दयाल सिंह मजीठिया एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी चिंतक व नेता :एक विश्लेषण

Dr Ramji lal

डॉ. रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा-भारत)
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(समाज वीकली)- सरदार दयाल सिंह मजीठिया (सन्1848-सन्1898) एक महान दानवीर, राष्ट्रनायक तथा समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, उदारवाद और मानवता के प्रेमी, संपादक, पत्रकार, अच्छे खिलाड़ी, अर्थशास्त्री, दानवीर, प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता, गंभीर अध्येता, लेखक, शिक्षाविद्, कवि, ब्रह्मो समाजी, तर्कशील्, ओजस्वी वक्ता, उदारवादी राष्ट्रवादी नेता व एक आदर्श व्यक्तित्व के धनी थे. वास्तव में वे एक युग पुरुष, प्रतिभावान, युगदूत एवं युगदृता, महान दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी थे. करिश्मावादी विराट व्यक्तित्व और महान गुणों के कारण उनका नाम तत्कालीन समय में और आज भी लाहौर (अब पाकिस्तान) से लेकर कलकत्ता (अब कोलकाता– पश्चिम बंगाल) तक बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है.

दयाल सिंह मजीठिया के डीएनए में पुरखों से धर्मनिरपेक्षता ग्रहण की तथा उनकी प्रारंभिक शिक्षा क्रिश्चियन मिशन स्कूल, अमृतसर में हुई थी. इस स्कूल के वातावरण के से उनका अभिमुखीकरण एवं रुझान ईसाई धर्म के प्रति बढ़ा. केवल यही नहीं अपितु उनके दिल व दिमाग पर ईसाई महिला शिक्षक के व्यक्तित्व, विचारों एवं कृतियों का भी अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा. ईसाई धर्म के सिद्धांतों एवं नियमों की समुचित जानकारी हेतु उन्होंने बाइबल का अध्ययन किया .

अपने इंग्लैंड के 2 वर्ष प्रवास के समय (सन् 1874- सन् 1876) उनके विचारों पर प्रगतिशील एवं धर्मनिरपेक्ष उदारवादी चिंतन का प्रभाव बहुत अधिक पड़ा. अपने दो वर्ष (सन् 1874- सन् 1876) के प्रवास के दौरान उन्होंने सिख धर्म के बाह्य प्रतीकों को त्याग दिया, परन्तु वे स्वयं को सिख कहते रहे तथा सिख धर्म के सिद्धांतों पर विश्वास करते रहे. उन्होंने पंजाब के समकालीन समाज में व्याप्त अंध रूढ़िवादिता के विरुद्ध आवाज उठाई. परन्तु दुःख की बात यह है कि सिख धर्म के कट्टरपंथियों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया तथा उन्हें सम्मान नहीं दिया. अर्थात् सिख समुदाय ने उन्हें अस्वीकार कर दिया. परिणामस्वरूप, दयाल सिंह सिख धर्म के अनुयायियों के इस व्यवहार से बहुत अधिक आध्यात्मिक रूप से आहत हुए.

लाहौर में रहते हुए, उनके विचार और दृष्टिकोण व्यापक हो गए. इसका मुख्य कारण यह था कि लाहौर में रहते हुए दयाल सिंह ने विभिन्न धर्मों – हिंदू धर्म, सिख धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म आदि का तुलनात्मक अध्ययन किया. स्वामी दयानंद सरस्वती (आर्य समाज के संस्थापक एवं सत्यार्थ प्रकाश के रचनाकार ) तथा स्वामी विवेकानंद से धार्मिक विषयों पर विचार- विमर्श किया. परंतु संतुष्ट नहीं हुए.उन्होंने फिरोजपुर के संस्कृत के अध्यापक से गीता का ज्ञान प्राप्त किया. हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि दयाल सिंह ने बाइबल, गीता व कुरान का तुलनात्मक अध्ययन किया तथा प्रत्येक धार्मिक ग्रंथ के उन सिद्धांतों ग्रहण किया जो उसके तर्क व विवेक की कसौटी पर खरे उतरते थे.

19वीं शताब्दी में समाज सुधारक अभिजात वर्ग के अग्रणी नेता राजा राममोहन राय थे . उनको ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ और ‘सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण’ का अग्रदूत माना जाता है. सन् 1828 में राजा राम मोहन राय ने ब्रह्मो समाज की स्थापना की. ब्रह्मो समाज का मुख्य उद्देश्य भारतीय जनता को सुस्ती और पिछड़ेपन से जागृत करना था. ब्रह्मो समाज ने बाल विवाह, सती प्रथा, बहुपत्नी विवाह को समाप्त करने की वकालत की और विधवा पुनर्विवाह, अंतर्जातीय विवाह और अन्य सामाजिक सुधारों की भी वकालत की. दयाल सिंह ब्रह्मो समाज के सिद्धांतों से बहुत प्रभावित हुए. अंततः उन्होंने ब्रह्मो समाज के सिद्धांतों को अपनाया और पंजाब के सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में उनके कार्यों की चर्चा होने लगी. ब्रह्मो समाज के प्रभाव के कारण भी उसका चिंतन धर्मनिरपेक्ष वादी होता चला गया.

हमारा अभिमत है कि दयाल सिंह का पैतृक गांव मजीठा का छोड़ना व लाहौर में रहना उसके लिए वरदान सिद्ध हुआ. क्योंकि यहाँ आने के बाद उन्होंने नए कुलीन वर्ग के साथ संपर्क स्थापित किया और उनकी सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मामलों में रुचि में अभूतपूर्व वृद्धि हुई.

उनके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अंधाधुंधकरण एवं रूढ़िवाद के विरुद्ध विरोध की झलक दिखाई देती है. वास्तव में निजी जीवन में भी वह एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे .उनकी रसोई में ईसाई एवं मुस्लिम धर्मो के अनुयायी रसोईये थे तथा घर में एक ही भेज के चारों ओर बैठकर विभिन्न धर्मों के अनुयायी भोजन भी करते थे.परिणाम स्वरूप तत्कालीन अभिजन वर्ग व सिक्ख धर्म के कट्टरवादी -रूढ़िवादी व्यक्तियों के विरोध तथा बहिष्कार का सामना करना पड़ा .परंतु वह धर्मनिरपेक्षता के मार्ग पर अड़िग रहे और उन्होंने कोई परवाह नहीं की.

उनके चिंतन में जाति, पंथ, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि संकीर्ण मान्यताओं का कोई स्थान नहीं था और वे इन संकीर्ण मान्यताओं और भावनाओं से बहुत ऊपर थे. दयाल सिंह के धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक और राष्ट्रवादी विचारों की एक झलक सन् 1895 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘राष्ट्रवाद’ (Nationalism) में दिखाई देती है. उनके द्वारा लिखे गए अन्य लेख, पुस्तिकाएँ और ‘द ट्रिब्यून’ में लिखे गए संपादकीय हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि वे सार्वजनिक मामलों को एक बाज की नज़र से देखते थे. उनका दृष्टिकोण पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष था. यही कारण है कि विभिन्न धर्मो के अनुयायी एवं तत्कालीन नेता उन्हें अति सम्मान की दृष्टि से देखते थे

दयाल सिंह के महान और उदार स्वभाव की प्रशंसा करते हुए प्रसिद्ध मुस्लिम नेता सर सैयद अहमद खान ने बहुत ही सटीक कहा है, ”सरदार दयाल सिंह बहादुर मजीठिया: सरदार साहब सिख सरदारों की वंशावली में एक बहुत प्रसिद्ध और उच्च सम्मानित प्रमुख हैं. लेकिन राजवंशीय सम्मान से कहीं ऊपर, भगवान ने उन्हें अपने व्यक्तित्व में बहुत कुछ दिया है. महान चरित्र, प्रेमपूर्ण स्वभाव, सभी के लिए सद्भावना और सभी समुदायों के लोगों के लिए सम्मान उनकी व्यक्तिगत उपलब्धियां थीं….मुसलमान भी उन्हें अपना सबसे सच्चा दोस्त और सबसे महान परोपकारी मानते हैं. मदरसा तुल-आलम भी उनके महान और उदार स्वभाव का बहुत बड़ा ऋणी है. अगर मैं सच कहूं तो मैं यह कहूंगा कि लाहौर में बल्कि पूरे पंजाब प्रांत में वह एकमात्र व्यक्ति हैं जिन पर पंजाबी बल्कि सभी भारतीय गर्व महसूस कर सकते हैं’.’

धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी विचारधारा उनके द्वारा “द ट्रिब्यून’ (The Tribune) में प्रकाशित लेखों (Articles), संपादकीय अग्रलेखों (Editorials) के अतिरिक्त उनकी पुस्तक ‘राष्ट्रवाद’ (Nationalism) से भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है उन्होंने सुन्नी मुसलमान जिसने ईसाई धर्म को अंगीकृत किया था तथा इस्लाम धर्म के मुल्ला के मध्य धार्मिक बहस पर लिखे गए खतों (Letters) को 115 पृष्ठ की पुस्तक ‘नगमा-ए- तम्बूरी’ (Nagma-a-Tamboori) संपादित की थी. केवल यही नहीं अपितु लाहौर के अधिवेशन सन् 1893 में स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में प्रस्तुत उद्बोधन में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी चिंतन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है.

एक उदारवादी नेता की भांति उन्होंने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में ‘मांग और पूर्ति के सिद्धांत’ के क्रियान्वन पर बल दिया. उनका मानना था कि मांग और पूर्ति का सिद्धांत धार्मिक क्षेत्र में ही लागू होता है. धार्मिक व्यक्ति भी इस तथ्य को स्वीकारता है कि ईश्वर से मांगने पर ही कुछ मिलता है यानी ‘मांग और पूर्ति का सिद्धांत’ क्रियान्वित होता है.हजरत मोहम्मद के विचारों को उद्धृत करते हुए उन्होंने लिखा, ‘’मांगो तुम्हें मिलेगा,तलाश करो तुम्हें प्राप्त होगा,द्वार खट खटाओ तो द्वार खुल जाएगा.’’ वस्तुत: वह इसको एक नैसर्गिक सिद्धांत व अधिकार मानते थे.

भारत में सामान्य तौर पर और पंजाब में विशेष रूप से चरित्र का निर्माण करने हेतु धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने लाहौर में ‘इंडियन एसोसिएशन’ (Indian Association) की स्थापना की थी और स्वयं इसके संस्थापक अध्यक्ष बने. अन्य शब्दों में उन्होंने पंजाब में युवा आंदोलन की नींव रखी. 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस युवा आंदोलन को शहीद-ए-आजम भगत सिंह और उनके साथियों– सुखदेव, राजगुरु, शहीद शिरोमणि उधम सिंह और अन्य नवयुवकों ने क्रांतिकारी मोड़ दिया. हमारा सुनिश्चित अभिमत है कि दयाल सिंह एक उच्च कोटि के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी नेता और विचारक थे. वर्तमान परिस्थितियों में उनका यह चिंतन ग्रहण करने योग्य है ताकि एक सुदृढ़ समाज और शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण किया जा सके.

(Note–Dr. Ramji Lal is supervisor of Sudesh Pal, ‘’Political Ideas of Dyal Singh’’,-A Dissertation , Kurukshetra University Kurukshetra ,December 2001

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