- विद्या भूषण रावत
२६ अप्रेल की रात जीतेन्द्र दास के लिए अंतिम रात बन गयी. उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा के अपने भतीजे की शादी में जश्न मनाते वह जातीय हिंसा का शिकार हो जाएगा. उत्तराखंड के टिहरी जिले के श्रीकोट गाँव में जो जौनपुर ब्लाक में पड़ता है और एक प्रकार से मसूरी देहरादून से सटा हुआ है, में प्रदीप दास की शादी में उनके रिश्ते के चाचा जीतेन्द्र को गाँव के जनेऊ-धारियों ने इतना मारा के एक सप्ताह बाद उसने देहरादून के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया. मैंने जनेऊ-धारी शब्द इसलिए इस्तेमाल किया क्योंकि ये हत्या एक दबंगई का उदहारण नहीं है अपितु जातीय घृणा का प्रतीक है. प्रदीप दास के विवाह में आये सवर्ण युवको ने उसकी कुर्सी पर लात मारी जिससे उसकी प्लेट में रखा खाना उलट गया और पास बैठे लोगो पर गिर पड़ा. फिर तो सभी ने मिलकर जीतेन्द्र को मारा. जीतेन्द्र दास, उत्तराखंड के बाजगी समुदाय से आते है जो दलितों में सबसे अधिक उत्पीडित और पुर्णतः भूमिहीन समाज है. बाजगियो की कई जातिया है जैसे दास, औजी, आदि जो पारंपरिक संगीत और ढोल पीटने के पेशे से जुडी है. इनका काम शादियों में ढोल और मशकबीन बजाने का होता था और आज भी उत्तराखंड में अधिकांश शादियों में उन्हें अवश्य बुलाया जाता है. उत्तराखंड आन्दोलन में बाज्गियो ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, ढोल बजाय, आन्दोलनों के आगे आगे ढोल बजाते रहते और रातभर संघर्ष में शामिल थे लेकिन आज उत्तराखंड राज्य बन्ने के बाद भी इन जातियों के एक भी व्यक्ति को राज्य आन्दोलनकारी का दर्जा प्राप्त नहीं है, जिससे वे भी सरकारी पेंशन के हकदार बनते. उत्तराखंड की राज्य सेवाओं में एक भी बाजगी या दास या औजी नहीं मिलेगा. वैसे भी उत्तराखंड राज्य में दलितों या आदिवासियों ने नाम पर आ रही योजनाओ पर कभी भी ईमानदारी से पैसा खर्च नहीं होता और अधिकांशतः पैसा केंद्र को या तो वापस चला जाता है या अन्य योजनाओं में चालाकी से ट्रान्सफर कर दिया जाता है. किसी भी राजनैतिक दल में इन जातियों का किसी भी लेवल पर प्रतिनिधित्व नहीं है.
बहुत से पत्रकार ये कह रहे है के उत्तराखंड में सवर्ण भी दलितों के विवाहों में शामिल होते है. लेकिन सवर्णों के इस समाज-शास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों को समझना होगा. टिहरी और उत्तरकाशी जनपदों के कई इलाको में ऐसा होता है लेकिन इसमें एक शर्त होती है. सवर्णों का खाना ब्राह्मण बनाते है और उनके लिए खाने के लिए व्यवस्था दलितों के खाने की व्यवस्था से थोडा अलग जगह पर होती है. शराब में कोई छूत नहीं इसलिए शादियों में खाने की पीछे एक बहाना तो शराब का भी है. ऐसा नहीं है के सवर्णों की स्थिति आर्थिक तौर पर बहुत अच्छी है. जो सरकारी नौकरियों में है या फौज में हैं, वो शहरों में अपना घर बनाकर गाँव छोड़ रहे है और गाव में या तो बुजुर्ग लोग रहते है, या महिलाए और वो युवा जो बेरोजगार है. और पिछले कुछ वर्षो में जातीय अस्मिताओ के सहारे की जी रहे है. दलितों को लेकर एक चिड या जलन नज़र आती है के ‘उन्हें’ ‘नौकरिया’ मिल जाती है और अन्य स्थानों की तरह यहाँ भी एक पूर्वाग्रह ये है के दलितों में मेरिट नहीं होती और वो सवर्णों का हक़ छीन रहे है. इसलिए सामाजिक तौर पर अभी भी गाँवों में सवर्ण अपने जातीय अहंकार में जीते है हालाँकि आर्थिक तौर पर उनके हालात भी खाराब है. अब जहा पर दलित थोडा पढ़ लिख कर बराबरी के हक की बात करते है या थोडा अच्छे से रहने की कोशिश करते है तो उन्हें या शाब्दिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है या फिर शारीरिक हिंसा का भी जैसे जीतेन्द्र के साथ हुआ. अब जीतेन्द्र ने यही ‘गलती’ कर दी के वो खाने के लिए सवर्णों के लिए निर्धारित स्थान पर खाना खाने लगा. ये बात भी आश्चर्यजनक है के प्रदीप और उसके परिवार के लोगो ने इस विषय में क्या कहा होगा लेकिन टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, जीतेन्द्र की बहिन पूजा ने बताया के जब द्विजो ने उसे मारा तो कहा के तेरी हिम्मत कैसे हो गयी हमारे सामने बैठकर खाने की. दरअसल बाजगियो की सामाजिक आर्थिक हालात इतने ख़राब है के वो अगर ना भी चाहे तो मना नहीं कर सकते. सवर्णों का इतना ज्यादा दवाब था के जीतेन्द्र की हत्या पर ऍफ़ आई आर भी नहीं की. जीतेन्द्र की मौत के बाद देहरादून में उसके गाँव वालो और परिवार वालो ने शव को लेकर प्रदर्शन किया और वे मुख्यमंत्री से मिलना चाहते थे जो के नहीं हो पाया. बाद में बहुत समझा बुझाने के बाद करीब ३३ घंटे के बाद उसका अंतिम संस्कार किया गया. पुलिस ने सात लोगो को अभियुक्त नामजद किया है जिसमे तीन गिरफ्तार किये जा चुके है. उन पर एस सी एस टी अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत मुक़दमे दर्ज किये गए है.
उत्तराखंड का जौनसार का क्षेत्र ( श्रीकोट हालाँकि टिहरी जिले में है लेकिन इसका ब्लाक जौनपुर है जो सांस्कृतिक तौर पर जौनसारी परम्पराओं से मिलता जुलता है) आज भी भयंकर जातिवाद की चपेट में है. पूरे क्षेत्र को अनुसूचित जनजाति क्षेत्र घोषित है जो भारत में बहुत कम है. पूरे क्षेत्र के लोगो को आरक्षण मिलता है. यानी जौनसार का पूरा आरक्षण सवर्णों की जातिया खा रही है और दलितों को कुछ भी नहीं है. इस क्षेत्र में दलितों पर सबसे ज्यादा हिंसा है, उन्हें मंदिरों तक में प्रवेश नहीं दिया जाता और अनुसूचित जाति-जनजाति अधिनियम लागू नहीं होता क्योंकि तकनीक तौर पर सभी को ‘अनुसूचित जनजाति’ मान लिया गया है. नतीज़ा यह हुआ है के ठाकुरों का एक तबका यहाँ का परमानेंट नेतृत्व कर रहा है. श्रीकोट में भी नामजद अभियुक्त राजपूत ही दिखाई दे रहे है. क्योंकि श्रीकोट टिहरी जनपद का हिस्सा है इसलिए अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम लागू हो गया नहीं तो चकरोता क्षेत्र होता तो यहाँ वो भी नहीं लागू होता.
इस पूरे घटनाक्रम को उत्तराखंड के मीडिया ने बिलकुल दबा दिया है. सबने इसे एक मर्डर स्टोरी बनाकर छाप दिया और उसके बाद लगभग गायब ही कर दिया. मीडिया में जनेऊ-धारियों का कब्ज़ा है इसलिए वो इस प्रश्न को न तो अनुसूचित जातियों पर अत्याचार बता रहे है और न ही ये कह रहे है के उत्तराखंड में ऐसा होता है. दरअसल प्रदेश के बहुत से ऐसे क्षेत्र है जहाँ स्थिति बहुत ख़राब है और दलित क्योंकि गाँवों में पुर्णतः अल्प संख्यक है इसलिए वे किसी भी काम के लिए इनकार नहीं कर सकते. जैसे दास, या बाजगी शादियों में यदि ढोल बजाने से इनकार कर दे तो उनका बहिष्कार और उन पर शारीरिक हिंसा की पूरी सम्भावना होती है. यदि वह अपने ‘परम्परागत’ पेशे पर चल रहे है और ‘जातीय’ ‘नियमो’ का पालन कर रहे है तो उन्हें ‘सम्मान’ भी मिलता है. मनुस्मृति के अनुसार व्यक्ति अपनी जाति स्वयं नहीं चुनता अपितु वह तो पहले से ही तय है और उसके विरुद्ध विद्रोह करना गहन सामाजिक अपराध है जिसके सजा मौत भी हो सकती है. जीतेन्द्र ने जातीय ‘मर्यादा’ तोड़ दी और उसकी सजा उसे मौत के तौर पर मिले. जाहिर है के ‘जन्म के आधार’ पर सब बराबर है का संवैधानिक वाक्य आज भी हमारे गाँवो में नहीं पहुंचा है. यदि संविधान हमारे गाँवों तक पहुंचा होता तो जीतेन्द्र की हत्या नहीं होती.
उत्तराखंड को अक्सर देवभूमि के नाम से पुकारा जाता है लेकिन पूरे प्रदेश में दलितों के साथ जो व्यवहार होता है उससे यदि इसे मनुभूमि बोला जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगा. हालाँकि उत्तराखंड के पहाड़ो में दलितों पर हिंसा उस तरह से आक्रामक नहीं है जैसे दूसरे प्रदेशो में है लेकिन यहाँ का सबसे बड़ा हथियार सामाजिक और सांस्कृतिक बहिष्कार. उत्तराखंड में पहाड़ो में जमीन के प्रश्न लगभग गायब है इसलिए उस प्रकार की सामंतशाही पहाड़ो में नहीं है जैसे शायद बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में हो लेकिन जो भी थोडा सा भूमि वाला इलाका है वहा ऐसी मनोवृति दिखाइ देती है. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने इस विषय में अपना मुंह नहीं खोला है. वह अभी बद्री-केदार, पूजा पाठ में व्यस्त होंगे. यहाँ की विपक्षी पार्टियों के भी यही हाल है. उत्तराखंड के सामाजिक संगठनो के लिए भी ये मुद्दा नहीं है. दलितों के भी अधिकांश संगठन मनुवादी मानसिकता ही शिकार है और अपनी दिशा तय नहीं कर पा रहे. वे अपनी उम्मीदे राजनैतिक दलों और उनके नेताओं से लगा रही है जिनके लिए ये प्रश्न महत्वपूर्ण है ही नहीं क्योंकि संख्या के आधार पर गाँवो में बाजगी या दास जातियों की संख्या बहुत कम है. हर एक गाँव में एक या दो घरो से ज्यादा नहीं होते और राजनीती में हर बात नफा और नुक्सान से तय होता है. वैसे भी नेताओं को कोई सामाजिक या सांस्कृतिक क्रांति तो करना नहीं और भारत में राजनीती अभी भी मनुवादी जोड़तोड़ पर ही चल रही है. उत्तराखंड के पहाड़ो में वैसे भी आबादी का संकट है और दलितों की आबादी भी छिटकी हुइ है और राजनीती में बहस के मुद्दे यहाँ के जंगल, पहाड़ या दलित आदिवासी अस्मिता कभी नहीं बने. जैसे देश में सभी राजनैतिक दल मुसलमानों का नाम लेने से बचते रहे है वैसे हे पहाड़ो में राजनीती में आप दलित, या आरक्षण का नाम भी नहीं लेते ताकि द्विज लोग नाराज़ न हो जाएँ.
उत्तराखंड सरकार को इस सन्दर्भ मे गंभीरता से कार्यवाही करनी चाहिए. कुछ वर्षो पूर्व बागेश्वर में जब एक ब्राह्मण ने गाँव में एक दलित को काट डाला था तो तत्कालीन ,मुख्यमंत्री हरीश रावत ने गाँव जाकर समुदाय से माफ़ी मांगी थी, जो एक अच्छा प्रयास था लेकिन वर्तमान मुख्यमंत्री ने इस सन्दर्भ में कोई प्रयास नहीं किया है. आज समय की जरुरत है के उत्तराखंड का राजनैतिक नेतृत्व चाहे जिस भी पार्टी का हो, यहाँ के सामाजिक कार्यकर्ता, मानवाधिकार आन्दोलनकारी, सभी को खुल कर जातिवाद, छुआछूत के विरुद्ध लड़ने का निर्णय लेना होगा. घटनाओं को छुपाने और उनपर पर्दा डालने से कुछ नहीं होने वाला. आवश्यकता है के सच को स्वीकारे, दलितों, पिछडो, आदिवासियों और पहाड़ के मुसलमानों को वहा के नागरिक के तौर पर स्वीकार करें. प्यार से रहे. अगर सवर्ण या दलित एक दूसरे के विवाह में शरीक होते है तो बहुत अच्छा लेकिन वो तभी क्रांतिकारी होगा जब जातीय पवित्रता के मनुवादी सिद्धांत को हम तोड़े. विवाह जैसे अवसर पर शामिल होकर उसमे अलग अलग खाने की परम्पराओं को लादकर अतीत के बोझ तले पहाड़ कभी भी सामाजिक बदलाव के सरोकारों से नहीं जुड़ सकते. जरुरत इस बात की है के जातिवाद के इस किले को तोड़े जो इंसान से इंसान को दूर करते है और हमारे अन्दर एक फर्जी अहंकार पैदा करती है. जातिगत हिंसा या हेट क्राइम उत्तराखंड पर एक बदनुमा दाग है और ये दाग तब धुलेंगे जब हम जातिवाद और छुआछूत के विरुद्ध एक जनांदोलन खड़ा कर पाए जिसमे सभी समुदाय भागीदार बनेंगे ताकि हम एक मानववादी समाज का निर्माण करे सके जिसमे व्यक्ति की गरिमा का सम्मान हो, अपने पहिचान के आधार पर उसका अपमान न हो और वो भी प्रदेश की तरक्की में सहयोग कर सके और उसका लाभ ले सके. क्या उत्तराखंड के लोग ऐसे किसी आन्दोलन के लिए तैयार है ?