(समाज वीकली)
– राजीव यादव
इस तस्वीर को फेसबुक पर देख दिल रोमांचित हो जाता है और कह उठता है कि ऐ भगत सिंह तू जिंदा है…
वैसे तो पिंजरा तोड़ से मीडिया माध्यमों और साथियों द्वारा परिचित था पर नताशा नरवाल या उनके साथियों से नहीं. नागरिकता आंदोलन के दौरान जब शुऐब साहब जेल से छूटे तो दिल्ली के कई धरनों में एक दिन साथ-साथ जाना हुआ. उसी दौरान जहां तक मुझे याद है सीलमपुर धरने में नताशा और उनके साथियों से मुलाकात हुई. अन्य किसी धरने में जाने की जल्दी में वहां ज्यादा रुकना नहीं हुआ.
उसके बाद फरवरी में लखनऊ घंटाघर पर चल रहे धरने में जाने का एक कार्यक्रम बना तो मालूम चला कि नताशा और उनके साथी भी वहां आने वाले थे. उसी दिन दिल्ली के एक चर्चित रंग कर्मी साथियों का भी ग्रुप आने वाला था.
इसे लेकर लखनऊ में खुफिया विभाग बहुत सरगर्म हो गया. खुफिया विभाग की सरगर्मी की वजह थी कि कुछ लोगों का कहना था कि 9 फरवरी की इस तारीख को बहुत भीड़ इकट्ठी हो जाएगी. आम तौर पे धरने प्रदर्शन में भीड़ का होना बेहतर माना जाता है पर लोगों के अंदर एक खौफ पैदा करने की कोशिश की गई कि कुछ लोग अराजकता करना चाहते हैं. इसे लेकर फेसबुक, व्हाट्सएप पर संदेश चलाए गए कुछ मुझे भी मिले.
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और बेहतरीन कार्यक्रम हुआ और शायद वह दिन घंटाघर पे अधिक संख्या में जुटने वाले कुछ दिनों में से एक था. बाद में पुलिस ने एक एफआईआर भी दर्ज किया.
आज नताशा की तस्वीर देख पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि दिल्ली दंगों की जो साजिश सरकार ने की उसमें कहीं न कहीं उसके खिलाफ लड़ने वाले हम जैसे अपने को लोकतांत्रिक कहने वाली आवाजें भी उसकी शिकार बनीं.
दिल्ली दंगों के बारे में उसके साजिश कर्ताओं के नाम पर हमारे नौजवान साथियों पर जो आरोप लगाए गए हैं उसमें सोशल मीडिया पर भेजे गए मैसेजों को भी आधार बनाया गया.
यह कोशिश फरवरी माह में घंटाघर आंदोलन के दौरान भी कई बार हुई. लंबे अरसे से यूुएपीए जैसे केसों को करीब से देखने के अनुभव और नए यूएपीए के संसोधन अगर गलत नहीं हूं तो जिसका समर्थन कांग्रेस ने भी राज्य सभा मे किया था से इतना तो समझ आ गया था कि हो न हो कोई षणयंत्र रचा जा रहा है. अशफाक-बिस्मिल की शहादत दिवस 19 दिसंबर के बाद के अनुभवों ने काफी समृद्ध किया कि राज्य कैसे आपके खिलाफ षणयंत्र रच सकता है.
खैर शायद चंद्रशेखर आजाद को लेकर कोई कार्यक्रम घंटाघर पर घंटाघर की महिलाओं ने रखा था. शाम के वक़्त फोन आया कि हजरतगंज से बोल रहा हूँ शायद सीओ थे उन्होंने उस कार्यक्रम के बारे में पूछा और कहा कि इस प्रोग्राम की सूचना जिसे मैंने ट्वीट किया वायरल हो गया. खैर बहुत सी बातें हुई जिसको यहां शेयर करना अभी उचित नहीं समझता. फ़ोन कटने के बाद सोचा कि क्या इतना वायरल हो गया क्योंकी अमूमन मेरी सोशल मीडिया पे ज्यादा लोगों तक पहुँच नहीं है या कह सकते हैं कि मेरी पोस्ट को बहुत कम लाइक या शेयर होता है. देखा तो दो या तीन लाइक था कोई शेयर नहीं था. खुद पे हंसी आई और घंटाघर से उजरियाव धरने को चला गया.
उजरियाव पहुँचा था कि शुऐब साहब का फोन आया कि कोई कार्यक्रम रखे हो क्या. मैंने कहा नहीं. चूंकि संगठन कोई कार्यक्रम रखता है तो हम बात करते हैं इसलिए शुऐब साहब ऐसी सूचना मिलने पर पूछते थे. शुऐब साहब ने कहा कि अमीनाबाद थाने से एसओ आए हैं पूछ रहे हैं. जहां तक याद है अमीनाबाद ही बोला था. खैर मैंनें कहा बात करा दीजिए. फिर उन्होंने भी उस कार्यक्रम के बारे में पूछा और कहा कि आपने ट्वीट किया है. फिर वायरल वाली बात. मैनें कहा कि मुश्किल से दो-तीन लाइक पे कैसे वायरल हो सकता है. खैर मेरी बातों से शायद वे संतुष्ट हो गए और चले गए.
जो साथी जेल गए उनको सलाम, जो विषम परिस्थिति में लड़ रहे उनके हर कदम साथ रहने के वादे के साथ कहना चाहूंगा कि हमें अपने आंदोलनों के दौरान सचेत रहना चाहिए कि हम विरोधियों की किसी साजिश का हिस्सा तो नहीं बन रहे. हमें अपने साथियों पे गर्व हैं जिनपर झूठे आरोपों को लगाकर जेल में डाल दिया गया है. उनके साथ बीते खूबसूरत लम्हों को हम इसी तरह लिखेंगे.
आजकल इंसान से ज्यादा ट्विटर-फेसबुक चर्चा में हैं. इसी चर्चा में आज अफलातून जी के एक फ़ोन का जिक्र करता हूं. उनको हमारी ख़बर का एक मेल प्राप्त हुआ जिसके बारे में ऊपर लिखा था कि इस मेल के तथ्य संदेहास्पद हैं ऐसा कुछ. उन्होंने इस पर संदेह जाहिर किया कि कोई इसे पढ़ा होगा तभी तथ्य के बारे में बोल सकता है वह भी जब इसे बीसीसी में भेजा गया है यानी अब मेल को भी सर्विलांस किया जा रहा. यह खबर यह थी कि भारत सरकार जो कोरोना में हो रही मौतों का आंकड़ा जारी कर रही है उसको और अधिक पुख्ता करने के लिए ग्राम प्रधान अपने गांवों में कोरोना काल में हुई मौतों का आंकड़ा जिलाधिकारी को सौपें, जिससे पीड़ित परिवारों की सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा की गारंटी हो सके.
जो भी हो मुझे तो फोन पर बात करना ही ज्यादा आसान लगता है. फेसबुक पे तो नताशा और उमर जैसे साथियों की मुट्ठी तानी तस्वीर और खालिद सैफी की गुलाब वाली चिट्ठि ही अच्छी लगती है.
लिख चुका था पर नताशा के बारे में जिक्र आया तो एक वाकया जरूर बताना चाहूंगा. नताशा, देवांगना की जब गिरफ्तारी हुई तो उनकी रिहाई के समर्थन में एक पोस्टर निकाला गया था. उसी दरम्यान सलमान भाई का मैसेज आया या किसी पोस्ट में उन्होंने मुझे मेंसन किया. जब उस पोस्ट को देखा तो मेरे होश उड़ गए. उसमें ऐसा कुछ था कि रिहाई मंच मुस्लिम एक्टविस्ट जो गिरफ्तार होते हैं उस पर नहीं बोलता. इसे देख मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था लेकिन सलमान भाई ने उस दरम्यान और जो गिरफ्तारियां हुईं थी उनके पोस्टर मांगकर पोस्ट किया. सच मुझे उस वक़्त बहुत रोना आ रहा था. खैर थोड़ी देर में उस साथी ने माफी मांगते हुए पोस्ट हटा दी. ठीक ऐसा ही कई बार दलित साथी भी लिख देते हैं या कह देते हैं कि हम मुसलमान के सवाल को ही उठाते हैं. और मुसंघी भी कह देते हैं. साफ तौर पर हम संविधान को बचाने और उसे लागू करवाने के लिए लड़ते हैं.
हमको अपने आंदोलनों में साथियों को वैचारिक रूप से भी मजबूत करना होगा ये लड़ाई फासीवाद-साम्राज्यवाद-मनुवाद के खिलाफ है. ऐसे में हमारी वैचारिक प्रतिबद्धता ही तय करेगी कि हम अपने वक़्त में क्या सही थे.