर्ण’ तथा ‘भामाशाह’ की भांति आधुनिक युग के दानवीर थे. अंततः बी. के. नेहरू के मतानुसार दयाल सिंह ने उत्तर भारत को अज्ञानता के अंधेरे से आधुनिकता के प्रकाश की ओर ले जाने की दिशा में वही कार्य किया जो ब्रह्मो समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय ने बंगाल में 19वीं शताब्दी के प्रथम वर्षों में किया था. राजा राममोहन राय को ‘भारतीय पुनर्जागरण एवं राष्ट्रवाद का अग्रदूत’ माना.

पारिवारिक पृष्ठभूमि:

मजीठिया परिवार महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में पंजाब के प्रमुख कुलीन परिवारों में से एक था. दयालसिहं के परदादा सरदार नोध सिंह, दादा देसा सिंहऔर पिता सरदार लहना सिंह महाराजा रणजीत सिंह की सेना के सर्वश्रेष्ठ जरनलों की श्रेणी में आते थे तथा महाराजा रणजीत सिंह के प्रमुख सलाहकार व अत्याधिक विश्वासपात्र, सर्वाधिक निकटतम प्रशासनिक और सैनिक अधिकारी थे. दयाल सिंह के परदादा सरदार नोध सिंह – एक प्रमुख ज़मींदार थे, जिन्होंने अमर सिंह भागा की बहन के साथ वैवाहिक संबंध बनाकर अपनी शक्ति को कई गुना बढ़ा लिया था. अमर सिंह भागा धर्मकोट – भागा के सामंत थे.

स.नोध सिंह की मृत्यु सन्1788 में हुई. कांगड़ा अभियान के दौरान, भागा सरदार महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं को आपूर्ति प्रदान करने में विफल रहे. स. नोध सिंह के इकलौते बेटे स. देसा सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह का साथ दिया, जिन्होंने उन्हें भागा एस्टेट का एक हिस्सा दिया. भागा एस्टेट स. देसा सिंह के करीबी रिश्तेदार भागा सरदार के नियंत्रण में था

स. देसा सिंह महाराजा रणजीत सिंह की सेना में एक जनरल थे. उनके दादा देसा सिंह महाराजा रणजीत सिंह के ‘खालसा साम्राज्य’के प्रति वफादार और समर्पित थे. देसा सिंह की प्रशासनिक  निपुणता एवं वफादारी के परिणाम स्वरूप उनको सुकलगढ़ व भागोवाल जागीर के रूप में भेंट कर दिए थे और उन्हें अमृतसर शहर और उसके आसपास की पहाड़ी रियासतों – मंडी और साकेत का गवर्नर बनाया गया था. इसके अलावा उनको सिख धर्म के सर्वोच्च धार्मिक पवित्र गुरुद्वारा’ हरमंदिर साहिब’ (Golden Temple) का सिविल प्रशासक भी नियुक्त किया गया.  देसा सिंह की अत्यधिक भक्ति, निष्ठा और विभिन्न सैन्य अभियानों में महाराजा रणजीत सिंह के साथ रहने के कारण उन्हें ‘कासिर-उल-इक्तिदार’ (उच्च पद का प्रमुख  — Chief of Exaulted Dignity) की उपाधि से सम्मानित किया गया था. देसा सिंह की मृत्यु सन् 1832 में हुई .

स. देसा सिंह के तीन बेटे थे- लहना सिंह, गुज्जर सिंह और रणजोध सिंह थे. परंतु लहना सिंह स. देसा सिंह के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण उनकी सभी संपत्तियों एवं सम्मान के उत्तराधिकारी बने. दयाल सिंह के पिता स. लहना सिंह अपने पिता की स.देसासिहं की भांति एक सुयोग्य प्रशासक, उदारवादी एवं अति बुद्धिमान व्यक्ति थे. अपने पिता की मृत्यु से पहले ही स. लहना सिंह ने मुल्तान में महाराजा रणजीत सिंह के सैन्य अभियान (सन्1818) में भाग लिया था। देसा सिंह की मृत्यु के बाद लहना सिंह को कांगड़ा और पहाड़ी क्षेत्र तथा छोटी रियासतों का नाज़िम (गवर्नर)बनाया गया. महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य के प्रशासनिक और सैन्य क्षेत्रों में सेवा करते थे. महाराजा रणजीत सिंह सरदार लहना सिंह की सेवाओं से प्रभावित हुए और उन्हें इतनी संपत्ति दान कर दी जिसकी वार्षिक आय ₹ 1,25,000 थी. लहना सिंह को महाराजा रणजीत सिंह ने ‘हिसान उद्दौला ‘ (राज्य की तलवार –The Sword of the State) की उपाधि से सम्मानित किया था. स. लहना सिंह अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध थे. यही कारण है कि उन्होंने ‘काउंसिल ऑफ रिजेंसी’ (The Council of Regency )से संबंधित होने से इन्कार कर दिया था. उस समय पंजाब में राजनीतिक स्थिति अच्छी नहीं थी. क्योंकि पंजाब ब्रिटिश साम्राज्यवाद का हिस्सा बन चुका था और महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य खत्म होने वाला था. महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद जब शाही दरबार में उनका प्रभाव कम होने लगा और उनके विरुद्ध राज दरबार में षडयंत्र होने लगे तो उन्होंने 14 जनवरी 1848 को हमेशा के लिए पंजाब छोड़ दिया और बनारस में जाकर बस गए. उस समय उनके पास करोड़ों रुपए का सोना चांदी एवं एवं हीरे जवाहरात थे तथा उनकी सुरक्षा हेतु लगभग 200 सशस्त्र व्यक्ति तैनात रहते थे. स. लहना सिंह ने बनारस (काशी) में काफी धन रियल एस्टेट में लगाया और अकूत संपत्ति अर्जित की.

दयाल सिंह : जन्म से युवा काल तक (सन् 1848—सन् 1876)

दयाल सिंह का जन्म सन् 1848 में बनारस (अब उत्तर प्रदेश) में हुआ था. उनके जन्म दिन का अधिकारिक रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है.पंजाब में जाति अथवा उप-जाति की अपेक्षा पैतृक गांव को उपनाम से जोड़ने की प्रथा सदियों पुरानी है. दयाल सिंह का पैतृक गांव मजीठा (अमृतसर -पंजाब) है. इसलिए उन्होंने अपने नाम के साथ उप-जाति की अपेक्षा “मजीठिया” उपनाम जोड़ने को कही अधिक अच्छा समझा. दयाल सिंह का रक्त संबंध जट सिख जाति के ‘शेरगिल’ गोत्र से था .इसका उप गोत्र ‘गिल’ है. हरियाणा, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय अथवा जट सिख समुदाय के ‘गिल’ गोत्र के लोगों की संख्या काफी अधिक है .

दयाल सिंह के बारे में भविष्यवाणी करते हुए उनके पिता ने कहा था कि वे ‘नए युग के संदेशवाहक’ होंगे. जब वह 6 साल का शिशु था तब उसने अपने माता-पिता को खो दिया. परिणाम स्वरूप दयाल सिंह को राजा तेजासिंह के संरक्षण में रखा गया तथा उनकी संपत्ति का प्रबंध ‘कोर्ट ऑफ़ वार्डज़. (Court of Wards) के द्वारा किया गया.मजीठिया परिवार ने बनारस छोड़ दिया और अपने पैतृक गांव मजीठा में आकर रहने लगे.

 (डॉ. रामजीलालयुगदूत थे, स. दयाल सिंह मजीठियाविश्व मानवकरनाल, 9 सितम्बर 1988, पृ. 5)

दयाल सिंह की प्रारंभिक शिक्षा क्रिश्चियन मिशन स्कूल, अमृतसर (पंजाब) में हुई. इसके पश्चात उन्होंने भारत में ही स्व: शिक्षा (Self-Education) प्राप्त की.  उच्च शिक्षा के लिए वे इंग्लैण्ड गए. जब दयाल सिंह ने इंग्लैण्ड जाने का निर्णय लिया तो यह एक षडयंत्र की तरह हो गया, क्योंकि उस समय पंजाब में रूढ़िवादिता, अज्ञानता, अंधविश्वास आदि बुराइयां व्याप्त थीं. उनके रिश्तेदारों और यहां तक कि उनकी युवा और सुंदर जीवन साथी ने भी इसका विरोध किया. लेकिन दयाल सिंह ने विरोध की परवाह नहीं की और सन् 1874 में इंग्लैण्ड चले गए. सुधी पाठकों को यह बताना जरूरी है कि इंग्लैण्ड जाने वाला वह दूसरा पंजाबी युवक था. प्रथम पंजाबी दिलीप सिंह था. इंग्लैण्ड में दो वर्ष (सन् 1874- सन् 1876) रहने के बाद वह स्नातक की उपाधि प्राप्त किए बिना ही सन् 1876 में स्वदेश लौट आए.

दयाल सिंह उदारवादी चिंतन के स्रोत:

उनके उदारवादी चिंतन के स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:

1.प्राथमिक स्रोत:

 एक लेखक के लिए भाषा और लेखन शैली  पर पकड़ होनी चाहिए. दयाल सिंह अंग्रेजी व उर्दू भाषा के माहिर थे. उनके चिंतन के मौलिक  स्त्रोतों में उनके द्वारा द ट्रिब्यून में लिखे गए लेख  व पुस्तके हैं. दयाल सिंह ने 2 फरवरी 1881 को द ट्रिब्यून की स्थापना लाहौर की थी. धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी विचारधारा की एक झलक उनके द्वारा “द ट्रिब्यून’ (The Tribune) में प्रकाशित लेखों(Articles), संपादकीय अग्रलेखों (Editorials) के अतिरिक्त सन् 1895 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘राष्ट्रवाद’ (Nationalism) से भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है. उन्होंने सुन्नी मुसलमान जिसने ईसाई धर्म को अंगीकृत किया था तथा इस्लाम धर्म के मुल्ला के मध्य धार्मिक बहस पर लिखे गए खतों (Letters) को 115 पृष्ठ की पुस्तक नगमा-ए- तम्बूरी (Naghma-i-Tamboori) सन्1871 में दयाल सिंह ने स्वयं संपादित की थी दयाल सिंह एक अच्छे कवि भी थे तथा वह कविताएं ‘मशरीक’ (Mashriq) छद्म नाम से लिखते थे.इन कविताओं में उनके केवल साहित्य प्रेमी होने का प्रमाण ही नहीं है अपिुत उनके उदारवादी  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चिंतन की स्पष्ट झलक दिखाई देती है. ‘’द लास्ट विल और टेस्टामेंट का सरदार दयाल सिंह मजीठिया, 15 जून 1895’’ (The Last Will and Testament of Sirdar Dyal Singh Majeethia, 15 जून 1895) जिसमें  ट्रस्टों की स्थापना की गई है,उनके चिंतन का स्रोत माना जा सकता है. केवल यही नहीं अपितु लाहौर के अधिवेशन सन् 1893 में स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में उद्बोधन (जिसका उद्बोधन लाला हरिकृष्ण लाल के द्वारा किया गया) में धर्मनिरपेक्षवादी, उदारवादी और राष्ट्रवादी चिंतन का सर्वोत्तम स्रोत माना जा सकता है.

( दयाल सिंह मजीठिया, भारत को निराशा के भंवर से निकाला जाए’’, दैनिक ट्रिब्यून, सितंबर 2001, पृ. 7)

2. द्वितीयक स्रोत :

तत्कालीन नेताओं –सुरेंद्रनाथ बनर्जी, सर सैयद अहमद खान व लाला हरिकिशनलाल के सिंह के संबंध में विचार उल्लेखनीय स्रोत हैं. दयाल सिंह के व्यक्तित्व, चिंतन तथा विरासत इत्यादि के संबंध में समय-समय पर द ट्रिब्यून ( चंडीगढ़) में विभिन्न विद्वानों के लेख प्रकाशित हुए हैं. इन विद्वानों में प्रेम नाथ कृपाल. कृपाल सिंह, बीके नेहरू, वीएन दत्ता, प्रकाश टंडन, सुमेल सिंह सिद्धू , मदन गोपाल, जस्टिस दिलीप. के. कपूर इत्यादि के नाम उल्लेखनीय है. समय-समय पर दैनिक ट्रिब्यून तथा पंजाबी ट्रिब्यून में लेख प्रकाशित लेख व संपादकीय भी द्वितीयक स्रोत हैं .इनके अतिरिक्त डॉ. रामजीलाल, डॉ. नीना पुरी तथा अन्य विद्वानों के लेख भी सम्मिलित है.

डॉ. रामजीलाल के लेख डायमंड जुबली –( करनाल, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल, 1986),  विश्व मानव (करनाल, 9 सितंबर 1988), सजग समाज (करनाल: सितंबर 2016),  समाज वीकली यूके, (सितंबर 2024)  तथा सत्य केसरी, करनाल( सितंबर 2024) में प्रकाशित लेख भी महत्वपूर्ण स्रोत है.

दयाल सिंह: एक समाज सुधारक के रूप में:

19वीं शताब्दी में भारतीय समाज में अज्ञानता, अनपढ़ता तथा मनुवादी एवं ब्राह्मणवादी संस्कृति एवं सोच के कारण वर्णवाद ( ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य एवं शुद्ध), जातिवाद, अस्पृश्यता, धर्मांधता, सती प्रथा, मूर्ति पूजा, बाल विवाह, बहु -पत्नी विवाह, विधवा विवाह न होना, महिलाओं को पुरुषवादी सोच के कारण उपभोग की वस्तु समझना, संप्रदायवाद, आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन इत्यादि असंख्य समस्याएं विद्यमान थी. विधवा पुनर्विवाह ना होने कारण बाल विधवाओं की संख्या बहुत अधिक थी तथा उनका जीवन नारकीय था. दयाल सिंह ने इन बुराइयों का विरोध करने का दृढ़ निश्चय किया. जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं कि दयाल सिंह के चिंतन के पर सर्वाधिक प्रभाव राजा राममोहन राय (1772-1833) के चिंतन का पड़ा. राजा राममोहन राय ‘भारतीय  पुनर्जागरण, भारतीय राष्ट्रवाद, महिला उत्थान तथा महिला सशक्तिकरण के अग्रदूत ‘ माने जाते हैं. राजा राममोहन राय ने समाज सुधारक के रूप में ब्रह्मो समाज की सन् 1828 में स्थापना की. बहुदेववादी धर्म, मूर्ति पूजा, ईश्वरीय अवतारवाद, जाति व्यवस्था, बाल विवाह, बहु- पत्नी विवाह इत्यादि के विरुद्ध प्रचार किया. ब्रह्मो समाज का  ‘दीर्घकालिक उद्देश्य ‘ हिंदू धर्म को शुद्ध करना और एकेश्वरवाद’ प्राप्त करना था.

(डॉ.रामजीलाल – सरदार दयाल सिंह मजीठिया के विराट चिंतन पर प्रभाव: एक संक्षिप्त विश्लेषण

 https://samajweekly.com/the-great-thoughts-of-sardar-dayal-singh-majithia/)

बंगाल में ब्रह्मो समाज में समाज सुधार के क्षेत्र में सती प्रथा के विरुद्ध अभूतपूर्व जनमत तैयार किया और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन द्वारा सती प्रथा को अवैध घोषित किया गया. दयाल सिंह के जीवन चिंतन और कृतियों पर राजा राममोहन राय तथा ब्रह्मो समाज का इतना प्रभाव पड़ा कि वह स्वयं ब्रह्मो समाजी हो गए और समाज सुधारक के रूप में कार्य करने लगे. दयाल सिंह ने उत्तर- पश्चिमी भारत विशेषतया पंजाब व पंजाबियों को रूढ़िवादी मानसिकता और अंधविश्वासों से मुक्त करने के लिए राजा राममोहन राय के लेखों को उर्दू में अनुवाद किया और अनुवादित पुस्तिकाओं और अनुवादित लेख पर्चों के रूप में जनता में मुफ्त वितरित किए गए. परिणाम स्वरुप सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में दयाल सिंह के चर्चे होने लगे. ब्रह्मो समाज के रूप में दयाल सिंह ने समाज सुधार के क्षेत्र में संयुक्त पंजाब में वही काम किया जो उत्तरी भारत में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती तथा बंगाल में राजा राम मोहन राय ने किया. यही कारण है कि उनको अभिजन वर्ग के लोग लाहौर से कोलकाता तक जानने लगे. जब सन् 1880 में दयाल सिंह कोलकाता पहुंचे तो उनका भव्य स्वागत किया गया जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी. इस  भव्य स्वागत व मान – सम्मान का उनके दिल और दिमाग पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने साधारण ब्रह्मो समाज( Sadharan Brahmo Samaj). मंदिर कोलकाता के निर्माण हेतु काफी मात्रा में धन दिया और वह इसके संरक्षक (ट्रस्टी) बन गए. संक्षेप में दयाल सिंह का नाम लाहौर से लेकर कोलकाता तक सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र में प्रसिद्ध हो गया. समाज सुधार के लिए दयाल सिंह के द्वारा ‘द ट्रिब्यून’ समाचार पत्र की स्थापना की गई. केवल यही नहीं अपितु शिक्षा के माध्यम से भी उन्होंने समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया.

एक उदारवादी नेता के रूप में:

दयाल सिंह मजीठिया न केवल एक समाज सुधारक थे बल्कि तत्कालीन भारतीय राजनीति और उदारवादी राष्ट्रीय आंदोलन में भी उनकी गहरी रुचि थी. इंग्लैंड के उदार राजनीतिक माहौल और इंग्लैंड में प्राप्त उदार शिक्षा का दयाल सिंह की सोच पर बहुत प्रभाव पड़ा. भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना 72 (इनमें 54 हिंदू, 2 मुस्लिम और बाकी जैन व पारसी) प्रतिनिधियों की उपस्थिति के साथ 28 दिसम्बर 1885 को बम्बई (अब मुम्बई) के गोकुल दास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में हुई थी. इसके मुख्य संस्थापकों में व्योमेश चन्द्र बनर्जी (प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष),  सर ए. ओ. ह्यूम (संस्थापक महासचिव -जनरल सेक्रेटरी), दादाभाई नौरोजी (Grand old man of India), दिनशॉ वाचा, विलियम वेडरबर्न, फिरोजशाह मेहता आदि उदारवादी नेता थे.

यह उदारवादी राष्ट्रवादी आंदोलन का युग था.भारतीय कांग्रेस पार्टी को समकालीन उदारवादी अभिजात्यवर्ग का समर्थन, सहयोग व नेतृत्व प्राप्त था. उस समय कांग्रेस पार्टी का मुख्य उद्देश्य प्रशासनिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सुधार करना था. दयाल सिंह अन्य तत्कालीन उदारवादियों की तरह ब्रिटिश साम्राज्य को भारतीयों के लिए वरदान मानते थे. मुख्यत: वे इस बात पर बल देते थे कि भारत का प्रशासन उन्ही सिद्धांतों व नियमों के  आधार पर चलाया जिनके आधार पर इंग्लैंड की राजनीतिक व्यवस्था को चलाया जाता है.

 (डॉ. रामजीलाल – सरदार दयाल सिंह मजीठिया के विराट चिंतन पर प्रभाव: एक संक्षिप्त विश्लेषण, करनालकरनाल केसरी, 12 सितंबर 2024, पृ. 3)

 लाहौर में रहते हुए सरदार दयाल सिंह ने भारत के सुप्रसिद्ध उदारवादी नेताओं– सुरेंद्रनाथ बनर्जी, दादा भाई नौरोजी, आरसी दत्त, जस्टिस रानाडे इत्यादि से संपर्क स्थापित किया.  इसी  संपर्क  के कारण इन महान उदारवादी नेताओं  के  चिंतन का का उनके विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ा, इस संपर्क के परिणाम स्वरूप उसका दृष्टिकोण भारत के अन्य उदारवादियों की भांति विस्तृत होता चला गया. यही कारण है कि वह भारत में ब्रिटिश नौकरशाही के प्रमुख आलोचक भी थे. दयाल सिंह ने सरकार के विरोध के बावजूद सन् 1888 में इलाहाबाद कांग्रेस में भाग लिया और अपने विचार प्रकट किये. उनके करिश्मावादी व विराट व्यक्तित्व, ओजस्वी वक्ता और प्रभावशाली नेतृत्व व विचारों के कारण ही उनको लाहौर कांग्रेस  (सन् 1893) की स्वागत समिति का अध्यक्ष बनाया गया. यह उनके राजनीतिक जीवन की चरम सीमा थी. लाहौर अधिवेशन  (सन् 1893) में स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में दयाल सिंह ने जो भाषण तैयार किया था वह उनके उदारवादी चिंतन के सर्वोत्तम कृति मानी जाती है. संधिवात (Arthritis )से पीड़ित होने के कारण वे मंच पर मौजूद थे परंतु उनके भाषण का उद्बोधन लाला हरिकृष्ण लाल के द्वारा किया गया. दयाल सिंह ने अर्थव्यवस्था के ‘मांग और पूर्ति के सिद्धांत’ को राजनीतिक व्यवस्था, धर्म और आध्यात्मिकता पर भी लागू किया है.

दयाल सिंह के अनुसार विश्व के तमाम सभ्य राष्ट्रों का संविधान इस बात की अनुमति प्रदान करता है कि शासन के शीर्षथ अधिकारी हर न्याय संगत आग्रह पर विचार करें. परंतु ब्रिटिश सरकार के द्वारा भारत के संबंध में इस संवैधानिक मामले में पक्षपात पूर्ण रवैया क्यों अपनाया जाता है?  उन्होंने स्पष्ट लिखा: ‘कांग्रेस को राजद्रोही और निष्ठाहीन कहा जाता है, इसलिए नहीं कि यह संस्था ब्रिटिश राज की स्थापना की अवधारणा पर प्रहार करती है बल्कि इसलिए यह भारतीयों के अधिकारों की रक्षा और अन्याय के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार, ब्रिटिश संसद, ब्रिटिश जनता और न्याय व्यवस्था के समक्ष आवाज बुलंद करती रहती है.” उन्होंने आगे लिखा: “कांग्रेस भारतीय जन मानस के हितों से जुड़े मुद्दे को सार्थक परिणीति तक पहुंचाने के लिए कृत्संकल्प है. यह लोकहित के मामले को ब्रिटिश में न्याय व्यवस्था और जन मानस के समक्ष प्रस्तुत करके उनके निराकरण का कारगर प्रयास करती है अन्यथा भारत में शासन व्यवस्था की  खामियों के चलते इनमें सुधार संभव नहीं है. तो फिर इस प्रक्रिया में गलत व असभाविक क्या है. मांग और पूर्ति का सिद्धांत अर्थव्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था पर भी समान रूप से लागू होता है. यह कहा जाता है कि मांग ही पूर्ति को  संचालित करती है, मनुष्य के लिए यह बात नैसर्गिक रूप में लागू होती है जब किसी चीज को जरूर जब किसी चीज  की जरूरत महसूस होती है, तभी उसकी पूर्ति होती है”. उनका मानना था कि एक  धार्मिक व्यक्ति भी इस तथ्य को स्वीकारता है कि ईश्वर से मांगने पर ही कुछ मिलता है यानी मांग और पूर्ति का सिद्धांत क्रियान्वित होता है.हजरत मोहम्मद के विचारों को उद्धृत करते हुए उन्होंने लिखा ‘’मांगो तुम्हें मिलेगा, तलाश करो तुम्हें प्राप्त होगा, द्वार खटखटाओ तो द्वार खुल जाएगा.’’ ब्रिटिश सरकार से अपील करते हुए उन्होंने कहा, ‘हमें हमारे न्यायोचित अधिकार दीजिए, हमारी उचित मांगें मान लीजिए, समानता और सद्भावना के सिद्धांतों पर हमारा शासन कीजिए और जनता की इच्छा के आधार पर साम्राज्य को मजबूत बनाइए.’

(Dr. Ramjilal , ‘The founder’, Souvenir-Dimond Jubilee, Karnal, Dyai Singh College, Karnal, 1986, P. 1-6)

दयाल सिंह : शिक्षाविद के रूप में:

दयाल सिंह मजीठिया ने समाज में फैले अज्ञानता रूपी अंधेरे को दूर करने के लिए तीन ट्रस्टों— ट्रिब्यून ट्रस्ट, कॉलेज ट्रस्ट एवं लाइब्रेरी ट्रस्ट की स्थापना की. दयाल सिंह मजीठिया के अनथक प्रयासों के कारण पंजाब यूनिवर्सिटीलाहौर की स्थापना सन् 1882 में हुई. कोलकातामद्रासमुंबई तथा लंदन के विश्वविद्यालयों की तर्ज पर पंजाब विश्वविद्यालय की स्थापना और संचालन होना चाहिए. इस आशय को लेकर दयाल सिंह ने लगभग 20 लेख लिखे तथा एक जन आंदोलन खड़ा कर दिया. उनके प्रयासों के कारण अंग्रेजी भाषा को पंजाब विश्वविद्यालय में शिक्षा का माध्यम बनाया गयावह अंग्रेजी भाषा को व्यक्तिशिक्षासमाजराष्ट्र और मानवता के विकास की कुंजी मानते थे.

दयाल सिंह कॉलेज ट्रस्ट सोसायटी के द्वारा दयाल सिंह मजीठिया की वसीयत के अनुच्छेद 8 के निर्देश अनुसार वर्ष 1910 में दयाल सिंह कॉलेज, लाहौर की स्थापना की गई. इस समय यह राजकीय दयाल सिंह कॉलेज, लाहौर के नाम से जाना जाता है और पाकिस्तान के सर्वोत्तम महाविद्यालयों की श्रेणी में है. उन्होंने लाहौर में सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना की. इस समय भी दयाल सिंह पब्लिक लाइब्रेरी लाहौर में है.

15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई. दयाल सिंह कॉलेज ट्रस्ट सोसाइटी की अधिकांश संपत्ति लाहौर में रह गई थी. इसके बावजूद भी दयाल सिंह की विरासत, वसीयत और विचारधारा को निष्ठा पूर्ण तरीके से आगे बढ़ते हुए 16 सितंबर 1949 को दयाल सिंह कॉलेज, करनाल की स्थापना की गई. इस समय कॉलेज के अतिरिक्त चार सीनियर सेकेंडरी स्कूलों की स्थापना करनाल, पानीपत और जगाधरी में की गई है .

दयाल सिंह की वसीयत व विरासत को आगे बढ़ाने के लिए भारत विभाजन के पश्चात ट्रस्ट के द्वारा दयाल सिंह सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना सन् 1954 -55 में जनता के लिए की गई. दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर स्थित यह पब्लिक लाइब्रेरी विद्यार्थियों, शोधार्थियों व सामान्य अघ्येताओं के लिए देहली की सर्वोत्तम  लाइब्रेरी मानी जाती है. सन् 1958 में भारत की राजधानी दिल्ली, लोधी रोड पर ट्रस्ट के द्वारा दयाल सिंह इवनिंग कॉलेज, दिल्ली की स्थापना भी की गई परंतु यह अब ट्रस्ट के अधीन ट्रस्ट सोसायटी के अधीन नहीं है.

(डॉ.रामजीलाल – दयाल सिंह मजीठिया युगदूत एवं दूरदृष्टा शिक्षाविद: एक विश्लेषण/https://samajweekly.com/dayal-singh-majithia-a-visionary-educationist)

एक अर्थशास्त्री के रूप में :

दयाल सिंह मजीठिया एक सफल अर्थशास्त्री एवं व्यापारी भी थे. उन्होंने अपनी पूंजी को ‘सूरा और सुंदरी’ तथा अन्य विलासिताओं पर खर्च नहीं किया जो प्राय: अमीर एवं कुलीन परिवारों के नौजवान करते थे और आज भी करते हैं.  अपने पिता स. लहना सिंह के पदचिन्हों पर चलते हुए उन्होंने अपनी संपत्ति को बढ़ाने के लिए हीरे-जवाहरात (Diamond – Jewels) का व्यापार किया  व रियल एस्टेट (Real Estate) में पैसा लगा कर धन संचित किया ताकि समाज के कल्याण के लिए काम आ सके. सन् 1893 में दयाल सिंह की कुल संपत्ति 30 लाख रुपए थी जो कि टाटा हाउस के सर दोराबजी टाटा से 7 लाख रुपए अधिक थी.

सन् 1898 (मृत्यु के समय) उनकी कुल 26 मुख्य संपत्तियां – लाहौर, कराची, अमृतसर गुरदासपुर जिलों में बिल्डिंगस, प्लाटस व उपजाऊ भूमि के रूप में थी. इन संपत्तियों का प्रबंध दयाल सिंह ट्रस्ट सोसाइटी, लाहौर के द्वारा किया गया.

एक अर्थशास्त्री एवं  व्यावसायिक के रूप में दयाल सिंह विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों की भांति “मांग एवं पूर्ति के सिद्धांत” (Principle of  Demand and Supply) के समर्थक थे .उन्होंने इस सिद्धांत को आर्थिक क्षेत्र के अतिरिक्त,  धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, और शैक्षणिक क्षेत्र में भी मूल सिद्धांत माना है. एक सफल व्यावसायिक के साथ- साथ दयाल सिंह एक सफल बैंकर भी थे. उनके प्रयासों के परिणाम स्वरुप विशुद्ध भारतीय पूंजी के आधार पर भारतवर्ष के प्रथम स्वदेशी बैंक – पंजाब नेशनल बैंक की स्थापना 23 मई 1894 को हुई. इसका कार्यालय अनारकली बाजार लाहौर( अब पाकिस्तान) में था. दयाल सिंह को भारतवर्ष के इस प्रथम स्वदेशी बैंक का कार्यकारी अध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त है. इस बैंक में इनका शेयर 25% था तथा इस समय इसकी शाखाएं समस्त भारत में है. इस की गणना विश्व के प्रमुख बैंकों में होती है. भारतवर्ष में यह सबसे बड़े सरकारी वाणिज्य बैंकों की श्रेणी में आता है. संक्षेप में भारतीय बैंकिंग के स्वदेशी आंदोलन के जन्मदाता दयाल सिंह थे. इस बैंक में राष्ट्रीय नेताओं– महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर  शास्त्री, इंदिरा गांधी तथा सुप्रसिद्ध जलियांवाला बाग समिति इत्यादि के खाते होने का श्रेय जाता है. लाला हरकृष्ण लाल दयाल सिंह के बारे में लिखते हैं, कि ‘मैं उनके व्यापार के ज्ञान और उनकी कुशल बुद्धि से बहुत प्रभावित था. मैंने उनसे कुछ न कुछ सीखा, जो मेरे जीवन के बाद के चरण में पूरे मन से व्यापार में उतरने में मेरे लिए बहुत उपयोगी साबित हुआ’

 (डॉ. रामजीलाल – दयाल सिंह मजीठिया: एक युग पुरुष एवं प्रतिभावान युगदूतसजग समाज (करनाल), वर्ष 10, अंक, 9, सितंबर 2016 ,पृ.27 -35)

 दयाल सिंह : उच्च कोटि के एक पत्रकार, स्तंभकार एवं संपादक के रूप में:

दयाल सिंह मजीठिया स्वतंत्रता के प्रेमी एवं अग्रदूत थे. 19वीं शताब्दी में भारतीय जनता की आवाज को सरकार तक पहुंचाने के लिए तथा जनता को जागरूक करने के लिए दयाल सिंह ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी, राय बहादूर मूलराज  तथा जेसी बोस के विचारों से प्रभावित होकर ‘द ट्रिब्यून’ (साप्ताहिक समाचार पत्र) की स्थापना की. ‘द ट्रिब्यून’ का प्रथम संस्करण बुधवार के दिन 2 फरवरी 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान)  से प्रकाशित किया गया. प्रथम संपादकीय में ‘द ट्रिब्यून’ के मुख्य उद्देश्य को  स्पष्ट करते हुए दयाल सिंह ने लिखा कि ट्रिब्यून के ‘योजनाकार तथा संचालक तो मात्र जनहित के लिए कार्य करते हैं और इस ओर सजग हैं  कि कटु प्रहार या कट्टर लफ्फाजी की बजाय उदारता और संयम के द्वारा कल्याण को अधिक प्रोत्साहन किया जा सकता है.” दयाल सिंह के आगे लिखा कि द ट्रिब्यून’ का उद्देश्य “देशी जनमत का प्रतिनिधित्व’’करना है ताकि ‘जनता के मुखपत्र ‘ (Mouthpiece of the People) के रूप में कार्य कर सके. विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ तथा अन्य शहरों से अंग्रेजी,हिंदी और पंजाबी में संपादित हो रहा है. हमारा यह सुनिश्चित अभिमत है कि ट्रिब्यून के तीनों संस्करण दयालसिंह मजीठिया की बहुमूल्य विरासत है.

(डॉ. रामजीलाल – दयाल सिंह मजीठिया उच्च कोटि के एक पत्रकारस्तंभकार एवं संपादक : एक  विश्लेषण https://samajweekly.com/dayal-singh-majithia-a- top-class-journalist)

 दयाल सिंह:  एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी नेता के रूप में:

उनके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अंधाधुंधकरण एवं रूढ़िवाद के विरुद्ध विरोध की झलक दिखाई देती है. वास्तव में निजी जीवन में भी वह एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे. उनकी रसोई में ईसाई एवं मुस्लिम धर्मो के अनुयायी रसोईये थे तथा घर में एक ही मेज (Table) के चारों ओर बैठकर विभिन्न धर्मों के अनुयायी भोजन भी करते थे.  परिणाम स्वरूप तत्कालीन अभिजन वर्ग व सिक्ख धर्म के  कट्टरवादी -रूढ़िवादी व्यक्तियों के विरोध तथा बहिष्कार का सामना करना पड़ा. परंतु वह धर्मनिरपेक्षता के मार्ग पर अड़िग रहे और उन्होंने कोई परवाह नहीं की.

उनके चिंतन में जाति, पंथ, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि संकीर्ण मान्यताओं का कोई स्थान नहीं था और वे इन संकीर्ण मान्यताओं और भावनाओं से बहुत ऊपर थे. धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी विचारधारा उनके द्वारा “द ट्रिब्यून’ (The Tribune) में प्रकाशित लेखों(Articles) , संपादकीय अग्रलेखों (Editorials) के अतिरिक्त उनकी पुस्तक ‘राष्ट्रवाद’ (Nationalism -सन्1895) और संपादित पुस्तक नगमा-ए- तम्बूरी (Naghma-i-Tamboori) से भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है. केवल यही नहीं अपितु लाहौर के अधिवेशन सन् 1893 में स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में प्रस्तुत उद्बोधन (जिसे लाल हरकिशन लाल के द्वारा पढ़ा गया)में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी चिंतन स्पष्ट दिखाई देता है. उनका दृष्टिकोण पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष था. यही कारण है विभिन्न धर्मो के अनुयायी एवं तत्कालीन नेता उन्हें अति सम्मान की दृष्टि से देखते थे.

दयाल सिंह के महान और उदार स्वभाव की प्रशंसा करते हुए सर सैयद अहमद खान ने बहुत ही सटीक ढंग से कहा है, ”सरदार दयाल सिंह बहादुर मजीठिया: सरदार साहब सिख सरदारों की वंशावली में एक बहुत प्रसिद्ध और उच्च सम्मानित प्रमुख हैं. लेकिन राजवंशीय सम्मान से कहीं ऊपर, भगवान ने उन्हें अपने व्यक्तित्व में बहुत कुछ दिया है. महान चरित्र, प्रेमपूर्ण स्वभाव, सभी के लिए सद्भावना और सभी समुदायों के लोगों के लिए सम्मान उनकी व्यक्तिगत उपलब्धियां थीं….मुसलमान भी उन्हें अपना सबसे सच्चा दोस्त और सबसे महान परोपकारी मानते हैं. मदरसा तुल-आलम भी उनके महान और उदार स्वभाव का बहुत बड़ा ऋणी है. अगर मैं सच कहूं तो मैं यह कहूंगा कि लाहौर में बल्कि पूरे पंजाब प्रांत में वह एकमात्र व्यक्ति हैं जिन पर पंजाबी बल्कि सभी भारतीय गर्व महसूस कर सकते हैं’’

(डॉ.रामजीलाल –  दयाल सिंह मजीठिया एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी चिंतक व नेता : एक विश्लेषण / https://samajweekly.com/dayal-singh-majithia-was-a-secular)

जीवन की अंतिम घड़ी : 9 सितंबर 1898

सरदार दयाल सिंह मजीठिया के जीवन के अनेक क्षेत्रों में व्यस्त रहने के कारण 2 बज कर 50 मिंट पर 9 सितंबर 1898 को घातक अटैक के कारण उनकी मृत्यु हो गई. उनकी मृत्यु शैय्या के पास खड़े उनके परम मित्र लाल हरकिशन लाल ने लिखा ‘’सरदार उसी प्रकार शांत था जैसा कि जीवन में था और ऐसा प्रतीत होता है वह बिना किसी पश्चाताप अथवा दु:ख के मारे हों”. लाहौर कांग्रेस (1900) में सरदार  को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए ‘राष्ट्रीय क्षति’ बताया गया. तत्कालीन महान नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा कि ‘’उसने अपना सर्वस्व जीवन राष्ट्र उद्धार के लिए अर्पित कर दिया … उसकी मृत्यु ने मेरे जीवन का खजाना छीन लिया’’.   पंजाब विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर जान मेनार्ड ने दयाल सिंह को ‘’एक महान देश भगत, महान पंजाबी, महान सज्जन पुरूष तथा महान दानवीर’’कहते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की. पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने उनके बारे में लिखा, ‘’सरदार एक महान दानवीर, सामाजिक कार्यकर्ता तथा महान दूरदर्शी एवं क्रियाशील व्यक्ति थे.’’

लाला भृष भान, पूर्व प्रजामंडल नेता, पेप्सू के पूर्व मुख्यमंत्री, पंजाब के पूर्व कैबिनेट मंत्री और दयाल सिंह कॉलेज करनाल के गवर्निंग बाडी के पूर्व अध्यक्ष ने सरदार दयाल सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि, “सरदार (दयाल सिंह मजीठिया) उत्तर भारत के एक महान परोपकारी और प्रमुख राष्ट्रवादी थे, जो शैक्षिक जागृति, सामाजिक चेतना जागृत करने और भारतीय युवाओं को राष्ट्रवादी और धर्मनिरपेक्ष तर्ज पर ढालने में विश्वास करते थे… उनके सामने दो महान आदर्श थे — सामाजिक उत्थान और राष्ट्रीय सेवा.”

हमारा मानना है कि दयाल सिंह एक उच्च कोटि के धर्मनिरपेक्ष विचारक, राष्ट्रवादी नेता, व विराट व्यक्तित्व के धनी थे. वर्तमान परिस्थितियों में उनका यह चिंतन ग्रहण करने योग्य है ताकि एक सुदृढ़ व एकीकृत समाज और शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण किया जा सके.

(Note–Dr. Ramji Lal is supervisor of Sudesh Pal, ‘’Political Ideas of Dyal Singh’’, -A Dissertation , Kurukshetra University Kurukshetra, December 2001)

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