– विद्याभूषण रावत
यथार्थ की घटनाओं पर आधारित विद्याभूषण रावत की यह कहानी समाज में जेंडर और जाति के स्तरों को स्पष्ट करती है. इसमें पात्रों के नाम बदले गए हैं ताकि उनकी वैयक्तिकता का सम्मान हो. स्थान और कई इवेंट्स को थोडा बदला गया है ताकि लोग उसे किसी घटनाक्रम से न जोड़ सकें.
कलकते की मजदूर कॉलोनी में रहते उसने औरतों को घर से बाहर जाते देखा जो घर पर अपने परिवारों की पूरी देखभाल करती. पढ़ाई में खास मन नहीं लगा लेकिन जैसे कि रीत है, बीए पास तो करना ही था वरना रिश्ता कैसे आता, लिहाजा डिग्री लेने के लिए वापस अपने गाँव आना पड़ा. गाँव में वह कलकत्ता की चर्चा करती और लोग चाव से सुनते. उसकी हिंदी में भोजपुरी मिक्स थी. जब कभी बाहर जाना होता तो बिना मेकअप के घर से बाहर नहीं निकलती. घरवाले चिल्लाते, कितनी देर तक शीशे के आगे खड़ी अपने को देखते रहोगी. परिवार में तीन बड़ी बहनें और एक भाई था. सभी बहनें शादी-शुदा थी और अपने परिवारों में व्यस्त. घर में और कोई बीए नहीं कर पाया था इसलिए सुनीता के अन्दर थोड़े बड़प्पन वाला भाव तो था ही. वह शहर में बसना चाहती थी. औरों की तरह खुद भी नौकरी करना चाहती थी. गाँव जैसे उसे पसंद ही नहीं था. यह तो मज़बूरी थी के वह गाँव आ गयी क्योकि बीए की डिग्री शहर में तो शायद बिना पढ़े नहीं मिलती इसलिए लोग बड़े दूर-दूर से पूर्वांचल की और रुख करते है.
परीक्षा पास होने के बाद उसने सोच लिया कि अब दिल्ली जाना है और कही ‘नौकरी’ करनी है. कोलकाता में ज्यादा गुंजाइश नहीं लगी या यूं कहिये कि परिवार की बहुत रजामंदी न होने की सम्भावना थी, आखिर पापा जो एक फैक्ट्री में मजदूर थे, वह तो यही सपना पाले थे के सुनीता जैसे ही बीए करेगी, उसके लिए एक ‘अच्छा’ सा परिवार देख कर शादी कर दूंगा और अपने जिम्मेवारियो से मुक्त हो जाऊँगा. दिल्ली जाने से पहले ही सुनीता ने गाँव के कुछ लोगो से बातचीत कर अपने लिए एक ‘नौकरी’ ढूंढ ली. उसे कॉल सेण्टर में काम मिल गया. अब दिल्ली जाने का बहाना पुख्ता हो गया. दिल्ली की आबोहवा को उसने कोलकाता से ज्यादा खुला पाया. पूर्वांचल की घुटन से जहाँ खुले तौर पर लड़कों से बात नहीं हो पाती, यहाँ आसान था और एक प्रकार का सशक्तिकरण भी. दो महीने में भी सुनीता की अपने ही कॉल सेण्टर के एक लड़के से दोस्ती हो गयी. दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे और एक दिन सुनीता ने अपने पिता को इसकी जानकारी दी तो उन्हें पसंद नहीं आया. ऐसा नहीं था कि पिता को बेटी का अपने लिए ढूँढा रिश्ता पसंद नहीं आया लेकिन लड़का धोबी जाति का था जो पिछड़ी कुर्मी जाति से जातिगत पायदान में बहुत नीचे है, ऐसा रिश्ता तो किसी भी कीमत पर समाज स्वीकार नहीं करता. ये तो हम जानते ही हैं कि भारत के गाँवों में शादी-विवाह दो व्यक्तियों के बीच का मामला नहीं अपितु दो परिवारों और समाजो का रिश्ता है इसलिए समाज की स्वीकार्यता के बिना कोई भी रिश्ता हमारे गाँवों में चल नहीं पायेगा. उसने कुछ ज्यादा विरोध भी नहीं किया और यही कहा के अब आपको ही मेरे लिए लड़का देखना पड़ेगा. सुनीता को गाँव वापस बुला लिया गया. अब वह अपने गाँव और कोलकाता के बीच आती जाती रहती. फिर एक दिन सुनीता के पिता ने खबर दी कि उन्होंने उसके लिए एक लड़का देख लिया है. लड़के के पिता एक बड़े अधिकारी थे और दिल्ली और कोलकाता में उनकी बहुत प्रॉपर्टी थी. लड़का कोई काम नहीं करता था लेकिन उस बारे में तो भारत में आज भी माँ बाप कुछ नहीं कहते, क्योंकि अभी तो ये ही देखा जाता है कि बाप, चाहे लड़के का हो या लड़की का, कितनी प्रॉपर्टी है और वह कितनी जेब ढीली कर सकते है. सुनीता के पिता ने बताया कि लड़के के पिता कोई दहेज़ नहीं मांग रहे है और बहुत ही ‘सज्जन’ किस्म के व्यक्ति है.. आखिर उनकी इतनी संपत्ति है और एक ही बेटा है तो पैसा किसके लिए चाहिए . सुनीता भी खुश थी कि वह कुछ समय बाद बड़े घर की बहु बनेगी. घर के सभी सदस्य नए दामाद का इंतज़ार कर रहे थे. सुनीता की माँ, उसके पिता, और अन्य रिश्तेदार सभी खुश थे कि वह अपनी बिरादरी के इतने बड़े और पढ़े-लिखे परिवार की बहु बनेगी. सुनीता के मन में भी लाखो सपने तैर रहे थे जैसे कल ही अब सारी सम्पति उसके नाम हो जायेगी और वह अपनी मर्जी की जिंदगी जियेगी. शादी बड़े धूम धाम से संपन्न हुई. माँ-बाप, भाई बहनों ने जो देना था दहेज़ में दिया लेकिन खुश थे कि लड़के वालो की तरफ से बहुत बड़ी डिमांड नहीं थी. कुछ दिनों के बाद ही जब सुनीता घर आयी तो अपने ससुराल की बड़ी-बड़ी बातें बताने लगी. अपने सास ससुर की तारीफ के पूल बांधे जा रही थी और आस पड़ोस के लोग उसकी ख़ुशी में उपर से खुश दिखाई दे रहे थे लेकिन भीतर ही भीतर ये कहते हुए जले जा रहे थे कि ‘न रंग न रूप और देखो किस्मत कितनी बड़ी पायी है’. सुनीता का रंग थोडा सांवला था जिसको गोरा बनाने के लिए वह तरह-तरह के प्रयास रोज-रोज करते रहती. उसके मेकअप का खर्चा भी बहुत ज्यादा होता था जिससे घर में हमेशा कलह की स्थिति रहती थी. अब वह स्वतंत्र थी. शादी के बाद उसकी मांग पूरी भरी और गले से हाथो तक में सोना पूरा लदा हुआ था. वह मन ही मन खुश थी कि उसे इतना ‘बड़ा’ परिवार मिला है.
शादी के कुछ महीनो के बाद सुनीता अपनी मायके आयी. घर में सभी खुश थे और उससे बहुत कुछ सुनना चाहते थे. पैसे और धन सम्पति को ही सबकुछ मान लेने वाले लोग बार बार उसी विषय में बात करना चाहते है लेकिन ये क्या सुनीता बहुत परेशान थी. वह गर्भवती भी हो चुकी थी. उसके माँ बाप तो खुश हुए कि अब बेटी को खुशियों की सारी सौगात मिल रही है. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेशो में अन्य स्थानों की तरह ग्रामीण भारत में शादी के एक महीने के ही अन्दर आपको ‘खुश खबरी’ देनी पड़ती है और इसमें जितनी देर होती रही उतने ही ताने लड़के और लड़की दोनों को सुनने पड़ते है लेकिन लड़की की हालत ज्यादा ख़राब होती है क्योंकि उसे घर पर सबको झेलना होता है. सुनीता के माँ बाप ने सोचा ऐसी क्या बात हुई कि उनकी लड़की गर्भवती होने का बावजूद चिंतित है, उसे तो खुश रहना चाहिए था. वह अपनी बात बता ही नहीं पा रही थी कि उसकी बड़ी बहिन अनीता ने उसे अपने पास बुला लिया ताकि कुछ दिन वह भैया भाभी और अन्य लोगो से दूर रह आराम से बात करेगी. अनीता अपनी तीन बेटियों के साथ अकेले रहती थी और उसका अपना संघर्ष था अपने जीवन का और अब एक स्वैच्छिक संघटन में कार्य करते-करते उसका दृष्टिकोण बदला और परिवार में भी जो लोग उसे किसी समय हिकारत की नज़र से देखते थे अब इज्जत देने लगे. यूं कहिये कि अनीता अपने परिवार की लडकियों के लिए तो रोल मॉडल बन चुकी थी. अनीता ने तो सुनीता को यहाँ तक कह दिया के जब उसके पति मानसिक तौर पर बीमार है तो उसे बच्चे करने में थोडा देर करनी चाहिए थी लेकिन हमारे समाज में अधिकांश तह बच्चे बिना योजना के होते है और दूसरे समाज को अपनी पूर्णता दिखाने के लिए एक नतीजे के तौर पर होते है और तीसरा बहुत से लोग ये मानते हैं कि बच्चे होने के बाद पति पत्नी में रिश्ता मज़बूत होता है और वे एक दूसरे के प्रति ज्यादा जिम्मेवार होते है. शायद, सुनीता भी इन तीनो बातो के प्रभाव में रही होगी और इसीलिये उसे इस बात में कोई आपत्ति नहीं रही होगी. वैसे तो भारतीय समाज में बच्चे पैदा होने चाहिए या नहीं इसका निर्णय औरतें कब करती हैं? कम-से-कम जहाँ सुनीता रह रही थी उस समाज में तो ये अभी तक संभव ही नहीं है.
अनीता के यहाँ कुछ दिन रहकर सुनीता ने अपने दिल का गुबार बाहर निकाला. ‘ दीदी मेरे पति मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं और उनका इलाज़ बहुत दिनों से चल रहा है. उन्हें सिजोफ्रेनिया है. वह मुझे बहुत मारते भी है. उनके माँ बाप ने हमसे ये बात छुपाई कि उनका मानसिक इलाज़ चल रहा है. इससे भी ज्यादा ये कि मुझसे पहले भी इनकी एक शादी थी लेकिन शायद लड़की ने उसे छोड़ दिया’. सुनीता की आँखों में आंसू थे. उसे ये भी चिंता थी कि उसके होने वाले बच्चे पर तो उसके पति की मानसिक बीमारी का असर तो नहीं पड़ेगा. ऐसा सोचना किसी भी स्त्री के लिए सामान्य बात है क्योंकि अपने होने वाले बच्चे की चिंता तो सभी करते है. अनीता ने सुनीता को उसके पति का इलाज करवाने के लिए कहा और उम्मीद जाहिर की के वह ठीक हो जायेंगे. इस बीच में अनीता अपने ससुराल वापस चली गयी और यह कह कर संतोष करने लगी के बच्चा होगा तो शायद पति ठीक हो जायेंगे. अपने पति के ठीक होने के लिए वह ओझा, टोना टोटका जो कुछ हो सकता था करने लगी. उसके परिवार वालो ने भी अपनी तरफ से यही कोशिश की लेकिन बीमारी तो इलाज से ही ठीक होना संभव है.
शादी के एक वर्ष वाद सुनीता के बेटा हुआ और परिवार में सभी और ख़ुशी का माहौल था. वैसे भी शादी के बाद लड़की के ऊपर का प्रेशर तब थोडा कम हो जाता है यदि उसके बेटा हुआ है. बेटी होने का दंड तो बहुत भयानक होता है. सुनीता को अब लगने लगा कि सब ठीक हो जाएगा. हलाकि बेटा होने के बाद उसका पूरा फोकस वहीं हो गया और वह बेटे के प्रति अतिउत्साहित हो गयी. कोई भी उसके सामने उसके बेटे के बारे में कुछ नहीं कह सकता था. उसे लगता के सब उससे जलते हैं क्योकि उसके बेटा हुआ है इसलिए उसको ‘बुरी नज़र’ से बचाने के लिए रोज उसे काला टीका लगाती और उसके अलावा उसे कमरबंध, काले धागे आदि से हाथो और पैरो में बांधे रहते ताकि वे स्वस्थ रहें. कभी भी थोडा सा जुकाम या खांसी उसे होती तो वह पहाड़ सर पर उठा देती. उसके ससुर भी अब समझाने लगे के वे लोग उसके बेटे की देखभाल करेंगे और बहु के लिए कोई छोटा सा बिज़नस खोलेंगे. सुनीता बचपन से ही स्वयं कुछ करना चाहती थी और घर की चाहरदिवारी में रहना उसे मंज़ूर नहीं था इसलिए उसे अपने सास ससुर की बात सही लगी. लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, सुनीता के पति का हिंसक चरित्र सामने आता गया. उसके सास ससुर अपने बेटे को कुछ नहीं कहते और बार-बार उसकी बीमारी का बहाना देते. बात सुनीता के सर के उपर से जा रही थी. एक बार वह घर छोड़ कर अपने माँ-बाप के पास वापस आ गयी लेकिन जैसे होता है, घर वालो की रजामंदी से फिर जाने लगी. इस बीच उसके ससुर ने बहुत सी बातें कही कि कुछ प्रॉपर्टी आदि उसके नाम पर कर देंगे यदि वह उनके बेटे की देखभाल करती रही.
अब सुनीता को बात समझ आ चुकी थी के उसके सास ससुर उसे केवल उनके बेटे की सेवा करवाने के लिए चाहते है और उसके बच्चे को खुद बड़ा करना चाहते है. घर पर कलह हो रही थी. रोज मारपीट बढ़ रही थी और सुनीता अब गंभीरता से घर छोड़ने के लिए सोच रही थी लेकिन उसके पास समस्या थी कि वह कहाँ रहेगी और क्या करेग? उसे ससुर ने उसके लिए एक छोटी दूकान की बात कही और कहा कि वह पांच हज़ार रुपये महीना भी उसे देंगे. अब सुनीता समझ चुकी थी कि उसके सास-ससुर कुछ नहीं करना चाहते है और क्योंकि उन्होंने अपने बेटे की पहली शादी और उसके उस पत्नी को छोड़ने और उसके बाद उसकी गंभीर मानसिक बीमारी को छुपाया और अपनी प्रॉपर्टी के नाम से ही उन्हें लुभाते रहे, तो वह अभी भी तरह तरह के प्रलोभन देते जा रहे थे. इस बीच उसके पति उसका बलात्कार करने और मर्डर करने की यह कह कर धमकी देता कि उसका तो इलाज़ चल रहा है इसलिए उसे कुछ होने वाला नहीं है. सुनीता बहुत परेशान हो चुकी थी और अब उसने निर्णय कर लिया के वह उस घर में तो नहीं जायेगी.
सुनीता ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई. उसे पता था के बंगाल में चीजें इतनी आसानी से मूव नहीं होती क्योंकि पूरे तंत्र का राजनीतिकरण है. बाते आगे नहीं बढ़ी. फिर उसने कोर्ट में केस किया लेकिन इससे पहले वह केस करती, उसके ससुर ने भी उस पर मुकदमा कर दिया और उस पर चरित्र का आरोप लगाया और उसके बच्चे को अपना मानने से इनकार कर दिया. सुनीता को लगा कि कोर्ट केस कर वह इस मुकाबले को आसानी से जीत लेगी और अपने बच्चे के साथ एक सम्मान जनक जिंदगी जी लेगी लेकिन महीनो इधर-उधर चक्कर लगाते और कोर्ट में वकीलों के सामने अपनी राम कहानी सुनाते-सुनाते वह परेशान हो चुकी थी. बार-बार यही सवाल उसके मन में था कि उसे न्याय कब मिलेगा? उसे अखबारों की उन कहानियो की तरह भरोसा हो रहा था जिसमे लोगो को न्याय की ख़ुशी में भारत की न्यायपालिका ‘विश्व’ में ‘सर्वोत्तम’ है, कहते हुए टीवी चैनलों पर सुना जा सकता है. अख़बार और मीडिया का तिलस्म हमारे जीवन पर इतना है के हमें पता ही नहीं होता के किसी केस के नतीजे में पहुँचने तक लोगो की कई पीढ़िया ख़त्म हो जाती है. सुनीता को अब कोर्ट से उम्मीद नहीं रही. उसने कलकत्ता छोड़ने का निर्णय किया और उत्तर प्रदेश में अपने गाँव वापस आ गयी.
समय का चक्र चला और सुनीता का अपने पूर्व प्रेमी अनिल से संपर्क हुआ. पता चला कि उसके दो बच्चे हैं और उसका अपनी पत्नी से तलाक हो गया. दोनों के बीच में प्यार की गर्माहट अभी भी थी इसलिए एक दो मुलाकातों में ही दोनों ने एक दूसरे का भरोसा जीत लिया. दरअसल प्यार से ज्यादा ये दोनों की व्यक्तिगत आवश्यकताएँ थीं जो एक दूसरे में पूरी होती दीख रही थी. दोनों के अपने बच्चे थे और उन्हें मम्मी और पापा की तलाश थी, अतः दोनों ने शादी का निर्णय ले लिया.
सुनीता ने अपनी दीदी अनीता से बात की क्योंकि उसे पता था के उसके माता पिता इस शादी के लिए अभी भी तैयार नहीं होंगे. अपने पति के साथ मुकदमो में और वकीलों के हाथो हरासमेंट अब वो सहन नहीं कर पा रही थी. इसलिए उसने अनीता को इसके लिए तैयार कर लिया क्योंकि उसे पता था के अनीता अगर राजी हो गयी तो परिवार में कोई उसकी बात को काट नहीं सकता. इस विषय पर पारिवारिक चर्चा में अनीता को छोड़ पूरा परिवार शादी के खिलाफ था लेकिन परिस्थितयो के अनुसार सबको लगा कि इस कार्य को चुपचाप कर लिया जाए. माँ बाप और रिश्तेदार अब इसलिए तैयार हो गए क्योंकि उनको बेटी की जरुरत थी. एक नवयुवती को, जिसके एक बच्चा भी हो, उसकी दोबारा शादी होना नामुनकिन है इसलिए सुनीता के परिवार ने इस रिश्ते को चुपचाप मंज़ूर कर लिया. सवाल ये था कि शादी कैसे हो, क्योंकि गाँव में शादी करने का मतलब सब को बुलाना और फिर जाति के पूरे सवाल पर अपनी फजीहत करवाना होता इसलिए अनीता ने निर्णय लिया कि विवाह केवल परिवार के मुख्य लोगों की उपस्थिति में मंदिर में होगा. निर्धारित तिथि में लडके के परिवार के सदस्य और सुनीता के परिवार के लोग एक मंदिर में इकठ्ठा हुए. पूर्वांचल में विवाह में एक रस्म लड़की के पिता को करनी पड़ती है जिसमे वह फेरे से पहले वर के पाँव छूते है. सुनीता के पिता विवाह के लिए तैयार हो गए लेकिन एक ‘धोबी’ जाति के लड़के के पाँव छूना उन्हें मंज़ूर नहीं था. उन्हें लग रहा था कि उनके जीवन में जो भी अच्छे काम उन्होंने किये वो सब आज ख़त्म हो गए है और इसलिए अपने दामाद के पैर छूना उन्हें अपराध लग रहा था. उनकी पोतियाँ उनके पास थी. फेरे होने के बाद, जैसे ही अपने दामाद के पाँव छूने की रस्म आई उनकी आँखों में आंसू थे. वह रोक नहीं पाए और अपने पोती के, यानि के अनीता की बड़ी बेटी के गले लगकर रोने लगे. फफक पड़े, ‘ ये बेटी की शादी की ख़ुशी के आंसू नहीं है, ये तो मेरे अपमान के आंसू है. मुझे मेरे कर्मो का फल मिल रहा है. जरुर पिछले जन्म में कोई कर्ज रहा होगा जो आज उतारना पड़ रहा है.”
भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी कमजोरी ये है के जाति अभी भी हमारी संवेदनाओं को प्रभावित करने का सबसे बड़ा हथियार है. सुनीता के पिता ने अपनी बेटी के लिए बिरादरी का ‘बड़ा’ ‘कमाऊ’ लड़का देखा जिसने उनकी बेटी का अपमान किया और संभतः उसकी जिंदगी भी ख़त्म कर दी. उस विवाह के समय उन्होंने अपनी बेटी से इस विषय में कुछ पूछा तक नहीं लेकिन जिस लड़के ने उनकी बेटी से ये जानते हुए भी विवाह कर लिया के उसका अभी औपचारिक तौर पर तलाक नहीं हुआ है, उसके एक बेटा भी है, उससे शादी करना उन्हें अपमान लग रहा था क्योंकि वह ‘छोटी’ बिरादरी का है.
सुनीता का विवाह फिर से हो गया. उसे अपने प्रेमी वापस मिल गया. उसकी सास उसे बहुत प्यार करती है लेकिन केवल यह चाहती है कि बहु पूरे परदे में रहे और ‘आदर्श’ हिन्दू बहु की तरह रहे. सुनीता के परिवार में सभी लोग खुश हैं. अब वह अपने बेटे के साथ अपने नए परिवार में ‘खुश’ है. परिवार ‘अच्छा’ है और बहुत ‘पैसे’ वाला है. सुनीता भी अपने पति के साथ काम में हाथ बंटाती है और दूकान में बैठती है. अब उसके चेहरे पर रौनक है लेकिन सर के उपर पर्दा है, अब वह हमेशा अपने बाल बाँध कर रखती है क्योकी उसकी सास कहती है, बाल खुले रखने वाली औरते ‘अच्छी’ नहीं होती. आज सुनीता को अब सर पर पल्लू रखकर और पारंपरिक रस्मों के निभाने में आज़ादी नज़र आ रही है. अब वह अपने जीवन से संतुष्ट है और अपने पूर्व पति से कोई सवाल नहीं पूछना चाहती. वह कोई कोर्ट केस नहीं लड़ना चाहती. सुनीता नाम है व्यवस्था से असंतुष्टि का और परम्पराओं में घुसकर असंतोष को छिपा देने का. सुनीता की कहानी देश के सामाजिक जीवन और न्याय व्यवस्था की असफलता की कहानी है जो महिलाओं को कोर्ट कचहरी जाने से रोकता है, क्योंकि वहा उसे और भी उत्पीडित होना पड़ता है, ये कहानी यह भी है कि कैसे महिलाए परिस्थितियों के दवाब में अपने फैसले लेती है और कई बार विचार नहीं व्यवहार पर निर्णय लेती है, ताकि वे अपने भविष्य को संवार सके. कई बार परम्पराओं के बोझ को उठाने में उतना उत्पीडन नज़र नहीं आता जितना न्याय-व्यवस्था में मौजूद लोगो के दमघोटू सवालों से. नतीजे सामने है, महिलायें स्थायित्व चाहती हैं, इसलिए मौका मिलने पर कोर्ट से बड़े क्लेम भी छोड़ने को तैयार हो जाती है. सुनीता खुश है क्योंकि उसे एक घर और साथी मिल गया. हालाँकि ये मिलन ये भी साबित करता है कि हर एक अंतरजातीय दिखने वाला विवाह क्रांतिकारी नहीं होता, यह दो लोगो की आवश्यकताओं का मिलन है. सुनीता और अनिल के रिश्तेदारों को उनके अंतरजातीय होने की भनक भी नहीं है. दोनों अपने अपने घरो पर है, ये बात और है कि यदि कभी राज खुल गया तो क्या सुनीता के मायके के रिश्तेदार उसके साथ बैठने को तैयार होंगे या मान लेंगे कि उनकी बेटी खुश है, जाति से क्या लेना देना? शायद नहीं. इसलिए कई बार इन घटनाओं को छिपाना पड़ता है ताकि सुनीता जैसी जिन्दगिया समाज की ‘इज्जत’ के खातिर क़ुरबान न हो. बहुत से लोग विद्रोह कर देते है लेकिन अधिकांश परिस्थितियों के साथ समझौता कर लेते हैं क्योंकि वैचारिक लड़ाई का रास्ता बहुत लम्बा और कठिन होता है लेकिन व्यक्ति की आज़ादी भी आज़ाद खयालो में होती है. आखिर हम वही होते है जो चाहते हैं. सुनीता जैसी हजारो लडकियों के सपने एक ‘अच्छे’ पति पर आकर ख़त्म जो जाते है और फिर वे घूंघट और दमघोटू परम्पराओं में अपनी आज़ादी महसूस करने लगती है और फिर तभी बाहर निकलती है जब परिस्थतिया मजबूर करती है.
विद्याभूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में दलित, लैंड एंड डिग्निटी, प्रेस एंड प्रेजुडिस, अम्बेडकर अयोध्या और दलित आंदोलन, इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया और तर्क के यौद्धा शामिल हैं।