भदंत ज्ञानेश्वर महास्थिविर – बुद्ध के सन्देश को उनकी भूमि पर जन जन तक पहुचाने वाला समर्पित एक व्यक्तित्व

१० नवम्बर भदंत ज्ञानेश्वर के जन्म दिन पर विशेष
विद्या भूषण रावत

(समाज वीकली)- कुशीनगर और बौद्ध समुदाय मुख्य महापरिनिर्वाण मंदिर के प्रमुख भिक्षु भदंत ज्ञानेश्वर महास्थिविर का 85 वा जन्म दिन १० नवम्बर को बेहद श्रद्धा के साथ मना रहा है. ये बौध धम्म के प्रति उनके योगदान और उपलब्धियों का जश्न भी है । जैसा कि हम सभी जानते हैं, कुशीनगर दुनिया भर में बौद्धों के लिए उनके सबसे प्रमुख पवित्र स्थानों में से एक है क्योंकि बुद्ध ने अपना अंतिम उपदेश यहीं दिया था और फिर यही उनका ‘महापरिनिर्वाण’ हुआ था । हाल ही में, कुशीनगर को अंतरराष्ट्रीय विमानन सर्किट से भी जोड़ा गया है और कुछ हफ्ते पहले यहां एक नए हवाई अड्डे का उद्घाटन किया गया है।

भदंत ज्ञानेश्वर कुशीनगर के सबसे महत्वपूर्ण और वरिष्ट बौद्ध भिक्षु है और और सन २००५ से कुशीनगर भिक्षु संघ के अध्यक्ष भी है. है लुम्बिनी के भदंत अनिरुद्ध महाथेरा के परिनिर्वाण के बाद उन्होंने इस पद को संभाला. कुशीनगर भिक्षु संघ की स्थापना १८ दिसंबर १९५२ को हुई और तब भदंत चंद्र मणि महाथेरा इसके प्रथम अध्यक्ष बने थे और वे मई 8, १९७२ तक यह के अध्यक्ष बने रहे , बाद में भदंत उतिखेंदारिया महाथेरा और अच्युतानंद महाथेरा इसके अध्यक्ष बने। इस तरह भद्दंत ज्ञानेश्वर महाथेरा कुशीनगर भिक्षु संघ के छठे अध्यक्ष हैं।

भदंत ज्ञानेश्वर का जन्म १० नवंबर १९३६ को बर्मा देश के अरकंस प्रान्त के अक्यूब जिले जिबेंजी गाँव में हुआ में हुआ था. अराकांस इस समय राखिने राज्य का हिसा है. इनके बचपन का नाम आऊं जा वे था और इनके पिता किसान थे . आज बर्मा को म्यांमार के नाम से जाना जाता है. राखिने प्रांत बौद्धों का सबसे मूल और बड़ा क्षेत्र रहा है लेकिन पिछले कुछ वर्षो में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ हुए वर्ताब और उनकी स्थिति को लेकर राखिने प्रांत बहुत चर्चा में आ गया था लेकिन भंदंत ज्ञानेश्वर ये कहते है के उनके समय ये सवाल नहीं था और वो कहते है के बंगाली मुसलमान वहा आकार उनके क्षेत्र में भोले भाले स्थानीय लोगो का शोषण करते थे. वे अभी भी द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुए घटनाक्रम को भी याद करते है. मेरे साथ एक बातचीत में वह म्यांमार की स्थिति पर बात रखते है और वहा की विभिन्न अस्मिताओ की बात करते है लेकिन इस बात पर जोर देते है के वहा कोई जाति व्यवस्था या छुआछूत नहीं था जो उन्होंने भारत में बड़े पैमाने पर देखा है. उनका गाँव समुद्र के किनारे का तटीय क्षेत्र है, जहां बौद्ध धर्म के अनुयाइयो की अच्छी खासी तादात है. भदंत ज्ञानेश्वर की माताजी का देहांत बचपन में ही हो गया था और उन्होंने बहुत परेशानी उठाई. बहुत कम वर्ष की उम्र में ही धम्म शिक्षा का ज्ञान प्राप्त करने के प्रति आकर्षित हुए. अप्रैल 12 वीं , 1949, को उन्होंने रंगून के एक विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और पाली का अध्ययन किया . रंगून बर्मा की राजधानी था लेकिन अब यह यांगून के नाम से जाना जाता है, जहां उन्होंने पाली सीखी। जून 3 वां , 1956 वह विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म में पढ़ाई के छह साल बाद एक श्रमनेर बन गए और वह जब उनके ने उन्हें एक नया नाम दिया जो हिंदी रूप में ज्ञानेश्वर के नाम से प्रचलित हो गया ।

बर्मा वह देश था जहाँ बौद्ध धर्म फल-फूल रहा था और तब भारत के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे. 1954 में बर्मा ने छठी बौद्ध संगति का आयोजन किया जिसमें भंते धर्मरक्षित ने भी भाग लिया। रंगून में हुए इस ऐतिहासिक सम्मेलन में बाबा साहेब अम्बेडकर के साथ-साथ ईवीआर पेरियार ने भी भाग लिया। उस समय भदंत ज्ञानेश्वर बहुत छोटे थे लेकिन उन्होंने उसमें भाग लिया। वह सिर्फ 18 साल के था जब वह इस सम्मेलन में बाबा साहेब अम्बेडकर से मिले थे, हालांकि उन्हें उनके बारे में ज्यादा याद नहीं है क्योंकि उनका कहना है कि वे डॉ अम्बेडकर के सामाजिक-राजनीतिक महत्व को समझने के लिए बहुत छोटे थे और स्थानीय लोगो की तरह विशिष्ठ अतिथियों को सुनने और सेवा कार्य के लिए मौजूद थे, ये एक बड़ा सम्मेल्लन था इसलिए इसमें भाग लेना उनके लिए भी बहुत विशेष महत्त्व का था.

श्रीलंका, थाईलैंड, म्यांमार से भिक्खु बौद्ध ऐतिहासिक, धार्मिक स्थानों की यात्रा करने के लिए भारत आते रहे हैं, लेकिन कई लोग इन स्थलों की घोर उपेक्षा को देखकर दुखी हुए और उन्होंने इन ऐतिहासिक स्थानों की बेहतरी के लिए अपना जीवन समर्पित करने का फैसला किया। भारत में बुद्ध धम्म को पुनर्स्थापित करने में श्रीलंका के अनागारिका धर्मपला की बहुत बड़ी भूमिका है. सभी की जानकारी के लिए, अनागारिका धर्मपाल ने बोधगया में महाबोधि मंदिर पर बौद्ध नियंत्रण की बहाली के लिए लड़ाई लड़ी और यह उनका स्मारकीय कार्य है जिसने दक्षिण एशिया में बौद्ध धर्म और इसकी विरासत को पुनर्जीवित करने में मदद की। उन्हें केवल बौद्ध धर्म और उसके विचारों और व्यवहार का वैश्विक राजदूत कहा जा सकता है। उन्होंने ही विवेकानंद को विश्व धर्म संसद में जाने के लिए प्रेरित किया . १८९३ में जब वह विश्व संसद में भाग लेने के लिए शिकागो जा रहे थे तो अपने शिष्य भदंत चंद्रमणि महाथेरा जी को कुशीनगर में बौद्ध विरासत को मजबूत करने के लिए और उसकी देखभाल करने के लिए जिम्मेवारी सौंप दी. ज्ञात रहे के भदंत चंद्रमणि भी बर्मा से थी और इस प्रकार हमारे देश की आजादी से पहले से ही कुशीनगर में रह रहे थे। यह भदंत चंद्रमणि ही थे जिन्होंने बाबा साहेब आंबेडकर को अक्टूबर 14, १९५६ को नागपुर में बौध धम्म में दीक्षा दी और इस प्रकार देश में बुँद्ध धम्म के प्रचार प्रसार में सबसे बड़ी क्रांति की दिशा में बहुत महति योगदान दिया.

भदंत ज्ञानेश्वर के माता-पिता भदंत चंद्रमणि को इसलिए जानते थे क्योंकि उनके पिता अनुयायी थे। 1962 में जब भिक्खु धर्मरक्षित और बिक्खु कित्तिमा महास्थीवीर को भदंत चंद्रमणि, जो तब तक भारत के सबसे सम्मानित भिक्षुओं में से एक थे, की बिगड़ती स्वास्थ्य स्थिति के बारे में पता चला तो उनकी चिंता बढ़ी. वे जानते थे के भदंत चंद्रमणि जी कुशीनगर में बुद्ध धम्म की विरासत को बचाने और आगे बढाने की लड़ाई लड़ रहे है इसलिए उनके स्वास्थ्य के न केवल देखभाल करने वाला कोई होना चाहिए अपितु धम्म की समुचित जानकारी और उसके प्रति सम्पुर्ण निष्ठावान वाला व्यक्ति चाहिए ताकी भविष्य की भी नीव रखी जा सके । भदंत चंद्रमणि ने कुशीनगर और देश के बाकी हिस्सों में बौद्ध विरासत की बहुत अच्छी तरह से देखभाल की थी, लेकिन 1962 तक भदंत का स्वास्थ्य बिगड़ रहा था और बौद्ध आंदोलन में सभी प्रियजनों के लिए चिंता का विषय बन गया। सभी बाते ध्यान में रखकर भिक्खु धर्मरक्षित और भिक्खु कितिमा ने वर्मा से 27 वर्षीय ज्ञानेश्वर को भारत आने का निमंत्रण दिया और उन्हें भदंत चंद्रमणि के साथ रहने के लिए सीधे कुशीनगर जाने के लिए कहा गया। इस प्रकार भदंत ज्ञानेश्वर अगस्त 5, १९६३ को कुशीनगर में अपने गुरु की सेवा करने के लिए और बौध्ह विरासत को मजबूत करने के लिए भारत आये. यहाँ आने के बाद से ही वह धम्म और समाज के प्रति इतना समर्पित हो गए के पूरी तरह से अपने आप को स्थानीय भाषा सहित भारतीय बौद्ध परंपराओं में विलय कर दिया गया। आज वह यहां हाशिए के लोगों के उत्थान के लिए काम कर रहे हैं और देश विदेश के धम्म के लोगो को सलाह मशविरा भी देते है. कुशीनगर के विकास में उनका बहुत बड़ा योगदान है.

भदंत के पास आपके साथ बैठने और अनुभव और समझ के अपने विशाल खजाने को साझा करने के लिए तेज स्मृति और अद्भुद शक्ति है। वह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के अपने शिष्यों और आम जनो से लगातार मिलते रहते हैं और उनके साथ विभिन्न सामाजिक धार्मिक मुद्दों पर चर्चा करते हैं। जब वे यहां आए तो भाषा एक बड़ा मुद्दा था लेकिन अब वे न केवल हिंदी बल्कि भोजपुरी में भी पारंगत हैं और दुनिया के विभिन्न देशो की यात्राये कर चुके है. वह भदंत चंद्रमणि महास्थीवीर द्वारा शुरू की गई कई धर्मार्थ और सामजिक गतिविधियों को भी देख रहे हैं। भारत आने के बाद भी उन्होंने अपनी जड़ें नहीं छोड़ी, हालांकि वे म्यांमार नहीं जा सके। कुशीनगर स्थित भदंत चंद्रमणि वी आई पी गेस्ट हाउस का निर्माण यहाँ म्यांमार के बुद्धिस्ट लोगो के सहयोग से किया गया है.

उनका पूरा जीवन संघर्ष की एक मिसाल है. मेरे साथ बातचीत में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण अनुभव साझा किये. उन्होंने बताया के कैसे कुशीनगर में महापरिनिर्वान स्थल के आस पास की भूमि पर अनिधिकृत कब्जा हटाने के लिये उन्हें बहुत संघर्ष करना पडा. यह सुनना भी उनके संघर्षो की कहानी है के उन्होंने ऐतिहासिक स्थानों का पुनर्निर्माण कैसे किया जहां स्थानों के साथ-साथ भूमि को नियंत्रित करने के लिए बहुत सारी लड़ाई हुई। भारत और भाषा से परिचित होने के लिए, भदंत ज्ञानेश्वर ने खुद को स्थानीय स्कूलों में पंजीकृत कराया और 1968 में हाई स्कूल, 1970 में इंटरमीडिएट, 1973 में बीए और 1975 में बुद्ध डिग्री कॉलेज, कुशीनगर से एमए किया। वह यहीं नहीं रुके और उन्होंने पाली साहित्य रत्न के साथ-साथ एलएलबी की डिग्री भी हासिल की।

इस वर्ष, म्यांमार सरकार ने इस वर्ष भदंत ज्ञानेश्वर को महान सेवाओं और समझ के लिए अपना सर्वोच्च धार्मिक पुरस्कार दिया। कोविद प्रतिबंधों के कारण, वह वहां नहीं जा सके, इसलिए म्यांमार के राजदूत ने कुशीनगर में जून 2021 में उन्हें ”अभिधज़महरथगुरु” की उपाधि देने के लिए आए। इससे पहले, म्यांमार सरकार ने उन्हें ‘अभिदाजा अग्गामाह थड्डम्मा जोटिका’ की अन्य मानद उपाधि दी थी। 2016 में, 1993 में ‘अग्गामाह पंडिता’ और बौद्ध धर्म के प्रति उनकी सेवाओं के लिए 2005 में ‘अग्गामाह थड्डम्मा जोतिका दाज़ा’ की उपाधियो से सम्मानित किया गया । भदंत ज्ञानेश्वर 1978 से क़ानूनी तौर पर भारतीय नागरिक हैं। वर्तमान में, वे कुशीनगर मुख्य मंदिर भिक्षु संघ, कुशीनगर के अध्यक्ष हैं।

भदंत ज्ञानेश्वर विभिन्न बौद्ध धार्मिक और धर्मार्थ संगठनों से जुड़े रहे हैं और 1990-2018 से बिहार सरकार द्वारा नियुक्त बोधगया महाविहार प्रशासनिक निकाय के सदस्य थे। जब मैंने उनसे यह सवाल पूछा कि क्या बोधगया को बौद्धों को नहीं सौंपा जाना चाहिए क्योंकि यह बौद्धों के लिए सबसे पवित्र तीर्थस्थल है, तो वे कहते हैं, सभी बौद्ध स्थानों को बौद्धों को सौंप दिया जाना चाहिए। वह इस बात से भी परेशान थे कि भारत में अधिकांश बौद्ध मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन हैं, जो उनके महत्व को देखते हुए पूरी तरह से ठीक है, लेकिन उन्हें लगता है कि दुनिया भर से लोग इन स्थानों पर केवल के पुरातत्व के कारण नहीं बल्कि बौद्धों की दुनिया के लिए आते हैं। भारत बुद्ध की भूमि है और वे यहां स्थित सभी पवित्र मंदिरों के दर्शन करना चाहते हैं।

उनके कई अनुयायी और शिष्य स्वयं महत्वपूर्ण भिक्षु बन गए हैं और भारत में बौद्ध आंदोलन को मजबूत करने के लिए काम कर रहे हैं। श्रीलंका बुद्ध विहार के प्रमुख डॉ नंद रतन भंते थेरो बताते है के वह 1995 से उनके संपर्क में आए जब वे श्रावस्ती में रहते थे। उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा गुरुजी के अधीन प्राप्त की, क्योंकि भदंत ज्ञानेश्वर को उनके अनुयायियों और शिष्यों द्वारा गुरु जी कह कर ही संबोधित किया जाता है। 1998 में गुरु जी ने उन्हें इंटरनेशनल थेरवाद बौद्ध विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए म्यांमार भेजा। वहा से अध्ययन पूरा करने के वाद डाक्टर नन्द रतन भंते 1999 में कुशीनगर लौट आए।

डॉ नंद रतन भंते कहते हैं: गुरु जी को सबसे गरीब और हाशिए के लोगों के जीवन के प्रश्नों, उनकी शिक्षा, विशेष रूप से लड़कियों की शिक्षा की विशेष चिंता रहती है और इसके लिए उन्होंने महती प्रयास किया है । वह जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता के कटु आलोचक हैं और इसकी निंदा करते हैं। देश विदेशों में उनके हजारों अनुयायी हैं जो उनकी बातो को गंभीरता से सुनते है और उन्हें विभिन्न कार्यक्रमों, व्याख्यानों आदि के लिए आमंत्रित करते रहते है. गुरु जी के कहने पर जापान से मैत्री एसोसिएशन के तहत बौद्ध भक्तों ने कुशीनगर की 10 किलोमीटर की परिधि में सैकड़ों बच्चों की शिक्षा के लिए योगदान दिया। वह अभी भी बहुत सक्रिय है और कुशीनगर और इसके विकास के बारे में चिंतित है।

हर साल गुरुजी कुशीनगर में दीपोत्सव का आयोजन करते रहे हैं, जब उनके हजारों बौद्ध अनुयायी आते हैं और वे इसे बहुत शालीनता से मनाते है । इस वर्ष भी उन्होंने कुशीनगर में चौरासी हज़ार दिए प्रज्ज्वलित किये. मैंने यह सवाल पूछा कि क्या दीपावली कभी बौद्ध त्योहार था और उन्होंने दावा किया कि मूल रूप से यह एक बौद्ध त्योहार है। बेशक, यह भारत में बौद्धों के बीच यह बहुत विवाद का मुद्दा रहा है क्योंकि कई लोगों को लगता है कि यह बौद्ध धर्म में ब्राह्मणवादी घुसपैठ है और इसका बौध ग्रंथो में कोई उल्लेख नहीं है. गुरूजी ने पूरे उदाहरण देकर कहा के दीपोत्सव बौद्ध पर्व है.

भदंत ज्ञानेश्वर ने धम्म के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है, उन्होंने कुशीनगर को उसकी नयी पहचान दिलाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है. आज उनके स्कूलों से बच्चे पढ़ रहे है और उनके बुद्ध मंदिर में देशी विदेशी लोगो आते है और ठहरते है. उन्होंने भारत में जाति की पहचान के प्रभाव को महसूस किया है और कहते हैं कि उन्हें इसके बारे में कभी पता नहीं था। रखाइन राज्य के रहने वाले भदंत कहते है वह गरीबी जानते थे और म्यांमार में विभिन्न जातियों और उनके मतभेदों के विभिन्न उदाहरण दिए लेकिन कोई पदानुक्रम या जाति व्यवस्था नहीं थी, जैसे वर्णवादी जातिवादी समाज में आज मौजूद है.

आज जब कुशीनगर और देश भर के बौध्ह अनुयायी, भदंत ज्ञानेश्वर के ८६ वे जन्मदिवस पर एकत्र होकर उनकी उपलब्धियों और ज्ञान के मार्ग का उत्सव मना रहे है तो ये समझ लेना भी आवश्यक है के बुद्ध के तर्क, मानववाद और करुणा के रास्ते ही विश्व में शांति, अहिंसा और समतामूलक समाज की स्थापना की जा सकती है जहा जन्म से कोई बड़ा और छोटा नहीं होता. भारत के सन्दर्भ में बाबा साहेब आंबेडकर ने देश को प्रबुद्ध भारत बनाने का सपना देखा था वह धीरे धीरे आगे बढ़ रहा है, हालाँकि संकीर्ण शक्तिया भी पूरी तौर पर देश को कुप्मंदुकता और अनिश्चितता की और ले जा रही है. ऐसे में भदंत ज्ञानेश्वर इतिहास से हमारा एक साक्षात्कार है क्योंकि अपने लम्बे सार्वजनिक जीवन में उन्होंने स्वयं को बुद्ध के मार्ग के प्रति समर्पित कर दिया इसलिए हम उनकी दीर्घायु की कामना करते है ताके वह बुद्ध की इस महान विरासत को बुद्ध के देश में और अधिक सुरक्षित, संरक्षित और पल्लवित कर सके. बुद्ध के मार्ग में ही बाबा साहेब ने देश के बहुजन समाज की उम्मीद और सपनो को देखा था, यही हमारी सबसे बड़ी अस्मिता है और ८५% से बड़ी आबादी की असली आज़ादी का प्रतीक. आशा करते है के भदंत ज्ञानेश्वर और उनके अनुयायी इस सांस्कृतिक मिशन को लगातार आगे बढ़ाते रहेंगे ताके भारत अपने बौध्कालीन विरासत के स्वर्णिम दौर में पुनः आ सके जिसमे सबका कल्याण निहित है. भवतु सब्ब मंगलम.

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