24-9-1873 को सत्य शोधक समाज,
24-9-1924 को समता सैनिक दल एवं,
24-9-1932 को चमचा युग की स्थापना हुई
समाज वीकली
हमारा ध्यान उन्होने क्या किया (पूना समझौता जबर्दस्ती गांधी और कंपनी ने कराया था) या उसके दुष्प्रभाव पर प्रतिक्रिया देने में अधिक रहा, हमने स्वयं जो किया/करना था उसे हम लगभग़ भूल ही गए l
परिणाम सामने है, हमारे दो महानतम यौद्धाओं के सामाजिक क्षेत्र में किए गए बुनियादी सांगठनिक कार्यो को हमने लगभग़ मिटा सा दिया, जिस कारण हमारी स्वतंत्र राजनीति निष्प्रभावी ही रही l
अगर भविष्य में भी हमें अपनी राजनीति सफल बनानी है, तो हर हाल में गैर राजनैतिक जड़ों को मजबूत करना ही होगा. इसका कोई शॉर्ट कट नहीं है ।
1982 में कांशीराम साहेब ने पूना पैक्ट की 50 वीं बरसी पर चमचा युग किताब लांच करते हुए कहा था कि अब हम धिक्कार दिवस नही मनाएंगे बल्कि पूना पैक्ट का तोड़ निकालेंगे और चमचा युग को समाप्त कर देगें।
इसके लिए उन्होने बहुजन समाज के साझा मंच को पूना पैक्ट का विकल्प बताया और अपनी बेजोड़ संगठन क्षमता, रणनीति, लगन, मेहनत और सबसे बढकर त्याग तथा बलिदान से सोई हुई कौम में यह हौंसला और विश्वास जगाया कि चमचा युग को समाप्त किया जा सकता। मनुवाद को सिर के बल लटकाया जा सकता है।
उनकी रणनीति का एक बड़ा हिस्सा था कि जो फूट डालो और राज करो की नीति मनुवादी विशेषतः आरक्षित सीटों पर करते हैं हमे वही दाव सामान्य सीटों पर लगाना है। इस रणनीति की ही वजह से आप् देखेंगें कि बसपा की आरंभिक चुनावी सफलाएं सामान्य क्षेत्रों में अधिक थी और रिजर्व सीट अधिकतर मनुवादी दलों के कब्जे में रहती थी। लेकिन 2007 में वह समय भी आया जब उत्तर प्रदेश की 89 में से 63 अनुसूचित जाति की सीटों (70%) को जीतकर मनुवाद को उल्टा लटका दिया था।
वह बहुजन राजनीति का उत्कृष्ट काल था उसी विजयी रणनीति और सफल राजनीति जिसे पुनर्जीवित करने की जरुरत है।
लेकिन पूना पैक्ट सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं था । पूना पैक्ट का पार्ट बी सेवाओं और शिक्षा में प्रतिनिधित्व को लेकर था जिसे बाबा साहेब ने बड़ी मुश्किल से डलवाया था। शिक्षा और सेवा संबंधी उपबंध ब्रिटिश प्रधानमन्त्री रमसे मैकडोनाल्ड द्वारा घोषित मूल कम्यूनल अवार्ड का हिस्सा नहीं था। इसलिये आज जो सरकारी सेवा और शिक्षा में प्रतिनिधि हैं उनकी भूमिका की समीक्षा का भी समय है कि जिस प्रकार राजनैताओ ने अपनी जुबान बंद करली है उनकी क्या मजबूरी है?
अगर आप सड़को पर संघर्ष नही करना चाहते या सर्विस रूल्स की वजह से नही कर सकते हैं, तो कोई बात नही, लेकिन फुले बिरसा आंबेडकर विचाराधारा और जीवन पद्धति को तो अपना सकते हैं। या जो लोग कर रहें है उनकी हौंसला अफजाई तो कर सकते हैं।
बहुजन समाज में एकता स्थापित करने के महान उद्देश के लिए उसके सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक शैक्षणिक आर्थिक सशक्तिकरण में तो महत्तवपूर्ण भूमिका निभा सकते है। अगर महापुरुषों के त्याग बलिदान से मिली संवैधानिक सुविधाओं का तो लाभ लेंगे लेकिन मनुवाद के वैचारिक सांस्कृतिक गुलाम बने रहेंगे तो राजनैतिक गुलामों को कुछ कहने का हमें कोई नैतिक हक़ नहीं है क्योंकि कम से से कम उन पर तो मनुवादियों का चुनाव में वोट लेने की मजबूरी है, लेकिन रिज़र्वेशन के लाभार्थियों की क्या मजबूरी है मनुवाद को अपने कंधो पर ढोने की?
इसलिए पूना पैक्ट के धिक्कार की नही, उससे उत्पन्न समस्या के समाधान का हिस्सा बनने की जरुरत है।
जय भीम