मेरी कविता का दुःख

जसप्रीत कौर फ़लक

(समाज वीकली)

कहा गुरु का भूल गए हम
कहा; पिता है पानी
उसी पिता की आज करें हम
क्यों अनसुनी कहानी
धरती के ज़र्रे ज़र्रे को
जीवन देता पानी
किसी प्यासे को देखे तो
बहुत तड़पता पानी
हर प्यासे की प्यास बुझाए
सब को अपने गले लगाए
गोरा हो या काला हो वह
निर्धन या धन वाला हो वह
धरा की प्यास बुझाने वाला
यह तो पिता ही हो सकता है
कभी किसी ने सोचा था क्या
यह पानी भी रो सकता है
जब धरती पर पिता है रोता
उसके साथ खुदा है रोता
पानी पिता को रोना ही था
इक दिन ऐसा होना ही था
कौन इसे बाज़ार में लाया
किसने इसका मूल्य लगाया
आज का बन्दा;
गोरखधन्धा…
बंदे ने बाज़ार बनाया
यह तो सिर्फ मुनाफा देखे
पानी में भी ज़हर मिलाया
पंच तत्व में उत्तम है यह
जीवन में सर्वोत्तम है यह
क्यों इससे नाता तोड़ रहा है
जिसको गुरु ने पिता कहा है
उससे ही मुख मोड़ रहा है
दरियाओं में बहता था यह
हर पल मौज में रहता था यह
इसकी तो थी अपनी मस्ती
पानी की थी अपनी हस्ती
ऐसा जुल्म किया बंदे ने
पानी की हस्ती को रोला
मीठे मीठे अमृत जैसे
पानी में  क्यों  विष घोला
 सुन बन्दे!
 गर रहा ना पानी
धरती प्यासी मर जाएगी
होगा यहांँ पर आग का गोला
कायनात भी डर जाएगी
मेरी कविता में दु:ख मेरा
मेरे रब्बा सुन जा
निर्मल नीर की हालत है जो
इस पे करम तू कर जा
बन्दे को भी अक्ल बख़्श दे
पानी की यह क़ीमत समझे !
पानी की यह अज़्मत समझे !
          जसप्रीत कौर फ़लक
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