(समाज वीकली)
वारिस का जन्म अठारवीं शताब्दी के शुरुआती दसक का है। उसकी जाती ‘सय्यद’, ‘बार’ (पंजाब) का रहने वाला, और शेख़ मखदूम का शागिर्द था। उसने 1767 ईस्वी में अपना इकलौता शाहकार किस्सा ‘हीर’ पंजाबी जगत को पेश किया। वारिस का किस्सा एक ‘प्रीत कथा’ है। इश्क़ के दो रूप माने गयें हैं :
-इश्क़ हक़ीक़ी (रब्ब के साथ इश्क़), और
-इश्क़ मिज़ाज़ी (दुनियावी इश्क़)
कवी हाशम, इश्क़ मिज़ाज़ी और इश्क़ हक़ीक़ी को एक ही मानता है:
“एक ही पौधा, एक स्वाद, एक ही पत्ता निशानी ”
हाशिम कहता है के रब्ब का आशिक़ होना आसान है क्योंकि इसका सामाजिक विरोध नहीं है । जबकि इश्क़ मिज़ाज़ी का रास्ता बहुत कठिन है:
“हाशिम ख़ाक रुलाये गलियां, जे काफिर इश्क़ मिज़ाज़ी”
वारिस अनुसार इश्क़ इस संसार का मूल है । पहले रब्ब ने खुद इश्क़ किया और दुनिया को पैदा किया ।
राँझा अपने सभी भाईओं से छोटा था । अभी वो छोटा ही था जब उसका बाप मर गया । भाइयों ने धोखे से उसकी जाएदाद भी हड़प ली । उचाट हो कर वह घर-बार छोड़ कर चला गया। उसका हीर से मिलन होता है। पहली ही नज़र में उनको एक-दूसरे से प्यार हो जाता है:
” रांझे ने जब कहा ‘ओह प्रीतम’
हीर मुस्करा कर मेहरबान हो गयी”
पहली मुलाकात में ही कस्मे-वादे कर लेते हैं :
” मुझे सौगंध है बाप की अरे रांझे
मरे माँ मेरी अगर तुझे भूलूँ
अंधी हो कर मेरे प्राण जाएं
तुम्हारे बिना पति अगर कोई और चाहूँ”
यह इश्क़ कोई बच्चों का खेल नहीं । इसकी तपश को केवल बहादुर और समर्पित लोग ही झेल सकते हैं। जे सरे संसार का गुरु है:
” तपश इश्क़ की सहनी है बहुत कठिन
इश्क़ गुरु और जगत इसका चेला है जी ”
जे कोई फायेदे वाला सौदा नहीं । इसमें तोह सब कुछ खोना पढता है:
” वारिस शाह इस इश्क़ के व्यापार में से
किसे न कमाया नहीं है एक पैसा जी”
इन आशिक़ों को जान जाने का डर नहीं है:
“वारिस शाह इन् आशिक़ों को
डर थोड़ा सा भी नहीं है
जान गवाने का ”
जे भागना-भागने का काम नहीं। हीर बहादुर है, हिम्मती है और समाज के प्रति उसकी सुर विरोध वाली है। तभी तो वारिस ने किस्से का नाम ‘हीर’ रक्खा है, ‘हीर-राँझा’ नहीं। हीर, रांझे को कहती है चलो भाग चलते हैं। पर राँझा मना कर देता है:
“इश्क़ का कोई स्वाद नहीं है
इन चोरियों और भाग जाने में”
वारिस ने अपने इश्क़ को सच्चे और पवित्र रूप में दिखाने की कोशिश की है। इसी लिए उसका इश्क़ शादी जैसे सांसारिक बंधनो में नहीं बंधता।
इश्क़ का खेल, सुंदरता के मैदान में खेला जाता है। वारिस ने हीर की सुंदरता का वर्णन उसके एक-एक अंग को लेकर किया है:
“क्या हीर की करे तारीफ शायर
माथे चमक रहा हुसन चाँद का है जी”
रांझे की सुंदरता का वर्णन भी ज़ोरदार शब्दों में किया है:
“बगल में बांसुरी, कान में बाली
ज़ुल्फ़ चेहरे पर परेशान हुई”
राँझा चरवाहा बन जाता है और इश्क़ का खूब आनंद लेता है। पर जे बात समाज से अधिक देर तक छुपी न रह सकी। चाहे हीर और राँझा दोनों एक ही जाति (किसान) के थे, पर उनमें रुतबे का बहुत फासला था। इस लिए हीर के घर वाले ‘सियाल’ इस सम्बन्ध के खिलाफ थे:
” सियालों ने बैठ कर विचार की
भले लोग गैरत पालते है जी
बात मशहूर है पूरे संसार में
हमें तायने है हीर सियाल के जी
नाक रहेगी नहीं अगर कर दी शादी
साथ लड़के इस महींवाल से जी ”
इस लिए उन्होंने हीर की इच्छा के खिलाफ, उसकी शादी ‘सैदे’ से कर दी। टूटा दिल और उदास मन लेकर राँझा ‘योगी’ बन गया। किस्मत से, घुमकते-घूमते, एक दिन सैदे के घर उसकी मुलाकात हीर से हो जाती है। मिलाप की संभावना बनती है। अब राँझा भाग जाने के लिए कहता है। पर हीर को समाज से नमोशी की भावना पसंद नहीं । वह ता उम्र ‘भगाई-हुई’ नहीं कहलाना चाहती। वह रांझे को बारात ला कर शादी करने को कहती है। उसके ससुराल वाले बहार से तोह मान जाते हैं, मगर अंदर से विरुद्ध हैं।
रूढ़िवादी सोच वाला मध्यकालीन समाज ‘प्रेम विवाह’ की मंज़ूरी नहीं दे सकता। तथाकतित सामाजिक मूलियों की रक्षा के लिए खुद हीर की माँ ही उसको ज़हर दे देती हैं ! उधर जब रांझे को इस बात का पता चलता है तोह वह भी प्राण त्याग देता है।
इस तरह किस्से का अंत दुखांत में घटता है। असल में वारिस ने जह दिखाने की कोशिश की है के सच्चे आशिक़ अपनी जान पर तो खेल सकते हैं पर अपने मुल्लियों से समझौता नहीं कर सकते। बाकि मध्यकालीन समाज में प्रेम-कथा का अंत दुखांत में ही हो सकता था। वारिस ने अंत में ‘हीर’ और ‘रांझे’ को ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ की उपमा दे कर अपने किस्से को रूहानी अर्थ प्रदान करने की कोशिश की है।
“हीर रूह और राँझा रब्ब मानो
बाल नाथ जे पीर बनाया है जी”
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– परगट सिंह
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