किसान आंदोलनों की पृष्ठभूमि: किसानों के साथ अन्याय, रोष  और  असंतोष

         Dr Ramji Lal

डॉ रामजीलाल, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा ). मोबाइल 816 88 10760

(समाज वीकली)- सन्1947 में भारत का भौगोलिक क्षेत्र 328.7 मिलियन हेक्टेयर था तथा उस समय भारत की जनसंख्या लगभग 36 करोड थी परंतु इस समय भारत की आबादी 140 करोड़ के लगभग है. आबादी में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है लेकिन भौगोलिक क्षेत्र में एक इंच भी वृद्धि नहीं हुई है. भारत के  कुल क्षेत्र में से 306 मिलियन हेक्टेयर यानी के कुल क्षेत्र का 46.6% भाग (142.60 मिलियन हेक्टेयर भूमि) पर कृषि उत्पादन होता है इसमें से 47 मिलियन हेक्टेयर भूमि              सिंचित क्षेत्र है जोकि 53 फ़ीसदी खाद्य उत्पन्न करता है इसके विपरीत 95 मिलियन हेक्टर भूमि 44% खाद्यान्न  उत्पन्न करती है क्योंकि गैर सिंचित है और वर्षा पर निर्भर करती है. यदि बारिश ना आए तो सूखा पड़ जाता है.  किसान और कृषि दोनों बर्बाद हो जाते हैं. एक अनुमान के अनुसार 6.4  गांव हैं. लगभग 70% जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है. भारतवर्ष की अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है तथा कृषि क्षेत्र का राष्ट्रीय सकल उत्पाद (जीडीपी) में  योगदान 20 % है.

जमीन का मालिकाना हक– कृषि जमीन प्रतिवर्ष कम होना

  सन् 1970- 1971 में लगभग 71 मिलियन किसान परिवार थे .प्रत्येक किसान परिवार के पास लगभग  2 . 28 हेक्टेयर भूमि थी. परंतु धीरे – धीरे संयुक्त परिवार टूटते चले गए और एकल परिवारों की स्थापना के पश्चात भूमि का बंटवारा होता चला गया. सन 2015- 16 के कृषि जनगणना के अनुसार में किसान परिवारों की संख्या 145 मिलियन  गई है अथार्त 2 गुना अधिक हो गई और भूमि छोटे-छोटे टुकड़ों में बटने के कारण प्रति किसान परिवार घटती चली गई: जमीन के मालिकाना हक को पांच श्रेणियों हैं:—1मार्जिनल किसान( 1 हेक्टेयर से  कम भूमि);  2. छोटे किसान( 1 से 2 हेक्टेयर भूमि); 3. उप माध्यमिक किसान (2 से 4 हेक्टेयर भूमि);       4. माध्यमिक किसान (4 से 10 हेक्टेयर भूमि) ;और 5. बड़ा किसान (10 हेक्टेयर या उससे ज्यादा भूमि).

प्रत्येक किसान परिवार के पास लगभग 1 .8 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है.कृषि योग्य भूमि  का 86,2 % भाग लगभग 120 मिलियन परिवारों के पास है. प्रत्येक किसान परिवार के पास एवरेज तौर पर 1.1 हेक्टेयर भूमि है परंतु सीमांत परिवारों के पास एवरेज तौर पर प्रति किसान परिवार भूमि 1 हेक्टेयर से भी कम है .

  भारत के गामीण विकास मंत्रालय के भूमि संसाधन विभाग और इसरो के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा जारी ‘वैस्टलैंड एटलस-2019’ के अनुसार  बंजर जमीन को कृषि योग्य भूमि में बदलने की के लिए कृषि जमीन प्रतिवर्ष कम हो रही है, भारत में खेती की जमीन प्रति व्यक्ति औसतन 0.12 हेक्टेयर रह गई है, जबकि विश्व में यह आंकड़ा 0.28 हेक्टेयर है. पंजाब, बंगाल ,केरल और उत्तर प्रदेश के प्रमुख उदाहरण इस बात को सिद्ध करते हैं कि किस तरीके से कृषि योग्य भूमि प्रतिवर्ष कम होती जा रही है ..पंजाब में 14 हजार हेक्टेयर भूमि (कुल भूमि का 0.33 प्रतिशत),पश्चिम बंगाल में 62 हजार हेक्टेयर भूमि पर  अब कृषि नहीं होती. केरल में 42 हजार हेक्टेयर में किसान खेती करना पसंद नहीं करते और उनका मन कृषि कार्यों में नहीं लगता.

एटॉमिक बम से अधिक खतरनाक

उत्तर प्रदेश प्रतिवर्ष 48 हजार हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन को उजाड़ा जा रहा है। मकान, कारखानों, सड़कों औद्योगिक कॉरीडोर , विशेष आर्थिक जोन ,कारपोरेट के द्वारा निर्मित किए जाने वाले बड़े- बड़े गोदामों, बिल्डर्स के द्वारा बनाए जाने वाले गगनचुंबी इमारतों, सरकार के द्वारा बनाए जाने वाले नए  हवाई अड्डों का निर्माण  इत्यादि  के लिए  जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है. समस्त भारत में इस वर्तमान समय में बन रहे अथवा भविष्य में बनने वाले अथवा प्रस्तावित छह औद्योगिक कॉरीडोर के लिए 20.14 करोड़ हेक्टेयर भूमि सदा के लिए कृषि से वंचित हो जाएगी यद्यपि सरकारों के द्वारा यह कहा जाता है यह भूमि कृषि योग्य नहीं है परंतु वास्तविकता कुछ और ही है. कृषि और कृषक की बलि विकास के नाम पर दी जा रही है .परिणाम स्वरूप भविष्य में कृषि योग्य भूमि खेत और कम होते चले जाएंगे जनसंख्या बढ़ती चली जाएगी ऐसी स्थिति एटॉमिक बम से अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकती है और भारत को बढ़ती हुई जनसंख्या का पेट पालने के लिए शायद निर्यात पर निर्भर करना पड़ेगा .

मजदूरों की संख्या में वृद्धि

  स्टेट ऑफ रूरल एंड एग्रेरियन इंडिया रिपोर्ट 2020 के अनुसार, सन्1951 से सन् 2011 के बीच भारत की कृषि पर निर्भर जनसंख्या 60 प्रतिशत से घटकर 48 प्रतिशत पर आ गई। इसके साथ ही साथ कृषि पर निर्भर परिवार और कुल मालिकानों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई.  2001 से 2011 के बीच किसानों की संख्या 85 लाख कम हुई पर खेतिहर मजदूरों की संख्या में 3.75 करोड़ की वृद्धि हुई. सन्2015-16 कृषि जनगणना के अनुसार भारत में दलितों के स्वामित्व की 92.3 प्रतिशत भूमि, छोटी और मार्जिनल श्रेणी की हैं। इन परिवारों की आमदनी अपने होने वाले खर्च से कम हैं.!

संयुक्त राज्य अमेरिका ,कनाडा तथा चीन तथा चीन में प्रतिकिसान परिवार का मालिकाना हक इसके बिल्कुल विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका में तथा चीन 178 हेक्टेयर, कनाडा में किसान परिवार 273 हेक्टेयर भूमि है  तथा चीन में प्रति किसान परिवार 0. 7 हेक्टेयर भूमि है, इसके बावजूद भी चीन में प्रति कृषि उत्पाद पिछले 40 वर्षों से 4.5 प्रतिशत है तथा ग्लोबल हंगर रिपोर्ट सन् 2020 अनुसार चीन में भूखमरी नही है.जबकि भारत में 14% जनसंख्या कुपोष्ण का शिकार है. एक अनुमान के अनुसार भारतवर्ष में19 करोड व्यक्ति रात को भूखे सोते हैं.

संयुक्त राज्य अमेरिका में किसान धनी किसान हजारों एकड़ भूमि के मालिक है .उदाहरण के तौर पर सन 2020 की रिपोर्ट के अनुसार माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के मालिक बिल गेट्जो स्वयं किसान नहीं है उनके पास 2,44,000 एकड़ जमीन है. इसी प्रकार को ओफ्फूट परिवार के पास 1,90,000 एकड़ जमीन है.संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग एक दर्जन कारपोरेट के पास अमेरिका के 60% कृषि भूमि है. जिस पर बहुत ही मामूली वेतन पर हजारों किसान श्रमिक के रूप में काम करते हैं. आधा दर्जन कारपोरेट का यूरोप के कृषि मंडी पर पर कब्जा है तथा उनके द्वारा भ्रष्टाचारी लाभ के लिए कृषि मंडियों पर एकाधिकार करते जा रहे है ताकि किसानों और उपभोक्ताओं का शोषण किया जा सके. कृषि के विकास की प्राथमिकता के अभाव

सन् 1947 पश्चात कृषि के विकास की प्राथमिकता के अभाव के कारण कृषक, कृषि श्रमिक और कृषि के विकास में वह योगदान न कर सकें जो होना चाहिए था.कृषि के आधारभूत ढांचे एवं कृषि सेवा  का अपर्याप्त होना, साधारण किसान का अनपढ़ होना ,भूमि सुधारों के प्रति सरकार की धीमी गति,  कृषि उत्पादन के लिए धन का अभाव, मंडी की सेवाओं का अपर्याप्त होना , कम भूमि के स्वामित्व के कारण आधुनिक तकनीक के प्रयोग में कठिनाई होना, कृषि उपकरणों , कीटनाशक दवाइयों, नए बीजों,खाद तथा अन्य कृषि निवेश की वस्तुओं की कीमतों में अभूतपूर्व होना वृद्धि होना, भूमि की सिंचाई कI समुचित और पर्याप्त प्रबंध न होना इत्यादि मुख्य कारण है.परिणाम स्वरूप जब देश आजाद हुआ उस समय भारतीय समाज में गरीबी, बेरोजगारी, अज्ञानता ,अनपढ़  और पिछड़ापन विद्यमान था .

विदेशों से खाद्यान्न  का आयात

  कृषि के पिछड़ेपन के कारण भारत में गरीबी और भुखमरी का साम्राज्य हो गया . विदेशों से खाद्यान्न को आयात किया जाने लगा .भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने अपनी पुस्तक (चौधरी चरण सिंह ,   भारत की अर्थ नीति :गांधीवादी रूप  रेखा ,1978) में लिखा कि सन् 1965 –  1967  के अंतराल में अमेरिकी सरकार के द्वारा पीएल 480  के अंतर्गत भारत को 45,76,000 मीट्रिक टन गेहूं भारत को उपहार के रूप में दी गई  . कनाडा  सरकार के द्वारा भारत को 2,25,000 मीट्रिक टन गेहूं  उपहार के रूप में दी गई जिसकी कीमत 35.8 करोड रुपए थी.

सन् 1966 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य

भारत प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री सरकार की द्वारा किसानों की समस्या का समाधान करने के लिए तथा उनको फसलों का उचित मूल्य दिलाने के लिए एलके झा समिति का गठन किया गया. इस समिति ने 24 सितंबर  1964 को अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी. इस समिति की संस्तुतियों के आधार पर भारत सरकार के द्वारा 13 अक्टूबर 1964 को अनाज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर दिया गया है तथा 24 दिसंबर 1964 को न्यूनतम समर्थन मूल्यको स्वीकृति प्रदान की गई.परंतु 19 अक्टूबर 1965 को भारत सरकार के सचिव  शिव रमन ने अंतिम स्वीकृति प्रदान की. अमेरिकन कृषि वैज्ञानिक फरैंक पाकर के परामर्श पर भारत के तत्कालीन कृषि मंत्री सी. सुब्रमण्यम ने सन 1966 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य  ₹54 प्रति क्विंटल घोषित किया.

 विश्व में उदारीकरण ,निजीकरण तथा वैश्वीकरण( एलपीजी) का —- नव -उदारवाद की आंधी का  प्रभाव

सन्1990 के दशक में सोवियत संघ के भंग होने के पश्चात विश्व में उदारीकरण निजी करण तथा वैश्वीकरण( एलपीजी) नव – उदारवाद की विचारधारा की आंधी का  प्रभाव भारतीय सामाजिक, आर्थिक व ऱाजनैतिक व्यवस्थाओं पर भी पडा. पूंजीवादी राष्ट्रों  के दबाव के कारण भारत सरकार ने सभी क्षेत्रों में बाजारीकरण व बाजारीवाद को बढ़ावा दिया गया .

भारतीय कृषि क्षेत्र भी नव उदारवाद – बाजारवाद तथा बाजारीकरण से मुक्त न रह सका.परिणाम स्वरूप भारतीय खेतिहर मजदूरों , सीमांत किसानों को भी बीज, खाद ,कीटनाशक दवाइयों, कृषि उर्वरों इत्यादि के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों ,कारपोरेट व्यापारियों ,आढतियों  पर निर्भर रहना पड़ा . कृषि का व्यवसायीकरण हो गया. इसका ग्रामीण  जीवन शैली, ग्रामीण संस्कृति और ग्रामीण सभ्यता  पर भी पडा . नव उदारवाद की तीव्र गति ने ग्रामीण जीवन शैली को कमजोर कर दिया और खाद्य सुरक्षा प्रदान करने वाली परंपरागत फसलों की अपेक्षा केश क्राप  उत्पादन पर बल दिया जाने लगा,. केश क्राप  के कुप्रभाव ग्रामीण आंचल में इतने भयानक सिद्ध   हुए .व धीरे-धीरे  कृषि सीमांत किसानों के लिए घाटे का सौदा बनता चला गया.

कृषि कार्य से विमुख होते किसान

भारतीय किसान कृषि कार्य से विमुख होते जा रहे हैं .सन्1991 से सन्2001 तक जनगणना के अंतराल में एक दशक में 8 मिलीयन किसानों ने कृषि कार्य को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया. सन् 2013आंकड़ों के अनुसार 62% किसानों का यह मानना था कि यदि उनको वैकल्पिक मिल जाए तो वह खेती को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगे. सीएसडीएस के( फरवरी 2018) के आंकड़ों के अनुसार यह संख्या बढ़कर 64% हो गई है. यही कारण है कि किसान परेशान हैं. तीन कृषि कानूनों ने  किसानों के समस्याओं को और अधिक गंभीर कर दिया.

 अन्नदाता आत्महत्या को मजबूर

किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं हुआ .किसानों की स्थिति धीरे-रे कमजोर होने लगी. परिणाम स्वरूप एक ओर किसानों ने खेती करना बंद कर दिया और अन्य व्यवसाय की तलाश में शहरों में आने लगे तथा दूसरी ओर आत्महत्याओं का सिलसिला जारी रहा. सन् 1995 सन् 2016 तक भारतीय सरकार के रिकॉर्ड के अनुसार 3,23407 किसानों ने आत्महत्याएं की.

   सन्  2014 के लोकसभा चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी स्टार प्रचारक तथा वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की आत्महत्याओं के लिए डा.मनमोहन सिंह की  सरकार को दोषी ठहराया. परंतु  सन् 2014 के पश्चात  भाजपा नीत एनडीए की सरकार के कार्यकाल में भी आत्महत्याओं का सिलसिला बंद नहीं हुआ. राष्ट्रीय अपराध पंजीकरण शाखा के अनुसार सन् 2014 में 12336 ,सन् 2015 में 12602, सन् 2016 में 11379, सन् 2017 में 10665, सन्2018 में 10,350 , सन् 2019 में 10281 तथा सन् 2020 में 10670 किसानों ने  आत्महत्याएं की है. सन् 2020 में महाराष्ट्र में 4,006, कर्नाटक में 2016, आंध्र प्रदेश में 889, मध्यप्रदेश में 735 तथा छत्तीसगढ़ में 537 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं. हरियाणा में वर्ष 2020 में 280 कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की हैं.

पंजाब का रिकॉर्ड काफी डरावना है. पंजाब के विश्वविद्यालयों के द्वारा इकट्ढे किए गए आंकड़े के अनुसार  पंजाब में सन् 2000 से लेकर सन् 2016 तक 16 वर्षों में 16,600 किसानों ने आत्महत्या की है.  अतःस्पष्ट है कि प्रतिवर्ष 1000 से अधिक किसानों ने पंजाब में आत्महत्या की है. इसका मूल कारण किसान कर्ज में डूबे हुए हैं और उनके लिए कर्ज चुकाना अत्यधिक कठिन कार्य है.

सन् 2014- सन् 2020 के अंतराल में मोदी सरकार की ‘पूंजीपतियों को नमन और किसानों का दमन’की नीति के चलते 78,303 किसानों ने आत्महत्या की है, जिसमें 35,122खेतिहर मजदूर हैं। सन् 2019 की तुलना में सन्  2020 में खेतिहर मजदूरों ने 18 प्रतिशत तक अधिक आत्महत्या की है। सन् 1995 से सन 2020 तक 25 वर्ष के अंतराल में लगभग 4,00,000 किसानों ने आत्महत्या की .परंतु बेरहम केंद्रीय और राज्य सरकारों की किसानों की आत्महत्याओं और इनकी समस्याओं के संबंध में लगभग निष्क्रियता रही है.

संक्षेप में  भारत सरकार के सांख्यिकीय मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया कि देश के किसानों की औसत आय मात्र 26.67 रु. प्रतिदिन है और औसत कर्ज 74,000 रु. प्रति किसान हो गया है। किसानों की आय घटती चलेगी और कर्ज बढ़ता चला गया.नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े के अनुसार आंध्र प्रदेश के 82 % ,पंजाब और महाराष्ट्र में औसतन 65% किसान कर्ज में डूबे हुए हैं. इन राज्यों में ही किसानों  की आत्महत्याएं सबसे अधिक हैं। .किसानों के साथ अन्याय, रोष और असंतोष के  परिणाम स्वरूप किसान आंदोलनों की पृष्ठभूमि तैयार हुई.

कृषि कार्य महंगा होना

 विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा उत्पादित विदेशी महंगे, बीटीबीज,उत्पाद कम, कीड़े लगने की समस्या, कृषि में प्रयोग होने वाले निवेश – कृषि उर्वरक, कीटनाशक दवाइयां , यूरिया खाद,डीजल  मंहगी लेबर, मंहगे  कर्षि उपकरण,  सूखा व बेमौसमी, बारिश ओलावृष्टि व बाढ, जंगली जानवरों एवं आवारा गायों, बछड़ों, बैलों के द्वारा फसल की बर्बादी इत्यादि के कारण भी कृषि कार्य महंगा होता जा रहा है.

फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य सीटू फार्मूले के अनुसार न मिलना

केवल यही नहीं अपितु किसानों को उनकी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य स्वामीनाथन् रिपोर्ट के आधार पर सीटू फार्मूले के अनुसार नहीं मिलने के कारण कृषि निरंतर घाटे का सौदा बनता जा रहा है और किसान कृषि कार्य विमुख होते जा रहे हैं. भारत सरकार अपनी रिपोर्ट अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसान की फसलें पर्याप्त मात्रा में नहीं खरीदी जा रहीं और उन्हें बाजार में 40 प्रतिशत तक कम दाम मिल रहे हैं। सन् 2016 से लागू की गई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में भी निजी कंपनियों को 26,000 करोड़ रु. का मुनाफा हुआ है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट में भी यह खुलासा किया गया है कि भारत के सौ अमीरों की संपत्ति 13 लाख करोड़ रु. बढ़ी .भारत के 12 करोड़ लोगों को लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा और भयंकर बेरोजगारी के साथ में करना पड़ा.आरबीआई ने अपनी रिपोर्ट में कि नोटबंदी और गलत जीएसटी से देश के छोटे और मंझोले कारोबार तबाह हो गए हैं, असंगठित क्षेत्र के, करोड़ों लोगों ने अपनी नौकरी से हाथ धोया. 16 जनवरी 2022 को जारी ऑक्सफैम की रिपोर्ट इनिक्वालिटी किल्स   2021 में भारत में 100 सबसे अमीर लोगों के सामूहिक संपत्ति 57 . 3लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गई, इसके बिल्कुल विपरीत84% परिवारों की आय घटी है.

.   स्वामीनाथन आयोग(2006) ने अपनी संस्तुतियों में सीटू फार्मूले के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने का सुझाव दिया था. सन 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी (अब भारत के प्रधानमंत्री )ने 437 जनसभाओं  को संबोधित किय.इनमें से 219 जनसभाओं में स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करने, किसानों को फसलों का समर्थन मूल्य देने तथा कर्ज माफी का आश्वासन दिया था. भारतीय जनता पार्टी के सन 2014 के संकल्प पत्र में किसानों को उत्पाद के लिए लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने का आश्वासन भी किया गया था. लेकिन सत्ता में आने के बाद सरकार का नेतृत्व मुकर गया  और सन् 2015 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर किया है जिसमें कहा गया कि सरकार यह वादा पूरा नहीं कर सकती.

ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को–ऑपरेशन एंड डवलपमेंट की रिपोर्ट के मुताबिक सन् 2013 से सन् 2016 के बीच के तीन साल में किसानों की आय केवल 2% बढ़ी। इसे देखते हुए सरकार ने ऐलानिया तौर पर कहा कि साल 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना है। एक सरकारी कमेटी की रिपोर्ट ने अनुमान लगाया कि  2015के मुकाबले 2022 में आय दोगुनी करने के लिए किसानों की आय को 10.4 % की सालाना दर से बढ़ाना था परंतु धरातल पर यह बात खरी नहीं उतरी. इस संबंध में कहा जा सकता है कि

“मेरे महबूब ने वादा किया था  पांचवें दिन का ,

 किसी से सुन लिया होगा दुनिया चार दिन की है”.

किसानों की आय घटने के मुख्य कारण: किसानों में रोष और असंतोष किसानों के आय घटने के मुख्य कारणों का वर्णन अग्र लिखित है

  1. वादाखिलाफी के कारण असंतोष

सन 2014 के लोकसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी (वर्तमान प्रधानमंत्री) 219 जनसभाओं में किसानों को वादा करते हुए कहा था कि हमारी सरकार बनने पर  मैं पहले दिन पहली कलम से स्वामीनाथन रिपोर्ट  की संस्तुतियों को लागू करूंगा तथा एमएसपी और कर्ज माफी का  वादा भी किया गया था.परंतु सत्ता में आने के बाद भारतीय सरकार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ,भाजपा इस वायदे को भूल गई और कृषि घाटा जारी रहा .

2. कोरोना काल में कृषि में वृद्धि  

किसानों के आय में वृद्धि  नहीं  कोरोना काल में किसानों और श्रमिकों ने खेतों में काम करके सन् 2019 तथा सन्2020 में 29.19 करोड टन अनाज पैदा किया. यह अनाज भारत की आवश्यकता से लगभग 7 करोड टन से अधिक था. सन् 2020  सन् 2021 में 350 मिलियन टन अनाज पैदा करके भारतीय किसानों ने रिकॉर्ड स्थापित किया. वर्ष 2020-21 में कुल खाद्यान्न उत्पादन करीब 30.86 करोड़ टन का  रिकॉर्ड रहा है। वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान देश से 41.25 अरब डॉलर मूल्य के कृषि एवं संबद्ध उत्पादों का निर्यात किया गया। यह निर्यात मूल्य वर्ष 2019-20 के 35.15 अरब डॉलर मूल्य की तुलना में 17.34 फीसदी ज्यादा है।

   आज स्थिति यह है कि भारतीय किसानों तथा मजदूरों की मेहनत के कारण भारत खाद्यान्न का निर्यात करता है. 18 अगस्त 2020 को एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना काल में मार्च 2019 से जून 2020 तक  भारत ने 25552 करोड रुपए का कृषि निर्यात किया .यह अभूतपूर्व विकास की सफलता की कहानी है . पिछले वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान देश से 41.25 अरब डॉलर मूल्य के कृषि एवं संबद्ध उत्पादों का निर्यात किया गया। यह निर्यात मूल्य वर्ष 2019-20 के 35.15 अरब डॉलर मूल्य की तुलना में 17.34 फीसदी ज्यादा है। चालू वित्त वर्ष 2021- 22 में कृषि निर्यात और अधिक ऊंचाई पर पहुंचते हुए दिखाई दे सकता है। परिणाम स्वरूप भारत का जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 17 % से बढ़ कर 20% हो गया है. यह एक शुभ संकेत है. लेकिन किसानों के आय में वृद्धि  नहीं हुई. जबकि निर्यातकों की आमदनी में अभूतपूर्व वृद्धि हुई.

  1. सरकारकी गलत नीतियां, योजनाएं तथा अनुचित हस्तक्षेप 

. सन् 2014 से दिसंबर 2018 तक 4 वर्षों में कृषि उत्पादों का निर्यात 20% घटा और आयात में 60% की वृद्धि हुई . परिणाम स्वरुप भारत के बाजार में भारतीय किसानों की कृषि उत्पादों का भाव से नीचे गिर गया. किसानों को अभूतपूर्व नुकसान हुआ .ऑर्गेनाइजेशन आफ इकोनामिक कोऑपरेशन एंड डिवेलमेंट(ओ बी सी डी) की रिपोर्ट के  अनुसार सन् 2000 से सन् 2017 तक –17 वर्षों के अंतराल में किसानों की आय में 14% की कमी आई .इसका मूल कारण सरकार की गलत नीतियां, योजनाएं तथा अनुचित हस्तक्षेप  हैं.

  1. कर्जमें डूबे किसान परिवारों  की दयनीय स्थिति

यद्यपि किसानों की आय प्रतिवर्ष घटती चली गई .इसके बावजूद भी बहुत कम किसानों ने खेती से विदाई ली क्योंकि उनके पास कोई सम्मानजनक   व्यवसाय नहीं था .किसानों को घर पर चलाने,  बच्चों की पढ़ाई, विवाह – शादी ,कृषि निवेश तथा अन्य कार्यों के लिए संस्थागत और गैर संस्थागत स्त्रोतों  से लोन लेना पड़ा.परिणाम स्वरुप वह कर्ज में डूबता चला गया. रिपोर्ट के अनुसार सन् 2013 में किए गए सर्वेक्षण की तुलना में कर्ज में डूबे परिवारों का प्रतिशत 51.9 फीसदी से  कम है परंतु सन 2019 में  प्रति  कृषि परिवार ऋण की औसत राशि में 57 % की वृद्धि हुई है। सन 2013 में औसत कर्ज ₹ 47,000 था. जबकि सन 2019 में प्रति  कृषि परिवार  पर कर्ज की औसत राशि ₹ 74,121 रुपये थी। 11 राज्यों में कृषि परिवारों का बकाया कर्ज राष्ट्रीय औसत राशि  ₹ 74,121 से अधिक है । बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हंटर समिति रिपोर्ट के अनुसार भारतीय किसान ऋण में पैदा होता है , ऋण में जीता है और,ऋण में  मरता है . लगभग 100 साल के बाद आज 21 वीं शताब्दी के तीसरे दशक के प्रारंभ में भी वही स्थिति है.

5. फसलों का समर्थन मूल्य   उचित न मिलने के कारण अभूतपूर्व नुकसान

 किसानों में रोष  और असंतोष का महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि आज तक किसानों को कभी भी उनकी जीन्स का उचित मूल्य अर्थात घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिला .शांता कुमार कमेटी के अनुसार भारतवर्ष केवल 6%मंडियां ही एमसपी से जुड़ी हुई हैं. अन्य शब्दों में  94 % मंडिया एमएसपी से जुड़ी हुई नहीं है. केवल यही नहीं अपितु न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कृषि खरीद और मूल्य आयोग  (सीएसईपी) के द्वारा किया जाता है .आयोग   का एमएसपी निकालने का फॉर्मूला भी गलत है. स्वामीनाथन रिपोर्ट के आधार पर सीटू फार्मूले के आधार पर फसलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित करना चाहिए. परंतु ऐसा नहीं होता. आयोग की रिपोर्ट के अनुसार सन्1995 से सन् 1915 तक 20 वर्षों के अंतराल में कपास का जानबूझकर 20% कम रखा गया  टैक्सटाइल इंडस्ट्री को लाभ पहुंचाया जा सके और उनको सामान प्राप्त हो संयुक्त राष्ट्र अध्ययन इस बात को सिद्ध करते हैं

इसके अतिरिक्त जो न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार निर्धारित करती है वास्तव में वह भी किसानों को प्राप्त नहीं होता .उदाहरण के तौर पर सन् 2018 में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य ₹ 1750 प्रति क्विंटल घोषित किया गया है जबकि किसान की लागत ₹2340 प्रति क्विंटल थी .परिणाम स्वरूप किसान को प्रति क्विंटल ₹600 का नुकसान हुआ. यही बात अन्य फसलों के बारे में कही जा सकती है. सही न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने का कारण किसानों को अभूतपूर्व नुकसान हुआ है .

सरकारी ऐगमार्कनेट पोर्टल के डाटा के आधार पर यह निश्चित रूप में कहा जा सकता है कि 14 सितंबर 2020 से 10 अक्टूबर 2020 तक 600 मंडियों का अध्ययन यह बताता है िक 68 प्रतिशत किसानों ने अपनी 10 फसलों को एमएसपी से कम दामों पर  बेचा है. 1 अक्टूबर 2020 से 13 अक्टूबर 2020 तक के समय में पंजाब-हरियाणा को छोड़कर बाकी सभी अन्य राज्यों में धान की फसल ₹300 प्रति क्विंटल से लेकर ₹1000 प्रति कुंटल एमएसपी से कम रेट पर खरीदी गई. क्योंकि किसानों को न्यूनतम समर्थन   मूल्य नहीं मिलता इसलिए किसी भी फसल के उत्पादन में उनको फायदा नहीं होता. स्वामीनाथन रिपोर्ट की सिफारिश के अनुसार सीटू फार्मूले के आधार पर कुल लागत पर 50% जोड़कर एमएसपी निकाला जाए . किसी भी सरकार ने सी- टू फार्मूले के आधार पर किसानों का समर्थन मूल्य नहीं दिया| किसानों के लिए यह हानिकारक सिद्ध हुआ. परिणाम स्वरूप किसानों को बहुत अधिक नुकसान  भुगतना पड़ रहा है. इसलिए किसी भी फसल के उत्पादन में उनको फायदा नहीं होता. किसानों को उचित समर्थन मूल्य नहीं मिलने के कारण सन 2017 की ओ ई सी डी  रिपोर्ट के अनुसार सन 2001 से सन 2016 तक लगभग 45लाख करोड रुपए का नुकसान हुआ है . किसानों को यह नुकसान प्रति एकड़ ₹10000 तक प्रति वर्ष है.

  1. बेरोजगारीमें अभूतपूर्व वृद्धि

नोटबंदी के कारण व्यापार, बाजार तथा अन्य आधारभूत कार्यों पर बुरा असर पड़ा .परिणाम स्वरूप बेरोजगारी में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और पिछले कई दशक का रिकॉर्ड टूट गया .इसके साथ साथ जीएसटी का प्रभाव बाजार पर पड़ा. इन दोनों के अतिरिक्त  वैश्विक महामारी कोविड-19  का शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत बुरा प्रभाव पड़ा तथा आर्थिक ढांचा बैठ गया .यद्यपि  फसल का उत्पादन बढ़ा और  जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 17% से बढ़कर 20% हो गया है .इसके बावजूद भी किसानों की समस्याओं का समाधान ना हुआ .सन् 2014 जो वायदे दिए गए थे जो भाजपा नीत केन्द सरकार ने पूरे नहीं किए तो  किसानों ने अपने आप को ठगा हुआ समझा है.

7. अधिकारों और न्याय के लिए संघर्ष इतिहास

इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है  कि इतिहास के विभिन्न कालों मेंसमाज को  विभिन्न वर्गों में विभाजित करके धर्म के नाम पर लोगों का बंटवारा करके उनको निरंकुशता से दबाने का प्रयास किया . यही कारण है सन् 2014 में जो किसानों को वायदे किए गए थे वह सरकार ने पूरे नहीं किए उनकी अपेक्षा धर्म, जाति , छद्म राष्ट्रवाद, घोर राष्ट्रवाद, भारत बनाम पाकिस्तान, हिंदू बनाम मुस्लिम,राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद इत्यादि मुद्दों के आधार पर प्रजातांत्रिक तरीके से सता में आने पश्चात सर्व सत्तावादी  व्यवस्था में परिवर्तित  कर  दिया. प्रजातांत्रिक तरीके से निर्वाचित एनडीए सरकार सर्व सत्तावादी  तरीके से  नोटबंदी ,जीएसटी ,धारा 370,  जम्मू कश्मीर का विभाजन नागरिकता कानून और 4 घंटे का समय देकर कोरोना  लाक  डाउन इस बात को सिद्ध करते हैं कि सरकार प्रजातांत्रिक तरीके के विरूद्ध है यही नहीं अपितु मेंनस्ट्रीम मीडिया, न्यायपालिका, कार्यपालिका विधायिका तथा स्वायत्त संस्थाओं को रीढ-विहीन बना दिया.

परिणाम स्वरूप जनता में विशेष तौर से किसानों में  आक्रोश और असंतोष निरंतर बढ़ता चला गया .इस आक्रोश और असंतोष को प्रजातांत्रिक विचारधारा का समर्थन करने वाले लोगों ने अधिकारों, न्याय इत्यादि विषयों पर समाज में जागरूकता पैदा करके  व्यापक असंतोष को केंद्रित किया और आक्रोश को किसान आंदोलन में परिवर्तित कर दिया.

 महत्वपूर्ण किसान आंदोलन (सन् 2014 से सन् 2018)

 सन 2020 से पूर्व भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अति महत्वपूर्ण आंदोलन जो अखबारों के सुर्खियां रहे हैं. आंदोलनों में मुख्य आंदोलन है:

.भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश( सन 2015 ) के विरुद्ध आंदोलन,. दिल्ली में विशाल रैली (नवंबर 2016) राजस्थान के किसानों आंदोलन (सन 2017 2018),.महाराष्ट्र में किसान आंदोलन(1 जून से 11 जून 2017) . किसान मुक्ति संसद तथा महिला किसान संसद दिल्ली (नवंबर 2017)

,महाराष्ट्र में किसानों के द्वारा नासिक से मुंबई तक लांग मार्च (मार्च 2018), तमिलनाडु के किसानों का आंदोलन, दिल्ली (30 जून 2018). राष्ट्रव्यापी जेल भरो आंदोलन (9 अगस्त 2018) 7. किसान -मजदूर रैली दिल्ली (5 सितंबर 2018) , पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान क्रांति यात्रा –दिल्ली मार्च (23सितंबर2018  –  2 अक्टूबर 2018).,, 2018 ).किसान मुक्ति मार्च (29 -30 नवंबर 2018) महत्वपूर्ण आंदोलन हैं.

इन आंदोलनों में मंदसौर गोलीकांड आंदोलन का संक्षिप्त वर्णन करना अत्यंत आवश्यक है ताकि हम किसान आंदोलन सन् 2020-सन्2021 को समझ सके

मंदसौर आंदोलन (30 जून 2017)

सन 2014 से 2018  तक सर्वाधिक महत्वपूर्ण  मंदसौर आंदोलन है .इस आंदोलन में किसान आंदोलन 2020-2021 के लिए अभूतपूर्व भूमिका तैयार की है. मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान आंदोलन (30 जून 2017 ) मंदसौर से प्रारंभ हुआ  . पुलिस की फायरिंग में 7 किसानों की मृत्यु हुई. मंदसौर की घटना के पश्चात लगभग 80 संगठनों ने एक राष्ट्रीय गठबंधन, —–अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ( AIKSCC ) का गठन किया .मंदसौर गोलीकांड के एक महीने के पश्चात 6 जुलाई 2017 को अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के 20 राज्यों के 250 किसान संगठनों द्वारा पुलिस के द्वारा गोली चलाने से जो किसान शहीद हुए थे .उनको श्रद्धांजलि देकर विरोध किया. इस  श्रद्धांजलि कार्यक्रम के समय  पुलिस ने जिन सैंकडों किसानों को गिरफ्तार किया था .उनको रिहा करवाने के लिए पूरे देश में “किसान मुक्ति यात्रा”  आयोजित की गयी. अखिल भारतीय किसान संघ संघर्ष समन्वय समिति के द्वारा देशभर में 500 से अधिक किसान मुक्ति सम्मेलन आयोजित किए. इसके पश्चात किसानों ने दो बार दिल्ली में प्रदर्शन किया. इन दोनों प्रदर्शनों में लाखों  किसानों ने भाग लेकर किसान मुद्दों के साथ अपनी सहमति प्रकट की. यदि वास्तविक रूप में देखा जाए तो तीन कृषि  कानूनों के विरुद्ध सन् 2020- सन्2021 आंदोलन की अनौपचारिक नींव “मंदसौर गोलीकांड” में रखी गई.

भारतीय जनता पार्टी नीत गठबंधन सरकार की नीतियों  और  निष्क्रियता के विरुद्ध किसान संगठनों के द्वारा  सोशल मीडिया का प्रयोग किया गया है. परिणाम स्वरूप गांव से लेकर भारत की राजधानी दिल्ली तक किसानों की समस्याओं का ज्ञान आम आदमी तक पहुंचा. किसानों की मांगों के प्रति  ग्रामीण और शहरी लोगों में एक विशेष प्रकार की जागरूकता प्राप्त हुई और इसी जागरूकता के कारण किसान आंदोलन सन् 2020- सन्  2021 को जनमत जनता का समर्थन प्राप्त हुआ

किसान आंदोलन(30  नवम्बर2018)  दिल्ली में 207 संगठनों की समन्वय समिति के नेतृत्व में किसानों का एक बहुत बड़ा आंदोलन(30 नवम्बर2018) लामबंद किया गया . इस आंदोलन में विपक्षी दलों ने भी भाग लिया और विपक्ष मंच पर एकजुट हो गए. इस आंदोलन में दिल्ली में किसानों    तथा महिला किसानों के द्वारा अपनी-अपनी संसद का संचालन किया गया ,किसान ससदों में किसानों ने दो किसान मुक्ति विधेयक बिल पारित किए–1. कृषि उत्पादन का रेट डेढ गुणा करना 2 पूर्ण कर्जा माफी. भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन के  भारतीय जनता पार्टी  सहित 22 राजनीतिक दलों को छोड़कर इन किसान विधायकों को 19 विरोधी दलों का समर्थन प्राप्त था .

 दरअसल सरकार के विरुद्ध जगह-जगह किसान विद्रोह, आंदोलन, हडताल, धरने ,प्रदर्शन जलसे,  जलूस होने लगे. एक अनुमान के अनुसार  सन् 2014 से सन् 2016 के अंतराल में किसानों के विरोध प्रदर्शनों की संख्या 628 से  बढ़कर 4837 हो गई  – लगभग 700% की वृद्धि हुई .

इस पृष्ठभूमि के अंतर्गत भारत सरकार ने 5 जून 2020 को जब कोरोना( कोविड-19 )महामारी अपनी चरम सीमा पर थी उस समय भारत के राष्ट्रपति के द्वारा तीन अध्यादेश जारी किए गए तथा 14 सितंबर 2020 को भारत सरकार ने इनको संसद में प्रस्तुत किया.संसदकी स्वीकृति तथा राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के पश्चात 27 सितंबर 2020  (रविवार) को भारत सरकार के विधि मंत्रालय ने इनको राजपत्र में प्रकाशित करवा दिया और तीनों कृषि कानून एक दम लागू हो गए .इन तीन कृषि कानूनों ने  किसानों के समस्याओं को और अधिक गंभीर कर दिया.  सन् 2020 से सन् 2021 के अंत तक किसान आंदोलन का स्वरूप विश्व के किसान आंदोलन के इतिहास में अपने आप में अनूठा है.. यह आंदोलन 378 दिन चला. इस आंदोलन में लगभग 750 किसान शहीद हुए. 27 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन तीन कृषि कानूनों को वापिस ले लिया .किसानों की कुर्बानी की यह अभूतपूर्व विजय थी. यद्यपि किसानों की बाकी मांगे अभी तक पूरी नहीं हुई.यह विश्व का सर्वाधिक लोकतांत्रिक , धर्मनिरपेक्ष एवं शांतिपूर्ण आंदोलन है. यह ”करो या मरो की नीति” के आधार पर किसानों का “फसल और नस्ल” बचाने का आंदोलन है. यह किसान आंदोलन विश्व का सर्वाधिक लोकतांत्रिक , धर्मनिरपेक्ष एवं शांतिपूर्ण आंदोलन है. जनता को जागरूक तथा लामबंद करने अभूतपूर्व सफल रहा है.

(टिप्पणी यह लेख लेखक द्वारा किसान आंदोलन (सन् 2020- सन् 2021)पर शीघ्र  प्रकाशित होने वाली पुस्तक का एक भाग है.)

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