(समाज वीकली)- आज सुबह जब आँख खुली तो फिर मोबाइल ओपन किया। आज भी मौत की खबर देने वाले पोस्ट दिख गए। मगर उससे भी खतरनाक जातिवादी वायरस से सम्बंधित एक पोस्ट था।
एक दोस्त ने पोस्ट शेयर करते हुए बताया कि कोई एक सीरियल अदाकारा ने दलित-विरोधी बयान दिया है। इसपर कड़ा एतेराज ज़ाहिर करते हुए, उन्होंने कड़ी करवाई की मांग की है।
मेरे दोस्त कुछ साल पहले एक नामचीन न्यूज़-पोर्टल के लिए काम करते थे। धीरे-धीरे सोशल जस्टिस और साम्प्रदायिकता-मुखालिफ मुहीम से खुलकर जुड़ गएँ। वे अम्बेडकर समाज से आते हैं। अन्याय को देखकर, उनका दिल दर्द और गुस्से से भरा है।
यह दर्द और गुस्सा उनके पोस्ट और एक्टिविज्म में भी दिखता है। उनकी कारकर्दगी ऊपर बैठे जातिवादी लोगों को पसंद नहीं आई और उनको झूठे मामलों में फंसाकर जेल भेज दिया गया।
मगर कुछ ही महीने पहले वे जेल से बहार आएं और बगैर डरे हुए वही सब कर रहे हैं, जो जेल जाने से पहले किया करते थे। हाल ही में उन्होंने उत्तर प्रदेश की एक बड़ी पार्टी को ज्वाइन कर लिया है।
मैंने दोस्त के बारे में यह सब बताना ज़रूरी समझा। आखिर जातिवादी बयान के खिलाफ सवर्ण पत्रकार क्यूँ नहीं सामने आते? जातिवादी समाज की क्रूरता और अत्याचार ऊपर बैठे लोग क्यूँ नहीं समझ पाते हैं? शायद वे समझना भी नहीं चाहते।
बड़ी जाति में पैदा होने वाला पत्रकार भी जातिवाद के खिलाफ मुंह नहीं खोलता। बल्कि जाति का नेटवर्क इस्तेमाल कर अपना और अपनी जाति के लोगों का काम करवाता है। मैंने भारतीय मीडिया को अक्सर जातिवादी पाया है।
कई बार सोचता हूँ पत्रकार तो पढ़ा-लिखा इन्सान होता है, उसे तो हकीकत समझ में आनी चाहिए? मगर नहीं आती। जिस तरह पानी में रहने वाली मछली पानी को ‘नेचुरल’ समझती है, उसी तरह जातिवादी व्यस्था का फायदा उठाने वाला पत्रकार भी जातिवाद को प्राकृतिक समझता है।
माना कि यह बात ऊँची जाति में पैदा लेने वाले सभी पत्रकारों के सही लिए नहीं है, मगर यह सत्य है कि ज़्यादातर लोग, जिस जात की मानसिकता के साथ पैदा होते हैं, उसी मानसिकता के साथ मर जाते हैं।
आप को यकीन नहीं होता आप को? एक घटना सुन लीजिए, शायद मेरी बात पर यकीन हो जाए। बात होली की रात की है। मेरे एक दोस्त ने कहा कि “आप कुछ हमारे लिए लज़ीज़ पका दीजिए”। खाना बनाने और खिलने में मुझे कभी काहिली महसूस नहीं हुआ है। उस रात को रूम में हर इन्तेजाम था। महफ़िल में बी.बी.सी. में काम करने वाले एक दोस्त भी शामिल थे। पत्रकार दोस्त, जब मुड में आयें, तो बातें साफ़ साफ़ कहने लगें।
पत्रकार दोस्त बिहार के एक दबंग अपर जाति से आते हैं। सिगरेट की कश खींचने के बाद, उन्होंने अपनी जाति की ख्याली बदहाली पर मातम करना शुरू किया, “बिहार में यादव आज लोगों को जीने नहीं दे रहा है। उनका कब्ज़ा हर जगह है। उनके कास्ट के किनते विधायक जीत के आये हैं, कभी आप लोग ध्यान नहीं देते। अपर कास्ट के लोग अब गरीब हो रहे हैं, भूखों मर रहे हैं।”
इस बात में दो राय नहीं है कि लोग वाकई भूखे मर रहे हैं। सवर्ण का एक तबका भी परेशान है। मगर आज भी बिहार में, ज़मीन, संसाधन, सियासत, कल्चर, मीडिया, धर्म और समाज पर दबदबा मुठ्ठी भर ऊँची जातियों का ही है।
वहीँ खेत में काम करने वाला दलित और पिछड़ा, अपने परिवार का पेट नहीं भर पा रहा है। घर बनाने वाला दलित और पिछड़ा खुद टूटे और कच्चे घर में रह रहा है। सुन्दर-सुन्दर सोफा और पलंग बनाने वाला, खुद टूटी हुई चारपाई पर सो रहा है। ऊँची जाति के घरों तक दूध पहुँचाने वाला खुद अपने बच्चों को दूध नहीं पिला पाता।
क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि उत्पादन करने वाली लगभग सभी जातियां दलित और पिछड़ा होती हैं, जबकि मलाई काटने वाले ज़्यादातर लोग ऊँची जातियों से आते हैं?
यह बात सच है कि बिहार में कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद के बाद हालत थोड़ी बदली। मगर यह भी नहीं फरामोश करना चाहिए कि सामाजिक आन्दोलन को तोड़ने के लिए ऊँची जातियों ने बहुत पहले अपना चाल खेल डाला और पिछड़ी जाति से एक मुखौटा खड़ा कर दिया और इसतरह वे अपना हित साध रहे हैं। पिछले पंद्रह साल से यही मुखौटा बिहार की राजनीति को चला रहा है।
अदाकारा का जातिवादी बयान ट्विटर पर मौजूद है। उसे देखकर और सुनकर बड़ा अफ़सोस और दुःख हुआ। आज कोरोना वायरस का डर हर तरफ दिखाया जा रहा है, मगर जातिवादी वायरस के खतरे की बात शायद ही कोई करता है। जातिवादी वायरस से ग्रसित अदाकारा भी दिखी। एक वायरल वीडियो में उन्होंने तथाकथित तौर से कहा कि पब्लिक के सामने आने से पहले वह सजी है, नहीं तो वह एक दलित जाति के व्यक्ति की तरह बदसूरत दिखती!
यह जातिवादी वायरस का ही प्रभाव है कि अदाकारा को लगता है कि जो भी खुबसूरत है वह ऊँची जाति से सम्बंधित होता है, और जो भी बदसूरत होता है वह नीची जाति से जुड़ा होता है।
यह कड़वा सच है कि अदाकारा ने जो भी कहा उसे सवर्णों के घरों में हर रोज़ बोला जाता है। सवर्ण समाज के लोगों को बात-बात पर जातिवादी बातें बोलते मैंने सुना है। त्यौहार का जश्न तक जातिवादी गाली से भरा होता है।
मिसाल के तौर पर, होलिका दहन के लिए जब बिहार के गाँव में लोग गाना गाते घर से निकलते हैं, तो उनके गानों में दलित और पिछड़ी जातियों के लिए सिर्फ अश्लील और गन्दी गाली होती है। गीत में वंचित समाज की महिलाओं को टारगेट किया जाता है और उनके खिलाफ निहायत ही गंदे शब्दों का प्रयोग होता है, जिसे मैं यहाँ दोहरा नहीं सकता। फिर भी देश के सरकारी डिस्कोर्स में भारत को “गांवों का देश” कहा जाता है और भारत के गाँव को स्वर्ग के सामान सहिष्णु दिखाया जाता है।
रोज़-मर्रे की ज़िन्दगी में जातिवादी शब्द बोले जाते हैं। सवर्णों की टोली में अगर कोई जोर से बोल दिया तो कहा जाता है कि “क्यूँ फुलां दलित जात की तरह चिल्लाते हो?”
अगर कहीं ज़मीन जायदाद के लिए झगड़ा या मार-पीट हो जाता है तो, तो पंच-परमेश्वर अपनी बात यह कहते हुए शुरू करते हैं कि, “हमनी के बड जात के हयीं, सोलकन [छोटी जात] के तरह अगर हमनी में झगड़ा हुई तो बड़ी शिकायत होई”।
संसाधन पर कब्ज़ा ऊँची जातियों का है। मगर झगड़ा और बवाल के लिए दलित और पिछड़ी जातियों को कोसा जाता है। जातिवादी समाज का यही न्याय है।
इतना ही नहीं, अगर किसी को दूसरे की साड़ी पसंद नहीं आती तो साड़ी को बुरा भला कहने के लिए वह इन शब्दों का प्रयोग करता है, “छोट जात खानी कपड़ा खरीदल बा।“
फॉरवर्ड कास्ट की गली में अगर कोई ज्यादा झगड़ा करता है या जोर से बोलता है, तो उसे एक खास पिछड़ी जाति कहकर शर्मशार किया जाता है और कहा जाता है कि फुलां जात की तरह इसकी बुद्धि घुटने में हैं।
अगर किसी ने नहाया नहीं तो यह कहा जाता है कि फुलां जाति की तरह उसके बदन से बदबू आ रही है।
अगर गाँव में चोरी हो जाती है तो एक खास ही जात को “चोर” समझा जाता है।
यही नहीं एक खास जाति को “नमक-हराम” समझा जाता है।
एक खास जाति को “दारू-बाज़” समझा जाता है।
तजाद देखिये उत्पादन करने वाली दलित और पिछड़ी जातियों को “बदसूरती”, “बुराई”, “चोरी”, “असभ्यता”, “लूट”, “मार”, “अशांति” से जोड़ा दिया जाता है, वहीं परजीवी ऊँची जाति को “देवता” समझा जाता है।
कुछ साल पहले मेरे गाँव में ऊँची जाति का एक व्यक्ति ने अपनी बीवी को पीट दिया। पति को पकड़ने पुलिस आई। सब-इंस्पेक्टर ने उसे गिरफ्तार करते हुए कहा, “अगर आप बाभन न होते तो बड़ा मार मरता”।
जालिम पुलिस के दिलों में भी बाभन के लिए कितनी दया होती है!
मुझे लगता है कि जातिवादी बयान देने वाली अदाकारा के ऊपर कारवाई करके हमें चुप नहीं बैठ जाना चाहिए। याद रखिए अदाकारा ने जो भी कहा उसे उसने जातिवादी सामाज से ही सीखा है।
अब भी जातिवादी समाज जातपात प्रैक्टिस करता है। कानून और सविंधान होने के बावजूद भी, छुआ-छुत बरता जाता है। जब भी मैं अपने गाँव में, किसी गैर सवर्ण को कप में चाय देता हूँ, तो मेरे आसपास में यह बड़ा बखेड़ा बन जाता है।
कोरोना के खिलाफ टीका बनाना आसान है।
पर है कोई डॉक्टर है जो जातिवादी वायरस के खिलाफ वैक्सीन बना दे?
अभय कुमार
जेएनयू