अति महत्वपूर्ण सामयिक लेख
मुसलमान और आरक्षण : आलोचनात्मक मूल्यांकन
डॉ. रामजीलाल, समाज वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा—भारत)
Email.drramjilal1947@ gmail.com
(समाज वीकली)-
पृष्ठभूमि:
भारतीय हिंदू समाज की भान्ति मुस्लिम समाज भी सामाजिक स्तरीकरण व असमानता से ग्रस्त है तथा मुसलमानों में भी जातिगत भेदभाव की व्यापकता है. मुस्लिम समाज में तीन मुख्य स्तर- (श्रेणियाँ)–अशरफ (शरीफ़), अजलाफ़ तथा अरज़ल हैं.
प्रथम श्रेणी में अशरफ आते हैं तथा यह अपने आप को शेखों, सैय्यदों, मुगलों, पठानों, अरबों, व अफ़गानों के वंशज मानते हैं. अशरफ श्रेणी में अमीर जमींदार व धनवान व्यक्ति, नेता व अधिकारी आते हैं. अन्य शब्दों में अशरफ मुस्लिम वर्ग का अभिजात्य वर्ग है. यह वर्ग पिछड़े वर्गों की श्रेणी में नहीं आता. यह श्रेणी अपने आपको अन्य मुसलमानों से श्रेष्ठ मानती है.
द्वितीय श्रेणी में अजलाफ़ आते हैं. इस श्रेणी के पूर्वजों ने हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम धर्म अपनाया था. वर्तमान समय में इस श्रेणी के लोगों की स्थिति अशरफों से कमजोर व निम्न है परंतु अरजलों से श्रेष्ठ है.
तृतीय श्रेणी में अरज़ल आते हैं. इस श्रेणी के पूर्वजों ने भी हिंदू समाज में व्यापक स्तर फैली अस्पृश्यता से तंग होकर इस्लाम धर्म ग्रहण किया था. परंतु इस्लाम धर्म अपनाने के बावजूद भी अस्पृश्यता के काले धब्बे से पीछा नहीं छूटा. यह श्रेणी मुस्लिम समाज में सबसे निचले पायदान पर है. अरज़ल श्रेणी की वही स्थिति जो हिंदू समाज में दलित वर्गों की है. अरज़ल समाज के लोगों को मस्जिद और सामान्य कब्रिस्तानों के प्रयोग करने की मनाही है. संक्षेप में धर्म परिवर्तन के बावजूद भी अजलाफ़ (मध्य पिछड़ा वर्ग) व अरज़ल (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ. इन दोनों श्रेणियों का अधिकांश भाग समाज के हाशिये पर जीवन यापन कर रहा है तथा आरक्षित श्रेणियों में सम्मिलित हैं.
सन् 1857 की क्रांति के 15 वर्ष पश्चात पहली बार सन् 1872 में मैसूर राज्य में लेस्ली मिलर समिति की रिपोर्ट के आधार पर मुसलमानों को ओबीसी श्रेणी में आरक्षण दिया गया. ब्रिटिश सरकार ने सन् 1882 में भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार करने हेतु रिपोर्ट तैयार करने के लिए हंटर आयोग (वर्ष 1882) की स्थापना की. इस आयोग ने शिक्षा प्रणाली में सुधारों के अतिरिक्त पिछड़े वर्गों और मुसलमानों के लिए उचित शिक्षा की सुविधा प्रदान करने हेतु संस्तुति की थी.
भारतीय परिस्थितियों का संज्ञान लेते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार ने सन् 1908 में प्रशासनिक सेवाओं में विभिन्न जातियों व समुदायों के लिए सीमित आरक्षण लागू किया. इसके उपरांत भारत सरकार अधिनियम, 1909 में मुस्लिम प्रतिनिधित्व के लिए पृथक चुनाव प्रणाली की (Separate Electoral system)– आरक्षण का प्रावधान किया गया था. मद्रास प्रेसीडेंसी में जातिय पृष्ठभूमि आज्ञा पत्र के अनुसार 44% सीटें गैर- ब्राह्मणों के लिए, ब्राह्मणों के लिए 16%, मुसलमानों के लिए 16%, एंग्लो इंडियन/ईसाइयों के लिए 16% तथा अनुसूचित जातियों के लिए 8% आरक्षण का प्रावधान किया गया. अन्य शब्दों में सरकारी नौकरियों में शत-प्रतिशत आरक्षण (100% Reservation) की व्यवस्था की गई.
संविधान सभा: विधानसभाओं व संसद में मुस्लिम प्रतिनिधित्व के संबंध विस्तृत बहस
हमारे लिए जानना जरूरी है कि संविधान सभा में विधानपालिकाओं, संसद व प्रशासनिक सेवाओं में (धार्मिक प्रतिनिधित्व) के संबंध में बहस के केंद्र बिंदू क्या थे? भारतीय संविधान सभा में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेषतया: मुसलमानों के विधानसभाओं व संसद में प्रतिनिधित्व के संबंध में 25 मई 1949 को विस्तृत बहस हुई. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए लोकसभा तथा राज्य विधानपालिकाओं में चुनाव के समय सीटों के आरक्षण पर फैसला हो गया परंतु मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यकों के संबंध विस्तृत बहस के मुख्य केन्द्र बिंदू अधोलिखित हैं:
प्रथम, सन् 1909 के अधिनियम की भांति मुसलमानों के लिए पृथक चुनाव प्रणाली की (Separate Electoral system) की व्यवस्था होना:
डॉ. रामजीलाल के अनुसार, ‘यह सर्वविदित तथ्य है कि 15 अगस्त 1947 को एक विभाजित राष्ट्र के रूप में भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई. पाकिस्तान की स्थापना के पश्चात् करोड़ो लोग भारत से पाकिस्तान गए तथा पाकिस्तान से भारत आए. मानव जाति के लिखित इतिहास में इतने व्यापक स्तर पर जनसंख्या का आदान-प्रदान आज तक नहीं हुआ. सन् 1946-1947 में भारत में साम्प्रदायिकता की भावना एवं साम्प्रदायिक हिसां अपनी चरम सीमा पर थी. बेगुनाह लोगों को कत्ल किया गया. असंख्य महिलाओं को अपमानित, कंलकित, और मौत के घाट उतार दिया गया. एक अनुमान के अनुसार विभाजन के समय 75,000 महिलाओं का अपहरण और उनके साथ बलात्कार किया गया. हिन्दू-मुस्लिम व सिक्ख दंगों के दौरान लगभग 6 से 8 मिलियन लोग – हिन्दू, सिख, मुसलमान मारे गए, 18 मिलियन लोग शरणार्थी बने तथा 12 मिलियन लोग बेघर और बेदर हुए.
ऐसी क्रूरता की स्थिति में जहां साम्प्रदायिकता के कारण लोग इंसानियत खो बैठे, जब धर्म के आधार पर महिलाओं एवं बच्चियों को शैतानों के द्वारा उनके रिश्तेदार के सामने ही हब्स एवं हैवानियत का शिकार किया जा रहा हो, जहां सरे आम साम्प्रदायिकता के ताण्डव नृत्य में हिन्दू, मुसलमान व सिक्ख मर रहे हो, जहां महिलाओं एवं बच्चियों का सार्वजानिक बलात्कार एवं कत्ल हो रहा हो, जहां मानवता, धर्मनिरपेक्षता, हिन्दू- मुस्लिम – सिक्ख एकता एवं सद्भावना के आधार पर सोचना एवं चलना अति कठिन हो’’, ऐसी स्थिति में पृथक निर्वाचन प्रणाली(Separate Election System)के संबंध में सोचना भी रोंगटे खड़े कर देता है.
इसी प्रणाली के परिणाम स्वरूप पाकिस्तान की स्थापना का बीज़ बोय़ा गया और सन् 1947 में भारत का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ था और पाकिस्तान की स्थापना हुई थी. जबकि भारत की संविधान सभा के द्वारा धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना की गई. भारतीय संविधान सभा में तज्जमुल हुसैन ने पृथक चुनाव प्रणाली आलोचना करते हुए भारत के लिए अभिशाप और राष्ट्र विकास में बाधा मानते हुए मुस्लिम समुदाय के लिए किसी भी प्रकार के आरक्षण का जबरदस्त विरोध किया. तज्जमुल हुसैन, के अनुसार ” पृथक निर्वाचन प्रणाली भारत के लिए अभिशाप रही है. इसने देश की अपूर्णीय क्षति की है….पृथक निर्वाचन मंडल (Separate Electorates) ने हमारी प्रगति को रोक दिया है….हम (मुसलमान) राष्ट्र में मिल जाना चाहते हैं….खुदा के वास्ते मुस्लिम समुदाय के लिए किसी भी प्रकार के आरक्षण पर विचार न करें….’’ अतः भारतीय संविधान सभा में विस्तृत बहस के बाद सन् 1909 केअधिनियम पर आधारित पृथक चुनाव प्रणाली को अस्वीकार कर दिया गया.
द्वितीय, आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली एवं एकल हस्तांत्रित मत प्रणाली (Proportional Representation System and Single transferred vote system) के आधार पर निर्वाचन की व्यवस्था होना:
भारतीय संविधान सभा के द्वारा भारत में संसदीय प्रणाली को अपनाया गया. आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली एवं एकल हस्तांत्रित मत प्रणाली संसदीय प्रणाली के अनुकूल नहीं है. इसके अतिरिक्त यह प्रणाली आम मतदाता की समझ से बाहर है. इसलिए संविधान सभा ने इसको भी स्वीकार नहीं किया.
तृतीय, संयुक्त निर्वाचन प्रणाली (Joint Electoral System) की व्यवस्था होना:
संविधान सभा के सदस्यों तथा अल्प संख्यक समिति की रिपोर्ट के आधार पर संयुक्त निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार किया गया. बहस में भाग लेने वाले सदस्यों का यह मनना था कि संयुक्त निर्वाचन प्रणाली से विभिन्न संप्रदायों के मध्य एकता बढ़ेगी तथा अल्पसंख्यक वर्ग चुनाव के समय महत्तवपूर्ण भूमिका अदा करेगा. संविधान सभा की बहस में बार-बार इस बात पर बल दिया गया कि अल्पसंख्यक वर्गों के हितों की सुरक्षा करना बहुसंख्यक वर्ग का दायित्व है और यह भी संभावना भी जताई गई गई कि अल्पसंख्यक वर्ग को बहुसंख्यक वर्ग के द्वारा समुचित सम्मान देने के लिए उनको अधिक सीटे भी दी जा सकती है. इस सिस्टम के द्वारा भारत की एकता, अखंडता, पारस्परिक भाईचारा और सद्भावना का विकास होगा. संविधान निर्माता ‘आशावादी और आदर्शवादी’ व्यक्ति थे. वे यह अनुमान नहीं लगा सके कि आने वाले समय में सत्ताधारी वर्ग के द्वारा भारतीय संविधान में वर्णित ‘धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय’ इत्यादि की अवहेलना करते हुए मुसलमानों के विरुद्ध बहुसंख्यक वर्ग की धार्मिक भावनाओं का शोषण करके ‘हिन्दू वोट बैंक’ तैयार किया जाएगा और मुसलमानों को चुनाव में उम्मीदवार ही नहीं बनाएगें और यहां तक भी कहते हैं कि उनको ‘मुसलमानों के वोट की जरूरत नहीं है’. परिणामस्वरूप, भारतीय जनता पार्टी में एक भी मुस्लिम लोकसभा व मन्त्रिमंड़ल में सदस्य नहीं है. वास्तव में यह स्थिति सन् 2014 में बीजेपी के उद्घोष —‘सबका साथ, सबका विश्वास, सबका विकास’ के प्रतिकूल है.
भारत विभाजन का प्रभाव: धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के लिए आरक्षण नहीं
सरदार वल्लभभाई पटेल ने सन् 1949 में पूर्वी पंजाब और पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक आबादी की समस्याओं पर विचार करने के लिए एक विशेष उप-समिति का गठन किया गया. इस उप-समिति में जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेंद्र प्रसाद, डॉ भीमराव अंबेडकर और के. एम मुंशी सदस्य थे. इस समिति ने ईसाई और मुस्लिम एससी और एसटी को आरक्षण देने की संस्तुति नहीं की. वास्तव में सन् 1947 में भारत विभाजन ने यहां तक कि अल्पसंख्यकों को आरक्षण न देने के निर्णय को प्रभावित किया. यहां तक कि ईसाई और मुस्लिम एससी और एसटी को भी आरक्षण नहीं दिया गया. बदले हुए राजनीतिक परिवेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण का औचित्य नहीं माना गया. उप-समिति की रिपोर्ट के अनुसार “स्वतंत्र भारत और वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में यह उचित नहीं रह गया है कि मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों या किसी अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक के लिए सीटें आरक्षित की जाएं . … कुछ हद तक अलगाववाद हो सकता है और यह एक हद तक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य की अवधारणा के विपरीत है.”
सविंधान सभा: अल्पसंख्यकों के आरक्षण संबंधित बहस में सदस्यों की सहभागिता
सविंधान सभा में अल्पसंख्यकों के आरक्षण संबंधित बहस में भाग लेने वाले सदस्यों में सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद (संविधान सभा केअध्यक्ष), डॉ. भीमराव अंबेडकर (संविधान की ड्राफ्ट समिति के अध्यक्ष), के.एम. मुंशी, प्रोफेसर एन जी रंगा, एम. थिरुमाला राव, पंडित ठाकुरदास भार्गव, टी.टी. कृष्णमाचारी, के.टी .शाह, एए. गुरुंग, एस. नागप्पा (मद्रास अब तमिलनाडु), मोहनलाल गौतम, महावीर त्यागी, जेड. एच. लारी, जेरोम डिसूजा, बी. पोकर, जसपत रॉय कपूर, सैयद मुहम्मद सादुल्ला, बेगम ऐज़ाज़, रसूल मोहम्मद इस्माइल, घनश्याम सिंह गुप्ता, डॉ. एचसी मुकर्जी, तज्जमुल हुसैन, लक्ष्मी कांता मैत्रा, वी.आई. मुनिस्वामी पिल्लई इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं.
मुसलमानों की अवहेलना: हिंदुओं के समकक्ष न मानना
यद्धपि मुसलमानों में भी हिंदुओं की भांति जातिगत असमानता और जातिगत भेदभाव व्यापक स्तर पर विद्यमान हैं. इसके बावजूद भी मुसलमानों को हिंदुओं के समकक्ष नहीं माना गया. परिणामस्वरूप उनके हितों की अहवेलना की गई और इनको आरक्षण की श्रेणी में सम्मिलित नहीं किया गया जबकि इसके बिल्कुल विपरीत हिंदू समुदाय के निम्न श्रेणी (ओबीसी, एससी व एसटी) के लोगों को आरक्षण की श्रेणी में सम्मलित किया गया. मुसलमानों की अवहेलना निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट होती है:
प्रथम, संविधान सभा के द्वारा मुसलमानों के लिए आरक्षण की व्यवस्था न करना;
द्वितीय, संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, सन् 1950 के अनुसार हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मों – मुस्लिम धर्म, सिख धर्म, बौद्ध धर्म इत्यादि की जातियों को सम्मिलित नहीं किया गया. इस आदेश के अनुसार; ‘कोई भी व्यक्ति जो हिंदू धर्म से भिन्न धर्म को मानता है, उसे अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जाएगा.’ यह संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, मुसलमानों सहित अल्पसंख्यक धर्मों- सिख धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म इत्यादि के दलित अनुयायियों के विरुद्ध है.
केंद्र सरकार ने सन् 1950 के आदेश को चुनौती दिए जाने का भी विरोध किया था. केंद्र ने कहा था कि ये आदेश ‘असंवैधानिक नहीं’’ है क्योंकि ईसाई धर्म और इस्लाम में अस्पृश्यता (Untouchability) नहीं है.
यद्धपि कालांतर में सन् 1950 के आदेश में संशोधन किया गया और दलित सिक्खों व दलित बौद्धों को इसमें सम्मिलित कर लिया गया परंतु मुस्लिम समुदाय के दलितों के हितों की अवहेलना जारी रही.
तृतीय, प्रथम राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (काका कालेलकर आयोग 29 जनवरी, 1953-30 मार्च 1955) ने भारतीय मुसलमानों के भीतर स्तरीकरण के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की पहचान की. परंतु हिंदुओं के समान जातियां होने के बावजूद भी मुस्लिम जातियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में सम्मिलित करने की संस्तुति नहीं दी गई. अतः प्रथम राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (सन् 1953— सन् 1955) के द्वारा भी मुसलमानों के हितों की अवहेलना की गई.
चतुर्थ, द्वितीय राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (मंडल आयोग-1 जनवरी 1979 – 31 दिसंबर 1980) की संस्तुति के अनुसार 82 मुस्लिम जातियों और उपजातियों को पिछड़े वर्गों में आरक्षित श्रेणी में अंकित किया गया. मंडल आयोग ने मुस्लिम जातियों को निम्नलिखित दो श्रेणियों में बांटा:
“प्रथम श्रेणी में वह हिन्दू अछूत जातियां सम्मलित हैं जिन्होंने हिंदू धर्म का परित्याग करके इस्लाम धर्म को अपनाया था. और,
द्वितीय, वह हिंदू पिछड़ी जातियां जिन्होंने हिंदू धर्म का परित्याग करके इस्लाम धर्म अपनाने के पश्चात भी अपने परंपरागत (पुश्तैनी) व्यवसायों का परित्याग नहीं किया और निरंतर जारी रखा.“
मुस्लिम केवल ओबीसी श्रेणी के अंतर्गत आरक्षण के पात्र थे जबकि मुस्लिम अनुसूचित जातियों के संबंध में ऐसी संस्तुति नहीं की गई. इस आयोग के द्वारा भी मुस्लिम अनुसूचित जातियों की अवहेलना की गई. अन्य शब्दों में भारतीय मुसलमानों के भीतर स्तरीकरण के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की पहचान की. परंतु हिंदुओं के समान जातियां होने के बावजूद भी मुस्लिम जातियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में सम्मिलित नहीं किया गया. टीकाकरों का मानना है कि काका कालेलकर कमीशन और मंडल कमीशन का गठन ओबीसी को अंकित करने और इनके उत्थान हेतु संस्तुतियां करने के संबंध में किया गया था, न की अनुसूचित जातियों के लिए. दूसरे शब्दों में, इन दोनों आयोगों की स्थापना की शर्तों में अनुसूचित जातियों को शामिल नहीं किया गया था.
पंचम, सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006): कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के द्वारा मार्च 2005 में जस्टिस राजिन्दर सच्चर अध्यक्षता में उच्च स्तरीय समिति गठित की थी. सच्चर कमेटी की 403 पेज की रिपोर्ट को 30 नवंबर, 2006 को लोकसभा में प्रस्तुत किया गया. रिपोर्ट के अनुसार भारत में मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिकऔर प्रशासनिक भागीदारी के संकेतकों के मामले में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों से भी बहुत अधिक कम है. सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006) में भारत के मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति’ को सुधारने और असमानता को दूर करने हेतु आरक्षण सहित 10 प्रमुख संस्तुतियां की थी.
छठा, जस्टिस रंगानाथ मिश्र आयोग (सन् 2007): कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के तत्कालीन प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के द्वारा सन् 2007 में सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंगानाथ मिश्रा की अध्यक्षता में आयोग गठन किया गया. इस आयोग ने सन् 2009 में अल्पसंख्यकों – दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को एससी का दर्जा देने व 15 फीसदी आरक्षण (मुसलमानों के लिए 10%+ 5% अन्य अल्पसंख्यकों के लिए) की संस्तुति की थी. कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने जस्टिस रंगानाथ मिश्र की रिपोर्ट में कमियों का बहाना लगाकर लागू नहीं किया.
इनके अतिरिक्त राज्य सरकारों के द्वारा भी आयोगों अथवा समितियों का गठन किया गया. परंतु मुसलमानों की शैक्षणिक, प्रशासनिक व राजनीतिक भागीदारी में विशेष सुधार नहीं हुआ.
सन् 2011 की जनगणना के अनुसार मुसलमानों की जनसंख्या लगभग 17 करोड़ 22 लाख थी जो कि कुल जनसंख्या का 14.2% था. सन् 2024 मुसलमानों कीअनुमानित जनसंख्या लगभग 20 करोड़ 47 लाख है. मुसलमानों की जनसंख्या के अनुपात से राजनीतिक भागीदारी धीरे-धीरे कम होती जा रही है. अन्य शब्दों में राज्य़ विधानपालिकाओं व संसद में मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधियों की संख्या कम होती जा रही है.
सन् 2024 के लोकसभा चुनाव में 78 मुस्लिम उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे. इनमें से केवल 24 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचने में कामयाब हुए हैं. परंतु अफसोस की बात यह है कि एनडीए गठबंधन में सांसद मुस्लिम नहीं हैं. यही कारण है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है. अमर अब्दुल्ला के अनुसार एनडीए गठबंधन मुस्लिम मुक्त, हैं. केवल यही नहीं अपितु भारत के 28 राज्यों में एक भी मुख्यमंत्री मुस्लिम नहीं है. हमारा यह सुनिश्चित अभिमत है कि अल्पसंख्यक समुदायों की सरकार में भागीदारी न होना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है.
मुस्लिम आरक्षण: शैक्षणिक व सामाजिक आधार पर आधारित, धर्म पर नहीं
भारतीय संविधान सभा ने धर्म के आधार पर आरक्षण को धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता व अखंडता के लिए हानिकारक मानते हुए अस्वीकार कर दिया. परंतु संविधान के अनुच्छेद 16(4) अनुसार शैक्षणिक व सामाजिक आधार पर किसी भी सामाजिक समुदाय को पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने का अधिकार प्रदान किया गया है. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार (सन् 1992) मुकदमें में आरक्षण पर निर्णय देते हुए कहा कि यदि कोई सामाजिक समुदाय शैक्षणिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है उसे आरक्षण दिया जा सकता है परंतु उस पर ‘क्रीमी लेयर’ का सिद्धांत लागू होगा. संक्षेप में हमारा मानना है कि मुसलमानों को आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं अपितु पिछड़े वर्गों के संकेतकों को आधार मान कर दिया गया है.
सन् 2023 से भारतीय जनता पार्टी के शीषर्थ नेताओं से लेकर इसके कट्टर समर्थकों तक मुसलमानों के विरुद्ध जनता को भ्रमित करके मुस्लिम आरक्षण की समीक्षा करके इसे संविधान के विरूद्ध मानते हुए समाप्त करने का निरंतर प्रचार कर रहे हैं अतः लोकसभा चुनाव (2024) में अमर्यादित प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. जबकि हमारा सुनिश्चित अभिमत है कि मंडल कमीशन की संस्तुतियों के पश्चात ही अधिकांश राज्यों में मुसलमानों कोआरक्षण प्रदान करने का मार्ग प्रस्तत हुआ
केंद्र व राज्य: धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण
भारत में केंद्र तथा राज्यों में धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण का विवरण अधोलिखित है:
A. केंद्र सरकार : धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए 4.5% आरक्षण
तत्कालीन कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के अनुसार मुस्लिम समुदाय हिंदू ओबीसी समुदायों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम नहीं हैं. इसलिए 22 दिसंबर 2011 को कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए मौजूदा 27% आरक्षण के भीतर धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए 4.5% का उप-कोटा स्थापित करने की व्यवस्था की.
पंकज श्रीवास्तव के अनुसार:
‘ओबीसी आरक्षण में मुस्लिम पिछड़ी जातियों को शामिल किया जाना अब एक संवैधानिक प्रावधान है. संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में यह व्यवस्था है. केंद्र की ओबीसी लिस्ट में कैटेगरी 1 और 2A में मुस्लिमों के 36 जातियों को शामिल किया गया है जिन्हें आरक्षण का लाभ मिलता है. यही नहीं, 1992 में इंदिरा साहनी केस बनाम केंद्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी स्पष्ट किया था कि अगर कोई सामाजिक समूह पिछड़ा हो तो उसे पिछड़ा वर्ग माना जाएगा, फिर चाहे उसकी धार्मिक पहचान कुछ भी हो.’
B. भारत के विभिन्न राज्य: मुसलमानों के लिए आरक्षण
सामाजिक, आर्थिक शैक्षणिक और राजनीतिक दृष्टि सेअत्यधिक पिछड़ा हुआ होने के कारण भारत के विभिन्न राज्यों — केरल, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, तेलंगाना, राजस्थान इत्यादि में मुसलमानों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है. इन राज्यों में मुस्लिम आरक्षण का संक्षिप्त वर्णन अधोलिखित है :
- केरल:
20 शताब्दी में सन् 1936 में सर्वप्रथम त्रावणकोर कोचीन (अब केरल) में मुसलमानों के लिए आरक्षण लागू किया गया. सन् 1956 में केरल का पुनर्गठन हुआ तथा 50% आरक्षण लागू किया गया. इसमें 40% पिछड़े वर्गों के लिए तथा मुस्लिम कोटा 10% था. परिणाम स्वरूप केरल में मुसलमानों की प्रशासन में 12% तथा व्यावसायिक शैक्षणिक संस्थानों में 8% सहभागिता होने के कारण मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक स्थिति में अभूतपूर्व सुधार हुआ है. मुसलमानों की स्थिति में सुधार करने का श्रेय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) नीत वाम पंथ मोर्चा की सरकारों को जाता है.
2. कर्नाटक:
स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व सन् 1918 में तत्कालीन मैसूर रियासत के शासन के द्वारा मुसलमानों को ओबीसी की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया. तब से लेकर यह प्रक्रिया अनेक आयोगों के वैज्ञानिक अध्ययन के बाद कर्नाटक में निरंतर जारी है. सन् 1994 में एचडी देवेगौड़ा सरकार ने कर्नाटक में ‘सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन’ के आधार पर ‘सरकारी नौकरियों और शिक्षा’ में मुस्लिम कोटा प्रारंभ किया. 32% ओबीसी कोटे के भीतर मुसलमानों के लिए 4% उप-कोटा था. कर्नाटक में विधानसभा चुनाव (मार्च 2023) से पहले तत्कालीन भाजपा सरकार ने “2बी” पिछड़ा वर्ग श्रेणी के तहत मुसलमानों को दिए गए 4% आरक्षण को समाप्त कर दिया और सामान्य श्रेणी ईडब्ल्यूएस के लिए 10% कोटा पूल में स्थानांतरित कर दिया’’ भारतीय जनता पार्टी नीत कर्नाटक सरकार का यह निर्णय मुसलमानों के हितों के विरूद्ध है.
कर्नाटक विधानसभा के चुनाव (मार्च 2023) में भारतीय जनता पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा. कांग्रेस पार्टी को विधानसभा के चुनाव में जनता का भरपूर समर्थन मिला और उसने सरकार का निर्माण किया अर्थात् कांग्रेस पार्टी सत्ता में आ गई.
3. पश्चिम बंगाल: ओबीसी आरक्षण
सन् 2010 में पश्चिम बंगाल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) नीत वाममोर्चा सरकार के द्वारा 77 ओबीसी समुदायों के लिए आरक्षण लागू किया गया. इनमें से अधिकांश मुस्लिम थे. ममता बनर्जी की सरकार के द्वारा सन 2011 में 180 समुदायों को पिछला वर्ग में सम्मिलित किया गया और इनको ए और बी– दो श्रेणियां में बांटा गया और 17% आरक्षण प्रदान किया गया. इन 180 समुदायों में 97 (ए श्रेणी 56, बी श्रेणी 41 समुदाय) मुस्लिम थे.
प्रथम, ओबीसी ए श्रेणी: इस श्रेणी में 81 समुदायों को सम्मिलित किया गया जिसमें 56 समुदाय मुस्लिम थे तथा 10% आरक्षण प्रदान किया गया
द्वितीय, ओबीसी बी श्रेणी : इस श्रेणी में 99 समुदायों को सम्मिलित किया गया इनमें से 41 समुदाय मुस्लिम समुदाय थे तथा 7% आरक्षण प्रदान किया गया.
मुस्लिम ओबीसी आरक्षण : कोलकाता हाईकोर्ट ने अवैध घोषित
पश्चिम बंगाल के मुस्लिम ओबीसी आरक्षण संबंधित निर्णय को कोलकाता हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. 23 मई, 2024 को वर्तमान चुनाव (2024) के मध्य कोलकाता हाईकोर्ट ने बंगाल सरकार के द्वारा मुसलमानों को दिए गए आरक्षण को अवैध घोषित करके राजनीति में एक भूचाल उत्पन्न कर दिया.
कोलकाता हाईकोर्ट के न्यायाधीश के तपब्रत चक्रवर्ती और राजशेखर मंथा की खंडपीठ ने कहा:
“इस अदालत (कोलकाता हाईकोर्ट) का मानना है कि मुसलमानों की 77 श्रेणियों को पिछड़े के रूप में चुना जाना समग्र रूप से मुस्लिम समुदाय का अपमान है. इस अदालत का दिमाग इस संदेह से मुक्त नहीं है कि उक्त समुदाय को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए एक वस्तु के रूप में माना गया है…चुनावी लाभ के लिए सहायता समुदाय में वर्गों की पहचान ओबीसी के रूप में करने से वे संबंधित राजनीतिक प्रतिष्ठान की दया पर निर्भर हो जाएंगे और पराजित हो सकते हैं और अन्य अधिकारों से वंचित हो सकते हैं. इसलिए इस तरह का आरक्षण लोकतंत्र और समग्र रूप से भारत के संविधान का भी अपमान है, ”
लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान आने वाले इस फैसले ने बंगाल में ही नहीं अपितु देश में राजनीतिक भूचाल की स्थिति उत्पन्न पैदा कर दी. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनर्जी ने कहा कि वह इस आदेश को “स्वीकार नहीं करेंगी …यदि आवश्यक हुआ, तो हम सर्वोच्च न्यायालय का रुख करेंगे.” जबकि इसके बिलकुल विपरीत केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बंगाल सरकार पर ‘तुष्टिकरण’ का दोषारोपण करते हुए कहा, “ये ओबीसी आरक्षण मुसलमानों को खुश करने के लिए किया गया था.” इस फैसले से लगभग 500,000 लोगों के प्रभावित होने होने का अनुमान है
4 उत्तर प्रदेश:
उत्तर प्रदेश में सन् 1977 मेंओबीसी आरक्षण पहली बार लागू हुआ. उस समय 21 मुस्लिम उप जातियांओबीसी की श्रेणी में सम्मिलित की गई और इनको अन्य ओबीसी जातियों की भांति शैक्षणिक और सामाजिक लाभ प्राप्त होना प्रारंभ हुआ. इस समय उत्तर प्रदेश में 79 ओबीसी जातियां हैं. इनमें से 38 मस्लिम उप- जातियों सामाजिक और शैक्षणिक आधार के कारण ओबीसी की लिस्ट में सम्मिलित किया गया है. 21 अगस्त 2002 के पश्चात ओबीसी की इस सूची से न तो किसी मुस्लिम जाति को ओबीसी की लिस्ट में सम्मिलित किया गया और न ही हटाया गया. ओबीसी की लिस्ट में मुसलमानों अथवा हिंदुओं को धर्म के आधार पर सम्मिलित नहीं किया गया. सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर मान्यता प्राप्त संकेतों के आधार पर सम्मिलित किया गया है. उत्तर प्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुसलमानों को दिए गए आरक्षण के संबंध में बिल्कुल स्टीक कहा:
“1977 में उत्तर प्रदेश में ओबीसी कोटे के लिए कुल 55 जातियों की पहचान की गई थी। मंडल आयोग के बाद यह संख्या बढ़ गई और वर्तमान में 79 ओबीसी जातियां सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी के रूप में सूचीबद्ध हैं, जो सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश आदि में कोटा का लाभ उठा रही हैं…उत्तर प्रदेश में ओबीसी के रूप में सूचीबद्ध 79 जातियों में से 38 जातियां मुसलमानों की उपजातियां हैं और उन्हें ओबीसी कोटे के तहत सभी लाभ मिल रहे हैं” अधिकारी ने आगे कहा :
‘किसी जाति को ओबीसी अनुसूची में शामिल करने का आधार सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन है, चाहे वह किसी भी धर्म से संबंधित हो….संविधान में ओबीसी की पहचान करने और उन्हें कोटा लाभ देने के लिए हिंदू या मुस्लिम शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया गया है .सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन ही एकमात्र मानदंड है…. इस कानूनी पहलू को देखते हुए, हमें यूपी में ओबीसी सूची में मुस्लिम उप-जातियों को शामिल करने में कुछ भी गलत नहीं लगता है.”
5.गुजरात :
गुजरात सरकार के द्वारा सेवानिर्वित न्यायाधीश ए.आर. बख्शी की अध्यक्षता में एक आयोग (बख्शी आयोग) नियुक्त किया गया. बक्शी आयोग की संस्तुतियों में 82 ओबीसी समुदाय़ों में 38 मुस्लिम समुदाय़ भी आरक्षित श्रेणी में सम्मिलित किए गए. हमारा यह अभिप्राय है कि आज से लगभग 46 वर्ष पूर्व सन् 1978 में गुजरात में 38 मुस्लिम समुदाय़ों को आरक्षण की श्रेणी में रखा गया. उस समयगुजरात मेंजनता पार्टी के नेता बाबू भाई जशभाई पटेल मुख्यमंत्री (अप्रैल 1977 से फरवरी 1980 तक) थे. इसके पश्चात ओबीसी सूची मेंऔर अधिक मुस्लिम समुदाय जोड़े गए. सन् 1995 में जनता पार्टी के नेता सुरेश मेहता मुख्यमंत्री के कार्यकाल में मुस्लिम ओबीसी में अन्य मुस्लिम समुदाय भी जोड़े गए. गुजरात सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग की वेबसाइट के अनुसार अनुसार 42 मुस्लिम समुदायों सहित 142 समुदाय ओबीसी की सूची में सम्मिलित हैं. गुजरात सरकार में रिक्तियों के लिए के लिए आरक्षण का लाभ पाने के लिए राज्य की ओबीसी सूची में सम्मिलित होना अति आवश्यक हैं. 42 मुस्लिम समुदायों में, बाफन, दफ़र, फ़कीर, गढ़ई, गलियारा, घांची, हिंगोरा, जुलाया, गराना, तारिया, तारी, अंसारी, जाट, खटकी या कसाई, चमड़िया खटकी, हलारी खटकी, मीर, ढांढी, लंधा, मिरासी, मजोठी कुंभार, दरबार या दरबान मजोठी, मकरानी, मतवा कुरैशी, मियाना, पिंजारा, घांची-पिंजारा, मंसूरी-पिंजारा, संधि, सिपाई, पटानी जमात या तुर्क जमात, थेबा, हजाम, खलीफा, वंजारा, वाघेर, अरब, कलाल, सुमरा इत्यादि केंद्रीय सूची केअंतर्गत ओबीसी आरक्षण कोटे का लाभ प्राप्त कर रहे हैं .
नरेंद्र मोदी सन् 2001 से सन् 2014 तक साढ़े बारह साल तक मुख्यमंत्री रहे. 26 मई 2014 से 5 जून 2024 तक भारत के 14वें प्रधान मंत्री के रूप में कार्यरत रहे हैं. 18वीं लोकसभा के चुनाव (2024) के पश्चात 9 जून 2024 को नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधान मंत्री बने. 9 फ़रवरी 2022 को समाचार एजेंसी एएनआई को एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि भेदभाव और पिछड़ापन समाज के उन धार्मिक वर्गों में भी एक वास्तविकता है, जहां जाति का कोई वर्णन नहीं किया जाता. गुजरात में मुस्लिम समूहों को आरक्षण का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा: “जब मैं गुजरात का मुख्यमंत्री था तो 70 मुस्लिम समूहों को ओबीसी के रूप में आरक्षण मिलता था, लेकिन मैंने इसे कभी प्रचारित नहीं किया.” सन् 2001 से सन् 2014 तकअपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात में मुसलमान को प्राप्त आरक्षण के विरुद्ध कोई प्रचार नहीं किया और न ही मुस्लिम आरक्षण को खत्म करने की कोई बात कही. सन् 2024 के लोकसभा के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के द्वारा मुस्लिम आरक्षण के विरुद्ध निरंतर प्रचार किया गया.
6.आंध्र प्रदेश :
सन् 2011 की जनगणना के अनुसारआंध्र प्रदेश में मुसलमान की आबादी आंध्र प्रदेश के कुल आबादी का 9.5% है, आंध्र प्रदेश में प्रारंभ से कुछ मुस्लिम समूह ओबीसी की सूची में सम्मिलित है. मुस्लिम समूह पहले से ही कोटा 7% से 10% तक है.
आंध्र प्रदेश में लोकसभा के चुनाव के साथ-साथ आंध्र प्रदेश की विधानसभा के चुनाव भी हुए. इस चुनाव में आंध्र प्रदेश में एनडीए (NDA) में भाजपा (BJP), टीडीपी (TDP) तथा जन सेना पार्टी (JSP) सम्मिलित हैं. इस गठबंधन के द्वारा 30 अप्रैल 2024 को एक संयुक्त घोषणापत्र (मेनिफेस्टो) जारी किया गया परंतु इसमें मुसलमानों के लिए किसी प्रकार के आरक्षित कोटा व अन्य उन सुविधाओं का वर्णन नहीं किया. हालांकि एनडीए के महत्वपूर्ण सदस्य टीडीपी के अध्यक्ष और आंध्र प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री (नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री) चंद्रबाबू नायडू बार-बार चुनावी जन सभाओं में आरक्षित कोटा व वह अन्य उन सुविधाओं का वर्णन करते रहे. चंद्रबाबू नायडू के द्वारा विभिन्न चुनावी जन सभाओं में आंध्र प्रदेश के मुसलमानों किए गए महत्वपूर्ण वादों का संकलन अग्रलिखित हैं:
1. मुसलमानों के लिए 4% आरक्षण बरकरार रखने का वादा,
2. राज्य में मस्जिदों के रख रखाव के लिए हर महीने प्रत्येक मस्जिद को 5,000 रुपये की वित्तीय सहायता करना,
3. हज यात्रा के लिए प्रत्येक मुसलमान (हज यात्री) को ₹100000 की वित्तीय सहायता करना,
4. अल्पसंख्यक वित्त निगम के माध्यम से 5 लाख रुपये का ब्याज मुक्त ऋण देने का वादा करना,
5. नूर बाशा निगम की स्थापना करने और समुदाय के लिए सालाना 100 करोड़ रुपये आवंटित करने का वादा,
6. अल्पसंख्यक समुदायों के 50 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों को पेंशन प्रदान करने का वादा,
7. अल्पसंख्यकों के लिए प्रमुख शहरों में ईदगाह और कब्रिस्तान के लिए स्थान आवंट करने का वादा,
8. इमामों और मौजानों को क्रमशः 10,000 रुपये और 5,000 रुपये का मानदेय प्रदान करने का वादा,
मास्टर स्ट्रोक वायदे: सभी धार्मिक समुदायों से संबंधित महिलाओं और युवकों को वायदे:
A. 19 से 59 वर्ष की आयु वर्ग की महिलाओं के लिए 1,500 रुपये मासिक पेंशन,
B. महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा,
C. युवाओं के लिए 20 लाख नौकरियां या 3,000 रुपये मासिक बेरोजगारी सहायता
28 अप्रैल 2024 को एक्स पर एक वीडियो संदेश में चंद्रबाबू नायडू ने कहा, “मुसलमानों में आज भी गरीबी बहुत अधिक है। ऐसे समय में उनकी मदद करना हमारी जिम्मेदारी है। इसी क्रम में हम मुसलमानों के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण बचाएंगे. इसमें कोई और विचार नहीं है’’. आंध्र प्रदेश में एनडीए के नेता एवं नव निर्वाचित वर्तमान मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने मुसलमानों के लिए 4% आरक्षण व अन्य उपरोक्त सुविधाएं जारी रखने का वादा किया है. इसके बिल्कुल राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए के नेता एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी ब्यानों सेज्ञात होता कि वे मुसलमानों को दिए गए आरक्षण के विरूद्ध हैं. मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुस्लिम आरक्षण के संबंध बहुत बड़ा विरोधाभास है.
7. बिहार :
मुंगेरीलाल आयोग ने सन्1977 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. इस रिपोर्ट के अनुसार 79 पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातियां सूचीबद्ध की गई.मुंगेरीलाल आयोग के अनुसार बिहार में पिछड़े वर्गों (जातियों) की कुल आबादी का 27% पिछड़ा वर्ग और 36% अत्यंत पिछड़ा वर्ग है. बिहार में कुल मतदाताओं में पिछड़े वर्ग का हिस्सा 63 प्रतिशत है.अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर ने नवंबर 1978 में बिहार में सरकारी सेवाओं में मुसलमानों सहित पिछड़े वर्गों के लिए 26% आरक्षण प्रदान किया है.पिछड़े वर्ग घोषित मुसलमानों में अंसारी, मंसूरी, इदरीसी, दफाली, धोबी, नालबंद इत्यादि सम्मिलित है. मुसलमानों को लगभग 3% नौकरियों में कोटे का लाभ मिल रहा है. इसके अतिरिक्त पंचायती राज इकाइयों में भी ईबीसी के लिए आरक्षित 20% में मुस्लिम समुदाय भी सम्मिलित है.
8. तमिलनाडु:
सन् 2007 में तमिलनाडु सरकार ने एक अध्यादेश के ज़रिए मुसलमानों और ईसाइयों के लिए कोटा लागू किया था बाद में मुसलमानों और ईसाइयों के लिए क्रमशः 3.5-3.5 प्रतिशत आरक्षण कोटा तय किया गया. ईसाइयों ने कोटे का अपना हिस्सा छोड़ दिया और उनका हिस्सा हिंदू पिछड़े वर्गों (जातियों) में आंवटित कर दिया गया. तमिलनाडु में भी मुस्लिमों को आरक्षण मिलता है. यहां पिछड़े वर्ग के मुसलमानों की 95% जातियों को 3.5% आरक्षण का लाभ मिलता है.
भारतीय जनता पार्टी : मुस्लिम आरक्षण के खिलाफ
भारतीय जनता पार्टी के द्वारा वर्तमान लोकसभा के चुनाव में बार-बार कांग्रेस पर दोषारोपण करते हुए पाकिस्तान समर्थक, ‘लव जिहाद से वोट जिहाद’, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन जातियों, पिछड़े वर्गों का आरक्षण खत्म करके मुसलमान को आरक्षण देने, हिंदू महिलाओं का ‘मंगलसूत्र छीनने’ तथा ‘राम मंदिर पर बाबरी तला’ लगाने का मिथ्यापूर्ण प्रचार निरंतर किया. यह मिथ्यापूर्ण प्रचार सांप्रदायिक भावनाओं से परिपूर्ण होने के कारण नकारात्मक विचारों को बढ़ावा देते हैं जो कि ’भारतीय ‘ लोकतंत्र के डांस ‘ के लिए उचित नहीं है. वर्तमान लोकसभा चुनाव (2024) में मुस्लिम आरक्षण का विरोध भारतीय जनता पार्टी के शीर्षथ नेताओं के द्वारा कर्नाटक से प्रारंभ किया गया और अंतिम चरण पर पहुंचते –पहुंचते आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, बिहार राजस्थान इत्यादि राज्यों में इत्यादि राज्यों में फैल गया. भारतीय जनता पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं – जेपी नड्डा (अध्यक्ष), स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी (प्रधानमंत्री), और गृहमंत्री अमित शाह (गृहमंत्री) से प्रेरणा लेते हुए राज्य स्तर के मुख्य मंत्रियों, मंत्रियों, और स्थानीय नेताओं के द्वारा भी मुस्लिम आरक्षण की आलोचना निरंतर बढ़ रही है और बार-बार नागरिक सेवाओं में मुस्लिम आरक्षण को बंद करने की आवाज बुलंद की जा रही है.
मुसलमान को प्राप्त आरक्षण को समाप्त करने की वकालत हिंदी पट्टी में मतदाताओं को रूझाने के लिए बार-बार कर रहे हैं और यह दावा करते हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने कई चुनावी जनसभाओं को संबोधित करते हुए कहा कि “जब तक मैं जीवित हूं, मैं उन्हें (I.N.D.I.A.) धर्म के नाम पर दलितों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण मुसलमानों को नहीं देने दूंगा .”
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता तथा केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने तेलंगाना में चुनाव (नवंबर, 2023,) प्रचार के दौरान कहा “केसीआर ने मुस्लिमों को धर्म के आधार पर आरक्षण दिया जो संविधान के खिलाफ है. यदि आप भाजपा सरकार चुनते हैं, तो हम धर्म के आधार पर आरक्षण के स्थान पर ओबीसी और एससी/एसटी के लिए आरक्षण बढ़ाएंगे, ”
सारांशतः हमारा सुनिश्चित अभिमत है कि मुसलमानों को केंद्र तथा भाजपा शासित राज्यों सहित अन्य राज्यों में शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ेपन के कारण आरक्षण प्राप्त है. मुसलमानों को प्राप्त आरक्षण धर्म पर आधारित नहीं है. यह संवैधानिक है तथा राष्ट्रीय विकास के लिए हितकर है. मुस्लिम आरक्षण के विरुद्ध मिथ्यापूर्ण प्रचार हिन्दू मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने में पूर्णतया असफल सिद्ध हुआ. परिणामस्वरूप भारतीय जनता पार्टी चुनाव में लोकसभा के चुनाव में बहुमत भी प्राप्त नहीं कर सकी. चुनाव परिणामों ने यह भी सिद्ध कर दिया कि भारतीय जनसाधारण धर्मनिरपेक्षता की भावना, पारस्परिक सहयोग, सौहार्दपूर्ण सम्बंध व सामाजिक समरस्ता की भावना को आत्मसात किए हुए हैं. यही कारण है कि मुस्लिम भी गौरव से कहते हैं कि हम भी भारतीय हैं.