रमजान की मुबारक और हमारी ऐतिहासिक सांझी विरासत को याद करने का समय
– विद्या भूषण रावत
रमजान का पवित्र महिना आज से शुरू हो गया है। सभी दोस्तों को बधाई और अपने प्रियजनों के साथ अच्छे स्वास्थ्य और बेहतर समय की कामना। ये महत्व्पूर्ण क्षण हैं और हमें उम्मीद है कि सब शांति और प्रेम से आगे बढेगा। उत्सव और उपवास हम सभी को अपनी मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं को मजबूत करने के लिए पर्याप्त समय देते हैं। इस समय जब दुनिया कोरोना के सबसे बड़े हमले के साथ लड़ रही है वही दुनिया भर मे अधिनायकवादी जनता मे भय का इस्तेमाल कर रहे हैं और न केवल अपने ‘कानूनों’ के माध्यम से बल्कि निगरानी और पुलिसिंग के माध्यम से लोगों पर अपना नियंत्रण मजबूत कर रहे हैं। इसलिये डिजिटलकरण कई बार आपको सशक्त करता हो, लेकिन एक ही समय में, यह लोगों की गोपनीयता का शोषण करने और उल्लंघन करने का सबसे बड़ा उपकरण बन गया है क्योंकि इनमें से अधिकांश एप्लिकेशन और टूल आसानी से तीसरे पक्ष में जा सकते हैं, जो कि ज्यादातर निजी लोगो के पास पहुच जाते हैं।
दुनिया केवल कोरोना के खिलाफ नहीं बल्कि नफरत और हिंसा के खिलाफ भी लड़ रही है। जो समाज पहले से ही लोकतांत्रिक थे, वे वास्तव में इस बात से उभरने की कोशिश कर रहे थे कि उन्होंने अपने ‘धर्मशास्त्रों’ में सबसे बुरा देखा है, जिसने कभी लोगों की मदद नहीं की। सत्ता क चरित्र जब धार्मिक होता है तो जनता सबसे दुख झेलती है इसीलिये हमारे पडोस मे लोगो ने सत्ता के इस चरित्र को पह्चाना लेकिन अभी भी उससे उबर नही पाये है. भारत अपने को बहुधर्मी देश कहलाने मे गर्व महसूस करता था. जिन देश मे राज्य एक धर्म विशेष को मानता है वहा अब वे अब दूसरे धर्मो को भी स्वीकार कर रहे है क्योंकि ये समझ आ गया है के अपनी अप्नी ढपली अपना अपना राग लेकर कुछ नही होगा. वो ही देश दुनिया मे सब्से आगे बढे जिन्होने अपने यहा मौजूद हर वर्ग, धर्म और जाति को आगे बढने का अवस्र दिया और उनकी क्षमताओ का सही प्रकार से उपयोग किया. भारत भी उनही देशो मे था इसलिये इसने हमारे संस्कृति को मज़बूत किया. बम्बई के सिनेमा इसका अच्छा उदाहरण है.
अभी हम ऐसे दौर मे है जब समाज के एक वर्ग को ये लगने लगता है के यह बहुसंस्कृति ही उनकी बढती शक्ति को रोक रही है. वह सब कुछ जो बहुसांस्कृतिक है और हमारी बहुलता का जश्न मनाता है, उनके लिए एक चुनौती बन जाता है। कोरोना के समय भी, नफरत करने वाले अपनी नफरत नहीं छोड़ते। वे जहर उगलते रहते हैं लेकिन उसका उत्तर प्रेम के भाषा और वैकल्पिक विचारो से ही हो सकता है.
इस संकट मे भी कुछ लोग विश्व शांति के लिए खतरा है क्योंकि कई लोग दुनिया को युद्ध की विभीषिका मे झोंक देना चाहते है। यमन में हज़ारों लोग विशेषकर बच्चे आज मुश्किल हालात मे हैं . ‘शांति’ बहाली के नाम पर बमों का सामना कर रहे सीरिया में लोगों की पीड़ा साफ दिखाई दे रही है. हमें सयुंक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव दी गई कॉल का समर्थन करने की आवश्यकता है जिसमे उनहोने कहा है कोरोना की महामारी पर जब तक पूरा नियंत्रण नही हो जाता या उसे जब तक पूरी तरह से निर्णायक तौर्र पर समाप्त नही किया जाता तब तक हर प्रकार से हर स्थान पर युद्ध विराम हो। क्या वाकई दुनिया इस समय युद्ध छेड़ सकती है? युद्ध इस समय केवल कोरोना की बीमारी और नफरत की राजनीति के विरुद्ध होना चाहिये.
भारत में आज हमें अपनी नफरत को खत्म करना चाहिए और इतिहास के एक शानदार अध्याय को याद करना चाहिए जब ब्रिटिश सत्ता ने लोगों, हिंदुओं और मुसलमानों को विभाजित करने का प्रयास किया। दो दिन पूर्व , पेशावर कान्ड की 90 वी सालगिरह थी. कुछ लोगों को ये याद था लेकिन अधिकांश तो भूल गये. याद रखिये के बैसाखी के दिन जलियावाला मे जघन्य नरसहार के बाद अंग्रेजो ने वैसी ही योजना पेशावर मे बनाई जहा खान अब्दुल गफ्फार खान के बहादुर खुदाई खिद्मतगार गांधी जी के अहिंसक आंदोलन से प्रभावित होकर उनके साथ सह्योग कर रहे थे. अंग्रेजो को हिंदुओ और मुसलमानो की यही एकता प्रसंद नही थी. ये घट्ना पेशावर शहर जो के अब पाकिस्तान में है, के ‘किस्सा ख्वानी बाजार’ में 23 अप्रैल, 1930 को घटी. अंग्रेजो ने इस स्थान पर निरपराध लाल कुर्ती आन्दोलन के शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को जो अपने नेता खान अब्दुल गफ्फार खान की गिरफ्तारी के खिलाफ विरोध कर रहे थे जिन्हे गर्व से भारत में ‘फ्रंटियर गांधी, सीमांत गांधी’, बादशाह खान या बाशा खान के रूप में याद किया जाता है, पर भीड को चारो और से घेर कर फायरिंग करवाई जिसमे 400 से अधिक निहत्थे प्रदर्शनकारियों का नरसहार हुआ । इस हत्याकांड को याद क्यों नहीं किया जाता? मैं इस समय इसके बारे में क्यों बोल रहा हूं? हम जलियांवाला बाग को याद करते हैं, लेकिन बहुत से लोग इसके बारे में नहीं जानते हैं, लेकिन हम सभी के लिए इस क्रूर नरसंहार को याद रखना महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये सत्ता द्वारा फैलाया गया जहर था लेकिन कैसे जन शक्ति ने इसका मुकाबला किया और सबसे महत्वपूर्ण ये के कैसे भारत की सेना की प्लाटून ने जो कि रायल गढ़वाल राइफल्स की थी ने निहत्थे देशभक्तो पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था और अंग्रेज अधिकारियो के आदेशो के खिलाफ विद्रोह कर दिया था. इस विद्रोह के नायक थे वीर चंद्र सिंह गढ्वाली जो हवलदार के पद पर थे.
इस ‘किस्सा ख़वानी बाजार मे’ ब्रिटिश हुकुमत ने पहले से ही अहिंसक पठानो को सबक ‘सिखाने’ का फैसला किया था क्योंकि वे गांधी के साथ थे और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का सहारा लिया. अंग्रेजों ने बडी योजना से रॉयल गढ़वाल राइफल्स पलटन को पेशावर शहर में ला दिया था क्योंकि उनहे उम्मीद थी के पहाडो से आये ये फौज़ी बिना किसी सवाल के आसानी से आदेशो का पालन करेंगे लेकिन उनकी रणनीति विफल रही। ‘हवलदार’ चन्द्र सिंह गढ़वाली ने पहले ही अपने सभी साथियो को ‘शिक्षित’ कर दिया था कि आंदोलनकारी खिदमतगार देश भक्त है और गांधी जी के साथी है, वे ‘हमारे अपने’ हैं और अंग्रेज विभाजन करने की कोशिश कर रहे हैं। चंद्र सिंह को पढने का शौक था और वह उस दौरान देश भर मे हो रही राजनितिक गतिविधियो की जानकारी रखते थे. जब पलटन को घेरने के लिए कहा जा रहा था और उन्हे निहथ्थे आंदोलनकारियो पर गोली चलाने के आदेश दिये गये तो सारे पल्टन ने इससे इंकार कर दिया. सारे शहर मे हंगामा हो गया. वीर चंद्र सिह और उनके साथियो ने सरकारी आदेश मानने से इंकार करने के बाद अपने हथियार डाल दिये। बहादुर चंद्र सिंह और उनके साथी सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया गया और पलटन को वापस भेज दिया गया। यह चार्ज अब एक अन्य ‘लॉयल’ कॉलम को सौंप दिया गया था।
चंद्र सिंह गढ़वाली को आजीवन कारावास की सजा दी गई थी। उन्हे सजा के तौर पर ‘काला पानी’ में भेजा गया था। मै भाग्यशाली था कि मैंने उन्हे अपने बचपन मे कोटद्वार शहर में देखा था जहाँ वह एक गांव मे रहते थे, हालंकि तब तक हमे उनके बारे मे कुछ भी नही पता था। उनका जीवन एक असाधारण जीवन था, हमेशा लोगों के अधिकारों के लिए बोलते थे लेकिन उनके साथ कभी भी उचित व्यवहार नहीं किया गया। सालों तक उन्हें ‘स्वतंत्रता सेनानी’ भी नहीं कहा गया। कानून के अनुसार, उन्हें अभी भी ‘अपराधी’ माना जाता था। सरकार ने उन्हें उचित पेंशन भी नहीं दी। पेंशन पाने के लिए, आपको एक ‘खादी’ की आवश्यकता थी, हालांकि चंद्र सिंह निश्चित रूप से आर्य समाज और गांधी की अहिंसा से प्रभावित थे, लेकिन वह भूमि सुधार और दलितों के मुद्दों जैसे मुद्दों पर बहुत ही मजबूत विचारो के थे इसलिये ‘मुख्य धारा’ की जातिवादी राजनिति ने उन्हे कभी स्वीकार नही किया. वीर चंद्र सिंह और गढ्वाल राइफल्स के इस ऐतिहासिक भूमिका तो लोग भूल जाते लेकिन क्म से कम मुझे तो इस विषय मे सर्वधिक जानकारी राहुल सांकृत्यायन जी द्वारा लिखित उनकी जीवनी द्वारा हुई. इसलिये इस देश के ‘इतिहासकारो’ का नही, राहुल जी का शुक्र गुजार होना भी जरुरी है के उन्होने इस महानायक के जीवन को हमारे सामने रखा.
मैं बस सोच रहा था कि कैसे एक आदमी जो एक अनाम से गांव से आया था और उसके पास कोई ‘कॉलेज’ की शिक्षा नहीं थी और कैसे उसने फौज़ मे रहकर अपने अधिकारियो का आदेश मानने से इनकार कर दिया क्योंकि उन्हे लगा के ये अपनी जनता पर अत्याचार करना होगा. उसे पता था के सेना मे अधिकारी के आदेश को न मानने या उसके विरुध जाने के क्या नतीजे होंगे लेकिन वह और उनके सभी बहादुर साथियो ने ऐसा किया और वह भी अपने मातृभूमि से दूर, जिन लोगों को उन्होने कभी नहीं जाना होगा, यहां तक कि संस्कृति को भी नहीं जानता था, लेकिन वह केवल यह जानता था कि ये सभी ‘पठान’ भारतीय थे, देश्भक्त है और हमें उनकी रक्षा करनी थी, न कि उन्हें मारना था।
कभी कभी मै सोच मे पड्ता हू क्या हो गया है हमे, जब आजाद देश मे पढे लिखे कहने वाले लोगो की सोच को टीवी चैनलो मे जहर उगलते देख रहा हू. वीर चंद्र सिह तो सेंट स्टीफेंस कालेज या ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढने नहीं गये थे, शायद एक स्थानीय इंटर कॉलेज के पास भी नहीं थे लेकिन उनकी व्यापक दृष्टि ने सैन्य कमान को धता बता दिया और अपने साथी सैनिकों को उन खतरों के बारे में शिक्षित किया जो अंग्रेज हमें विभाजित और घृणा पैदा करके हमारे साथ खेल रहे थे। कम से कम, अंग्रेजी बोलने वाले ‘शिक्षित’ लोग वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली नामक इस आदमी के जीवन से सच्ची देश भक्ति के कुछ सबक ले सकते है।
हम सभी बुराइयों के लिए राजनेताओं को दोषी मानते हैं लेकिन लोगों को भी दोष लेने की जरूरत है आखिर हम ही उन्हे चुनते है और भगवान वनाते है. चंद्र सिंह को अपने जीवन काल में कभी सम्मानित नहीं किया गया था। उन्हें गोविंद बल्लभ पंत जैसे उत्तर प्रदेश के शक्तिशाली राजनेताओं ने उनके योगदान को कभी भी ईमानदारी से स्वीकार नहीं किया। उसके बाद भी उत्तर प्रदेश- उत्तराखड मे ‘राजनितिक’ ‘महानायक’ आये लेकिन किसी ने भी इस महानायक को उसका वो हक नही दिया जिसके वो हकदार थे. जनता ने उन्हें कभी वोट नहीं दिया। वे केवल उन्हें ‘पेशावर कांड’ के नायक के रूप में याद करना चाहते थे यानी पेशावर के नायक जिनकी मूर्ती पर ह्म केवल सेल्फी खिंचवाये. हकीकत ये है के अगर वे वास्तव में उन्हें याद करते हैं, तो वे तारीख और मुद्दे को क्यों भूल गए। अगर वे वास्तव में उन्हे सम्मान देना चाहते हैं तो उन्हें भारत की एकता के लिए काम करना चाहिए कि जो हिंदू नहीं हैं वे भी हमारे भाई-बहन हैं। इस देश के ताकत और एक्ता के लिये सभी लोगो के मध्य सद्भाव और सौहार्द रख्ना पडेगा.
रमज़ान के इस पवित्र महीने में, मैं गर्व से महान चंद्र सिंह गढ़वाली को याद करता हूं, जिन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया जाना चाहिए था, लेकिन अब लगता है कि जो हमारी ‘इतिहास’ की किताबों का हिस्सा नहीं थे, उन्होंने कुछ नहीं ही किया।इतिहास की इन भूलो को भी सुधारने का समय है. यह समय है जब हम अपने इतिहास और इसके आम संघर्ष को मजबूत करने के लिए इन विरासतों को याद करते हैं। हमारे आपसी मतभेद रहे हो उससे कोई इनकार नही लेकिन हमारे पास एक साझा इतिहास और साझी संस्कृति की ऐतिहासिक विरासत है. वीर चंद्र सिंह गढ्वाली की अगुवाई में गढ़वाल राइफल्स द्वारा साहसी अवज्ञा इस साझा विरासत का एक शानदार अध्याय बन जाना चाहिए जिसे हमें संरक्षित रखना चाहिये और मनाना चाहिए।