- विद्या भूषण रावत
नरेन्द्र मोदी और उनके सलाहकार अगर नेहरु और राजीव गाँधी के विरुद्ध चुनाव लड़ रहे है तो कांग्रेस के नेताओं ने भी कोई कमी नहीं की के विश्वनाथ प्रताप सिंह को राजीव गाँधी की हत्या के लिए जिम्मेवार ठहराया जाए. श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह भी अपने उत्तर देने के लिए मौजूद नहीं है लेकिन आज पुनः विशेषण करने का समय आ गया है के भारतीय राजनीती के शिखर पुरुष विश्वनाथ प्रताप सिंह कैसे सवर्ण मीडिया और सवर्ण नेत्रत्व के जरिये भुला दिए गए और कैसे उनका चुन चुन कर इस्तेमाल हो रहा है. वैसे तो वी पी को कोई भी मीडिया या नेता याद नहीं करना चाहता, उनके अपने भी जिन्होंने उनके नाम और काम का इस्तेमाल कर राजनितिक रोटिया सकी लेकिन आज जब उन पर कीचड उछाला जा रहा है, तो एक बार फिर उन दिनों को याद किया जाए तो अच्छा रहेगा.
विश्वनाथ प्रताप सिंह राजीव गाँधी के बहुत नजदीकी सहयोगी थे और वित्त मंत्री बनाये गए. पूरे देश में उनकी छवि भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई के एक योधा की रही जिन्होंने देश के बहुत बड़े बड़े उद्योगपतियों के विरुद्ध कार्यवाही की, उनकी टैक्स चोरी को पकड़ा और उन्हें जेल भी भेजा. वी पी इस देश के सबसे ईमानदार राजनेताओं में थे जिन्होंने राजनीती में भी प्रयोग किये, मितव्ययिता के साथ राजनीती की, स्कूटरों और सरकारी बसों से भी अपना प्रचार किया. भारतीय राजनीती में सेंकतात्मक प्रयोगों में वी पी का कोई सानी नहीं.
वी पी और राजीव गाँधी के मत्भेद तब से शुरू हुए जब राजीव गाँधी ने उद्योगपतियों की शिकायत पर उनका मंत्रायल छीन कर उन्हें रक्षा मंत्री बनाया था. क्योंकि वी पी अपने कार्यो से बहुत प्रचलित हो चुके थे इसलिए राजीव के लिए उन्हें मंत्रालय से हटाना थोडा मुश्किल था इसलिए सीमा पर तनाव दिखा कर उन्हें वहा भेजा गया. क्योंकि रक्षा मंत्रालय के सौदों में भी बहुत दलाली होती थी इसलिए वी पी ने वहा भी अपना कार्य किया और जर्मनी से एच डी डब्ल्यू पनडुब्बी सौदों में दलाई के संकेत मिलने पर जांच के आदेश दिया. फिर बोफोर्स का सवाल भी आ गया और ६४ करोड़ के रक्षा घोटाले में राजीव गाँधी और उनके कांग्रेसी मित्रो के नाम के आरोपों के लेकर वह कांग्रेस से निकाल दिए गए. वी पी ने उच्च पदों पर भ्रस्ताचार को चुनावों का मुख्या मुद्दा बनाया और फिर चुनावो में राजीव की कांग्रेस बुरी तरह से परास्त हुई हालाँकि वह अभी भी सबसे बड़ी पार्टी थी और फिर राष्ट्रपति वेंकट रमण ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए आमंत्रित किया जिसे राजीव ने नकार दिया और फिर वी पी प्रधानमंत्री बने. १९८४ में राजीव गाँधी को ४१५ सीटे मिली थी जो ऐतिहासिक जनादेश था और उनके विरुद्ध वी पी ने सारे विपक्ष को एक कर कांग्रेस को हरा दिया.
कांग्रेस और वी पी सिंह के संबंधो को लेकर बहुत सी बाते है लेकिन एक बात जरुर रखना चाहता हूँ. राजीव के काल में कांग्रेस के छुटभैयों ने वी पी सिंह पर बहुत हमले किये. उनका चरित्र हनन किया गया. उन्हें पागल तक करार दिया गया. संसद में उन्हें बोलने नहीं दिया जाता था. उनकी पब्लिक मीटिंग्स और रैलियों को सरकार परमिसन तक नहीं देती थी और कांग्रेस के बड़े बड़े गुंडों ने उन्हें डिगाने की पूरी कोशिश की. कांग्रेस ने उनके पीछे चालक राजपूत नेता लगाए ताकि वो जातीय लाभ ने ले सके. वीर बहादुर सिंह जो वी पी सिंह के बाद उत्तर प्रदेश में मुख्य मंत्री बनाये गए थे, को ये जिम्मा था के वी पी की पब्लिक मीटिंग न हो सके और उनके पुराने जमीन और पुस्तैनी सवालों को खडा किया जा सके. वी पी के विदेश में खाता होने की बात के लिए कांग्रेस ने उस दौर के सबसे बड़े पत्रकार एम् जे अकबर का इस्तेमाल किया. चंद्रास्वामी का इस्तेमाल कर कैरेबियन द्वीप समूह में उनका खाता खुला बताया गया. आज का टेलीग्राफ और उस दौर के टेलीग्राफ को दिखिए तो आपको पता चलेगा के कैसे मीडिया का इस्तेमाल वी पी सिंह को बदनाम करने के लिए किया गया.
लेकिन राजा मांडा गजब के प्रतिभा संपन्न व्यक्ति थी. उन्होंने जमीन की राजनीती की. ईमानदारी की राजनीती तो उनका मुख्य हथियार भी था इसलिए कांग्रेस और जनता परिवार के बहुत से नेता उन्हें पसंद नहीं करते थे क्योंकि उन्हें लगता है के वह ‘राजनीती’ या पाखंड कर रहे है. वी पी सिंह बहुत कम समय तक प्रधानमंत्री रहे लेकिन उनके कुछ निर्णय देश की राजनीती को पूरी तरह से बदल दिए. मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागु करने का उनका निर्णय सबसे ऐतिहासिक जिसके फलस्वरूप देश के सवर्णों ने जिसमे सवर्ण मीडिया भी शामिल था उनके विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया. उनके सबसे नजदीक पत्रकार मित्र अरुण शौरी ने उनके खिलाफ जंग छेड़ दी. वी पी सिंह ने बाबा साहेब आंबेडकर और नेल्सन मंडेला को एक साथ भारत रत्न दिया. उन्होंने बाबा साहेब की आदमकद तेल चित्र संसद में लगवाया और उनके जन्मदिन पर राष्ट्रीय छुट्टी घोषित की. दलित आदिवासियों का कोटा उन्ही के द्वारा भरा जाएगा, निर्णय लिया गया और नव बौधो को आरक्षण की सुविधा प्रदान की गयी.
वी पी के मन में कोई मैल नहीं था. जब वह राजीव के खिलाफ भी चुनाव अभियान में थे तब भी उन्होंने कोई व्यक्तिगत हमला राजीव पर नहीं किया. अयोध्या की बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए उनकी सरकार गयी. लाल कृष्णा अडवानी को गिरफ्तार करने के बाद भाजपा ने उनका समर्थन वापस ले लिया और संसद के पटल पर उनकी सरकार गयी. उनके पार्टी से भी देवीलाल, चन्द्र शेखर, मुलायम सिंह उनसे अलग हो गए और कांग्रेस ने चरण सिंह भाग दो कर चन्द्रसेखर के नेतृत्व में सरकार बनवाई जिसे मात्र कुछ ही महीनो में जासूसी के बहाना बनाकर गिरवा दिया गया. चन्द्र शेखर अभी केयर टेकर प्रधानमंत्री थे ही के मई २१ को चुनाव के दौरान ही राजीव गाँधी की हत्या कर दी गयी. पूरा देश स्तब्ध था. कांग्रेस के एक तबके ने ये प्रश्न उस समय उठाया था के वी पी सिंह ने राजीव गाँधी की सुरक्षा से एस पी जी वापस ले ली थी इसलिए उनकी सुरक्षा में चुक हुई और वी पी ही इसके जिम्मेवार है लेकिन इस प्रश्न पर सवालो के जवाग तत्कालीन कैबिनेट सचिव बी जी देशमुख ने दे दिए थे. जब एस पी जी बनाई गयी थी तो केवल पदासीन प्रधानमंत्री ही उसके दायरे में थे. कानून राजीव गाँधी ने ही बनवाया था इसलिए जब वी पी प्रधानमंत्री बने तो राजीव को सुरक्षा तो थी लेकिन एस पी जी नहीं थी. उनको एस पी जी का सुरक्षाकवच न देना उस वक़्त के हिसाब से कानूनी था. फिर यदि वी पी गलत थे तो चंद्रशेखर की सरकार तो कांग्रेस ने बनवाई और उन्हें राजीव की पर्याप्त सुरक्षा की बात करनी चाहिए थी. हकीकत ये है के राजीव् गाँधी की सुरक्षा से सम्बंधित कोई सवाल भी कांग्रेस ने उस दौरान नहीं उठाया.
अब वी पी सिंह को गुजरे हुए करीब दस साल हो गए है. उनके नाम का अलग अलग तरीके से इस्तेमाल हो रहा है. वी पी सिंह अपने पीछे कोई संगठित लोगो के संगठन को नहीं छोड़ गए है. अपने सार्वजानिक जीवन में उन्हें बहुत अपमानित किया गया. बहुत गालिया पड़ी. एक बात साफ़ है, मोदी या अरविन्द केजरीवाल को कभी भी वी पी सिंह की याद नहीं आई जब वे भ्रस्ताचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे. देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई वाले सवर्ण सेक्युलर स्वयंसेवकों को भी वह पसंद नहीं थे क्योंकि उनहोने मंडल नाम का पाप किया था. दलित और ओ बी सी के जो नेता मंडल के बाद पनपे उन्होंने भी वी पी को याद करने या उन्हें सम्मान देने की कोई कोशिश नहीं की. जब हम लोग जो वैकल्पिक राजनीती की बात करते है और स्वच्छ राजनीती की, वे वी पी को भुला देंगे तो दुसरे तो अपने अपने हिसाब से उनका इस्तेमाल करेंगे. कोइ कहता है के मंडल उन्होंने करवाया, कोई बाबा साहेब को भारत रत्ना दिलवाने के लिए खुद को जिम्मेवार मानते है, लेकिन कोई ये खुलकर नहीं कहता के इस व्यक्ति ने कुछ मूलभूत कार्य किये और उसके अन्दर बौधिक और राजनैतिक इमानदारी थी.
कांग्रेस का वी पी के प्रति रवैय्या बेहद निराशाजनक रहा है क्योंकि कांग्रेस के नेता ये मानते है के उनकी पार्टी की बुरे हालत के लिए वी पी सिंह जिम्मेवार है लेकिन कांग्रेस ने कभी अपने सोशल बेस को जानने की कोशिश नहीं की. कांग्रेस ने वी पी सिंह के प्रति बेहद ही नकारात्मक रवैया अख्तियार किया. मै व्यक्तिगत तौर पर ये मानता हूँ के यदि १९९० में जब वी पी सिंह की सरकार को उनके सहयोगियों और भारतीय जनता पार्टी ने मंडल और अयोध्या के प्रश्न पर गिरा दिया तो कांग्रेस को उस सरकार को बचाना चाहिए था लेकिन उस दौर में राजीव गाँधी के ब्राह्मणवादी सलाहाकारो ने उन्हें सवर्ण युव्वाओ को आकर्षित करने के सलाह दी. ओ बी सी के मसले पर कांग्रेस आज जो कर रही है यदि वह १९९० में होता तो पार्टी के ऐसे हालात नहीं होते. पार्टी मुसलमानों का भरोषा भी जीतती लेकिन पार्टी ने लगातार सवर्ण तुष्टिकरण की नीति अपनाई जो आर एस एस पहले से ही कर रहा था और आज नतीजा ये निकला के यू पी और बिहार में सवर्णों के लाख तुष्टिकरण के बावजूद उनका भरोषा संघ और भाजपा में बरकरार है और वो तभी टूटेगा जब कांग्रेस का कोई गाँधी दिल्ली में सत्ता में आएगा. दिल्ली में राहुल गाँधी की ताजपोशी उत्तर प्रदेश में सवर्णों को कांग्रेस की तरफ ला सकती है लेकिन सामाजिक न्याय को जो ताना बना है उस पर बात किये बिना कांग्रेस को बहुजन समाज का भरोषा नहीं मिल सकता.
अंत में एक बात कह देना चाहता हूँ. वी पी सिंह तो राजनीती में सक्रिय रहते हुए भी सत्ता की राजनीती से दूर हो गए लेकिन जनता के साथ जुड़े रहे. उनकी राजनीती में पार्टी या नेटवर्क को मजबूती नहीं मिली लेकिन उनका अपना जीवन जनता से दूर नहीं रहा. बहुतो ने पार्टिया बनाई और जनता से दूर हो गए लेकिन वी पी जनता के साथ रहे. अपने अंतिम दिनों में वे यह मानते थे के कांग्रेस की मजबूती जरुरी है लेकिन तीसरे मोर्चे को भी उन्होंने हमेशा मजबूती प्रदान की. राजीव गाँधी के प्रति उनके मन में कटुता नहीं थी और सोनिया का भी वह सम्मान करते रहे. राजनीती में नैतिकता और शालीनता उनका बहुत हथियार था. उन्होंने शालीनता की सीमा रेखा को कभी पार नहीं किया.
ये आज इसलिए लिखना पड रहा है के अलग अलग लोग उनको अलग अलग तरीके से याद कर रहे है. नरेन्द्र मोदी को चुनाव आज के सवालों और अपने पांच साल के कामो के लिए लड़ना चाहिए. मोदी जी ये सोच ले के बोफोर्स के प्रश्नों को लेकर भी जनता ने अपना निर्णय राजीव गाँधी को सत्ता से हटाकर किया लेकिन राजनितिक बहस एक बात है और कानूनी दूसरी बात. राजीव कानूनी तौर पर निर्दोष साबित हुए है. राजीव एक बेहतर हंसमुख और साफ़ दिल इंसान थे और उन्हें ये शांति निर्माण के प्रक्रिया के लिए याद किया जाना चाहिए. प्रधानमंत्री बन्ने के तुरंत बाद उन्होंने पंजाब में हरचरण सिंह लोंगोवाल के साथ शांति समझौता किया और मिजोरम में लाल्देंगा के साथ बातचीत कर उन्हें राष्ट्रीय मुख्यचारा में शामिल किया. असम में अखिल असम छात्र संघठन के साथ बातचीत कर उन्होंने वह राजनितिक प्रक्रिया को मज़बूत किया.
ये बात जरुर है के १९८४ में इंदिरा गाँधी के हत्या के बाद देश में बेहद आक्रोश था और राजीव देश के लिए एकता का प्रतीक बन गए. अक्टूबर ३१ से लेकर ३ तारीख तक जो सिख विरोधी दंगे देश ने देखे वो कांग्रेस पर बदनुमा दाग है. इन प्रश्नों राजीव गाँधी के कुछ भाषण बेहद ही चलताऊ किस्म के थे लेकिन इसके लिए उनके सलाहकारों को ज्यादा जिम्मेवार मानता हूँ. ये हकीकत है के साम्प्रदायिकता और उसके प्रश्नों से निपटने में इंदिरा गाँधी की कांग्रेस का रवैय्या बेहद निराशाजनक रहा है क्योंकि वह नेहरु के समाजवादी धर्मनिरपेक्ष विचारों से दूर हटने लगी थी लेकिन ये भी बेहद साफ़ है के कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली के सिख विरोधी दंगो या नरसंहार पर कभी भी गर्व नहीं किया. उसने अपने कुछ एक नेताओं को बचाने की कोशिश तो की लेकिन नरेन्द्र मोदी और भाजपा की तरह गुजरात के मुस्लिम विरोधी दंगो के बाद, लगातार मुसलमानों के विरुद्ध जो अभियान छेड़ा उसमे और कांग्रेस के रुख में बहुत अंतर है. सोनिया गाँधी और मनमोहन सिंह ने सिख विरोधी दंगो के लिए माफ़ी भी मांगी है लेकिन मोदी ने कभी भी गुजरात दंगो या मोब लिंचिंग के आरोपियों या अयोध्या के बाबरी ध्वंश पर तो कभी भी माफ़ी नहीं मांगी. दरअसल देश को विभजित करने का जो काम संघ परिवार और वर्तमान सरकार ने किया है वो भारत में आज तक किसी ने नहीं किया इसलिए किसी भी हालत में १९८४ के दंगो की और २००२ या १९९२-९३ में अयोध्या उपरांत हिंदुत्व प्रायोजित दंगो में तुलना नहीं हो सकती. कांग्रेस पर इन दंगाई से नरमी से या लचर ढंग से निपटने का आरोप लगाया जा सकता है लेकिन बीजेपी के तरह उनके पचासों संगठन घृणा फ़ैलाने और झूठ फ़ैलाने में माहिर नहीं है. पिछले पांच सालो में देश के संवैधानिक संस्थाओं को जो हाल हुआ है उसके लिए आप मोदी के आलावा किसी और को कह भी नहीं सकते क्योंकि देश का सारा कामकाज तो पी एम् ओ से ही संचालित हो रहा था. हालाँकि राहुल गाँधी का वर्तमान रुख बेहद सकारात्मक है और देश के लिए शुभ संकेत भी है.
किसी भी राजनेता का विश्लेषण होना चाहिए लेकिन राजनीती में चुनाव के वक़्त पुराने मुद्दों को दोबारा उठाना, जिन पर लोगो ने उस समय अपने निर्णय दे दिए थे, और वर्तमान प्रश्नों को चालाकी से गायब करने की कड़ी निंदा की जानी चाहिए. आपातकाल में ज्यादतियों के लिए इंदिरा गाँधी को लोगो ने सत्ता से विदा कर दिया और वही लोग उन्हे १९८० में भारी बहुमत से वापस ले आये. राजीव गाँधी को बोफोर्स या उनके कार्यो की सजा १९८९ में मिल गयी लेकिन मोदी का यह कहना के राजीव गाँधी भ्रष्टाचारी नंबर वन रहकर मारे गए बहुत ही कटु और प्रधानमंत्री पद की गरिमा के विरुद्ध है. मोदी लगातार राजीव पर हमले कर रहे है. एक बात हमें नहीं भूलनी चाहिए के मोदी को अपने काम काज का हिसाब देना है जो वह नहीं बता रहे. दूर्सरी महत्वपूर्ण बात यह के राजीव गाँधी की हत्या हमारे देश विरोधी आतंकी संगठनो ने की. वह आतंकवाद का शिकार बने और इसलिए उनकी शहादत का अपमान नहीं किया जाना चाहिए. उनके साथ राजनैतिक मतभेदों का बहुत विश्लेषण हो चूका और उस कार्य में नरेन्द्र मोदी किसी भी प्रकार से ईमानदार नहीं है. राजीव् और वी पी सिंह की दोस्ती भी थी लेकिन उसको तोड़ने में बहुत लोग भी थे लेकिन दोनों ही ने अपनी मतभेदों में शालीनता थी और कभी भी उन्होंने उस सीमा रेखा को पार नहीं किया. नरेन्द्र मोदी एक मानसिकता से ग्रस्त है जो न केवल सोनिया या राहुल से परेशान है लेकिन जो नेहरु से लड़ रहे है और अब चुनाव के समय राजीव गाँधी की शहादत का भीं अपमान कर रहे है. राजीव के विरुद्ध राजनैतिक लड़ाई में वी पी कभी अपना आप नहीं खोये और गाँधी परिवार के प्रति उनका सम्मान सदैव रहा. नरेन्द्र मोदी ने उस राजनितिक मर्यादा का उल्लंघन किया है जो राजनीती में मतभेदों के बावजूद भी रहनी चाहिए जिसमे आपके विरोधी आपके दुश्मन नहीं होते और न ही सत्ताधारी दल से मतभेद देशद्रोह है. सभी सरकारों को अपने पांच सालो का हिसाब किताब जनता को देना होता है और मोदी को भी देना होगा. नेहरु और राजीव गाँधी के प्रश्नों को उठाकर नरेन्द्र मोदी अपने कुप्रशासन को नहीं छुपा सकते है. जनता फैसला ले चुकी है और २३ १९ मई तक अंतिम चरण तक मोदी जी किस किस को टारगेट करेंगे ये देखना बाकी है लेकिन ये भी हकीकत है के उनके इन कुतर्को को जनता समझ रही है और खुद मोदी जी भी समझ रहे है तभी उनकी भाषा स्तरहीन हो चुकी है. खैर, चुनाव के अंतिम नतीजे आने तक ऐसे भाषा के लिए हमें तैयार रहना पड़ेगा.