पुस्तक समीक्षा आलेख
आंबेडकर इन लंदन
– विद्या भूषण रावत
(समाज वीकली)- पिछले साल के अंत तक आई सबसे आकर्षक किताबों में से एक थी ‘अंबेडकर इन लंदन’। हालांकि यह पुस्तक अभी भारत मे नहीं उपलब्ध है लेकिन इसकी धूम दुनिया भर के अम्बेडकरवादियों मे मच गई है। बाबा साहब अंबेडकर के जीवन मे लंदन का बहुत महत्व है। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में एक विद्वान के रूप में लंदन के साथ डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर के सहयोग पर एक बेहद महत्वपूर्ण काम जब उन्होंने 1916 में एमएससी छात्र के रूप में दाखिला लिया और इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका में कोलंबिया विश्वविद्यालय से पहले ही पीएचडी हासिल कर ली थी। इसी समय बाबा साहब ने लंदन के प्रतिष्ठित ग्रेज इन से बैरिष्टर की परीक्षा भी पास की।
लंदन में अम्बेडकर ने शानदार ढंग से स्पष्ट और अच्छी तरह से कई ऐसे कार्य किये जो अब तक अज्ञात है, उन सभी के लिए इस पुस्तक यह पुस्तक अत्यंत आवश्यक है जो उनके संघर्षों और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों की समझ को जानना चाहते थे। यह पुस्तक के लेखक लीड्स विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास के प्रोफेसर विलियम गोल्ड, सुश्री संतोष दास, एम बी ई, पूर्व सिविल सेवक, अम्बेडकराइट और बौद्ध संगठनों के संघ (एफएबीओ), यूके की अध्यक्ष और जाति-विरोधी भेदभाव गठबंधन ( एंटी कास्ट डिस्क्रिमनैशन अलाइअन्स-ए सी डी ए, यू के) की अध्यक्ष हैं, और क्रिस्टोफर जैफ्रेलॉट, अवंता चेयर और किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट में भारतीय राजनीति और समाजशास्त्र के प्रोफेसर, एक प्रसिद्ध लेखक जो भारतीय मीडिया में नियमित रूप से लिखते रहे हैं। डाक्टर अंबेडकर के इंग्लैंड प्रवास के दौरान उनके विभिन्न कार्यों पर शोध करने के लिए इससे अच्छे विशेषज्ञ नहीं मिल सकते थे। खैर इनमे संतोष दास, अंबेडकर भवन को संरक्षित करने और सुरक्षित करने की मुहिम मे सबसे आगे रही है, अलावा इसके वह इंग्लैंड की संसद मे जातिभेद विरोधी कानून लाने के लिए सबसे सक्रिय सदस्यों मे एक रही हैं। ये सभी कार्य इंग्लैंड मे अम्बेडकवर्दियों की गहरी निष्ठा और बढ़ती शक्ति का प्रतीक भी हैं।
पुस्तक की प्रस्तावना सुप्रसिद्ध अम्बेडकरवादी स्कालर सूरज मिलिंद येंगडे द्वारा लिखी गई है। पुस्तक के दो भाग हैं। पहला हिस्सा ब्रिटेन मे 1916 से डॉ अम्बेडकर के लंदन स्कूल ऑफ ईकनामिक्स में प्रवेश के और फिर 1920 से 1924 तक ‘रुपये की समस्या’ पर डी एस सी के लिए समर्पित है। इसी भाग मे डॉ अंबेडकर ने 1916 में बैरिस्टर के रूप में ग्रे इन मे प्रवेश और फिर एक बैरिष्टर के रूप मे उनके कार्यों का विस्तारपूर्वक विश्लेषण है। पुस्तक के इस भाग में उनके राजनीतिक कार्य, गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने और यूके में विभिन्न राजनीतिक नेताओं से मुलाकात भी शामिल है। पुस्तक में संपादकों के अलावा विभिन्न विद्वानों के लेख शामिल हैं। एक कानूनविद के तौर पर अंबेडकर एक महत्वपूर्ण आलेख है जिसमे ग्रेज इन से लेकर भारत तक उनकी पूरी यात्रा है।
दरअसल अंबेडकर ने 1916 मे लंदन स्कूल ऑफ ईकनामिक्स मे एम एस सी के लिए स्वयं को रजिस्टर करवाया था जो उन्हें बरोदा के दीवान के द्वारा उपलब्ध कारवाई गई स्कालरशिप से प्राप्त हुई लेकिन एक वर्ष के अंदर ही उन्हे भारत वापस आना पडा क्योंकि उनके समक्ष वित्तीय संकट था और उनके द्वारा स्कॉलरशिप की सुविधा को बढ़ाने के संदर्भ मे उन्हे कोई जानकारी नहीं थी। 1917 मे भारत आने पर उन्हे बरोदा राज्य के सैन्य सचिव के तौर पर कार्य मिला था जो छुआछूत और जातिभेद के चलते पूरा नहीं हो पाया और उन्हे वह पद छोड़ना पडा था। एल एस ई मे उन्हे यह सुविधा जरूर मिली थी कि 4 वर्ष के अंदर वह यह कोर्स कभी भी पूरा कर सकते थे यानि 1920 तक उन्हे किसी भी कीमत पर इसे पूरा करना ही था। उन्होंने भारत मे कई विद्यालयों मे पढ़ाया भी और 1920 मे छत्रपती साहूजी महाराज, जो कोल्हापूर के महाराज थे, के सहयोग से वह दोबारा लंदन पहुँच गए। 1920 मे उन्होंने एम एस सी के लिए अपनी थीसिस ‘ द ईवोलूशन ऑफ प्रविन्शल फाइनैन्स इन इंडिया’ पूरी की जिसके फलस्वरूप उन्हे 1921 मे एम एस सी की डिग्री प्रदान कर दी गई। अक्टूबर 1922 उन्होंने अपने डी एस सी की थीसिस को सबमिट किया जिसे मार्च 1923 मे इग्ज़ैमिन किया गया और अंततः नवंबर 1923 मे उन्हे डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधि से विभूषित कर दिया गया। किसी भी भारतीय के लिए ये बहुत बड़े गौरव की बात थी और विशेषकर उस व्यक्ति के लिए जिसके कोई पारिवारिक सामाजिक लिंक विदेशों मे नहीं थे।
एक कानूनविद के तौर पर अंबेडकर वाले लेख मे विस्तार पूर्वक उनकी पढ़ाई और फिर भारत लौटने पर उनके कानूनी लड़ाई के विषय मे बताया गया है। अंबेडकर एक विचारवान व्यक्ति थे और विचारधारा से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने जज बनने के आफ़र को ठुकरा दिया जिसमे उन्हे बॉम्बे हाई कोर्ट के जज बन सकते थे और ये उस समय जब वह बहुत कठिन जिंदगी जी रहे और एक कमरे के फ्लैट मे रह रहे थे। 1928 मे उन्होंने एक गरीब अध्यापक का मुकदमा लड़ा जिसके विरोध मे एक बड़ी पूंजीपति थे जिसका केस जिन्नाह लड़ रहे थे। ये जानकारी अभी भी पब्लिक डोमेन मे बहुत कम है कि अंबेडकर को हैदराबाद के निजाम ने हैदराबाद के मुख्य न्यायाधीश बनने का आफ़र दिया जिसे उन्होंने ठुकरा दिया।
गोलमेज सम्मेलन मे बाबा साहब अंबेडकर नामक अध्याय मे विस्तार से उनकी भूमिका की चर्चा की गई है और कैसे आगा खान, जिन्ना, मुनजे, गांधी के होते अंबेडकर दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग मनवाने मे सफल हुए थे। इस अध्याय मे एक महत्वपूर्ण अध्याय है अंतराष्ट्रीयकरण का और कैसे बाबा साहब ने दलितों के प्रश्नों का अन्तराष्ट्रियकरन किया। अध्याय मे बंबई से लंदन तक की डाक्टर अंबेडकर की यात्रा का जिक्र भी किया गया है।
पुस्तक के दूसरे भाग में अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। इस हिस्से मे इंग्लैंड मे अम्बेडकरी आंदोलन का विस्तार पूर्वक जिक्र है। पिछले बीस वर्षों मे मुझे भी इंग्लैंड जाने का लगातार अवसर मिला है और अम्बेडकरवादियों की कर्मठता और बढ़ती राजनीतिक शक्ति का एहसास है। जून 2016 मे लंदन स्कूल ऑफ एकनॉमिक्स मे बाबा साहब अंबेडकर के एक शोधार्थी के रूप मे प्रवेश के शताब्दी वर्ष के अवसर पर हुए कार्यक्रम मे मुझे भी एक वक्ता के तौर पर बुलाया गया था। ये कार्यक्रम फैबो यू के ने आयोजित किया था और इसमे सुश्री संतोष दास ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अम्बेडकरवादी आंदोलन को दस्तावेजीकरण मे फेडरेशन ऑफ अम्बेडकराइट एंड बुद्धिस्ट ऑर्गनईजेशन, यू के के महासचिव श्री अरुण कुमार की बहुत बड़ी भूमिका रही है। यह भी याद दिला दे कि संतोष दास इंग्लैंड की एक सम्मानित अधिकारी रही हैं जिन्हे मेडल ऑफ ब्रिटिश एम्पायर से सम्मानित किया गया था और उनका एक साक्षात्कार बिगत मे फॉरवर्ड प्रेस मे छप चुका है। संतोष दास और अरुण कुमार, ने यूके में अम्बेडकरवादी आंदोलन के इतिहास को शानदार ढंग से प्रलेखित किया है जिसे समझने की आवश्यकता है। उन्होंने बताया है कि कैसे भीम पत्रिका के संपादक श्री लाहौरी राम बाली और श्री भगवान दास ने बर्मिंघम और अन्य स्थानों पर अम्बेडकारियों की विभिन्न सभाओ को संबोधित किया। भारत से नामी गिरामी अम्बेडकरवादियों मे भदंत आनंद कौतसल्यायन, वेंन कास्पा, श्री डी सी अहीर, श्री डी आर जाटव, श्री भगवान दास, श्री के सी सील आदि लगातार इंग्लैंड आते रहे हैं और उन्होंने वहाँ पर अम्बेडकरी और बुद्धिस्ट आंदोलनों को मजबूत किया। 3 जून 1973 को बर्मिंघम मे बौद्ध धम्म दीक्षा मे बाबा साहब के सहयोगी श्री सोहन लाल शास्त्री भी मौजूद थे और उसी समय वहा बाबा साहब अंबेडकर बुद्धिस्ट एसोसिएशन ( बाबा) कि स्थापना हुई। बाद डाक्टर अंबेडकर बुद्धिस्ट एसोसिएशन (डाबा) की स्थापना भी बर्मिंघम मे हुई। इसके एक संस्थापकों मे श्री देविंदर चंदर जी समाज वीकली और एशियन इंडिपेंडेंट नामक पत्र निकालते हैं और अम्बेडकरी आंदोलन को मजबूत करने के प्रति कृतसंकल्प हैं। 1969 मे श्री चनन चहल और श्री धनपत रट्टू ने श्री गुरु रविदास सभा बेडफोर्ड की स्थापना की और 1972 मे भीम एसोसिएशन बनी। 1983 मे अंबेडकर मिशन सोसाइटी बेडफोर्ड बनी और फिर 1984 से 1987 तक उन्होंने कीर्ति प्रकाशन की शुरुआत की। 1986 मे प्रमुख अम्बेडकरवादियों श्री वी टी हिरेकर, चनन चहल, श्री चक्रवर्ती गौतम, सोहन लाल गिल्दा, धनपत रट्टू ने फेडरेशन ऑफ आंबेडकराइट एंड बुद्धिस्ट ऑर्गनाइजेशन (फेबो) की स्थापना की। फेबो ने ब्रिटेन मे अम्बेडकरी आंदोलन को मजबूत करने मे बड़ी भूमिका निभाई है और उसके द्वारा किये गए कार्यों का विस्तृत विवरण इस पुस्तक मे है।
पुस्तक मे एक चैप्टर अमेरिका के अफ्रीकी मूल के अम्बेडकरवादी प्रोफेसर केविन ब्राउन का है जो लंदन मे अंबेडकर और एफ्रो अमेरिकन समुदाय हैं। उनके आलेख मे आपको पता चलता है कि अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय डॉ अम्बेडकर को कैसे देखता है। यह आलेख दलित अधिकारों, अम्बेडकरवादी आंदोलन और अफ्रीकी अमेरिकियों के मुद्दे पर काम करने की इच्छा रखने वालों के लिए अत्यंत जरूरी है। इसमे गोलमेज सम्मेलन मे बाबा साहब के भाग लेने तथा अफ्रीकी मूल के नेताओ के साथ बाबा साहब के संपर्कों पर भी प्रकाश डाला गया है विशेषकर अमरीका मे अफ्रीकी मूल के नेताओ और बुद्धिजीवियों की सोच और आलेखों का विवरण है जो उन्होंने डाक्टर अंबेडकर के गोल मेज सम्मेलन मे भाग लेने और उनके सवालों को लेकर उठाए गए थे।
इस पुस्तक में यूके में जातिगत भेदभाव विरोधी कानून अभियान के साथ-साथ अम्बेडकर संग्रहालय के मुद्दे और इसके लिए अम्बेडकरवादियों ने कैसे संघर्ष किया, इस पर दो महत्वपूर्ण अध्याय शामिल हैं। आज अंबेडकर संग्रहालय लंदन मे दुनिया भर से आने वाले लोगों के लिए एक आकर्षण का केंद्र है जहा उन्हे बाबा साहब के संघर्ष की कहानी से रूबरू होने का मौका मिलता है। इस घर मे बाबा साहब उस दौर मे रहे थे इसलिए इसको संकरक्षित करने के लिए आवश्यक था कि भारत सरकार या महाराष्ट्र सरकार इस निजी संपति को खरीदे। फेबो की अध्यक्ष सुश्री संतोष दास ने इस संदर्भ मे बहुत प्रयास किये और उनके और फबो के अन्य सदस्यों के प्रयासों का यह नतीजा है कि आज हम अंबेडकर म्यूज़ीयम को इस रूप मे देख पा रहे हैं।
पुस्तक अंग्रेजी मे है और लंदन से प्रकाशित हुई है और अभी तक भारत में प्रकाशित नहीं हुई है और अमेज़न पर यह 2,700/- रुपये की कीमत पर उपलब्ध है। उम्मीद है कि इसे जल्द ही भारत में प्रकाशित किया जाएगा और इसकी कीमत कम रखी जाएगी ताकि यह अधिक लोगों तक पहुंचे। इस पुस्तक को हिन्दी मे भी होना चाहिए और उम्मीद है के एक बार पुस्तक आधिकारिक तौर पर किसी भारतीया प्रकाशक के पास आएगी तो इसे अंग्रेजी के साथ हिन्दी मे भी प्रकाशित करने के प्रयास होंगे। फिलहाल, दुनियाभर मे बाबा साहब के कार्यों और संघर्षों मे दिलचस्पी लेने वालों के लिए यह एक बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक हैं।