मार डालेगा यह अकेलापन

प्रोफेसर शाम लाल कौशल

(समाज वीकली)

हमारे बुजुर्गों ने संयुक्त परिवार प्रथा और बातों के अलावा यह सोचकर भी रखी थी कि परिवार के सदस्य इकट्ठे मिलजुल कर रहेंगे, एक दूसरे का दुख सुख सांझा करेंगे, आवश्यकता पड़ने पर एक दूसरे की मदद करेंगे। मिलजुल कर रहने से दिल लगा रहता है, अकेलेपन की त्रासदी से हम बचे रहते हैं। लेकिन विडंबना देखिए पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में आकर हमने संयुक्त परिवार प्रथा जैसी मूल्यवान परंपरा के बदले में एकाकी परिवार प्रथा को ही अपनाना शुरू कर दिया जिसमें दादा दादी, चाचा चाचा, बुआ फूफा आदि का कोई स्थान नहीं है। पति पत्नी और बच्चे मिलजुल कर रहते हैं। हंसते खेलते हैं, पार्टियों में जाते हैं, अपने रिश्तेदारों के बदले में दूसरे लोगों से संबंध बनाना बेहतर समझते हैं।

लेकिन इस सारे के बावजूद भी संसार के अन्य देशों की तरह भारत में भी जिस तरह मनुष्य अकेलापन महसूस करने लगा है, उससे उसका दम घुटने लगा है, बहुत सारा पैसा है, सारी सुख सुविधाएं हैं, सारे साधन है लेकिन उसके बावजूद भी आदमी का दिल नहीं लगता, उसे लगता है कि इस भरी दुनिया में वह अकेला है। आज की दुनिया किसी को बिना मतलब के पूछती ही नहीं। जब तक मतलब होता है लोग आपके आसपास रौनक लगाए रखते हैं, आपकी तारीफ करते हैं, खुशामद करते हैं लेकिन उसके बाद आप तन्हा के तन्हा ही रह जाते हैं। अमेरिका जैसे देश में जहां से एकाकी परिवार प्रथा निकलकर विश्व के अन्य देशों में पहुंची, वहां भी अकेलेपन से लोगों में निराशा, अवसाद, घुटन, आत्महत्या करने की इच्छा आदि महसूस होने लगी है! अमेरिका में लगभग 4 करोड लोग अकेलेपन का शिकार है
! 1960 में बिना परिवार के रहने वाले लोगों की संख्या13 प्रतिशत थी जो अब बढ़कर 29% हो गई है! वहां अकेले रहने वाले अधिकांश लोग 30 साल से लेकर 44 साल तक की उम्र के हैं! भारत में भी 45 वर्ष की उम्र के लगभग20 प्रतिशत लोग अकेलेपन का शिकार है! अकेलापन कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक महामारी की तरह तेजी से फैलता जा रहा है! बहुत सारे कम उम्र के बच्चे अनाथालय में अकेले रहते हैं! वह सरकार या समाज के द्वारा दी गई सहायता के द्वारा जीवन यापन करते हैं! उनका इस दुनिया में कोई नहीं होता! वह सगे मां बाप, भाई बहनों तथा रिश्तेदारों के लाड प्यार तथा देखभाल के लिए तरसते हैं। उन्हें पता होता है कि उनका दुनिया में कोई नहीं। उन्हें दूसरों की दया पर रहना पड़ेगा। ऐसे में उनके दिल पर जो गुजरती होगी उसे तो वही लोग ही जानते हैं। इसके अलावा हमारे देश में आजकल वृद्ध आश्रम वरिष्ठ नागरिकों की बढ़ती संख्या के कारण भरते ही जा रहे हैं। आजकल के कृतघ्न लड़के तथा उनकी बहुएं बुजुर्गों को अपने पास रखना नहीं चाहते, उनकी सेवा नहीं करना चाहते, उनकी धन संपत्ति पर कब्जा करके उन्हें वृद्ध आश्रम भेज देते हैं। बेशक वृद्ध आश्रम में और वृद्ध जन भी होते हैं लेकिन इस सारे के बावजूद भी अपने बेटे बेटियों, पोते पोतियों की अनुपस्थिति में यह वृद्ध लोग अकेलापन महसूस करते हैं। अपने परिवार तथा उसके लिए आवश्यक धन संपत्ति जोड़ने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। परंतु हाय! जब जिंदगी के अंतिम मोड़ पर इन बुजुर्गों को बच्चों की जरूरत थी उन्होंने इन्हें घर से निकाल दिया और वृद्ध आश्रम में एकाकी जीवन जीने का श्राप भोगना पड़ा। आजकल सभी मां-बाप अपने बच्चों को महंगे महंगे पब्लिक स्कूलों  में पढ़ाकर, उच्च शिक्षा दिलवाकर ऊंचे पदों पर पहुंचाने  में मदद करते हैं। ऐसा करते समय कई बार मां-बाप को अपने मकान, जमीन, जायदाद आदि भी गिरवी रखने पड़ते हैं, उधार भी लेना पड़ता है। लेकिन मां बाप के यह लाडले और आंखों के तारे घर से काफी दूर और कई बार विदेशों में जाकर नौकरी करते हैं, वही अपनी मर्जी से विवाह कर लेते हैं, कभी कभार मां बाप के पास पैसे भेज देते हैं, कभी कभार मिलने भी आ जाते हैं लेकिन अधिकांश बार इनमें से कोई बात नहीं होती। मां-बाप को अकेले ही शहर या गांव में दूसरों की मेहरबानी से अकेले ही रहना पड़ता है। क्या फल मिला इन्हें अपने बच्चों के लिए त्याग करने का? हमारे देश में मिलजुल कर रहने यह कम्युनिटी की भावना खत्म होती जा रही है। पहले लोग गांव में चौपाल में रोज इकट्ठे होते थे, एक दूसरे के दुख सुख की बात करते थे, उनमें से कोई भी अपने आप को अकेला महसूस नहीं करता था। लेकिन जैसे-जैसे शहरीकरण की हवा गांवों तक पहुंचने लगी, टीवी आ गए, मोबाइल आ गए लोगों का एक दूसरे के साथ संपर्क होना खत्म हो गया। पहले विवाह शादियों पर लोग एक दूसरे के यहां कई कई दिन पहले आ जाते थे, खूब रौनक लगती थी, मिलना जुलना होता था, हंसी मजाक होता था, सभी का मन खुश हो जाता था। लेकिन आजकल यह चीज है खत्म हो गई है। विवाह शादियां बैंक्विट हॉल में या गार्डन में होने लगी हैं। लोग शादी से कुछ समय पहले आते हैं, शगुन का लिफाफा पकड़ाते है, खाना खाते हैं और चले जाते हैं। इस प्रकार का मिलना कोई मिलना हुआ। इस तरह आदमी भीड़ के होते हुए भी अकेलापन महसूस करता है। आजकल कमाने वाले पुरुष तथा स्त्री इकट्ठे रहने के बदले में अकेले-अकेले रहना ज्यादा पसंद करते हैं! उनका मानना है कि… खाओ पियो. एंजॉय करो.. यह जिंदगी दोबारा नहीं मिलेगी…. लेकिन यह सब कुछ हमेशा रहने वाला नहीं! कुछ कमाऊ स्त्रियों अपने पति को तलाक देकर अपनी संतान के साथ सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए… सिंगल पेरेंट.. की जिंदगी व्यतीत करती हैं। लेकिन बुढ़ापे में संतान भी उन्हें छोड़ जाती है और जिंदगी का अकेलापन उनके लिए अभिशाप बन जाता है। आजकल बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां…. अकेलेपन … को प्रोत्साहित करती हैं। इसके पीछे उनका स्वार्थ होता है। उन्हें पता है कि अगर पांच सदस्यों का परिवार इकट्ठा रहेगा तो यह लोग एक ही फ्रिज, एक ही वाशिंग मशीन, एक ही टीवी, एक ही मकान से काम चला लेंगे। लेकिन अगर यह लोग अकेले-अकेले रहेंगे तो इन सबको यह चीजें अलग-अलग खरीदनी पड़ेगी और उनके माल की ज्यादा बिक्री होगी।

लेकिन जो लोग अकेले रहते हैं जरा उनके दिल से पूछ कर देखिए कि उनकी जिंदगी कैसी है।
अकेला आदमी निराशा का शिकार होता है, अपने दुख दर्द, पीड़ा, बीमारी, समस्या, कठिनाई, पैसे की जरूरत आदि के बारे में किसी को नहीं बता सकता। हम किसी मेले में जाते हैं वहां बहुत भीड़ होती है, क्या इस भीड़ में  से किसी व्यक्ति को हम अपना कह सकते हैं? इकट्ठे रहने से हम एक दूसरे से कुछ ना कुछ सीख सकते हैं, एक दूसरे की मदद कर सकते हैं! जबकि अकेलेपन में यह संभव नहीं! हम तो अपने आप को समझदार समझने वाला दुनिया का बेहतरीन जीव समझते हैं फिर भी अकेलेपन का समाधान हमारे पास नहीं है! हमारे से तो जीव जंतु और पक्षी भी ज्यादा बेहतर हैं जो झुंड बनाकर चलते हैं! इनमें से हमने किसी को भी अकेलेपन का शिकार होकर अवसाद में से गुजरते हुए नहीं सुना! इकट्ठे रहना और चलना अच्छा लगता है, अकेले रहना नहीं! कभी आपने आसमान में पक्षियों की  डार की डार उड़ते देखी होगी, कितनी सुंदर लगती है। काश मनुष्य भी अकेलेपन से छुटकारा पाकर मिलजुलकर रहना सीख पाता। अकेलापन एक श्राप है, बच सकते हो तो बचो।

प्रोफेसर शाम लाल कौशल
मोबाइल-9416359045
रोहतक-124001( हरियाणा) 

 

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